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Monday, October 12, 2009

घर चार दीवारों से नहीं , इंसानों से बनता है

फैस्टिवल सीजन पूरे ज़ोर पर है। दीवाली बस आने ही वाली है। ऐसे में धर्म कर्म, ज्ञान अज्ञान , चर्चा प्रतिचर्चा, ईर्षा द्वेष, मान अपमान आदि आदि सब भूलकर चलिए कुछ समय के लिए ब्लोग्स पर ज़रा सीरियस बातें बंद करें। इस पोस्ट को यही ध्यान में रखकर लिख रहा हूँ। कृपया, इसे सीरियसली ना लें।


दीवाली या दीवाला --समझ ना पाए घरवाला। अब देखिये दीवाली और घरवाली में खाली नाम की ही समानता नहीं है, काम की भी समानता है. दोनों ही घरवाले का दीवाला निकाल देती हैं. और जब दोनों मिल जाएँ, तब बेचारे गृहपति का क्या अंजाम होता होगा, ये सभी विवाहित लोग जानते हैं.

घरवाली:

पत्नी वर्किंग हो या नॉन-वर्किंग, उसकी नज़र हमेशा पति की जेब पर रहती है. अब भले ही कभी रोमांटिक मूड में आप पार्क में टहलते हुए पत्नी की कमर में हाथ डाल कर चलें, उस समय भी पत्नी का हाथ कमर के बजाय आपकी जेब में ही होगा.

एक कवि से किसी ने पूछा --आपको अपनी पत्नी पर सबसे ज्यादा गुस्सा कब आता है। वो बोला-- जब वो मेरी जेब टटोल रही होती है. एक तो वैसे ही हम कवियों की जेब में कुछ ख़ास नहीं होता , ऊपर से वो छुट्टे भी नहीं छोड़ती.


दीवाली:

पहले भले ही दीवाली अधर्म पर धर्म की जीत का प्रतीक रही हो, लेकिन अब तो ये बॉस की चमचागिरी, नेताओं से संपर्क बनाये रखने , बिजनेस पार्टनर्स को खुश रखने और पड़ोसियों से हेलो हाय कहने का साधन मात्र रह गयी है.

पर दीवाली
का एक और रूप सताता है। और वो है घर का सारा कूड़ा करकट निकाल, घर की सफाई करना, फिर चाहे मन कितना ही मैला रह जाये।

अब घर का हाल तो गाँव की नई नवेली बहु जैसा होता है, जब तक घूंघट में रहती है, तब तक सुन्दर लगती है। घूंघट हटते ही असलियत सामने आ जाती है। घरों का भी यही हाल होता है, भले ही घर कितना ही साफ़ दिखे, कार्पेट या पर्दे हटाइये, तो धूल ही धूल मिलेगी. रोज सफाई होती रहे, लेकिन फिर भी ढेरों धूल इक्कट्ठी हो जाती है.

ऊपर से हम सारे साल मस्त रहते हैं, लेकिन दीवाली पर सारे छोटे छोटे नुक्श दिखने लगते हैं और रिपेयर का काम शुरू।

कारीगर:

वैसे तो हिन्दुस्तान में कारीगरों की कोई कमी नहीं है. पर दीवाली पर कारीगर भी एक रेयर कोमोडिटी बन जाते हैं.
फिर उनसे रेट तय करना कौन सा आसान.समझ में नहीं आता की काम कराया कैसे जाये.
उनके तीन तरीके होते हैं, काम करने के।


१। दिहाडी पर -- लेकिन दिहाडी पर एक दिन का काम तीन दिन में पूरा होगा, ये निश्चित है.

२.ठेके पर: ---अगर ठेका सिर्फ लेबर का दिया, तो भी एक दिन का काम तीन दिन में ही होगा.
हाँ, ठेके की रकम तीन दिन की दिहाडी के बराबर होगी।


३. ठेका सामान सहित:-- यही रास्ता सबसे आसान लगता है, लेकिन इसमें भी एक दिन का काम तीन दिन में ही ख़त्म होता है. लेकिन पैसे वो आपसे ६ दिहाडी के कमा लेगा.
इनमे ज्यादातर तो अंगूठा छाप होते हैं, लेकिन इनके लिए एक अच्छे खासे पढ़े लिखे आदमी को बेवकूफ बनाना इनके बाएँ अंगूठे का काम है.
अब हमें तो यही सोचकर दिल समझाना पड़ता है की चलो इसी बहाने हमने एक अपने से भी ज्यादा गरीब इंसान की मदद कर दी।


अब भैया, लेबर तो लेबर है , उसे दिहाडी से ज्यादा कमाने की ज़रुरत ही नहीं है। इसलिए पूरे ठेके पर भी वो १० से ५ तक ही काम करते हैं. उन्हें कोई जल्दी नहीं होती.

अपनी व्यथा:

दीवाली से पहले का आखरी वीकएंड. दीवाली इतने पास, लेकिन घरवाली दूर.
जी हाँ, श्रीमती जी तो स्त्री रोग कार्यशाला ( गायनी कोंफेरेंस ) में चली गयी और हमें फरमान दे गयी की कारपेंटर, प्लंबर, इलेक्त्रिसियन और मेसन के सारे काम करा देना।


तो भई, आज मैडम तो स्त्री शक्ति के प्रदर्शन में लगी थी, और हम घर में मिस स्त्री ( मिस्त्री) के साथ घर की मरम्मत में जुटे रहे। वैसे ऐसे मौके पर कौन्फेरेंस!! मुझे तो ये लेडी डॉक्टरों की कौन्फेरेंस कम, कोंस्पिरेसी ज्यादा लगती है, अपने पतियों को काम में पेलने के लिए.

श्रीमती जी ने अब तो मायके जाना भी कम कर दिया है. जाती भी हैं तो ,एक दो घंटे के लिए.
उधर अब तो हॉस्पिटल में नाईट ड्यूटी भी ख़त्म। यानि अपनी तो सारी आज़ादी ही ख़त्म।


पर भैया, ब्लेसिंग इन डिस्गाइज भी तो कोई चीज़ होती है।

हमने भी इस आकस्मिक मिली आज़ादी का भरपूर फायदा उठाया. जब से ब्लोगिंग शुरू की है, तब से पहली बार हम सारे दिन कंप्यूटर पर बैठे रहे, बे रोक टोक.
और जाने कितने ही ब्लोग्स पर सर्वप्रथम टिप्पणीकार होने का इनाम पाया। और दिनों तो इस मामले में हम फिस्सड्डी ही रह जाते थे समय की कमी के कारण.


सरप्राइज तो ये की घर के सारे काम भी हो गए और जब श्रीमती जी घर आई तो घर, घर जैसा लग रहा था।

वैसे भी घर चार दीवारों से नहीं , इंसानों से बनता है. आपसी प्रेम से बनता है.

13 comments:

  1. घर चार दीवारों से नहीं , इंसानों से बनता है. आपसी प्रेम से बनता है.
    सही कहा है. बहुत खूबसूरत ढंग से आपने व्यक्त किया है.

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  2. वैसे भी घर चार दीवारों से नहीं , इंसानों से बनता है. आपसी प्रेम से बनता है.
    बहुत सही लिखा है .. दीपावली पर बढिया आलेख !!

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  3. बहुत खुब लिखा आपने घर चार दीवारों से नही,इन्सानों से बनता है.....
    वैसे एक बात जब कभी मूड फ्रेश करना होता है तो आपका ब्लाग पढने लगती हूं जिसमें नवीनता के साथ कामेडी का भी लुत्फ होता है।

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  4. डॉ टी एस दराल!
    आपने बहुत ही सार्थक लेख लिखा है।
    पोस्ट का शीर्षक ही अपने आप में एक पोस्ट है।
    बधई!

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  5. डॉ साहेब,

    बड़ी तबीयत से और फ़ुर्सत के माहौल में लिखा है शायद आपने ये आलेख......... सचमुच आनन्द आ गया......

    पारिवारिक वातावरण को स्क्रीन पर जीवन्त कर दिया आपने......... सबसे अच्छी बात तो ये है कि घर चार दीवारी

    से नहीं बनता....................


    अभिनन्दन आपका दिल से.................

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  6. भाईसाहब मै तो पढ- पढ़कर

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  7. शरद भाई, कुछ कहते कहते सीरियस क्यों हो गए. आप हंसते हुए बहुत अच्छे लगते हैं.

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  8. दीवाली या दीवाला --समझ ना पाए घरवाला
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    पर दीवाली का एक और रूप सताता है। और वो है घर का सारा कूड़ा करकट निकाल, घर की सफाई करना, फिर चाहे मन कितना ही मैला रह जाये।
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    इनमे ज्यादातर तो अंगूठा छाप होते हैं, लेकिन इनके लिए एक अच्छे खासे पढ़े लिखे आदमी को बेवकूफ बनाना इनके बाएँ अंगूठे का काम है.
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    आज मैडम तो स्त्री शक्ति के प्रदर्शन में लगी थी, और हम घर में मिस स्त्री ( मिस्त्री) के साथ घर की मरम्मत में जुटे रहे। वैसे ऐसे मौके पर कौन्फेरेंस!! मुझे तो ये लेडी डॉक्टरों की कौन्फेरेंस कम, कोंस्पिरेसी ज्यादा लगती है, अपने पतियों को काम में पेलने के लिए.
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    सरप्राइज तो ये की घर के सारे काम भी हो गए और जब श्रीमती जी घर आई तो घर, घर जैसा लग रहा था।

    वैसे भी घर चार दीवारों से नहीं , इंसानों से बनता है. आपसी प्रेम से बनता है.
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    व्यथा बहुत मनोरंजक अंदाज में बताई. सभी व्य्थाये जायज़ है,

    हार्दिक आभार आपका

    चन्द्र मोहन गुप्त
    जयपुर
    www.cmgupta.blogspot.com

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  9. वैसे भी घर चार दीवारों से नहीं , इंसानों से बनता है. आपसी प्रेम से बनता है. jee haan! bilkul sahi kaha aapne


    achcha laga padh kar

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  10. अति सुन्दर भाई . बधाई!!

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  11. दीवाली के बहाने सामयिक चिंतन।
    धनतेरस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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  12. बहुत बढ़िया! एक दम सही वर्णन! आप बहुत भाग्यवान हैं कि एक ही दिन में सारा काम निबट गया! मुझे तो लगभग ३ सप्ताह लग गए थे और ऐसा लगा था कि सब-कौनट्रक्टर के 'मिस स्त्री' स्थायी रूप से जम गए हैं! वो तब निकले जब कौनट्रक्टर के साथ कुल जितने पैसे का समझौता हुआ था उसके हिसाब से ख़त्म हो गए थे, यद्यपि मेरी नजर में काम पूरा नहीं हुआ था - कुछ छोटे-बड़े काम, जैसे बाहर जमा कूड़ा की सफाई, आदि, जो मुझे बाद में अतिरिक्त पैसा दे जमादार आदि से करवाने पड़े...इस तरह के काम, जब तक पत्नी थी और लड़कियों की शादी नहीं हुई थी, वो लोग ही कराते थे :) दिल्ली में ससुराल वाली लड़की ने अवश्य मुझे छुट्टी वाले दिन मेरी बहुत मदद करी...

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  13. चलिए...इसी बहाने एक पंथ दो काज तो हो गए...
    घर भी दुरस्त हो गया और ब्लॉग्गिंग को भी भरपूर समय दिया

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