एक कामकाजी व्यक्ति के लिए सुबह का समय बड़ा हेक्टिक रहता है । और यदि पति पत्नी दोनों को ऑफिस जाना हो , फिर तो निश्चित ही भागम भाग होती है ।
घर से निकलने से पहले एक तो यह सुनिश्चित करना पड़ता है, आपने अपनी सारी एक्स्सेसरिज रख ली या नहीं जैसे:
बटुआ ,कंघी , गाड़ी की चाबी, घडी , मोबाईल -और यदि आप महिला हैं तो एक्स्सेसरिज की लिस्ट और भी लम्बी हो जाती है ।
लेकिन हमारे लिए तो एक और अत्यंत आवश्यक वस्तु है जिसे हम भूलना अफोर्ड नहीं कर सकते ।
और वह है --हमारा चश्मा । वैसे तो अब हम घर में चश्मा खाली टी वी देखने के लिए ही लगाते हैं ।
उस दिन पत्नी हम से पहले निकल गई थी हम ज़रा पीछे रह गए थे । हमने जल्दी जल्दी सारी तैयारियां की और चलने लगे तो अचानक ध्यान आया कि कुछ मिसिंग है।
सोचा यदि नहीं मिला तो छुट्टी करनी पड़ेगी।
इतिहास में शायद पहली बार होगा जब सी एल लेने की वज़ह चश्मा न मिलना होगी ।
सिक्युरिटी गार्ड की तरह सब जगह हाथ मारकर देखा सब कुछ रख लिया था।
तभी अचानक हाथ चेहरे पर गया तो पाया कि चश्मा तो पहना ही नहीं था।
सोचा अच्छा हुआ अभी पता चल गया वर्ना गड़बड़ हो जाती ।
अब शुरू हुई चश्मा ढूँढने की कवायद -- जितनी भी जगहें थी रखने की या काम करने की, सभी जगह देखा मगर कहीं नहीं मिला।
जब कहीं नहीं मिला तो घबराहट होने लगी क्योंकि उसके बगैर और सब कुछ कर सकते थे लेकिन ड्राईव करना तो शराब पीकर ड्राईव करने जैसा हो जाता। सोचा यदि नहीं मिला तो छुट्टी करनी पड़ेगी।
इतिहास में शायद पहली बार होगा जब सी एल लेने की वज़ह चश्मा न मिलना होगी ।
घबराहट में दोबारा मूंह पर हाथ फिराकर देखा लेकिन नतीजा तो ज़ीरो ही रहा।
एक दिन घर पे फोन आया
बेटे ने उठाया
मैंने पूछा, बेटा कौन था
बोला उसी आंटी का फोन था
जो फोन पर भी मचाती है शोर
और घंटों करती है बोर।
मैंने पूछा, क्या फरमा रही थी
बोला, मम्मी को बुला रही थी
मैंने बोल दिया,
काम के बोझ की मारी
मम्मी प्यारी, सोफे पर पस्त हैं ।
और दो घंटे से, एक के बाद एक
सास बहु के सीरिअल देखने में व्यस्त हैं ।
मैंने कहा, सही कहा भय्ये
हमेशा सच बोलना चाहिए।
फ़िर वो कहने लगी
अच्छा पापा को ही बुला दो
वो क्या कहीं कविता सुना रहे हैं
बेटा बोला आंटी, वो भी व्यस्त हैं
किचन में रोटियां बना रहे हैं।
मैंने कहा, बेटा ज़रा दिमाग से
काम लिया होता
अच्छा होता, यदि कोई और
बहाना लगा दिया होता।
बेटा बोला,
बोलने से पहले तोलना चाहिए
अभी अभी तो आपने कहा ,
हमेशा सच बोलना चाहिए !!!!
नोट :
* बाइफोकल या प्रोग्रेसिव लेंस
सारा घर ढूंढ मारा लेकिन ज़नाब चश्मे जी जाने कहाँ गायब हो गए ।
मोबाईल होता तो मिस काल मार कर पता चल जाता लेकिन चश्में का क्या करते।
अब तो यह मिस्ट्री सी हो गई कि गया तो कहाँ गया --कहीं कामवाली ने झाड़ू मारकर कूड़े में तो नहीं डाल दिया।
अब बस एक ही जगह रह गई थी और उसे चेक करने के लिए जैसे ही हम रसोई में गए तो ये लो --
महाशय वहां विराजमान थे , माइक्रोवेव के ऊपर।
इसे वहां देखकर हमें अपनी लिखी हुई ये पूर्व प्रकाशित रचना याद आ गई :
बेटे ने उठाया
मैंने पूछा, बेटा कौन था
बोला उसी आंटी का फोन था
जो फोन पर भी मचाती है शोर
और घंटों करती है बोर।
मैंने पूछा, क्या फरमा रही थी
बोला, मम्मी को बुला रही थी
मैंने बोल दिया,
काम के बोझ की मारी
मम्मी प्यारी, सोफे पर पस्त हैं ।
और दो घंटे से, एक के बाद एक
सास बहु के सीरिअल देखने में व्यस्त हैं ।
मैंने कहा, सही कहा भय्ये
हमेशा सच बोलना चाहिए।
फ़िर वो कहने लगी
अच्छा पापा को ही बुला दो
वो क्या कहीं कविता सुना रहे हैं
बेटा बोला आंटी, वो भी व्यस्त हैं
किचन में रोटियां बना रहे हैं।
मैंने कहा, बेटा ज़रा दिमाग से
काम लिया होता
अच्छा होता, यदि कोई और
बहाना लगा दिया होता।
बेटा बोला,
बोलने से पहले तोलना चाहिए
अभी अभी तो आपने कहा ,
हमेशा सच बोलना चाहिए !!!!
नज़र के चश्मे दो तरह के होते हैं :
एक जो मायोपिया में इस्तेमाल होते हैं यानि जब दूर की नज़र कमज़ोर हो । यह अक्सर बचपन या युवावस्था में होता है और सारे दिन लगाना पड़ता है।
दूसरा वो जो प्रेस्बयोपिया यानि पास की नज़र ठीक करने के लिए पहनना पड़ता है । यह अनिवार्य रूप से बढती उम्र के साथ होता है , अक्सर ४५ की आयु के बाद । इसे सिर्फ पढने या पास की चीज़ें देखने के लिए प्रयोग किया जाता है, इसकी ज़रुरत युवावस्था में नहीं पड़ती।
लेकिन यदि आपको मायोपिया है तो भी ४५ वर्ष की आयु के बाद आपको भी पास की नज़र के लिए चश्मा लगाना पड़ेगा ।
ऐसी अवस्था में आपके विकल्प हैं :
* दो अलग चश्में --एक पास के लिए , दूसरा दूर के लिए
लेकिन एक और आसान विकल्प है --आप दूर के लिए चश्मा इस्तेमाल करें और पास का पढने या देखने का काम चश्मा हटाकर करें ।
अब हम तो यही करते हैं, इसलिए अब घर में चश्मा सिर्फ टी वी देखने के लिए ही इस्तेमाल करना पड़ताहै।
चश्म्ो की व्यथा वास्तव में ही अजीब है... आंखों पर टटोल कर पता करना पड़ता है कि लगा भी रखा है कि नहीं ☺
ReplyDeleteचश्मा सही जगह ही मिला आखिर !
ReplyDeleteसच सिखाना जितना आसान , बोलना मुश्किल , अक्सर छोटे बच्चे ये समझा देते हैं !
वाह बहुत खूब
ReplyDelete1 ब्लॉग सबका
हमने तो प्रोग्रेसिव बनवा रखा है,हमेशा चढ़ाये रहते हैं,सोते समय छोड़कर !
ReplyDelete...वैसे अगर चश्में में चिप लगवा ली जाये तो इसको भी 'ई-सर्च' किया जा सकता है,मिस काल मारकर मोबाइल ढूँढने की तरह !
संतोष जी , चश्मे में भी अभी बहुत सी संभावनाएं हैं । :)
Deleteक्या ऐसा नहीं हो सकता कि आंखें धोकर इस्तेमाल करने लायक हो जायें :)
Deleteye andaaj aapka niraala laga... vyangya ke baad ek haasya-kavita suna di aur fir humara gyan bhi badha diya... sach mein padh kar maja aaya...
ReplyDeleteचश्मे ने हाय राम बड़ा दुख दीना...
ReplyDelete
मैंने तो इसीलिए करीब बीस-बाइस साल पहले रेडियल केरेटमी (चश्मा हटाने का आपरेशन) करा लिया था...
जय हिंद...
खुशदीप भाई , चश्मा लगाने का अपना मज़ा है । क्यों चाकू चलाना है । वैसे आजकल लासिक के आने से इलाज और भी बेहतर हो गया है ।
Deleteहाय बुढापा!
ReplyDelete(हमने अपने चश्मे के लिये कहा है, कहीं आप अपने चश्मे के लिये न समझ बैठें इसलिये ये डिस्क्लेमर लगाया है।)
हा हा हा ! अनुराग जी , कैसा बुढ़ापा !
Deleteवैसे चश्मा तो बुढ़ापे की छड़ी होती है ।
चश्मा पुराण गजब का रहा डॉ साहेब ..हम भी इस बीमारी से अछूते नहीं रहे...45 पार करते -करते यह जनाब हमारे सर पर भी मुंग दलने आ ही गए ...आपका तो चलो माइक्रोवेव पर ही मिल गया ,पर हमारा तो अक्सर सर पर ही होता हैं और हम सारे जहाँ में ढूँढने लगते हैं ..हा हा हा हा ......
ReplyDeleteजी हाँ , सर और चश्मे का चोली दामन का साथ है ।
Deleteमोबाईल होता तो मिस काल मार कर पता चल जाता लेकिन चश्में का क्या करते।
ReplyDeleteबेटा बोला,
बोलने से पहले तोलना चाहिए
अभी अभी तो आपने कहा ,
हमेशा सच बोलना चाहिए !!!!... मज़ा आ गया
बढ़िया कविता, वैसे ढूढने पर भी चश्मा मिलता कहाँ से जब नजर आने के लिए चश्मा पहन ही नहीं रखा था ? :)
ReplyDeleteसही कहा गोदियाल जी । यह सबसे बड़ा गोलमाल है ।
Deleteचश्मा खोना और पाना रोज के दुख और दुख में शामिल हो गया है।
ReplyDeleteचश्मा बनाने वालों को इसमें GPS लगाने का ख्याल क्यों नहीं आया, अब तक
ReplyDeleteहमने भी २ बार ट्रेन मिस की है, इसे भूलने पर :)
प्रणाम
रसोई में चश्मा ... सही जगह मिला .... बच्चों को झूठ बोलना हम ही तो सिखाते हैं ... आँखों की अच्छी जानकारी मिली ॥
ReplyDeleteबहुत रोचक लेख और सही कविता!
ReplyDeleteमैं पढ़ते पढ़ते हंस रहा था :) कोई देख रहा होता तो सोचता बूढा पागल हो गया :)
"प्रेस्बयोपिया " के स्थान पर हमने "हाइपर मैट्रोपिया" सुना था...
'अंग्रेजों के जमाने के अफसर', हमारे पिताजी ऐसे मौकों पर कहा करते थे, "Have a place for everything / And keep everything in its place"...
यदि कोई मन प़र नियंत्रण कर ले तो सुखी रह सकता है... किन्तु ...:(
फिर सोचता हूँ यदि ऐसा हो सकता तो, यद्यपि मानव मशीन तो है ही, आदमी शुद्ध मशीन हो जाता - जीवन में मजा, और रहस्य, नहीं रह जाता...
जे सी जी , अपने सही सुना था । फर्क बस इतना है की प्रेस्बयोपिया उम्र के साथ लेंस में बदलाव आने की वज़ह से होता है जबकि हाइपरमेट्रोपिया में जन्म से लेंस में डिफेक्ट होता है । यानि यह बचपन में ही हो जाता है ।
Deleteआपने यह नहीं बताया कि इस थ्री इन वन में से कौन सा भाग पढ़कर आप हंस रहे थे । :)
डॉक्टर साहिब, जो आपने रोचक अंदाज़ में लिखा, वो मेरे ख्याल से कुछेक हद तक सभी के साथ होता है...
Deleteअपने साथ घटी कुछेक घटनाएं भी याद आजाती हैं... उदाहरणतया, पत्नी के अरथ्राइटिस के कारण मैं और बच्चे अधिकतर उनके सहायक के रूप में काम करते थे... जैसे फ्रिज से कुछ रसोई में लाना, या रसोई से वहाँ लेजाना,,, प्रेस किये कपडे अलमारी में रखना, या बाहर निकालना, आदि...
छोटी बेटी ग्राफिक डिज़ाईनर होने के कारण दिमागी काम अधिक करती है, और इस कारण औरों को कुछ खोई खोई सी लगती है... एक दिन पत्नी अपने कपडे आदि अलमारी में ठीक-ठाक कर रही थी तो अचानक घबरा गयी जब कपड़ों के बीच कुछ काला काला दिखाई दिया! और जब कपडे हटाये तो वो एक बंद गोभी निकली! जो बिटिया ने कभी, फ्रिज के स्थान पर, अलमारी में रख दिया था :)
बचपन में ऐसी कहानियां भी पढ़ते थे जिसमें फिलोसौफर साहिब बाहर से घूम कर लौट, छड़ी बिस्तर पर लिटा स्वयं किनारे पर खड़े हो गए थे :)
JCMar 3, 2012 03:00 AM
Deleteडॉक्टर साहिब, जो आपने रोचक अंदाज़ में लिखा, वो मेरे ख्याल से कुछेक हद तक सभी के साथ होता है...
अपने साथ घटी कुछेक घटनाएं भी याद आजाती हैं... उदाहरणतया, पत्नी के अरथ्राइटिस के कारण मैं और बच्चे अधिकतर उनके सहायक के रूप में काम करते थे... जैसे फ्रिज से कुछ रसोई में लाना, या रसोई से वहाँ लेजाना,,, प्रेस किये कपडे अलमारी में रखना, या बाहर निकालना, आदि...
छोटी बेटी ग्राफिक डिज़ाईनर होने के कारण दिमागी काम अधिक करती है, और इस कारण औरों को कुछ खोई खोई सी लगती है... एक दिन पत्नी अपने कपडे आदि अलमारी में ठीक-ठाक कर रही थी तो अचानक घबरा गयी जब कपड़ों के बीच कुछ काला काला दिखाई दिया! और जब कपडे हटाये तो वो एक बंद गोभी निकली! जो बिटिया ने कभी, फ्रिज के स्थान पर, अलमारी में रख दिया था :)
बचपन में ऐसी कहानियां भी पढ़ते थे जिसमें फिलोसौफर साहिब बाहर से घूम कर लौट, छड़ी बिस्तर पर लिटा स्वयं किनारे पर खड़े हो गए थे :)
हा हा हा ! यह भी खूब रही ।
Deleteजे.सी.साहब की बिटिया वाला अनुभव भी गज़ब है :)
Deleteअली जी, डॉक्टर साहब, आम मानव जीवन पर एक सटीक कहावत है, "सुबह होती है, शाम होती है / और ज़िन्दगी यूँ ही तमाम होती है"... फिर भी इन सुबह-शाम होने के दौरान कभी कभी हरेक को कुछ न कुछ 'विचित्र' अनुभव हो जाते हैं जिन्हें हम अधिकतर 'संयोग मात्र' कह जीवन के पथ पर आगे बढ़ जाते हैं...
Deleteहमारे परिवार में एक बहन और एक भाई कको छोड़, सभी अधिकतर मायोपिक हैं... चश्मे अथवा कोंटेक्ट लैंस पहनते हैं... किन्तु, इसी बिटिया ने ८ दिसंबर '८१ के दिन गौहाटी में मुझे चौंका दिया जब उसकी भविष्यवाणी सही निकली!
मुझे मणिपुर की राजधानी इम्फाल जाना था, हवाई जहाज को दिल्ली से दस बजे उडान भर गौहाटी आना था, और लगभग १० बजे ही उसने मुझसे अचाबक आकर पूछा, "आपकी फ्लाईट कैंसल हो गयी क्या?"... हवाई जहाज आया जरूर किन्तु वहीं से दिल्ली लौट गया!...
सत्तर के दशक की बात है, जब तीन वर्ष तक वो चलना शुरू नहीं की थी, बैठे बैठे ही आगे खिसकती थी और डॉक्टर कहते थे कि उसके सभी अंग सही हैं, कुछ बच्चे देर से चलते हैं, तो अंत में 'मुझे' ही (मेरे भीतर छुपे मनोवैज्ञानिक को?!) उसे चलाना पडा था - (जब सही समय आया?) मात्र कुछ मिनट के भीतर ही, उसका भय हटा... :)...
JCMar 3, 2012 06:42 PM
Deleteअली जी, डॉक्टर साहब, आम मानव जीवन पर एक सटीक कहावत है, "सुबह होती है, शाम होती है / और ज़िन्दगी यूँ ही तमाम होती है"... फिर भी इन सुबह-शाम होने के दौरान कभी कभी हरेक को कुछ न कुछ 'विचित्र' अनुभव हो जाते हैं जिन्हें हम अधिकतर 'संयोग मात्र' कह जीवन के पथ पर आगे बढ़ जाते हैं...
हमारे परिवार में एक बहन और एक भाई कको छोड़, सभी अधिकतर मायोपिक हैं... चश्मे अथवा कोंटेक्ट लैंस पहनते हैं... किन्तु, इसी बिटिया ने ८ दिसंबर '८१ के दिन गौहाटी में मुझे चौंका दिया जब उसकी भविष्यवाणी सही निकली!
मुझे मणिपुर की राजधानी इम्फाल जाना था, हवाई जहाज को दिल्ली से दस बजे उडान भर गौहाटी आना था, और लगभग १० बजे ही उसने मुझसे अचाबक आकर पूछा, "आपकी फ्लाईट कैंसल हो गयी क्या?"... हवाई जहाज आया जरूर किन्तु वहीं से दिल्ली लौट गया!...
सत्तर के दशक की बात है, जब तीन वर्ष तक वो चलना शुरू नहीं की थी, बैठे बैठे ही आगे खिसकती थी और डॉक्टर कहते थे कि उसके सभी अंग सही हैं, कुछ बच्चे देर से चलते हैं, तो अंत में 'मुझे' ही (मेरे भीतर छुपे मनोवैज्ञानिक को?!) उसे चलाना पडा था - (जब सही समय आया?) मात्र कुछ मिनट के भीतर ही, उसका भय हटा... :)...
:-)
ReplyDeleteलेख रोचक था...
कविता में खुद को रोटियां बनाते हुए बताना ज़रा सा झूट लगा...
लगता नहीं कि कभी किचेन का रुख किया होगा :-)(just an intuition )
and thanks for the medical advice..
so nice 3 in 1 post..
regards.
हा हा हा ! विद्या जी , आपको ऐसा क्यों लगा ?
Deleteयह ओवरएस्टीमेशन है या अंडरएस्टीमेशन ?
वैसे तो कवि कल्पना का बहुत इस्तेमाल करते हैं , लेकिन !!!
घायल की गति घायल जाणै, जो कोई घायल होय
Deleteजौहरि की गति जौहरि जाणै, की जिन जौहर होय
डॉक्टर साहब अब रहने दीजिए....
Deleteकुछ अनकहा रहने देते हैं :-)
सादर.
मोबाईल होता तो मिस काल मार कर पता चल जाता लेकिन चश्में का क्या करते। :)):PP .....
ReplyDeleteलेख और कविता के साथ साथ महत्वपूर्ण जानकारी भी और ये सब इतने खूबसूरत अंदाज़ में !
ReplyDeleteआपका जवाब नहीं !
आभार !
सच में मोबाइल ढूंढने में बडी सुविधा है .. अच्छी पोसट !!
ReplyDeleteचश्मे बद्दूर! :)
ReplyDeleteनजरें इनायत.
ReplyDeleteवाह चश्मा ..मुझे तो बड़ा अच्छा लगता है..पर अभी आँखें सलामत हैं .
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति!
ReplyDeleteरंगों के त्यौहार होलिकोत्सव की अग्रिम शुभकामनाएँ!
नूरे-चश्म ने सही उत्तर दे दिया... :)
ReplyDeleteआज व्यस्तता बहुत रहेगी । इसलिए कल ही मिलना हो पायेगा । इसकी रिपोर्ट बाद में ।
ReplyDeleteगज़ब की रोचक पोस्ट ... सभी मसाले भर दिए ... हास्य कविता के साथ साथ नुस्खे भी ... आँखों की जानकारी भी ...
ReplyDeleteबहुत रोचक एवं मज़ेदार पोस्ट...सभी चश्मा लाग्ने वालों के साथ अक्सर यही होता है इसलिए मेरे श्रीमान जी 2-4 चश्मे रखते है ताकि वक्त पड़ने पर एक नहीं तो दूसरा तो मिल ही जाता है।
ReplyDeleteहूँ ...तो आप यहाँ चश्मा खोने और ढूंढने में लगे थे इसलिए तो हमारे कार्यक्रम में नहीं पहुंचे .....
ReplyDeleteऔर हम वहाँ आपका इन्तजार ही करते रहे की डॉ साहब आयेंगे अपना कैमरा लेकर ....
हरकीरत जी , अभी अभी डॉ शेर जंग गर्ग जी के साथ दिल्ली मेडिकल एसोसिअशन में आयोजित होली पर हास्य कवि सम्मेलन का संचालन करके आ रहा हूँ ।
ReplyDeleteकाश आपने बताया होता ! काश ! !
JCMar 4, 2012 06:05 PM
Deleteडॉ साहिब, हरकीरत जी ने टेलीपैथी द्वारा निमंत्रण भेजा था! मुझे भी मिला था!...
शायद आपका रिसीवर ऑन नहीं होगा, क्यूंकि आप देश के पूर्वोत्तर दिशा में, असम में अवस्थित कामाख्या मंदिर जा चार्ज नहीं करवा कर आये होंगे! वैसे उनकी ब्रांच अन्य पहाड़ी क्षेत्रों में भी हैं... :)
जे सी जी , हमारा रिसीवर तो हमेशा ओंन रहता है . :)
DeleteJCMar 5, 2012 04:59 PM
Deleteकृपया इसका भी खुलासा कर दें कि 'छह बाई छह' (6 x 6) आँखों को चश्मा आवश्यक नहीं होता (पक्षी राज गरुड़ समान सबसे बढ़िया स्थिति?!) ... और चश्मे का माइनस नंबर (-) पता नहीं कहाँ कहाँ तक जाता है आम शायद दो-तीन होता है, पर बीस तो मैंने भी सुना किसी से... ऐसे ही क्यूँ, 'इतिहासकार' समान भूत (अथवा ज्योतिषियों समान भविष्य) में दूर तक सोचने की शक्ति भी अधिकतर व्यक्तियों की सीमित ही पायी जाती है - भले ही वो 'पागल' न हो? ...
और दूरबीन जैसी किसी मशीन की (एच जी वेल्स की सोच समान टाइम मशीन की) आवश्यकता महसूस हो सकती है...
'दूर की कौड़ी ढूंढ कर बिरले ही ला पाते हैं'.... इत्यादि इत्यादि...
अर्थात यह भी शायद 'प्राकृतिक' ही हो कि हरेक का रेंज (range) भिन्न भिन्न होता है... (चश्मे के दृष्टिकोण से देखें तो प्राचीन हिन्दू बड़े 'पागल' लगते हैं जो ब्रह्मा को चार मुख (आठ आँख?) वाला और शिव-पार्वती ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय को छह मुख वाला (१२ आँख?), और रावण को तो दस सर वाला (बीस आँख?) बताते आये हैं (मेरी भतीजी जब ३-४ वर्ष की थी तो उसे ख्याल आया कि उसका टूथ पेस्ट का खर्ध तो बहुत होता होगा :)???
अथवा, क्या ऐसे कथनों के पीछे कुछ संकेत हो सकते हैं आम आदमी के हित में???
बुढापे ने बड़ा दुःख दीन्हा :-)
ReplyDeleteरंगोत्सव पर आपको शुभकामनायें भाई जी !
आने तो दीजिये , उसे भी देख लेंगे !:)
Deleteमुझे तो फिल्मों के मुनीम ठीक लगते हैं जिनका चश्मा डोरी से बंधा होता है........
ReplyDeleteअरे साहब कई मर्तबा मोज़े पहने हुए होतें हैं और मोज़े ही ढूंढ रहे होतें हैं चस्मा तो अक्सर गम होता है इसलिए कई कई रखतें हैं दो नजर के दो कोंसतेंट विज़न के .अच्छी बीनाई कथा ,बढ़िया कविता .बेटे को सच बोलने के लिए बधाई .होली मुबारक .
ReplyDeleteमुझे तो लगा था कि जनाब नाक पर ही अटके थे और आप उन्हें यहां वहां ढूंढ रहे थे।
ReplyDeleteअजित जी , वो चश्मा पढने वाला होता है .
Deleteचश्मा हो या न हो आप दूर तक देखने में सक्षम हैं.....चाहे कैमरे की नजर से डाउन टाउन को देखा हो या वाल्ड सिटी को....
ReplyDeleteमज़ा आ गया पढ़कर, आलेख भी, और कविता भी!
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा!
सादर