आज बात करते हैं गायों में नर और मादा की ।
गाय प्रजाति के नर दो तरह के होते हैं । एक सांड जो प्रजनन का काम करते हैं और दूसरे बैल जिनमे प्रजनन की क्षमता नहीं होती ।
ऐसा क्यों होता है ?
जैसे भैंसों के मामले में मनुष्य अपनी मर्ज़ी से अपने स्वार्थ अनुसार नर और मादा की संख्या का चुनाव करते हैं , वैसे ही गायों के मामले में भी नर के चुनाव में मनुष्य की ही मर्ज़ी चलती है ।
गाय का नर सांड कहलाता है । सांड भी पूरे गाँव में एक ही होता है जिसका काम बस प्रजनन करना होता है । लेकिन भैंसे की तरह सांड दूसरे सांड को मार कर नहीं भगाता । वैसे भी सांडों की संख्या भैंसे की संख्या से भी कम होती है । यानि दो तीन गाँव के बीच एक सांड मिलता है ।
इसका कारण है , नर की दूसरी किस्म यानि बैल जो मनुष्य के ज्यादा काम आता है । मनुष्य आदि काल से बैलों का उपयोग कृषि के लिए करता रहा है । हल चलाने से लेकर , बैल गाड़ी , कूएँ से पानी निकालना, फसल से अन्न और भूसा अलग करने लिए सभी तरह के काम बैलों द्वारा किये जाते रहे हैं ।
अच्छे बैलों की जोड़ी एक किसान के लिए हमेशा उपयोगी रही है । इसलिए गाय के बछड़े को बड़ा होते ही बैल बना दिया जाता है ताकि वह उसके जीविका उपार्जन का साधन बन सके ।
कैसे बनते हैं बैल ?
ज़वान बछड़े को बैल बनाने के लिए उसके अंडकोषों को क्रश कर दिया जाता है । इसके लिए बछड़े को बांध कर लकड़ी के बने एक यंत्र में फंसा दिया जाता है । फिर दोनों अंडकोषों को लकड़ी के बने दो टुकड़ों के बीच फंसा कर धीरे धीरे कसा जाता है जब तक की वे क्रश नहीं हो जाते । बेशक यह तरीका बड़ा क्रूर है । हालाँकि आजकल कैसे किया जाता है , यह पता नहीं ।
इस तरह अंडकोषों को नष्ट करने से उनकी अट्रोफी हो जाति है यानि वे गल जाते हैं . इससे न सिर्फ बछड़ा स्टेराइल ( बाँझ ) हो जाता है बल्कि टेस्टोस्टिरोंन हॉर्मोन ख़त्म होने से उसमे यौन इच्छा भी ख़त्म हो जाती है .
इस तरह गाय का वह ज़वान बछड़ा न प्रजनन करने के लायक रहता है , न ही उसमे मादा के प्रति आकर्षण रहता है । वह बस सारी जिंदगी कोल्हू का बैल बनकर मेहनत मजदूरी करता रहता है । हालाँकि उसे खिला पिलाकर शारीरिक रूप से शक्तिशाली अवश्य बनाया जा सकता है ।
आजकल जबकि कृषि भी पूर्ण रूप से मशीनों द्वारा की जाने लगी है , बैलों की संख्या भी घटती जा रही है । ज़ाहिर है , गाय के नर बछड़े भी कटघर का रास्ता ही नापते हैं ।
सिर्फ सांड और भैंसे ही बच पाते हैं, कटने से । साथ ही जिंदगी का भी भरपूर मज़ा लेते हैं , एक शहंशाह की तरह ।
किस्मत हो तो ऐसी ।
बहुत कडवा सत्य है…………काफ़ी अद्भुत जानकारी मिल रही है…………आभार्।
ReplyDelete"मानुस हों तो वोही रसखान / बसे जिमी गोकुल गाँव के ग्वालन"!
ReplyDeleteअर्थात यह प्रथा कृष्ण के समय से चली आ रही है!
बछड़े के अंडकोष तोड़ने की विधि आप से ही सुनी...
पढ़ते हुए एक सिहरन सी हुई शरीर में!
'हिन्दू' संगदिल प्रतीत होते हैं, किन्तु दूसरी ओर ज्ञानी-ध्यानी कह गए की हम सभी आत्माएं हैं और शरीर छलावा मात्र!
हमने भी मानव शरीर पहली बार आत्मा के ८४ लाख योनियों से गुजरने के बाद पाया था...
और पता नहीं कितनी बार हमारी यही अजन्मी और अनंत आत्मा परमात्मा के स्तर पर भी पहुंची होगी, और कितनी बार सांड / भैंसा / जोंक आदि तक भी :)
बहुत सी जानकारियां तो बिल्कु्ल पहली पहली बार ही मिली हैं डा.साहब । चौंकाने वाली रही मेरे लिए तो ।
ReplyDeleteन सांड और भैंसों सी शहंशाही चाहिए,न बैल सी दुर्गति। हम तो गाय ही भले!
ReplyDeleteपुरुष ब्लाग बनाने का विचार है क्या?
ReplyDeleteसही कहा आपने आदमी और बैल में अभी फर्क है :) रोचक जानकारी
ReplyDeleteजानकारी पूर्ण मार्मिक और शाही बिंदास पोस्ट .
ReplyDeletekya kare sir ye manav apne hito ke liye na jane kya kya kar deta hai,,,,,
ReplyDeletejai hind jai bharat
यह सब सुना तो था, आज आपके सौजन्य से पढ़ भी लिया
ReplyDeleteज़िंदगी का मज़ा यूं ही थोड़े लिया जा सकता है :-)
ये दोनों प्राणीं स्वच्छंदता के संदेशवाहक है ...जीवन का आनंद ऐसे ही संभव है -तभी तो हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा बाण भट्ट की आत्मकथा ......
ReplyDeleteडॉ. साहब , वैसे आप क्या जानवरों के डॉक्टर हैं क्या ?
ReplyDeleteउम्मीद है ,जल्द ही ब्लॉगिंग में भी भैंसा ,बैल और सांड ढूँढकर उनका भी विवेचन करेंगे !
जे सी जी , सिरहन सी तो अवश्य हुई होगी । लेकिन दुनिया में इससे भी बड़े कांड होते हैं जिनके बारे सोचकर ही सिरहन होती है ।
ReplyDeleteभाई अजय कुमार , संसार में बहुत सी बातें छिपी रहती हैं और हम कभी जान नहीं पाते । इन दो पोस्ट्स का उद्देश्य बस इसी सच से रूबरू कराने का ही था ।
अजित जी , शहर में रहकर ही पुरुष प्रधान लगता है यह विषय । वर्ना जीवन का बहुत बड़ा सच है ।
त्रिवेदी जी , आपको ऐसा क्यों लगा ?
ReplyDeleteवैसे यह काम आपके भरोसे छोड़ दिया है । :)
मनुष्य मनुष्य-जाति ही नहीं पशु जाति में भी लिंग भेद करके अपने फ़ायदे का लिंग-चयन करता है------ कमीना कहीं का :)
ReplyDeleteजीवन का बहुत बड़ा सच...
ReplyDeleteनयी जानकारियां मिली इस पोस्ट से ...
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
ओह , बैल बनाने की प्रक्रिया तो अत्यंत क्रूर तरीका है सुन कर ही ख़राब लग रहा है |
ReplyDeleteडाक्टर साहब!
ReplyDeleteहमारे शहर में तो दस-पाँच बछड़े जो सांड होने की प्रक्रिया में होते हैं एक साथ घूमते नजर आते हैं।
ओह.. हम तो अब तक अमिताभ को ही शहंशाह समझ रहे थे.
ReplyDeleteपहली बार ये जानकारी मिली आपके ब्लॉग पर आकर
ReplyDeleteहिन्दी कॉमेडी- चैटिंग के साइड इफेक्ट
मनुष्य जब अपने सहोदरों को ही नहीं बख्शता तो जानवरों की क्या कहिये ...
ReplyDeleteनई जानकारी प्राप्त हुई i
बहुत बढ़िया और महत्वपूर्ण जानकारी मिली ! शानदार पोस्ट!
ReplyDeleteजानकर अच्छा नहीं लगा। अत्यंत क्रूर कर्म! क्या मेनका गान्धी को पता है कि भारत में गाय, बैल व सांड पाये जाते हैं?
ReplyDeleteसांड तो दबंग भैंसे से भी गज़ब निकले...तीन तीन गांव के चक्रवर्ती सम्राट...
ReplyDeleteजय हिंद...
डॉक्टर दराल जी, हम जब स्कूली बच्चे थे तो सरकारी स्क्वैयर में रहते थे अंग्रेजों के राज में, एक दिन शुभ अवसर कहलो ज्ञानवर्धन का मिल गया... शुद्ध भोजन के शौक के कारण कई लोग गाय या भैंस पालते थे...हम कहते थे कि जो सी पी डब्ल्यू डी में सुपरवाईज़र होता था उसके घर के आगे मोटर साईकिल मिलेगी और घर के पीछे गाय :)...
ReplyDeleteएक शाम एक अन्य स्क्वैयर के एक घर के सामने बच्चों की भीड़ देख उत्सुकता हुई और हम भी दर्शकों में खड़े हो गए...
मैदान में जिमनेजियम के बैलेंसिंग बार समान पोस्ट के बीच उन सज्जन की गाय को खड़ा किया गया था और कमिटी के कुछ कर्मचारी के साथ एक सरकारी सांड को बुलाया हुआ था जो अपने अगले पैर बार पर रख उन कुछ मिनट के लिए उस गाय को शायद गर्भवती कर गया!
पता नहीं अपने जीवन काल में एक सरकारी सांड (आप ही जानें) कितनी गायों का यूँ पति बन जाता होगा, कृष्ण के समान शायद ६०,००० का (वैसे १६,००० कहा जाता है, किन्तु राजा सागर के तो ६०, ००० लड़के कहे जाते हैं जिन्हें कपिल मुनि ने भस्म कर दिया था क्यूंकि शैतान इंद्र देवता ने अश्वमेध यज्ञं के घोड़े को उनके आश्रम में बांध दिया था, और वो अज्ञानी उनकी साधना भंग कर दिए :(
और उनको जिलाने के लिए सागर के पोते भागीरथ के अथक प्रयास से ही गंगा अवतरित हुई - शिव की जटा-जूट पर, चन्द्रमा से :)
प्रसाद जी , मानव पशुओं के साथ जो करता है , वह मानव हित में ही करता है । इसलिए निंदनीय नहीं हो सकता । लेकिन मानव --मानव के साथ जो करता है , वह अवश्य निंदनीय हो सकता है ।
ReplyDeleteजी हाँ , बैल बनाने की प्रक्रिया क्रूर तो है , लेकिन ज़रूरी भी होती थी । अब तो सब मशीनीकृत हो गया है ।
अनुराग जी , गाय और सांड तो अमेरिका में भी पाए जाते हैं । यह अलग बात है कि वहां खाए भी जाते हैं ।
जे सी जी , पालतू पशुओं में प्रजनन मनुष्य की सहायता के बिना संभव नहीं होता । यह सच भी शहरी लोगों को अद्भुत लगेगा ।
आज भी यही प्रक्रिया है , पर इसे बदलना चाहिए
ReplyDeleteइस क्रूर सत्य से पहले से परिचित थी ... आपने बहुत लोगों को यह नयी जानकारी दी है .. अपने फायदे के लिए इंसान क्या क्या नहीं करता ...
ReplyDeleteलिंग भेद स्वार्थी मनुष्यों के लोभ का परिणाम है। गरीब किसान की अन्न के लिए बैलों की आवश्यकता तो समझ में आती है लेकिन सिर्फ स्वार्थ में की गई क्रूरता तो हज़म नहीं होती।
ReplyDelete..बढ़िया लगी यह पोस्ट।
human race can cross any limit for its benefit... there r so many examples in past n m pretty sure we will witness more in future too.
ReplyDeleteGreat post on a very sensitive/sensible topic.
बैल बनाने की प्रक्रिया तो सही मे क्रूर है। पर अब भी अगर मशीन से होता हो तो भी गांवों तक वो तकनीक नहीं पहुंची होगी।
ReplyDeleteजहां तक हमारी बात है तो कहीं बैल तो कहीं गाय सी हालत है..बस कहीं कहीं सींग मारते रहते हैं.या फिर चिल्लाते हैं....
डॉक्टर दराल जी सही कहा आपने, मानव की सहायता के बिना पशुओं की अच्छी नस्ल बन पाना असंभव है...शायद ऐसे ही सदियों के दौरान जंगली भेड़िये से उत्पत्ति कर कुत्तों की अच्छी नस्ल बन पाई हैं...और गुफा मानव से आधुनिक मानव...
ReplyDeleteगली के कुत्तों को ही देख लीजिये कैसे अपने माँ-बाप समान अच्छे भी नहीं दीखते, और एक दम आवारा ही घूमते हैं... गाडी के नीचे आ रहे होते हैं, और सभी से दुत्कार ही पाते हैं... किन्तु वो भी 'हुड दबंग...दबंग'... कर रहे होते हैं जब प्रजनन की प्रक्रिया खुले आम चल रही होती है :)
पुनश्च -
ReplyDeleteअपनी कमजोरी किन्तु यह है की हम 'वैज्ञानिक' हैं...
हमारे लक्कड़ दादा चार्ल्स डार्विन किन्तु धरा पर जीव की उत्पत्ति को 'प्राकृतिक' बता गए...
जीवन के मूल को आधारित बता गए अस्तित्व के लिए जीवों के बीच चलने वाले प्राकृतिक संघर्ष को, और 'जो फिट है वो ही हिट है'...
अपनी आयु के साथ गिरते दांतों और कमजोर होती बाहरी आँखों के कारण अपने को किन्तु दक्षिण गोलार्ध में अवस्थित ऑस्ट्रेलिया नामक महाद्वीप न जाने क्यूँ और कैसे शिव के वाहन नंदी बैल के कटे सर समान दीखता है जो तस्मानिया नामक द्वीप को जब रोटी समान खाने जा रहा था :)
जो विज्ञान के विद्यार्थी नहीं हैं/ रहे हैं, वो डार्विन का इतिहास और जीव उत्पत्ति के अनुसंधान में बीगल नमक जहाज से यात्रा आदि इन्टरनेट पर निम्नलिखित लिंक पर भी देख सकते है -
ReplyDeletehttp://en.wikipedia.org/wiki/Charles_Darwin
इंसान अपने स्वार्थ के लिए जानवरों पर न जाने कैसे कैसे जुर्म ढाए हैं ..
ReplyDeleteहिंदू धर्म में गाय को माता ज़रूर कहा गया है पर उसपे जुर्म भी होती रही है ...
यहाँ आकर ज्ञान में कुछ वृद्धि हुई...आभार.
ReplyDeleteकहावत है, "छोटी मछली को बड़ी मछली खाती है"...
ReplyDeleteऔर हमारी माँ कहती थी (हिंदी रूपांतरण), "छोटी गाय पर बड़ी गाय / बड़ी गाय पर बाघ"!
सत्य तो यह है कि भोजन की श्रंखला में मानव का स्थान शीर्ष पर है...
और भोजन को निर्गुण भाव से देखें तो वो शक्ति का ही स्रोत होता है, अर्थात साकार रूप शक्ति का ही परिवर्तित रूप है...
किन्तु हमारी भौतिक आँखें दोषपूर्ण होने के कारण हमें धोखा दे रही हैं, यानि परम सत्य तक पहुँचने नहीं देतीं :)
उदाहरणतया कथा कहानियों के अनुसार सूरदास अंधा था किन्तु फिर भी 'कृष्ण' को देख पाया, और दूसरी ओर ध्रितराष्ट्र भी अँधा था किन्तु संजय के बताने पर भी अपने १०० पुत्रों के एक के बाद एक मरते सुन भी कृष्ण को नहीं पहुंचान पाया, जबकि कृष्ण ने अर्जुन को दिव्य चक्षु प्रदान कर परम सत्य तक पहुंचा दिया :)
यही कृष्णलीला कि विशेषता है :)
डॉक्टर दराल जी, आज तो पश्चिमी वैज्ञानिक भी पृथ्वी पर जीवन को 'ग्रैंड डिजाइन' मानने लगे हैं जबसे उन्होंने ब्लैक होल के केंद्र में समय को शून्य होना जान लिया...
ReplyDeleteऔर, आम आदमी की भाषा में, 'संयोगवश' 'ब्लैक होल' पर अस्सी के दशक में एक भारतीय अमरीकन एस चंद्रशेखर ने हमारे सूर्य की तुलना में पांच अथवा उससे भारी सितारों के रेड स्टेज पर पहुंच अपनी मृत्यु के पश्चात परिवर्तित रूप धारण करने के सत्य पर शोध कर नोबेल इनाम जीता...
अब हमारी सुदर्शन-चक्र समान दिखने वाली गैल्क्सी के केंद्र में ऐसे ही एक सुपर गुरुत्वाकर्षण वाले ब्लैक होल को अवस्थित माना जाने लगा है... जबकि प्राचीन हिन्दू 'कृष्ण' को (सहस्त्र सूर्य के प्रकाश वाले को), विष्णु समान, सुदर्शन-चक्र धारी दर्शाते आये हैं...:) इत्यादि इत्यादि...
जे सी जी , इस पूरे सप्ताह व्यस्त रहा । कल से फिर ब्लॉग पर गुफ्तगू करते हैं ।
ReplyDeleteअरविन्द मिश्र जी ने लिखा, "...हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा बाण भट्ट की आत्मकथा..."
ReplyDeleteइस से याद आया की उनके छोटे ६९ वर्षीय बेटे दिल्ली में रहते हैं, डॉक्टर मुकुंद द्विवेदी, जिनकी कुछ ही वर्षों में पार्किन्सन बिमारी के कारण शोचनीय अवस्था हो गयी है और याददश्त खो गयी है...
डॉक्टर साहिब, इस बीमारी के आजकल कई केस सुनाई पड़ते हैं... इस पर कुछ लिखियेगा, बचाव आदि के बारे में...
पार्किन्सन नहीं, बिमारी एल जाईमर है...
ReplyDelete