बसंत ऋतू और फागुन का महीना। इन दिनों में गाँव की याद आना स्वाभाविक सा है उन लोगों के लिए जिनका गाँव से कभी नाता रहा है। हालाँकि भाग दौड़ की जिंदगी में अब गाँव जाना कभी कभार ही हो पाता है।लेकिन पिछले रविवार जब एक शादी में जाने की अपरिहार्य परिस्थितियां उत्पन्न हुई तो हमने भी सहर्ष स्वीकार कर लिया।
गाँव था यू पी के बागपत जिले में बागपत से थोड़ा आगे जिसके लिए हमें जाना था शाहदरा लोनी रोड से होकर जो कहने को तो राजकीय राजमार्ग है लेकिन शाहदरा से लोनी तक का करीब १५ किलोमीटर का सफ़र कमरतोड़ ही कहा जायेगा। ऐसा लगता है कि इस क्षेत्र में जनसँख्या घनत्त्व देश में सबसे ज्यादा है। लोनी पार करने के बाद जब बागपत जनपद क्षेत्र शुरू हुआ तब जाकर ट्रैफिक से थोड़ी राहत मिली।
बागपत के पास सड़क के पश्चिम की ओर यमुना नदी काफी पास दिखाई दे रही थी। यह क्षेत्र काफी हरा भरा था। अब सरसों की फसल से भरे बसंती खेत भी दिखाई देने लगे थे। लगा जैसे प्यारा गाँव आ गया है। लेकिन कुछ किलोमीटर के बाद ही सड़क फिर टूटी फूटी हो गई। एक दिन पहले हुई बरसात का पानी गहरे गड्ढों में भरकर यातायात के लिए मुश्किलें पैदा कर रहा था। ऐसे में अपनी गाड़ी छोड़कर किराये की गाड़ी लाने का निर्णय बड़ा सही लगा।
सड़क किनारे बसे एक गाँव का दृश्य। फोटो में जो संरचना नज़र आ रही हैं , उन्हें हरियाणा में बूंगे कहते हैं। ये भूसा स्टोर करने के लिए काम आते हैं। गाय भैंसों के गोबर से बने उपले आज भी गाँव में ईंधन के रूप में इस्तेमाल किये जाते हैं। इन्हें स्टोर करने के लिए जो संरचना बनायीं जाती है , उन्हें बिटोड़े कहते हैं।
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गाँव के रास्ते में इस तरह के नज़ारे बहुत देखने को मिले। बचपन में बच्चे इसे देख कर कहते थे , क़ुतुब मीनार आ गई। लेकिन ये वास्तव में ब्रिक किल्न की चिमनी होती है। शहरों में बने आलिशान भवनों के लिए ईंटें यहीं से आती हैं।
बारात के ठहरने का इंतज़ाम एक घर की बैठक में किया गया था। बीच में बने आँगन में खिली धूप में बिछी चारपाइयों पर हुक्का गुडगुडाते हुए बाराती बैठे थे।
हम तो सीधे खाने पर चले गए। गाँव में भी खाने का अच्छा इंतज़ाम देखकर आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता हुई। यह तो निश्चित था कि खाने में इस्तेमाल किये गए खाद्य पदार्थ जैसे दूध , खोया , पनीर आदि शुद्ध थे। लेकिन फिर बारात का जुलुस आरम्भ हुआ और मोबाइल डी जे साथ खुले में शराब की बोतल पकडे युवाओं ने डांस करना आरम्भ किया तो एक घंटे के बाद भी जब ५० मीटर का ही फासला तय हुआ तो हमने वहां से खिसकना ही बेहतर समझा। लड़के के पिता को बाय बाय कर हम तो चल पड़े वापसी के सफ़र पर।
रास्ते में गाँव का स्वरुप आधुनिक विकास के साथ एक साथ नज़र आ रहे थे। सड़क किनारे उपले और गन्ने के खेत , और पृष्ठभूमि में हाई टेंशन बिजली के तार इस बात के साक्षी हैं कि यहाँ आधुनिकता और परंपरा आभी भी एक साथ जीवित हैं।
आखिर शाम होते होते हम लौट आये गाँव से शहर की ओर, फिर उसी ट्रैफिक और इंसानी जंगल में जिसकी दूषित वायु में साँस लेते हुए साँस लेने का आभास हर घड़ी होता रहता है क्योंकि इसके लिए भी प्रयास करना पड़ता है। लेकिन इस तरह एक मुद्दत के बाद गाँव की सैर कर आनंद आ गया।