बचपन में शेर की कहानियां सुनने का बड़ा शौक था । जब भी ताउजी फ़ौज से छुट्टी आते, मेरी एक ही जिद होती , शेर की कहानी सुनने की ।
आज बरसों बाद जब अपने पसंदीदा टी वी चैनल डिस्कवरी पर जंगलों में विचरते शेर , बाघ , चीते आदि देखता हूँ , तो बहुत रोमांचित हो उठता हूँ ।
मन ही मन धन्यवाद भी करता हूँ उस वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर का जो महीनों या साल भर जंगल में रहकर जंगली जानवरों के व्यवहार का अध्ययन करता है और उनकी जीवनी पर फिल्म बनाता है, जिसे हम अपने ड्राइंग रूम के आराम में बैठकर एक घंटे में देख कर प्रफुल्लित होते हैं ।
इन फिल्मों को देखकर मुझे अक्सर वह कहावत याद आ जाती है--मैन इज ए सोशल एनीमल ( मनुष्य एक सामाजिक जानवर है )।
सोचने पर मजबूर हो जाता हूँ कि क्या मनुष्य को जानवर कहना उचित है ।
आइये देखते हैं जंगली जानवरों और मनुष्य के व्यवहार में समानताएं और भिन्नताएं ।
१) हाथी : जंगल का सबसे बड़ा जानवर :
हाथी प्राय: झुण्ड में रहते हैं । एक झुण्ड में बीसियों हाथी --नर और मादाएं तथा बच्चे --सब मिलकर रहते हैं । सभी हाथी मिलकर झुण्ड के बच्चों की रखवाली करते हैं ।
फोटो नेट से
लेकिन सबसे भारी और शक्तिशाली होने के बावजूद हाथी कभी कभी शेरों के शिकार बन जाते हैं ।
कभी कोई हाथी उदंडता से व्यवहार करने लगे तो उसे झुण्ड से निकाल दिया जाता है । झुण्ड से निकला अकेला हाथी पागल जैसा हो जाता है जो बड़ा उत्पाद मचाता है और मनुष्यों को हानि पहुंचा सकता है ।
२) जंगली भैंसे --दूसरे भारी जानवर :
भैंसे सैंकड़ों और हजारों की संख्या में झुण्ड बना कर रहते हैं । बड़े और शक्तिशाली नर भैंसे झुण्ड के रक्षक होते हैं और मिलकर दुश्मन का मुकाबला करते हैं । बच्चों की सुरक्षा का जिम्मा मादा पर होता है लेकिन समय पर सब एक होकर खड़े हो जाते हैं ।
ये भी कभी कभी मांसाहारियों के शिकार बन जाते हैं , विशेषकर बीमार , बूढ़े या झुण्ड से अलग हुए बच्चे ।
३) शेर --जंगल का राजा :
ये भी समूह बनाकर रहते हैं । लेकिन शेरों के झुण्ड में सभी मादाएं होती हैं , साथ में बच्चे । नर एक ही होता है जो झुण्ड का सरदार होता है । यह बबर शेर शानदार , शक्तिशाली और सर्व शक्तिमान होता है । इसका काम केवल मादाओं को गर्भवती करना होता है । इसका समूह की सभी शेरनियों पर आधिपत्य होता है । कोई दूसरा शेर समूह पर तभी कब्ज़ा कर सकता है जब सरदार बूढा हो जाए और उसमे लड़ कर जीतने की क्षमता न रहे ।
शेरों के समूह में शिकार का काम अक्सर मादाएं ही करती हैं जो मिलकर शिकार करती हैं । लेकिन शिकार मिलने के बाद खाने का हक़ पहले सरदार को ही होता है । उसके बाद ही बाकि खा सकते हैं ।
शेरों का नया सरदार आते ही पहले समूह के बच्चों को मार देता है जिससे कि वह शेरनियों से अपनी स्वयं की संतान पैदा कर सके ।
४) बिग कैट्स --बाघ , चीता , तेंदुआ :
इनके व्यवहार में अंतर होता है । इनमे नर मादा के पास अक्सर प्रजनन के समय ही आता है और गर्भवती होने के बाद छोड़कर चला जाता है । इसके बाद बच्चे पैदा होने से लेकर उनका पालन पोषण और सुरक्षा की जिम्मेदारी मादा की ही रह जाती है ।
इनके बच्चों को न सिर्फ दूसरे परभक्षियों बल्कि अपनी प्रजाति के दूसरे नरों से भी खतरा होता है ।
मादा बच्चों को खाना खिलाती है , उन्हें सुरक्षित स्थान पर रखती है और तब तक उनकी देखभाल करती है जब तक वे खुद शिकार करना नहीं सीख जाते । यह काम भी मादा ही करती है ।
बड़े होने पर एक दिन ये बच्चे मां को छोड़ स्वतंत्र रूप से अपनी जिंदगी बसर करने निकल पड़ते हैं ।
५) भेड़िये , जंगली कुत्ते और अन्य मांसाहारी तथा हिरन , जेबरा और अन्य शाकाहारी जानवर --ये सब भी प्राय बड़े समूहों में रहते हैं , मिलकर साथ चलते हैं और अपने झुण्ड से अलग नहीं होते ।
इन सब जानवरों में एक समानता है --सदियों से इनका व्यवहार एक जैसा ही है । जो जैसा है , वो वैसा ही है । समय के साथ इनके व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया है ।
अब देखते हैं मानविक व्यवहार :
पृथ्वी पर मनुष्य ही एकमात्र प्राणी है जो सर्वाधिक विकसित और उन्नत है । अपने दिमाग का प्रयोग करते हुए उसने अपने लिए सुख के सभी संसाधन जुटा लिए हैं ।
बेशक मनुष्य विकास की कड़ी में जानवरों से ही विकसित हुआ है । लेकिन अब वह एक पूर्ण रूप से सामाजिक प्राणी बन चुका है ।
मनुष्य का परिवार होता है , खानदान होता है , जाति , धर्म और देश भी होता है।
मनुष्य भी अपने बच्चों का लालन पालन करने में व्यस्त रहता है । स्त्री पुरुष दोनों मिलकर घर चलाते हैं ।
सदियों से मनुष्य भी हाथी , भैंसे और अन्य शाकाहारी जानवरों की तरह रहता आया है । संयुक्त परिवार में रहते हुए समाज के नियमों का पालन करता आया है । बच्चों को संरक्षण और बड़ों को सम्मान मिलता आया है ।
लेकिन इक्कीसवीं सदी का मनुष्य बदल रहा है । अब वह बिग किट्स की तरह व्यवहार करने लगा है ।
लिव इन रिलेशनशिप रखने लगा है ।
छोटी छोटी बात पर तलाक लेने लगा है ।
बिन ब्याही किशोरी मां और बच्चे को पालती एकल मां को देखकर कैसा लगता है ?
अब बड़े होते ही बच्चे भी अपने रास्ते पर निकल जाते हैं ।
वृद्ध मात पिता की हालत उस शेर जैसी होती है जिसकी शक्ति क्षीण होने से उसका दबदबा ख़त्म हो जाता है ।
परिवार टूट जाते हैं । संयुक्त परिवार देखने को नहीं मिलते ।
शहर में लाखों लोग रहते हुए भी लोग अकेले होते हैं ।
इन्सान अब बदल गया है ।
सबसे उन्नत सामाजिक प्राणी का समाज बिखर सा गया है ।
क्या यही है विकास का इनाम ?
क्या हम शाकाहारी जानवरों से ही कुछ सीख पाएंगे ?
डॉक्टर साहिब, आप बहुत अच्छा लिख लेते हैं !
ReplyDeleteजो आपने प्रश्न पूछे हैं उनका उत्तर केवल हिन्दू मान्यता द्वारा ही समझा जा सकता है (यानि कुछ समय के लिए अपना दिमाग अलमारी में रख),,,
अनादि काल से मान्यता चली आ रही है कि 'महाकाल' के निर्देश पर 'काल' सतयुग से घोर कलियुग की ओर चलता प्रतीत होता है, जिस कारण 'हमें' काल के साथ साथ मानव की कार्य क्षमता घटती प्रतीत होती है (हम कौन हैं ? दृष्टा मात्र ? 'कुर्सी का आलू'? या निराकार भगवान् के प्रतिरूप ?)...
अरे डॉक्टर साहेब.. किसने आपको उल्टी अँग्रेज़ी पढ़ा दी,
ReplyDeleteमैन इज़ ए सोशल एनिमल ! असलियत में... मैन इज़ असोशल एनिमल ।
Man is asocial animal ( :not social: as a: rejecting or lacking the capacity for social interaction सौजन्य: मेरियम ऑक्सफ़ोर्ड कॉलेज़ियेट डिक्शनरी 11वाँ सँस्करण )
हमारे जैसे ज़ाहिल समाज के नियम निभा रहे हैं, ऑक्सफ़ोर्ड-जीवियों पर यह बात भला क्योंकर लागू हो पायेगी ?
इस पोस्ट के दूसरे सँस्करण में यही लिखियेगा Man is asocial animal ! :)
इह तरियों जे पोस्ट सही डरेक्शन में जा रैयी सै !
डॉ अमर कुमार जी , इस पोस्ट में यही तो कहने की कोशिश की गई है कि मनुष्य अब बदल रहा है । पहले सोशल एनीमल होता था , अब एशोशल हो गया है । जबकि जानवरों का व्यवहार पहले जैसा ही है । विकास के पथ पर चलता हुआ मानव अपनी सामाजिकता भूलता जा रहा है ।
ReplyDeleteलेकिन लगता है , पाठकों को यह बात शायद पसंद नहीं आ रही ।
विज्ञानं की भी बात करें तो अभी हाल ही में, कुछ सदियों पहले, डार्विन ने जीव की उत्पत्ति पर शोध कार्य द्वारा जनता को बताया कैसे प्रकृति में जीवों का अपने अस्तित्व हेतु संघर्ष चल रहा है और वर्तमान कि भाषा में 'जो फिट है वो ही हिट है' ! और हम देख रहे कि कैसे 'निम्न स्तर' के पशुओं की संख्या निरंतर घटती जा रही है, कई प्रजातियाँ, डायनासौर जैसे, विलुप्त भी हो रही हैं, जंगलों का क्षेत्रफल घट गया हैं, और वर्तमान में भारत में बाघों की संख्या घटने से चिंता बढ़ गयी प्रतीत होती है मानव के अपने ही अस्तित्व मिटने की सम्भावना के कारण अपने ही भौतिक विकास को ही मानव जीवन का लक्ष्य मान (?) ...
ReplyDeleteजे सी जी , यही हाल रहा तो --२१ मई से तो बच गए , लेकिन २१ दिसंबर से शायद न बच पायें । हालाँकि मेरा मानना है कि अभी घोर कलियुग नहीं , बस कलियुग आया है । यानि अभी भी कुछ सतयुगी पुरुष बचे हैं ।
ReplyDeleteडॉक्टर दराल जी, आर्यों के मूल के बारे में मान्यता हैं कि कोई अत्यंत विकासशील सभ्यता किसी कारणवश विनाश के कारण स्वदेश छोड़ अन्य स्थान बसने निकल पड़े... उनमें से कुछ यूरोप में ही बस गए और शेष इंडस नदी के किनारे आ पहले बसे थे, और फिर वो गंगा-यमुना नदी घाटी कि उपजाऊ भूमि में भी आ बस गए - जिनके 'हम' में से कुछ ('सतयुग' वाले !) वंशज हैं...
ReplyDeleteइतिहास बतलाता है कि क्राइस्ट के जन्म से ६ सदी पहले भारत में 'वैदिक काल' का अंत हो गया, और उस के बाद यहाँ बुद्धिस्म और जैनिस्म पनपने लगा... जब यूरोप में जंगली रहते थे तब भारत में अत्यन्त ज्ञानी पुरुष रहते थे जो हिन्दू कहलाये क्यूंकि उन्होनें सूर्य के चक्र के भीतर ही चन्द्रमा को सम्पूर्ण ज्ञान की सर्वश्रेष्ठ उत्पत्ति का आधार मान काल की गणना की (अंतर्मुखी योगियों द्वारा परम सत्य को पा, चन्द्रमा को विष्णु का मोहिनी रूप दर्शा), जबकि पश्चिम में, मिस्र में, शुक्र ग्रह आधार बना केवल भौतिक विकास से सम्बंधित, 'सत्य' की (बहिर्मुखी ज्ञान द्वारा) गणना का... आदि आदि...
शक्ति रूप ब्रह्म को शब्दों द्वारा समझना, और दूसरों को समझाना, असंभव नहीं तो बहुत कठिन अवश्य माना जाता है ! क्यूंकि वो तो गर्मी-सर्दी समान महसूस करने वाला जीव जाना गया है !...
मैं तो आप को गजल सुनाने आया था ...
ReplyDeleteपर यहाँ तो पढ़ें-लिखों में चर्चा हो रही है ...तो मेरे जैसो का यहाँ क्या काम...क्षमा...
खुश रहिये ,लगे रहिये !
अशोक सलूजा !
अशोक जी , कभी कभी आर्ट फिल्म देखने में क्या हर्ज़ है !
ReplyDeleteअशोक जी यदि पढ़े लिखे न होते तो ग़ज़ल कैसे लिख सुना लेते ?
ReplyDeleteआदमी की प्रकृति है कि जब अकेला होता है तो बोर हो भीड़ में शामिल हो जाता है... किन्तु वहां भी अपने को अकेला पा, नया कुछ मन पसंद न पा, लौट जाता है...
शायर निदा फ़ाज़ली ने भी महसूस किया कि आदमी सब जगह अपने को भीड़ में भी अकेला ही पाता है... याद नहीं आ रहा किन्तु कुछ इस प्रकार, "हर जगह बेशुमार आदमी / पर भीड़ में भी अकेला है आदमी..."...
सटीक बात...सुंदर विचार। गहन चिन्तन के लिए बधाई।
ReplyDelete....सुंदर विचार
ReplyDeleteजानवरों पर भी आपने शोध किया है ... अच्छी जानकारी ...
ReplyDeleteनासवा जी , शोध करना तो हमारा काम रहा है । लेकिन जंगली जानवरों के आचार व्यवहार में ज्यादा शालीनता नज़र आई ।
ReplyDeleteयह आलेख ज़रूर कहीं छपेगा।
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