मुझी को सब ये कहते हैं , रख नीची नज़र अपनी
कोई उनको नहीं कहता , न निकलो यूँ अयाँ होकर ।
( अयाँ = बेपर्दा ) --अकबर इलाहाबादी
रोज कहता हूँ न जाऊँगा कभी घर उसके
रोज उस कूचे में इक काम निकल आता है ।
--ग़ालिब
शायद मुझे निकाल के पछता रहे हो आप
महफ़िल में इस ख्याल से फिर आ गया हूँ ।
--अदम
यह भी एक बात है अदावत की
रोज़ा रखा जो हमने दावत की ।
--अमीर
होश आए तो क्योंकर तेरे दीवाने को
एक जाता है तो दो आते हैं समझाने को ।
--होशियार मेरठी
हम हैं मुश्ताक , और वो बेज़ार
या इलाही ये माज़रा क्या है !
--ग़ालिब
( मुश्ताक = परेशान , बेज़ार = लाचार )
मेहरबां होके बुला लो मुझे चाहे जिस वक्त
मैं गया वक्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूं ।
--ग़ालिब
शक न कर मेरी खुश्क आँखों पर
यूँ भी आंसू बहाए जाते हैं ।
--सागर निज़ामी
अंदाज़ अपना देखते हैं आईने में वो
और ये भी देखते हैं कोई देखता न हो ।
--निज़ाम रायपुरी
मुफ्त दो घूँट पिला दे तेरे सदके वाली
हम ग़रीबों से कहीं दाम दिए जाते हैं ।
--ख़याल
आज बस इतना ही , बाकि फिर कभी ।
अब आप बताइए कि कौन सा शे'र सबसे ज्यादा पसंद आया।
वाह वाह …………कमाल के शेर पढवाने के लिये आभार्।
ReplyDeleteडाक्टरों का दिल अगर ऐसी शायरी में कुलांचे भरने लगे,तो रोगियों की आधी बीमारी तो यूं छू-मंतर हुई समझो!
ReplyDeleteवाह वाह वाह वाह !!
ReplyDeleteडॉ. साहब ,सभी एक से बढ़कर एक हैं ...अब तक की सारी जिन्दगी आईने में उतर आयी ...शायर भी कैसे कैसे ...
ReplyDeleteएक मेरी ओर से नजर है -कुछ भूला हूँ तो सुधार दीजियेगा और बतायिगा किसका है?
अंगडाई ले भी न पाए थे वे उठा के हाथ
देखा मुझे तो छोड़ दिए मुस्कुरा के हाथ ..
फेसबुक पर भी डाल दिया है इसे
ReplyDeletehttp://www.facebook.com/profile.php?id=1153981790
andaaje bayaa aur-
ReplyDeleteरोज कहता हूँ न जाऊँगा कभी घर उसके
रोज उस कूचे में इक काम निकल आता है ।
डॉ. साहब आप भी मरीज़ हो गए,
ReplyDeleteये तो अच्छा है कि मर्ज़ अच्छा है !
एक से बढ़कर एक !
चकाचक शायरी है ये तो!
ReplyDeleteएक मैं भी कहूँ...
ReplyDeleteसब आजमाने वाले , मुझे आज़मा चुके
इस दौरे-इन्तहान में , इक इन्तहां हूँ मैं
एक से बढ़ कर एक ........!
ReplyDeleteअपनी पसंद :-शक न कर मेरी खुश्क आँखों पर
यूँ भी आंसू बहाए जाते हैं ।
--सागर निज़ामी
वाह! सभी बहुत बढ़िया!
ReplyDeleteअपन को उर्दू नहीं आती, थोड़ा थोड़ा फिर भी समझ आ जाता है (हिंदी भी अधिक नहीं अति :)... और स्व. सहगल, जगजीत सिंह आदि की ग़ज़लों आदि के माध्यम से मज़ा अवश्य ले लेते है...
शायरी कभी करने की गुस्ताखी नहीं की - याद आ जाता है किसी का कुछ ऐसा कथन -
"उर्दू जुबाँ आती नहीं / शायरी करने चले // यह वो घास नहीं / जो हर गधा चरने लगे"!
(शायरों के नाम भी याद नहीं रहते... मुंबई से दिल्ली - एक बार ट्रेन से २ एसी में - लौटते, साइड बर्थ में मशहूर शायर निदा फाजली को देखा, पहचान लिया क्यूंकि टीवी में कई बार देखा था... किन्तु उनका कोई भी शेर याद नहीं था इसलिए उनसे बात करने की हिम्मत नहीं हुई... यद्यपि उनके साथ बैठे कोई लेखक और उनके बीच बात कान में पड़ती रही और उन्हें जगजीत सिंह के बारे में कुछ कहते कई बार सुना... आशा और प्रार्थना करते हैं की उनको लम्बी उम्र प्रदान करें भगवान्!)...
अरविन्द जी , किसका है --यह कहना तो मुश्किल है । लेकिन उर्दू में नहीं है --कहीं आपका ही तो नहीं ?
ReplyDeleteअमृता जी --यह शायद दौर ए इम्तिहान होना चाहिए ।
देखा जाए तो अधिकतर शायर सुरा और सुंदरी पर ही शे'र लिखते रहे हैं । है ना अज़ीब सी बात ! मयखाना --साकी -- ज़ाम --हुस्न -- आदि आदि । लेकिन सबका अंदाजे बयां कमाल का होता है ।
मकतबे इश्क का दस्तूर निराला देखा |
ReplyDeleteउसको छुट्टी न मिली जिसने सबक याद किया ||
मिरी निस्बत यह फरमाते हैं वाइज़ बदगुमाँ होकर |
ReplyDeleteक़यामत ढाएगा जन्नत में यह बूढ़ा जवाँ होकर ||
{अकबर इलाहाबादी}
जो भी आवे है वो नज़दीक ही बैठे है तेरे |
ReplyDeleteहम कहाँ तक तेरे पहलू से खिसकते जाएँ ||
रोज कहता हूँ न जाऊँगा कभी घर उसके
ReplyDeleteरोज उस कूचे में इक काम निकल आता है ।
......... बस यही.
आज तो शेरो शायरी का मक्खन ही छांट लाये आप. बहुत आभार आपका.
ReplyDeleteरामराम
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteलेकिन जब ज़ेहन से शे'र निकल कर ही न आएं तो दूसरे शायरों को पढ़कर बड़ा आनंद आता है ।
ReplyDeleteहुजूर जब शेर आपके जेहन से बाहर निकलने को तैयार ही नही हो रहा था तो थोडा और अंदर घुस जाते, फ़िर देखिये कैसे नही निकलता?:)
रामराम
अरे ताऊ , यही किया था हमने ।
ReplyDeleteशेर तो नहीं , पर शेर के बच्चे निकल आए ।
अगली पोस्ट में हाज़िर होंगे ।
पूछना है गर्दिशे ऐयाम से ,अरे !हम भी बैठेंगे कभी आराम से .एक शैर आईने पर और -आइना देख के ये देख संवारने वाले ,अरे !तुझपे बेजा तो नहीं मरतें हैं ,मरने वाले .
ReplyDeleteसारे शेर एक से बढ़कर एक हैं...कुछेक शेर के शायरों का नाम नहीं पता था...
ReplyDeleteयहाँ पता चल गया....शुक्रिया
रोज कहता हूँ न जाऊँगा कभी घर उसके
ReplyDeleteरोज उस कूचे में इक काम निकल आता है ।
डॉक्टर साहब ब्लॉगिंग के कूचे से अपना भी ऐसा ही नाता हो गया है...
जय हिंद...
शेर कितना ही रोमांटिक हो
ReplyDeleteशेरनी की इजाजत चाहिए
वाह वाह...हम तो ग़ालिब चाचा के ही पंखे हैं .
ReplyDeleteहरेक बात पे कहते हो तुम के तू क्या है
ReplyDeleteतुम्हीं कहो के ये अन्दाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है
वाह डॉ. साहब, सभी एक से बढकर एक हैं।
मेरे लिए कुछ नए हैं, कुछ वे हैं जो हमें भी याद थे लेकिन जो भी हैं, लाज़वाब हैं।
ReplyDeleteसब एक से बढ़कर एक हैं, बहुत दिनों बाद शेरों को पढ़ा ।
ReplyDeleteअपनी बात कहने का यह तरीका बेहद उम्दा रहा।
ReplyDeleteसभी एक से बढ़कर एक हैं|
ReplyDeleteआप को दशहरे की हार्दिक शुभकामनाएँ|
शे'र तो सभी लाजवाब है , शेर भी!
ReplyDeleteवाह,बहुत खूब
ReplyDeleteचलिए इसी बहाने कुछ और शे'र पढने को मिल गए ।
ReplyDeleteहीरों को मुठ्ठी में भरकर पूछ रहे हैं कि कौन सा हीरा अच्छा है? एक से एक नायाब है। आज तो आनन्द आ गया।
ReplyDeleteमुकर्रर मुकर्रर--मतलब दुबर्रर दुबर्रर
ReplyDeleteक्या बात है डॉक्टर साहब, आज रंगीन मूड में नज़र आ रहे हैं :)
ReplyDeleteशे'र, 'सत्व', मायने (चाय / मधु समान) निचोड़, अर्थात 'सार' से बना प्रतीत होता है...
ReplyDeleteऔर उसका प्रस्तुतकर्ता 'शायर' - केवल दो लाइनों द्वारा जीवन का सार प्रस्तुत करने की चेष्टा करते और अपने श्रोता के दिल को भी छूते और उनसे वाह वाही पाते और सभी के आनंदित करते...(?) ...
NICE.
ReplyDelete--
Happy Dushara.
VIJAYA-DASHMI KEE SHUBHKAMNAYEN.
--
MOBILE SE TIPPANI DE RAHA HU.
ISLIYE ROMAN ME COMMENT DE RAHA HU.
Net nahi chal raha hai.
दशहरे की सभी को शुभ कामनाओं सहित!
ReplyDeleteडॉक्टर वाला शे'र -
"बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का / चीर के देखा तो कतरा-ए-खूँ न निकला"
(- स्रोत नहीं पता)
प्रसाद जी , फेस्टिवल सीजन शुरू जो हो गया है ।
ReplyDeleteशुक्रिया शास्त्री जी ।
जे सी जी , अब दिल की बात भी सुनिए --अगली पोस्ट में ।
वाह क्या बात है....
ReplyDeleteहम भला तुमसे मुखातिव हों या खुद से रूबरू|
आईने में तुम हो मैं हूँ ,या है मेरी आरजू |
---वाह क्या नज़र की झुकन है---
ReplyDeleteवो नज़रें झुका लेते हैं, हया की बात होती है |
शराफत में नज़र अपनी झुकी, चर्चा नहीं होता |
जवानी,हुश्न,शानो-शौक ने ऐसा गज़ब ढाया ,
जहां की नज़रें झुक जाएँ कहीं चर्चा नहीं होता |
वाह वाह , डॉ श्याम गुप्ता जी । उम्दा शे'र कहे हैं ।
ReplyDeleteडॉ साहब, आज तो आप छा गये हैं.
ReplyDeleteस्तरीय शेर है सारे के सारे ,,,, सभी लाजवाब है
ReplyDeleteकल आया था खत उनका,
ReplyDeleteउनको बिस्तर से उठने कि हिम्मत न थी;
आज वो दुनिया को छोड़ कर चल दिए,
इतनी ताकत कहाँ से आ गयी.
जख्म एक नही दो नही तमाम जिस्म जख्मी है,
ReplyDeleteदर्द खुद परेशान है कि मैं कहां कहां से उठूँ .............
ए आलम-ए-वक़्त कोई ऐसा फतवा दे,
ReplyDeleteजो मोहब्बत में वफ़ा न करे वो काफ़िर ठहरे
बहुत खूब ! ढूंढने के लिये शुक्रिया दोस्त ...
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