लेकिन दीवाली हमेशा ऐसी न थी ।
आज शांति के साथ बैठकर जब हमने दीवाली मनाई तो बचपन की बहुत याद आई ।
आईये देखते हैं , किस तरह बदलता रहा दीवाली का स्वरुप हमारी जिंदगी के सफ़र के साथ ।
१९६०-१९७०
बचपन में गाँव में दीवाली पर हम मशाल जलाते थे । घरों की छतों पर घी के दिए जलाये जाते थे जो तेज हवा की वज़ह से थोड़ी देर में ही बुझ जाते थे । कभी कभार मोमबत्तियां भी जलाई जाती थी ।
लेकिन न पटाखे होते थे , न मिठाई ।
कोई उपहार लेने देने की रिवाज़ भी नहीं थी । यह शायद संसाधनों की कमी के कारण रहा होगा ।
गाँव में हमारे दादाजी हर वर्ष दीवाली पर खील बांटते थे । बाज़ार से एक बोरा भर कर लाया जाता था जो इतना बड़ा होता था कि यदि उसमे गेहूं भरे होते तो कम से कम तीन क्विंटल आ जाते ।
फिर दीवाली के दिन सारे गाँव को आमंत्रित किया जाता और दादाजी अपने हाथों से सबको खील बांटते ।
एक वर्ष खील न मिलने से केले बांटे गए । इतने बड़े केले मैंने जिंदगी में फिर कभी नहीं देखे ।
१९७०-१९८०
इस बीच हम शहर आ गए । यहाँ दीवाली पर पटाखे छोड़े जाते थे । मिठाई के नाम पर मिक्स मिठाई की बड़ी रिवाज़ थी । आस पड़ोस में सब एक दूसरे को एक थाली में कुछ खील और कुछ मिठाई के पीस डालकर, पूजा के प्रसाद के रूप में आदान प्रदान करते थे ।
सभी घरों से लगभग एक जैसा प्रसाद होता था । बड़ा अज़ीब लगता था । क्योंकि अक्सर सबसे घटिया और सस्ती मिठाई को ही दिया जाता था ।
हमारे घर में कोई लड़की या छोटा बच्चा न होने से प्रसाद लौटाने में बड़ी दिक्कत आती थी । यह काम कोई नहीं करना चाहता ।
दीवाली पर जगमगाहट करने के लिए मोमबत्तियां खूब जलाई जाती थी ।
साथ ही ज़ीरो वाट के बल्बों की लड़ी बनाकर लगाते तो रंगत आ जाती ।
१९८० -२०००
इस दौरान हम भी जॉब में सेटल हो गए थे । बाल बच्चे भी हो गए थे । यार दोस्त और सामाजिक सम्बन्ध भी बन गए थे । अत: अब पटाखों के साथ बिजली की तरह तरह की लड़ियाँ लगाकर घर को खूब सजाया जाने लगा ।
मिठाई के साथ अब उपहारों का आदान प्रदान शुरू हुआ । मित्र लोग गिफ्ट लेकर आते और हम बदले की गिफ्ट लेकर उनके घर जाते । अक्सर यह देखा जाता कि जो जितने की गिफ्ट लाया , उसको उतने की गिफ्ट तो दी ही जाए ।
कुछ सालों में रंग बिरंगी फालतू की गिफ्ट्स से घर भर गया । अब यह तय करना मुश्किल होने लगा कि गिफ्ट में क्या दिया जाए ।
और एक दिन गिफ्ट्स का यह आदान प्रदान एक बोझ सा लगने लगा ।
बहुत से लोगों से बस एक ही दिन का मिलना रह गया तो लगा कि यह क्या बकवास है ।
सब तरह की वाहियात वस्तुएं दीवाली पर आसानी से बिक जाती थी । और घर में किसी काम नहीं आती थी ।
इस बीच मिठाइयों का लेन देन कम हो चुका था । उसकी जगह ड्राई फ्रूट्स ने ले ली थी ।
२०००-२०१०
इन दिनों में चाइनीज बम और पटाखों ने बाज़ार पर आधिपत्य कर लिया था । वायु में प्रदूषण बढ़ने लगा था ।
लेन देन में मिठाई आउट हो चुकी थी । ड्राई फ्रूट्स का बोल बाला रहा । साथ ही दो दो तीन तीन गिफ्ट एक साथ देने की रिवाज़ चल पड़ी । ज़ाहिर है , सम्पन्नता की छाप दीवाली पर दिखाई देने लगी ।
लेकिन दीवाली पर बढ़ते ट्रैफिक और उससे होने वाले जाम में फंसकर घंटों बर्बाद होते । आना जाना मुश्किल होने लगा । रस्मे रिवाजें निभाना अब बड़ा सर दर्द बन गया था ।
ऐसे में धीरे धीरे हमने लेन देन बंद करना शुरू किया । शुरू में बड़ा अटपटा लगता था किसी से गिफ्ट लेकर रखना और वापसी में न लौटाना । लेकिन और कोई रास्ता नहीं बचा था ।
इसलिए दो तीन साल में सब लेन देन बंद कर दिया ।
अब बड़ा अफसर होने के नाते कोई गिफ्ट ले ही आए तो क्या करें । वर्ना हमने तो दीवाली पर आराम से शांति (रेखा ) के साथ घर पर बैठना शुरू कर दिया है ।
२०११--
और इस वर्ष फैसला किया है कि अब से दीवाली पर सारी फ़िज़ूलखर्ची बंद ।
अब बस घर की साफ सफाई के साथ रौशनी से सजाया जायेगा और रंगोली बनाकर , शाम को पूजा के साथ लक्ष्मी जी की आराधना कर दीवाली सम्पूर्ण होगी ।
लेकिन सोसायटी के सभी कर्मचारियों की बख्शीश दुगनी कर दी है ताकि किसी ज़रूरतमंद के काम आए और उसे भी दीवाली आने की ख़ुशी हो ।
सभी मित्रों को फोन , एस एम् एस , ई-मेल और ब्लॉग द्वारा मुबारकवाद तो दे ही दी जाती है । आखिर ज़माना भी तो हाई टेक हो गया है ना ।
नोट : दीवाली के बदलते स्वरुप पर आप क्या सोचते हैं , बताइयेगा ज़रूर ।
अपनी आदत अनुसार कोई खास अन्तर नहीं बाकि दिनों व दीपावली में।
ReplyDeleteChhoti jagahon par aaj bhi Aakashdeep jalaya jata hai.Sampannata ke bavzood,adhiktar jagahon par mithaiyon ke len-den ki parampara nahin hai.Haan,aise maukon par log aatmiyata se milte zaroor hain.Sthaanabhaav aur doosri pareshaniyon ke kaaran,shahar ne humse yah bhi chheen liya!
ReplyDeleteडॉक्टर साहब पचास साल की दीवाली में तीन पत्ती का कहीं ज़िक्र नहीं...
ReplyDeleteपूजा करो जला कर धूप-अगरबत्ती,
दीवाली पर कभी न खेलो तीन पत्ती...
जय हिंद...
डा० साहब ,सर्व-प्रथम आपको और सभी ब्लोगर मित्रों को आपके ब्लॉग के माध्यम से एक बार फिर से दीपावली की हार्दिक शुभकामनाये प्रेषित करता हूँ ! आप सही कह रहे है, यह त्यौहार जोकि हिन्दू धर्म के त्योहारों में एक श्रेष्ठ त्यौहार माना जाता है, क्योंकि होली,दशहरा और दीपावली हमारे कुछ ऐसे त्यौहार है जो कुछ अन्य धर्मों के कुछ त्योहारों, खासकर क्रिसमस की भाति एक सार्वभौमिकता ग्रहण किये है! और हर धर्म के लोग इसमें बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते है! लेकिन अफ़सोस कि पिछले कुछ दशकों से हम देख रहे है कि बजाये इसे एक त्यौहार की भांति मनाने के हमने इसे एक व्यवसाय और स्वार्थपूर्ति का माध्यम अधिक बना लिया है !
ReplyDeleteहाथरसी काका पर मेरा, यह शोध पत्रिका पढ़ा
ReplyDeleteदेखभाल कर त्वचा की सुन्दर, सर्दी का रंग चढ़ा
पढ़ते-पढ़ते रोक डाल्टन, स्वाद बारूद लगा
जिंदगी का सफ़र दीवाली, बदला रूप भला
आपकी उत्कृष्ट पोस्ट का लिंक है क्या ??
आइये --
फिर आ जाइए -
अपने विचारों से अवगत कराइए ||
शुक्रवार चर्चा - मंच
http://charchamanch.blogspot.com/
दीपोत्सव पर हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteदीपावली का आया है त्यौहार शब-ओ-रोज़
आप के विचारों से पूरी तरह सहमत हूँ .....
ReplyDeleteशुभकामनाएँ! आप को ,आप के विचारों को |
बढ़िया तरीके से आपने अपने अनुभव का बांटा। बीच का दस साल छूट गया है..1980-1990 शायद वही तीन पत्ती में बीता हो!
ReplyDeleteदिवाली में बम पटाखा पहले हमें भी खूब रोमांचित करते थे अब खराब लगता है। रात भर धमाकों से सो नहीं पाया। प्रदूषण के लिए कितना खतरनाक! आपने अच्छे से दिवाली मनाई। ....बधाई।
समय के साथ बहुत कुछ बदलता है।
ReplyDeleteशुभकामनाएं
आपका 2011 मे लिया गया फैसला अनुकरणीय है।
ReplyDeleteदीपावली का पचास साल का सफर ... त्यौहार का बदलता स्वरुप ..
ReplyDeleteहमारे यहाँ दीपावली पर मिठाई हमेशा रही .. पटाखे शुरू के दौर में न के बराबर थे .. दीयों से ही घर को सजाया जाता था ..कंदील लगायी जाती थीं .. गिफ्ट्स का लेन - देन नहीं के बराबर रहा ..वैसे भी मुझे यूँ गिफ्ट्स हमेशा ही बोझ के समान लगती हैं ..जब बच्चे छोटे थे तो पटाखों का भी जोर रहा ..पर अब फुलझड़ी का एक पैकेट लाते हैं पूजा के लिए ..दीयों के साथ लड़ियों से ज़रूर रोशनी कर लेते हैं ... मेरी सास कहतीं थीं कि पड़वा के दिन ताश ज़रूर खेलना चाहिए ... जब तक वो थीं तब तक छोटी दीवाली पर तीन पत्ती भी खेली है ..पर हद में ...हार जीत १०० / रुपये तक ही होती थी .. अब वो भी बंद कर दिया है ... समय के साथ सब कुछ बदलता है .. अपने मन के अनुसार उमंग से त्यौहार मानना चाहिए ..
हर चीज परिवर्तनशील है। फिर त्यौहार क्यों न हों? दीवाली के त्यौहार में परिवर्तन की जो रूपरेखा आप ने बताई लगभग सभी जगह वैसी ही रही है।
ReplyDeleteपिछले दिनों मशक्कत करने का प्रयत्न किया कि यह पता लगे कि ऐतिहासिक रूप से दीवाली मनाने का सिलसिला कैसे आरंभ हुआ? लेकिन कुछ हाथ न लगा। यूँ तो राम के अयोध्या लौटने से इस का सिलसिला बताया जाता है। लेकिन ऐसा होता तो महाभारत के पात्र दीवाली मना रहे होते। पर वे दीवाली के इस पर्व से अनजान थे। मुझे लगता है कि दीवली का मनाना सब से पहले जैन धर्मावलंबियों नें महावीर के निर्वाण दिवस के रूप में आरंभ किया। बाद में उस में अन्य संदर्भ जुड़ते चले गए। जैन संवत्सर भी दीवाली से आरंभ होता है। कोई इतिहासकार इस पर रोशनी डाले तो पता चले।
तीन पत्ती तो हमने आज तक नहीं खेली। जरूरी नहीं कि आप ने भी खेली हो।
नए कपडे पहनना नहीं बदला इन पचास सालों में भी छोटे थे तो हाफ पैंट से खुश हो जाते थे अब नन्हे को भी लेविस की जीन से नीचे नहीं भाती. मिठाई भी अच्छी दूकान की चाहिए . ब्रांडेड हो गयी है दीवाली. शायद खुशिया भी ब्रांडेड होजाएं आने वाली दिवाली में. दाराल साहब जाती हुयी दिवाली की शुभकामनाये
ReplyDeleteसही कहा राधारमण जी . बड़े शहरों में ही यह समस्या ज्यादा है .
ReplyDeleteखुशदीप भाई , तीन पत्ती हमने कभी खेली ही नहीं .
देवेन्द्र जी , उसे भी शामिल कर लिया है .
द्विवेदी जी , हमें भी उत्सुकता है जानने की .
संगीता जी , हम भी यही चाहते हैं की दिवाली को इसी तरह मनाया जाए . बिना बात का दिखावा , शोर शराबा और हुडदंग किस काम का .
बहुत कुछ बदल गया है.पर इंसान वही का वही है.
ReplyDelete...लोगों के हाथ पैसा जो आ गया है; तो उसे फूंकने के हज़ार रास्ते भी निकाल लिए हैं इन्होंने. आज वही धंधा सबसे अच्छा है जिसमें लोग दो नंबर का पैसा धोंकते हों, संस्कारविहीन लोगों द्वारा त्योहारों के नाम पर इस तरह के बलात्कार अभी और भी बढ़ेंगे...
ReplyDeleteदीपावली का यह सफ़र बहुत सारी यादें दिला गया भाई जी !
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
प्राचीन भारत में धर्मराज युधिस्ठिर को दीवाली की तीन पत्ती तो नहीं, उसी के समान कई परिवारों को चौपट करने / 'दिवाला निकालने' वाले खेल 'चौपड़' अवश्य खेलते दिखाया जाता आ रहा है :)
ReplyDeleteलिन्तु डॉक्टर साहिब, एक नोट करने वाली बात यह है कि ब्रह्मा-विष्णु-महेश भी (ध्वनि ऊर्जा ॐ के संकेत समान) तीन इक्के कहे जा सकते हैं, और गद्दी में चार प्रकार के १३ पत्ते, अर्थात कुल ५२ पत्ते समान, एक वर्ष में सप्ताह भी होते हैं!
और ब्रह्मा के तथाकथित चार मुंह भी दर्शाए जाते हैं और काल-चक्र को भी चार युग के योग से बने महायुग द्वारा बारम्बार १००० से ऊपर बार आना भी माना गया है, योगियों, 'सिद्ध पुरुषों' द्वारा...
यद्यपि इसका ज्ञान हम कलियुगी 'अपस्मरा पुरुष' अर्थात भुलक्कड़ लोगों की पहुँच से पार माना गया है :)
दीपावली के बदलते स्वरूप का यह छोटा सा शोधग्रंथ है :))
ReplyDeleteडॉक्टर साहिब, ५२ सप्ताह केवल ३६४ दिन बनते हैं, इस कारण हमारे समान एक-दो विदूषकों (जोकर) भी बीच में आवश्यक हो जाते हैं, क्यूंकि एक वर्ष में ३६५ और लगभग चौथाई दिन होते हैं जिनके कारण ३६५, और हर चार वर्ष में ३६६ दिन वाले वर्ष बन जाते हैं :)
ReplyDeleteकबीर के शब्दों में मानव जीवन के सार को जीवित रखते स्व. जगजीत के स्वर (यू ट्यूब द्वारा सुरक्षित) -
http://www.youtube.com/watch?NR=1&v=0KoA5NmP5Q4
डॉ साहब,इन सालों में दीवाली पर कुछ और भी चीजें पीछे छूट गईं जैसे-चीनी और मिट्टी के खिलोने .इसका हम सब के बचपन में बहुत आकर्षण हुआ करता था.
ReplyDeleteएक और दिवाली चली गयी और आई थी याद दिलाने के लिए कि जीवन का एक और साल घट गया है :( या फिर, अनुभव का एक और साल बढ गया है :)
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी तरह सिलसिलेवार यादों को संजो कर लिखा है...सचमुच कितना बदलाव आ गया है...हमें भी सारा कुछ याद आ गया.
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा यह सफ़र, खासकर दादाजी का समय और आज का!
ReplyDeleteकालीदास बज्र-मूर्ख बढई था, जिस डाल पर बैठा था उसी को काट रहा था,,, तो एक आदमी ने सावधान करते चेतावनी दी की वो गिर जायेगा! फिर भी वो नासमझ डाल काटता चला गया और गिरने के बाद ही उस साधारण व्यक्ति को परम ज्ञानी मान लिया! कहा जाता है कि कुछ लोग उसे उस समय कि एक अत्यंत विदुषी मानी जाने वाली राजकुमारी के सम्मुख ले गए जो कुंवारी थी और उस का कहना था वो अपने ज्ञानी व्यक्ति से ही विवाह करेगी!
ReplyDeleteराजकुमारी ने उसे एक अंगुली दिखाई (अर्थात भगवान् एक ही निराकार है) तो कालीदास ने समझा कि वो कह रही है वो उसकी एक आँख फोड़ देगी! इस कारण उसें यह बताने हेतु कि वो एक फोड़ेगी तो वो उसकी दोनों आँखें फोड़ देगी, उसने दो अंगुलियाँ दिखाईं! राजकुमारी बहुत प्रभावित हुई क्यूंकि उसने इसका यह अर्थ निकाला कि वो द्वैतवाद में विश्वास करता है!
वो तो विवाह के पश्चात ही सत्य का पता चला! राजकुमारी द्वारा उसे बाहर कर देने के पश्चात ही उसकी मन की आँख कुछ हद तक खुल गयी और अपमान के बदले की भावना से उसने ज्ञानोपार्जन कर प्रसिद्धि प्राप्त की :)
'महाभारत' का पात्र ध्रितराष्ट्र जन्म से अंधा था, और उसकी धर्मपत्नी सती गांधारी, उसकी पृष्ठभूमि के कारण, कुरु वंश के शत्रु राजा की बेटी होने के कारण, यद्यपि १०० पुत्रों की माँ तो बनी किन्तु वो बाहरी संसार से जुडी नहीं थी, इस कारण उसको आँखों में पट्टी बांधे दर्शाया जाता है... यद्यपि मान्यता यह है कि वो अपनी आतंरिक, आध्यात्मिक शक्ति द्वारा अपने ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन के शरीर को भी अनंत, अमृत करने की क्षमता रखती थी, किन्तु दुर्योधन ही उसके सामने निर्वस्त्र आने में शर्म कर गया और इस प्रकार वो परम ज्ञानी 'कृष्ण' के संकेत पर भीम द्वारा पेट के नीचे गदा मार उसकी ईहलीला समाप्त कर सका :)
प्राचीन हिन्दू जो बाहरी आँख से नहीं दीखता और केवल मन कि आँख से ही प्रकाशमान हो सकता है, उसे ही खोजना अपने जन्म का उद्देश्य मानते थे किन्तु वर्तमान के ज्ञानी भी इसे 'टाइम पास' ही मानते हैं :) ...
दीपावली की शुभकामनाएं। हमें तो बचपन में घर के बने बूंदी के लड्डू बहुत याद आते हैं। पटाखे पिताजी दिलाते नहीं थे बस हम कुछ खरीद ही लाते थे तो उन्हें चलाने का आनन्द ही कुछ और था। लडी वाले बम्ब आज की तरह एकसाथ नहीं चलाए जाते थे। एक-एक कर के घण्टों तक चलाते थे। सारे ही मुहल्ले में एक-दूसरे के घरों में दीपक रखने का रिवाज था वह रिवाज भी बहुत याद आता है।
ReplyDelete# वर्ना हमने तो दीवाली पर आराम से शांति (रेखा ) के साथ घर पर बैठना शुरू कर दिया है । :))
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने-
अनेक परिवर्तन देख चुके हम भी …
लेकिन वही बात … गुज़रा हुआ ज़माना …
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ReplyDelete*****************************
* आप सबको दीवाली की रामराम !*
*~* भाईदूज की बधाई और मंगलकामनाएं !*~*
- राजेन्द्र स्वर्णकार
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साईं बाबा भी कह गए, "सबका मालिक एक"! आवश्यकता है उसके प्रति श्रद्धा और सबूरी अर्थात सब्र की!
ReplyDeleteप्रकृति तो परिवर्तनशील है!
राजेन्द्र जी, गूगल ने मेरा भी एकाउंट बंद कर दिया था, यह कह कर की मैंने शर्तों का उलंघन किया था... मैंने फिर पासवर्ड बदल चालू करवा लिया... ब्लॉग चालू करने का प्रावधान भी दिखाई पड़ रहा था...(संभव है बोक्स्बे के कारण हुआ हो?)..,.
ReplyDeleteमुझे भी यद् है खील और चीनी से बनी मिठाइयां घर में आती थीं और उन्ही को बांटते थे हम ... दिवाली के बदलते स्वरुप को दिल्लिआना अंदाज़ में सिलसिलेवार बाँधा है आपने ... दिवाली की हार्दिक श्भ्काम्नाएं ...
ReplyDeleteबस, तमसो मा ज्योतिर्गमय रहे...
ReplyDeleteDiwali today.... Maximum greetings with minimum efforts :P
ReplyDeleteHappy diwali !!!
दीपावली कि हार्दिक शुभकामनायें वक्त के साथ सब कुछ बदल जाता है। मगर मैं यहाँ शाद पहली बार शिखा जी कि बात से सहमत नहीं हूँ।:-) ....ऐसा नहीं है कि सभी इंसान वहीं के वहीं हैं कुछ मामलों में तो इंसान भी बदला ही है। पांचों उँगलियाँ हमेशा एक बारा बार नहीं हो सकती :)आपका यह 50 सालों का सफर जानकार पढ़कर अच्छा लगा साथ हे यह जाने को भी मिला कि तब से अब तक क्या-क्या परिवर्तन आया है। बढ़िया पोस्ट ....
ReplyDeleteजी हाँ , पल्लवी जी । वक्त बदला है , इन्सान भी बदला है । इन्सान की सोच बदली है ।
ReplyDeleteसही कह रहे हैं राहुल जी ।
राजेन्द्र जी , यह अपने आप हो रहा है । उम्मीद है अब तक वापस आ गए होंगे ।
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ReplyDelete.
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दीपावली का बदलता स्वरूप तो आपने दिखा ही दिया है, पर यह जरूर कहूँगा कि बीतते वक्त के साथ-साथ त्यौहार के माइने भी बदल जाते हैं आपके लिये... जैसा आनंद बचपन में होली में किसी को भिगाने में या दीवाली में घर को सजाने, रोशनी करने या आतिशबाजी जलाने में आता था, वह आनंद अब कभी भी नहीं आता किसी भी मौके पर... बीतते वक्त के साथ-साथ हम आनंद लेना भूल से जाते हैं...
...
समय के संग संग दीवाली के रंग ढंग ...अब तो हो ली दिवाली ..बस न निकले दिवाला यही सबसे बढियां है लाला -आयी मीन डॉ. साहब यही तो अपने यहाँ की खूबसूरती है जैसे भी मनाओ त्यौहार .....
ReplyDelete#
ReplyDeleteमुझे बधाई दें डॉक्टर भाई साहब !
मेरे दोनों ब्लॉग कुछ देर पहले लौट आए हैं
:)))))))))
अरविन्द जी , शहर के दिवाले से तंग आकर अब हम भी गाँव में जाकर दिवाली मनाया करेंगे । :)
ReplyDeleteबीतते वक्त के साथ सोच का बदलना भी लाजिमी है , प्रवीण जी । मनुष्य के जीवन में भिन्न भिन्न अवस्थाएं जो होती हैं ।
राजेन्द्र भाई , ये गूगल वाले लुका छिपी का खेल खेल रहे हैं शायद । लेकिन निश्चित ही , ब्लॉग का गायब होना बड़ी डरावनी बात है ।
अलग अलग दशकों में दीपावली के स्वरूप , वास्तव में परिवर्तन आया है , अच्छी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबढ़ती व्यस्ताओं के कारण और समय परिवर्तनशील होने के कारण अब त्यौहार भी प्रतीक रूप में मनाये जाने लगे हैं ... सारगर्वित अभिव्यक्ति के लिए धन्यवाद. दीवाली पर्व पर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं ...
ReplyDeleteआपकी यादों ने बचपन की याद दिला दी ....
ReplyDeleteहम भी पूरे घर की छत को माटी रख रख कर दीये रखते पापा के साथ ताकि गिर न जायें ....
शायद ही कोई इतने दीये लगता हो ....
तब मिठाइयां घर में ही बनी जातीं और आदान प्रदान होता .....
समय के साथ परम्पराएँ भी बदलती है , कुछ सकारत्मक भी हुआ है. पिछले पांच वर्षों से बच्चों ने आतिशबाजी पर होने वाला खर्च कम कर दिया है , प्रदूषण से मुक्ति के साथ ही वह रकम कुछ ज़रूरी कार्यों में खर्च किये जाने के लिए बच जाती है !
ReplyDeleteशुभकामनायें !
aapne bahut hi achchi tarah pure safar ka zikr kiya hai....kitna kuch chut gaya lekin man hai ki bar-bar peeche bhagta hai.
ReplyDeleteआपका पोस्ट अच्छा लगा । .मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
ReplyDeleteवक़्त के साथ कितना कुछ बदल गया है, आज गांव में हूं। मां ने इस बार भी कुल्हड़ में मिरासन तेल भर कर छत पर जलाए थे।
ReplyDeleteगांव नहीं अबदला, मां नहीं बदली।
सर अब तो दिल से ही दिवाली मनती है...वरना शहर में घूमने के बाद भी कई बार लगता है कि लोगो ने घर को रोशनी से सजा कर लोगो पर एहसान किया हो..क्योंकि रोशनी के बीच कोई बाहर नहीं नजर आता.....मिठाई की जगह ड्राइ फ्रूट ने ली है .या फिर यूं कहें कि मीढी दिवाली अब ड्राई होती जा रही है....
ReplyDeleteपहले बच्चे झुनझुने की टुन टुन सुन खुश हो जाते थे, और आज 'बच्चे' मोबाइल की ट्रिन ट्रिन सुन खुश होते हैं!
ReplyDeleteखिलोने बदल गए हैं किन्तु 'ॐ' नहीं बदला :)
वक्त के साथ सब कुछ बदल रहा है. आज तो दिखावा करने का भी कोई मतलब नहीं नज़र आता है किसके पास समय है जो किसी कि तरफ देखे. किसी के सुख दुःख में भी जाने को समय नहीं है.त्यौहार तो बस सब मना रहे हैं सो मानाना है. कोई भावना नहीं होती आज किसी के पास
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