लेकिन हम जैसे एक कामकाजी व्यक्ति के साथ बिल्कुल उल्टा होता है । यानि नाश्ता भागते भागते जो मिला, खाया और निकल पड़े । फिर लंच में वही दो रोटी , थोड़ी सी सब्जी और दाल या दही, बस हो गया लंच । सिर्फ रात का खाना ही होता है जो सब मिलकर शांति के साथ बैठकर इत्मिनान से खाते हैं , इसलिए अक्सर ज्यादा ही हो जाता है ।
खाने में हमें कितनी ऊर्ज़ा चाहिए , यह हमारे काम पर निर्भर करता है । एक मजदूर को ऑफिस में काम करने वाले बाबू से ज्यादा केल्रिज चाहिए । इसी तरह एक युवा को बुजुर्गों की अपेक्षा ज्यादा ऊर्ज़ा चाहिए । खाने में ऊर्ज़ा भले ही काम के हिसाब से चाहिए , लेकिन एक बात निश्चित है कि खाना न सिर्फ संतुलित हो बल्कि उसमे वो सब तत्त्व भी हों जो शरीर के लिए आवश्यक हैं । तभी शरीर निरोग रह सकता है ।
अक्सर अपना नाश्ता तो बस दो सूखे टोस्ट और एक ग्लास दूध होता है क्योंकि खाने में सबसे आसान और कम समय इसी में लगता है । जल्दी हो तो ब्रेड पीसिज को बिना सेके ही खा लेते हैं जिससे खाने में और भी कम समय लगता है । लेकिन यह ध्यान रखते हैं कि ब्रेड कौन सी लायी जाए ।
आइये देखते हैं ब्रेड कितने प्रकार की होती हैं :
१) वाईट ब्रेड
२) ब्राउन / आटा / स्टोन ग्राउंड ब्रेड
३) मल्टीग्रेन ब्रेड
पहली दो प्रकार की ब्रेड में मुख्यतय: कार्बोहाइड्रेट , प्रोटीन , फैट , कैल्सियम , आयरन , सोडियम और पोटासियम लगभग बराबर मात्रा में होती हैं ।
इसे बनाने के लिए गेहूं का आटा , सुगर , यीस्ट , नमक , खाद्य तेल और सोया आटा इस्तेमाल किया जाता है तथा साथ में प्रिजर्वेटिव्स , इमलसीफाइर्स और एसिडिटी रेगुलेटर मिलाये जाते हैं ।
वाईट और ब्राउन ब्रेड में मुख्य अंतर फाइबर का होता है जो ब्राउन ब्रेड में ३% होता है जबकि वाईट ब्रेड में न के बराबर । इनके मूल्य में भी बस एक रूपये का ही अंतर है ।
मल्टीग्रेन ब्रेड में प्रोटीन , फैट , कैल्सियम और पोटासियम इन दोनों की अपेक्षा ज्यादा होते हैं । लेकिन सबसे ज्यादा अंतर होता है , फाइबर कंटेंट में जो इसमें ९.५ % होता है । इस ब्रेड को बनाने के लिए साबुत गेहूं , चना , ज़वार, सोया , दालें , ओट , सनफ्लावर सीड्स और सीसेम सीड्स तथा नेचुरल फाइबर का इस्तेमाल किया जाता है ।
पहली दो तरह की ब्रेड में केल्रिज की मात्रा लगभग एक जैसी होती हैं ( २२७ / २३७ केल्रिज / १०० ग्राम ) ।
जबकि मल्टीग्रेन ब्रेड में २८२ केल्रिज / १०० ग्राम होती है । देखा जाए तो मल्टीग्रेन ब्रेड सबसे उपयुक्त ब्रेड है स्वास्थ्य के लिए । लेकिन इसका मूल्य ( ३५ रूपये ) ज्यादा होने से सबके लिए संभव नहीं कि रोज यही ब्रेड खाई जाए । फिर भी जहाँ तक हो सके वाईट ब्रेड से बचना चाहिए और ब्राउन ब्रेड का इस्तेमाल करना चाहिए ।
फाइबर :
आम तौर पर फाइबर अनाज़ के दानों की बाहरी परत में होता है । बारीक पिसा आटा जिसे छान लिया जाता है , उसमे से सारा फाइबर निकल जाता है । मैदा में यह न के बराबर होता है । इसलिए खाने में मोटा पिसा आटा ही इस्तेमाल करना चाहिए ।
फाइबर हमारी आँतों में एब्जोर्ब नहीं होता । इसलिए कब्ज़ होने से बचाता है । कब्ज़ होने से तरह तरह के रोग हो सकते हैं जिनमे कैंसर सबसे खतरनाक रोग है । इसलिए भोजन में फाइबर का होना अत्यंत आवश्यक है ।
गेहूं और चावल : हमारे देश में यही दो अनाज़ सबसे ज्यादा खाए जाते हैं । इन दोनों में केल्रिज की मात्रा लगभग एक जैसी होती है ( ३६० / ३६५ केल्रिज / १०० ग्राम ) ।
लेकिन गेहूं में प्रोटीन , फैट और फाइबर चावल की अपेक्षा ज्यादा होते हैं । जबकि चावल में कार्बोहाइड्रेट ( ८० % ) ज्यादा होता है ।
लेकिन सबसे ज्यादा प्रोटीन दालों में होता है ( २०-२४ % )। सोया में यह सबसे ज्यादा - ४३% होता है ।
इसेंसियल एमिनो एसिड्स :
प्रोटीन की मूल इकाई है एमिनो एसिड्स । हमारे भोजन में ११ एमिनो एसिड्स को इसेंसियल ( अनिवार्य ) माना जाता है ।
चावल और गेहूं में लाइसिन नहीं होता, लेकिन मिथिओनिन होता है ।
जबकि दालों में मिथिओनिन नहीं होता परन्तु लाइसिन होता है ।
इसलिए जब हम दाल चावल या दाल रोटी खाते हैं , तब इसेंसियल एमिनो एसिड्स की मात्रा पूरी हो जाती है ।
इसीलिए उत्तर भारत में दाल रोटी और दक्षिण भारत में दाल चावल मिलाकर खाया जाता है । इसी से शाकाहारी लोग भी कुपोषण से बचे रहते हैं ।
यह अलग बात है कि देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को यह भी नसीब नहीं होता । इसलिए कुपोषण और भुखमरी से ग्रस्त रहते हैं ।
अब एक सवाल : रोटी को इंग्लिश में ब्रेड कहते हैं , फिर ब्रेड को हिंदी में डबल रोटी क्यों कहते हैं ?
नोट : अगली पोस्ट में ब्रेड से --आम के आम और गुठलियों के दाम ।
Nutritional diet par badhia jankari ...!!
ReplyDeleteabhar ..!!
अब एक सवाल : रोटी को इंग्लिश में ब्रेड कहते हैं , फिर ब्रेड को हिंदी में डबल रोटी क्यों कहते हैं ?
ReplyDeleteये तो दूसरा सवाल हुआ सर....
पहला तो आपने शुरू में ही कर लिया था ..
आप खाने के लिए जीते हैं , या जीने के लिए खाते हैं.....
:-)
सादर
पता नही जी....बचपन में तो खाने के लिये जीते थे..,,,अब इस महँगाई में जीने के लिये खाते हैं...;))
Deleteहा हा हा ! अनु जी , पहले सवाल का ज़वाब आप खुद को दीजिये , दूसरे का ज़वाब हमें । :)
Deleteपहले सवाल का जबाब कुछ ऐसा बनाया जाये तो कैसा रहेगा :)
Deleteजीते* तो हम खाने के लिए हैं पर खाना हम जीने के लिए खाते हैं
इसका अर्थ कुछ यूं होगा कि सबसे पहले जीवन के संघर्ष में खाना जीतना और फिर जीने के लिए खाना :)
( जीते* = जीतते / विजयी हुए )
अली जी , यह ज़वाब ९०% लोगों के लिए तो सही है . लेकिन १०% तो इससे बाहर आते हैं .
Deleteअब आप बताइए , आप किस केटेगरी में आते हैं :)
जब तक गर्भ में होता है बच्चा शायद मस्त रह सकता है - खाना-पीना मुफ्त...:) पैदा होने के बाद जब फ़ूड पाइप कट जाती है तो नहा धो कर हाथ पैर मारने लगता है, और दूध पी पेट भर गया तो फिर कुछ ही देर मस्त रह सकता है - भूख लगी तो रोना धोना शुरू...:) और फिर अज्ञानी बड़े-बूढ़े जो आदत डाले उसे अपना लेता है... फिर दोस्तों जे साथ और बिगड़ता है, माँ से गहर आ कहता है सुधा तो रोज काजू की बरगी लाती है और आप कभी भी मुझे नहीं देतीं...:(... किसी टापू में पहुंच गया किसी प्रकार, जैसे हवाई जहाज खराब होने पर, तो खाने को कुछ न मिले तो अपने 'दोस्त' को भी खा जाए, ऐसी मजबूरी भी हो सकती है जीने के लिए...:( इस संसार में ऐसी कोई भी चीज नहीं होगी जो खाई न जाती हो, आदमी अथवा किसी पशु द्वारा... यह जीवन बड़ा विचित्र है, कोई न समझ पाया कि यह पापी पेट क्यूँ बनाया ऊपर वाले ने...:)
Deleteडाक्टर साहब ,
Deleteईमानदारी से कहूं तो मुझे लगता है कि 'अब' मैं अपनी जुबान के लिए खाया करता हूं ! जुबान की पसंद का खाना ना मिले तो उपवास भी रख लूं पर ...सबसे पहले स्वाद की तलाश ! इसे आप जिस भी केटेगरी में डाल दीजिए !
कई बार नाश्ता इतना कि खाने की ज़रूरत ही ना पड़े :)
Deleteखाना अपनी पसंद का , लेकिन मात्रा जितनी ज़रुरत हो .
Deleteजो भी खाओ , चार बार खाओ , तो बेहतर है .
बढिया जानकारी । आभार।
ReplyDeleteबढिया जानकारी डा० साहब ! अब आप ने कहा "लेकिन हम जैसे एक कामकाजी व्यक्ति के साथ बिल्कुल उल्टा होता है । यानि नाश्ता भागते भागते जो मिला, खाया और निकल पड़े । फिर लंच में वही दो रोटी , थोड़ी सी सब्जी और दाल या दही, बस हो गया लंच । सिर्फ रात का खाना ही होता है जो सब मिलकर शांति के साथ बैठकर इत्मिनान से खाते हैं . इसलिए अक्सर ज्यादा ही हो जाता है ।" !........... कमोवेश यही स्थिति हर नौकरी पेशा इंसान के saath है , खासकर दिल्ली जैसे महानगरों में ! और जब हम जैसे मरीज आप डाक्टर लोगो के पास जाते है तो पता है आप क्या सलाह देते है " रात को हल्का फुल्का खाओ " ......! अब डाक्टर साहब को कौन समझाए कि डाक्टर साहब , रात के सिवाए आराम से बैठकर खाने को मिलता ही किसको है और आप उसे भी कम करने की सलाह दे रहे है ! :)
ReplyDeleteगोदियाल जी , अपनी हाईट ( सेंटीमीटर में ) से १०० घटाइए । यदि आपका वज़न इस घटक से ज्यादा है तो आपको डॉक्टर की बात माननी ही पड़ेगी । :)
Deleteडबल रोटी मतलब मोटी रोटी .. :) उपयोगी जानकारी ..
ReplyDeleteअभी हाल में एक लेख पढ़ा मोटापे का मुख्य कारण है कार्बो .....
और यह इन्सुलिंन मेटाबोलिज्म को गडबडाता है ....जल्दी पचता जाता है !
खाने की कार्विंग पैदा करता रहता है जबकि फैट डाईट संतुष्ट रखती है अधिक देर तक !
बेहद सार्थक श्रृंखला शुरू की है.आभार
ReplyDeleteकुछ प्रकाश इस पर भी डाला जाये कि आमतौर पर स्वस्थ और संतुलित भोजन करने पर भी वजन क्यों बढ़ता है और फिर उसे कम कैसे किया जाये.
अरविन्द जी और शिखा जी --आप दोनों के सवाल का ज़वाब है --
Deleteमोटापा कई कारणों से होता है :
१) अनुवांशिक
२) ज़रुरत से ज्यादा केल्रिज इंटेक ।
३) निष्क्रियता
४) खाना ज्यादा , काम कम
यानि मोटापा मूल रूप से इंटेक और आउटपुट के इम्बेलेंस से होता है ।
वज़न कम करने के दो ही तरीके हैं --
१) खाना कम
२) गतिविधि ज्यादा यानि पैदल चलना , एक्सरसाइज़ , ज़िम आदि ।
Double roti ek to roti ke mukabale mahangi upar se ped mein jaane ke baad bhari ho jaati hai shayad abhi use double roti kahte hai....
ReplyDeletebahut badiya rochak jaankari ke sath sarthak prastuti..
JCMar 28, 2012 05:26 AM
ReplyDeleteबढ़िया जानकारी! हाँ साहिब, यहाँ सभी की कुछ न कुछ मजबूरी है, और मान्यता भी है कि दोष अधिकतर जिव्हा का होता है - बोलने में भी और खाने में भी! ...
पूर्वजों ने भी ज्ञान के आधार पर ही दाल-रोटी की परम्परा स्थापित की होगी, लेकिन साथ-साथ प्रभु पर भी ध्यान लगाने के लिए कहा, "दाल-रोटी खाओ / प्रभु के गुण गाओ"!...
किसी मित्र से एक जापानी मान्यता के विषय में सुना था, "चालीस (४०) वर्ष से पचास (५०) तक जितना चाहे खाओ/ चालीस से पचास केवल उतना खाओ जितना शरीर को चाहिए/ पचास के बाद जितना कम खा सकते हो, उतना कम खाओ"!
फ्रेंच में रोटी का अर्थ होता है रोस्टेड, और ब्रैड को बागेट... भारत में ब्रैड को शायद मोटी होने के कारण उसे डबल रोटी कहा गया हो सकता है...:)
JCMar 28, 2012 06:03 AM
Deleteपुनश्च - कृपया पढ़ें< "चालीस तक जितना खा सकते हो खाओ / आदि आदि "...
दोष जिव्हा का है --जे सी बिल्कुल सही कहा है । ये जुबान बड़ी चटोरी होती है । और मन चलायमान । जब दोनों में सांठ गांठ हो जाए तो समझो मोटापा आया ही ।
DeleteJCMar 28, 2012 05:35 PM
Deleteगणेश को लम्बोदर और श्री लक्ष्मी अर्थात साकार जगत से सम्बंधित दर्शा, संहारकर्ता माँ काली की जिव्हा को हमारे पूर्वज खून / उगते सूर्य समान लाल रंग दर्शा कर रंगों के महत्त्व की ओर संकेत कर गए, और यूँ संसार ओर उस पर आधारित जीवों की उत्पत्ति को ध्यान में रख लाल को पूर्व दिशा से भी सम्बंधित दर्शाया गया है... रंगों में गुरु के साथ सम्बंधित दर्शा, पीले रंग को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, और उत्तर दिशा से, और मानव शरीर में मोटापे का कारण चर्बी ('फैट') से सम्बंधित...:)
उगने के पश्चात, नीले आकाश की पृष्ठभूमि में, सूर्य सफ़ेद (इन्द्रधनुष दर्शाता है की सफ़ेद में सभी सात रंग समाये हैं) दिखने लगता है, और १२ बजे शिखर पर पहुँच घटते हुवे, पश्चिम की ओर अग्रसर हो, नित्यप्रति औसतन १२ घंटे बाद डूब जाता है - पहले सुनहरी रंग और फिर लाल रंग के साथ अन्धकार की गोद में समा जाता है, जैसा हमारा काला (कृष्ण/ काली) अंतरिक्ष वास्तव में दिखता है... और आरम्भ में, उत्पत्ति से पहले, वो रहा होगा...
और हरी को, हरी भरी पृथ्वी को, कोई कैसे भूल सकता है? भोजन में भी लाल गाजर और हरी शाक-सब्जी (जिसमें लोहा होता है ओर जो 'सूर्य-पुत्र' शनि से ओर नीले रंग से सम्बंधित माना जाता आ रहा है) का भी महत्त्व कम नहीं है, ऐसा डॉक्टर / डायटीशियन भी याद दिलाते रहते हैं... आदि आदि...
डाक्टर साहब! कुछ लोग बहुत खाते हैं लेकिन बिलकुल नहीं मुटाते। हम हमारे हिसाब से कुछ अधिक नहीं खाते लेकिन फिर भी मुटाते जाते हैं। क्या कोई ऐसा तरीका विज्ञान ने न निकाला कि कितना भी खाया जाए। शरीर उतना ही ग्रहण करे जितने की उसे जरूरत है। ऐसा कोई तरीका हो तो जरूर बताएँ। तब वजन भी न बढ़ेगा और खाने का आनंद भी भऱपूर लिया जा सकता है।
ReplyDeleteद्विवेदी जी , बचपन में हमें भी ऐसा ही लगता था ।
Deleteलेकिन प्रकृति के साथ छेड़ छाड़ ठीक नहीं ।
वज़न कम करना है तो गतिविधि बढाइये ।
क्या आप रोजाना ४-५ किलोमीटर तेज तेज पैदल चलते हैं ?
जी हाँ, पहले मैं दो किलोमीटर तेज चाल और करीब इतना ही जॉगिंग कर लेता था। अचानक बीमार हुआ और यह सब छूट गया, वजन बढ़ने लगा। मैं नियमित व्यायाम करने लगा। इस बीच यह आदत बना ली कि जब भी चलना पड़े तेज चलो। दिन में कम से कम दो किलोमीटर के लगभग काम के दौरान पैदल चलना हो जाता है। इस बीच पैर की लिगामेंट में चोट आ गई। सब बंद हो गया। वजन बढ़ने लगा है और केवल पेट ही बढ़ता है जो शरीर को भोंडा भी बनाता है। जब तक तेज चाल चलने लायक नहीं होता क्या करना चाहिए। यदि बता सकें कि भोजन कब और कितना करना चाहिए तो शायद काम् आ सके। वजन तो किसी कीमत पर कम करना ही होगा। भोजन सुबह दस बजे करता हूँ फिर रात को आठ से नौ के बीच। बिलकुल शाकाहारी हूँ। रोटी बिना घी के खाता हूँ। ब्रेड अच्छी नहीं लगती। जो भी खाता हूँ वह घर का पका खाता हूँ।
Deleteद्विवेदी जी , आप बस दो बार भोजन करते हैं , यह गलत है । कम से कम चार बार खाइए , लेकिन थोड़ा थोड़ा । यानि जितना आप दो बार में खाते हैं , यदि इसी को चार बार में खाएं तो वज़न कम होना शुरू हो जायेगा । डेस्क जॉब में केल्रिज २००० से ज्यादा नहीं होनी चाहिए और वज़न कम करना है तो १५००-१६०० ही काफी हैं । आप किसी dietician से अपनी डाईट सेड्युल बनवा लें ।
Deleteपेट के लिए लेट कर एक्सरसाइज़ करिए । जितना संभव हो , उतना पैदल चलिए । लिफ्ट को छोड़ , सीढियों का इस्तेमाल कीजिये ।
डाक्टर साहब!
Deleteकोटा में एक मंजिले घर ज्यादह हैं, अब मल्टी बनने लगी हैं। लेकिन वे हमें पसन्द नहीं। हमें अपना घर पसंद है। सीढ़ियाँ केवल काम के दौरान चढ़नी उतरनी पड़ती हैं। अदालत में कम से कम डेढ़ दो सौ सीढि़याँ रोज चढ़ उतर जाते हैं। लिगामेंट की चोट के पहले मेरी चाल ऐसी होती थी कि जूनियर और मुवक्किल बहुत पीछे छूट जाते थे। वजन भी इस जीवन में अनेक बार घटाया है पर वजन हार नहीं मानता। उसे जरा छूट मिलते ही फिर से बढ़ने लगता है।
हाँ आप का चार बार खाने का प्रस्ताव ठीक है। लेकिन पत्नी जी को परेशानी हो जानी है। कुछ झंझट हुआ तो झट से आप का नाम बता देने वाला हूँ। फरीदाबाद तक तो वे बेटी के पास आ ही जाती हैं। दिल्ली तक भी आ सकती हैं।
द्विवेदी जी , हम मिसेज द्विवेदी जी को बता देंगे कि हम पूरे दिन में बस चार चपातियाँ खाते हैं । वो भी श्रीमती जी का बस चले तो साइज़ पूरी जितना और मोटाई रुमाली रोटी जितनी । :)
Deleteडाक्टर साहब!
Deleteऐसा हुआ तो द्विवेदी जी का स्थूलकायत्व भूतकाल की वस्तु हो जाना है।
डॉक्टर साहिब, आप पचास के ऊपर पांच, अर्थात पचपन के हो गए हैं आज और चार चपातियां खाने लगे हैं... कृपया यह भी बताइये आपकी बचपन में खुराक क्या थी???
Deleteमैंने कई डॉक्टरों को भी किसी न किसी नग वाली अंगूठियाँ पहने देखा है, आम आदमी तो अधिकतर पहनते ही हैं - टीवी पर चर्चा भी होता है किसी किसी चैनल पर... और पहले कभी सुना भी था कि एम्स में इस पर शोध कार्य भी हो रहा है, किन्तु अभी तक मेरे जानने में इस विषय पर कुछ नहीं आया है... क्यूंकि यह परम्परा सदियों से चली आ रही है, उस का अर्थ है कि हमारे पूर्वज इस विषय पर भी गहन अध्ययन किये होंगे, किन्तु समय की रेत में यह ज्ञान लुप्त हो गया प्रतीत होता है... किन्तु, इस के संकेत मिलते हैं की इस का सम्बन्ध समय (अर्थात वर्ष/ माह/ तिथि/ घडी में समय) से है जब व्यक्ति इस संसार में आया/ अवतरित हुवा, (योगेश्वर विष्णु / हठयोगी कृष्ण का एक कलियुगी अज्ञानी प्रतिरूप?! ...:)
सही सवाल किया है जे सी जी । कॉलेज में जब पहले बार लंच लेकर गया तो मां ने ६ परांठे रखे थे जिसे देखकर हमारे दोस्त बहुत हँसे थे । फिर मुश्किल से ४ पर आए । फिर भी सोचते थे कि वज़न क्यों नहीं बढ़ रहा । अब सोचते हैं कि घट क्यों नहीं रहा ।
DeleteJCMar 29, 2012 06:50 AM
Deleteशायद इसका अर्थ हुवा कि भोजन के अतिरिक्त कुछ और ही है, अथवा उससे सम्बंधित नहीं हैं मोटा-पतला होना? मैंडल के अनुसार परिवार में तीन पीढ़ी तक गुण, बेटन समान, बच्चों में उनसे प्राप्त दिखाई पड़ सकते हैं...??? प्राचीन हिन्दुओं, 'पहुंची हुई आत्माओं' ने आत्मा के स्थानान्तरण की चर्चा की - ऊपर उठते अथवा नीचे गिरते... आदि आदि...
हम तो दोनों के ही लिए जीते हैं।
ReplyDeleteबहुत उपयोगी लेख, रोज काम आने वाला...
ReplyDeleteआभार भाई जी !
Nice .
ReplyDeletehttp://www.vedquran.blogspot.in/2012/03/3-mystery-of-gayatri-mantra-3.html
डाक्टर साहब युरोप मे ब्रेड तीन प्रकार की नही बल्कि २० प्रकार की शायद इस से भी ज्यादा प्रकार की होती हे, ओर सब का स्वाद, ओर असर भी अलग अलग प्रकार का होता हे,कभी आप आये तो आप को दिखाये फ़िर खिलाये, लेकिन भारत से आने वालो को यह बिलकुल स्वाद नही लगती, ओर डबल रोटी जिसे हम भारत मे कहते हे वो भी कई तरह की मिलती हे.
ReplyDeleteबाकी आप ने रात के खाने के बारे मे कहा हे, तो यहां काम्काजी लोग सुबह का नास्ता डट कर करते हे, दोपहर का खाना थोडा बहुत या बिलकुल नही, ओर डिनर यानि रात का खाना शाम चार बजे से शाम छे बजे तक कर लेते हे, फ़िर जब रात को १० ग्याहरा बजे सोते हे तो उस समय तक खाना पच जाता हे, अब हम ने भी इन्ही की तरह समय बांध लिया हे, शाम को पुरे छै बजे रात का खाना.
भाटिया जी , वापसी पर स्वागत है ।
Deleteशायद विकसित देश और विकासशील देश में यही अंतर है ।
ब्रेड तो यहाँ भी अनेकों प्रकार की मिलती हैं । लेकिन यहाँ ब्रेड में मौजूद तत्त्वों के लिहाज़ से तीन प्रकार बताये गए हैं ।
यानि एक जिसमे फाइबर न के बराबर है , दूसरी में ३ % और तीसरी में ९.५ % । बस यही फर्क काम का है ।
सुन्दर जानकारी भरा आलेख
ReplyDeleteएक सवाल मेरा भी :
but बट तो put पट क्यों नहीं?
क्यूंकि बट वृक्ष सीता-लक्ष्मण-राम से ले कर बुद्ध तक को छाया देता आया है... और यदि पट (घूंघट का) होता तो दंगल में 'चारों खाने चित' न हो जाते सभी?!...:)
Deleteजे.सी.जी ,
Deleteगज़ब :)
सही लिखा आपने..अपन भी उल्टा-पुल्टा खाते हैं..सुबह जल्दी-जल्दी जैसे-तैसे, रात इतमिनान से.. भर पेट। सुबह, दाल-भात-सब्जी। रात, सब्जी-रोटी। यह ब्रेड-डबल रोटी तो अपने बस का नहीं। हाँ.. दही-जिलेबी-लस्सी-कचौड़ी, लाई-चना, चाट-मिठाई, फल-सलाद.. फुटकर में। न जोड़ा न घटाया..टहलना बढ़ाया जब लोगों ने बताया..वजन बढ़ रहा है पाण्डेय जी। मगर एक बात बताइये.. आप पोस्ट सर्वसाधारण के लिए काहे लिखे हैं..? एक दम ब्लॉगर केंद्रित भोजन सामग्री पर विचार कीजिए तो मजा आये।:) चार घंटे ब्लॉगिंग करने वाला कित्ता खाये..? आठ घंटे ब्लॉगिंग करने वाला कित्ता खाये...? पेट के बल सूत कर...कई घंटे कमेंट चेपते रहने वाला कित्ता खाये? ब्लॉगिंग के बीच में कित्ती बार उठ-उठ कर दाना पानी करे आदि आदि।:}
ReplyDeleteहा हा हा ! पाण्डे जी , ब्लोगर तो सबसे ज्यादा निष्क्रिय प्राणी होता है ।
ReplyDeleteइसलिए दो घंटे से ज्यादा नहीं । बाकि के समय काम में पत्नी का हाथ बंटाइये। :)
बस दो घंटे! :-(
Deleteब्रेड या डबल रोटी को पाव रोटी भी कहा जाता है, 'पाव' पुर्तगाली 'पाउ' से बना बताया जाता है, जिसका अर्थ रोटी है और नानबाई, रोटी वाले दुकानदार को कहते हैं.
ReplyDeleteसार्थक जानकारी! ऐसी पोस्ट्स की खासी ज़रूरत है हिन्दी ब्लॉगिंग में।
ReplyDeleteबहुत ही उपयोगी जानकारी मिली है... सादर।
ReplyDelete...बहुत दिन से उहापोह में हैं कि नाश्ते में क्या लें,अब आपने विस्तार से जानकारी दी तो यही करता हूँ.ब्राउन ब्रेड मुझे भी पसंद है,पर मल्टी-ग्रेन ब्रेड अभी तक दिखी नहीं या ध्यान नहीं गया !
ReplyDeleteडॉ.साहब ,नमस्कार!
ReplyDeleteअब आप को क्या तंग करना ... टिप्पणियाँ ही काम की पढ़ने
को मिल गई |वैसे मैं खाता तो जीने के लिए ही हूँ,पर..:-)))
आभार!
बहुत उपुक्त और लजीज पोस्ट .... सादर
ReplyDeleteबढिया पोस्ट…………… आभार
ReplyDeletewe all know the benefits of balanced and scheduled diet... still most of the times "Who cares" attitude dominates..
ReplyDeleteThe 'scientific' reason behind the different behaviour patterns in the most evolved animal, called human being, (realised as 'model of the universe' by ancient wise 'Hindus', and 'image of God' by Christians), was attributed, in the good old past, to be on account of a design by the most intelligent being, called Nadbindu, whereby essences of nine selected members of 'our' solar system from Sun to the 'most beautiful Ring-planet' Saturn/ Shani, (called Sun's son, or 'Suryaputra' by 'Hindus', having been found the most evolved among the solar system members), Saturn called *Sudarshan-chakra-dhari Vishnu by 'Hindus', and Satan by the 'west'!): Permutations and combinations of essences used to reflect the grand variety apparent in 'Nature'...
Deleteकोई भी ब्रेड खाने योग्य नहीं होता। वह पचता नहीं,सिर्फ सड़ता है पेट में। महानगरों में हैमेरायड्स अथवा बवासीर से पीड़ित युवाओं की बढ़ती संख्या के लिए सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार ये ब्रेड ही हैं। उनके साथ चाहे जितना सलाद मिला लें,वह कमोबेश मात्रा में कब्जकारी होता ही है। लोगों ने शायद ध्यान नहीं दिया कि सबसे स्वास्थ्यकर फास्टफूड है सत्तू। न ग्रहण करने में देरी,न फाइबर के प्रतिशत का झंझट। देसी है सो अलग।
ReplyDeleteनहीं राधारमण जी , यह सत्य नहीं है . बेशक डाईट में फाइबर का होना ज़रूरी है . इसीलिए हाई फाइबर ब्रेड खाने में कोई हानि नहीं . आजकल ज्यादा समस्या जंक फूड्स से है . वेस्ट में अधिकांश लोग ब्रेड की विभिन्न किस्मों पर ही जिन्दा रहते हैं .
ReplyDeleteहर प्रोद्योगिकी अपने पार्श्व प्रभाव लाती है .इंटरनेट तो एक पंडोरा बोक्स है एक चीज़ में से दूसरी निकलती है .
ReplyDeleteकितने ही बच्चे बड़े सुबह का नाश्ता ही नहीं करते स्कूल दफ्तर में सीधे लंच लेते हैं बारह से डेढ़ के बीच .ऐसे में दिमाग की कोशायें बुदबुदाने लगती है -भोजन के लिए चिल्लाती रहतीं है इसका असर हमारे प्रदर्शन सीखने की क्षमता पर भी पड़ता है .आखिर रात का खाना आपने आठ से दस बजे के बीच ही खाया होगा फिर क्यों इतने लम्बे समय तक (रात के आठ से दिन के बारह बजे तक औसतन )दिमाग को केलोरियों से महरूम रखते हैं ?
इसलिए बहुत ज़रूरी है सुबह का नाश्ता .कमसे कम तीन टाइम का भोजन .
सही कहा . diabetics को भी दिन में ४-६ बार खाने की सलाह दी जाती है .
Deleteहमारे अंग्रेजों के ज़माने के पिताजी (बाबूजी) घर से कार्यालय के लिए ठीक साढ़े नौ बजे, खाना खा, घर से निकल जाते थे (पडोसी अपनी घडी में समय मिला लेते थे!)... दस से पांच ऑफिस होता था, और साढ़े पांच बजे तक घर आ जाते थे... चाय आदि पी फिर शाम को बाज़ार के लिए निकल पड़ते थे, क्यूंकि तब फिज आदि नहीं होते थे, सुराही का पानी पीते थे सभी, और खाना ताजा ताजा बनता था और खाया जाता था... ब्रेकफास्ट तो हम बच्चे दूध में रोटी, या बदलाव के लिए अधिकतर ब्रैड डाल खा लेते थे... और स्कूल के लिए अखबार में अधिकतर आलू के परांठे जेब में डाल लेजाते थे लंच में खाने के लिए, किन्तु जो अधिकतर पहले ही चुपके चुपके खा लिया जाता था...:) हरेक के छः छः बच्चे होते तह और माता को तो छोड़ ही दो पिटा को भी नहीं मालूम होता था वे कौन कौन से कक्षा में पढ़ रहे होते थे, स्कूल का मुंह तक उन्होंने शायद न देखा होता था...:)
ReplyDeleteजीवन उन दिनों कम से कम हम जैसे मध्य-वर्गीय लोगों के लिए सरल था... आज कार्यालय से घर मीलों दूर और साधन कितने भी बढ़ जाएँ, बड़े तो बड़े, बच्चे के लिए भी जीवन कठिन हो गया है... किसी के पास टाइम ही नहीं है, और खानपान का तो पूछो ही मत, भटकाने के लिए साधन बढ़ गए हैं... पहले झुनझुने से बच्चा खुश हो जाता था, अब ब्लैकबैरी से खेलना है और, और पाने की इच्छा के कारण परेशान रहता है...:)...
जे सी जी , वक्त बदल जाता है . रह जाती हैं बस यादें .
Deleteडॉक्टर तारीफ़ जी, यह कमाल तो समय के बदलाव और उसके साथ साथ सोच का भी है... जब हम बच्चे होते थे तो साठ साल वाला 'बूढा' कहलाता था, 'सठिया गया' कहावत थी... अब अपने चारों ओर, भीड़ में, कई ८८-९० साल वालों को देख 'सत्तरिया गए' हम जैसे भी आज अपने को बच्चा ही महसूस करते हैं (और पित्ज़ा का आनंद कभी कभी अपने धोते आदि के साथ ले लेते हैं...:)...
Deleteइस शानदार पोस्ट के लिए आभार ...आपके सवाल का जावाब तो नहीं है लेकिन आपकी बात बहुत सही है खाने में फाइबर का होना आजकल की दिन चर्या और खान पान के हिस्साब से बेहद ज़रूर होगया है और जैसा की आपने कहा की हम लोगों के साथ भी उल्टा ही होता है सुबह सबके जाने की भागा दाऊदी में नाश्ता कुछ भी ज़्यादातर एक ब्रेड टोस्ट और एक कप चाय ही होती है और रात का खाना ना चाहते हुए भी सभी के साथ खाने के चक्कर में ज्यादा हो ही जाता है इसका क्या करने कुछ सुझाव दें।
ReplyDeleteअच्छी सार्थक पोस्ट...जानकारी और सुझावों का आभार.
ReplyDeleteदराल जी भिखारियों का भोजन कैसा होता है ....?
ReplyDeleteजी जो खाने को मिल जाए , जैसे नाश्ता हम करते हैं --भागते भागते दो सूखे टोस्ट ! :)
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