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Sunday, March 3, 2013

बसंत का एक रविवार, और गाँव की शादी ---


बसंत ऋतू और फागुन का महीना। इन दिनों में गाँव की याद आना स्वाभाविक सा है उन लोगों के लिए जिनका गाँव से कभी नाता रहा है। हालाँकि भाग दौड़ की जिंदगी में अब गाँव जाना कभी कभार ही हो पाता है।लेकिन पिछले रविवार जब एक शादी में जाने की अपरिहार्य परिस्थितियां उत्पन्न हुई तो हमने भी सहर्ष स्वीकार कर लिया।

गाँव था यू पी के बागपत जिले में बागपत से थोड़ा आगे जिसके लिए हमें जाना था शाहदरा लोनी रोड से होकर जो कहने को तो राजकीय राजमार्ग है लेकिन शाहदरा से लोनी तक का करीब १५ किलोमीटर का सफ़र कमरतोड़ ही कहा जायेगा। ऐसा लगता है कि इस क्षेत्र में जनसँख्या घनत्त्व देश में सबसे ज्यादा है। लोनी पार करने के बाद जब बागपत जनपद क्षेत्र शुरू हुआ तब जाकर ट्रैफिक से थोड़ी राहत मिली।     



बागपत के पास सड़क के पश्चिम की ओर यमुना नदी काफी पास दिखाई दे रही थी। यह क्षेत्र काफी हरा भरा था। अब सरसों की फसल से भरे बसंती खेत भी दिखाई देने लगे थे। लगा जैसे प्यारा गाँव आ गया है। लेकिन कुछ किलोमीटर के बाद ही सड़क फिर टूटी फूटी हो गई। एक दिन पहले हुई बरसात का पानी गहरे गड्ढों में भरकर यातायात के लिए मुश्किलें पैदा कर रहा था। ऐसे में अपनी गाड़ी छोड़कर किराये की गाड़ी लाने का निर्णय बड़ा सही लगा।



सड़क किनारे बसे एक गाँव का दृश्य। फोटो में जो संरचना नज़र आ रही हैं , उन्हें हरियाणा में बूंगे कहते हैं। ये भूसा स्टोर करने के लिए काम आते हैं। गाय भैंसों के गोबर से बने उपले आज भी गाँव में ईंधन के रूप में इस्तेमाल किये जाते हैं। इन्हें स्टोर करने के लिए जो संरचना बनायीं जाती है , उन्हें बिटोड़े कहते हैं।    
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गाँव के रास्ते में इस तरह के नज़ारे बहुत देखने को मिले। बचपन में बच्चे इसे देख कर कहते थे , क़ुतुब मीनार आ गई। लेकिन ये वास्तव में ब्रिक किल्न की चिमनी होती है। शहरों में बने आलिशान भवनों के लिए ईंटें यहीं से आती हैं।  


बारात के ठहरने का इंतज़ाम एक घर की बैठक में किया गया था। बीच में बने आँगन में खिली धूप में बिछी चारपाइयों पर हुक्का गुडगुडाते हुए बाराती बैठे थे।



 हम तो सीधे खाने पर चले गए। गाँव में भी खाने का अच्छा इंतज़ाम देखकर आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता हुई। यह तो निश्चित था कि खाने में इस्तेमाल किये गए खाद्य पदार्थ जैसे दूध , खोया , पनीर आदि शुद्ध थे। लेकिन फिर बारात का जुलुस आरम्भ हुआ और मोबाइल डी जे साथ खुले में शराब की बोतल पकडे युवाओं ने डांस करना आरम्भ किया तो एक घंटे के बाद भी जब ५० मीटर का ही फासला तय हुआ तो हमने वहां से खिसकना ही बेहतर समझा। लड़के के पिता को बाय बाय कर हम तो चल पड़े वापसी के सफ़र पर।         




रास्ते में गाँव का स्वरुप आधुनिक विकास के साथ एक साथ नज़र आ रहे थे। सड़क किनारे उपले और गन्ने के खेत , और पृष्ठभूमि में हाई टेंशन बिजली के तार इस बात के साक्षी हैं कि यहाँ आधुनिकता और परंपरा आभी भी एक साथ जीवित हैं।


आखिर शाम होते होते हम लौट आये गाँव से शहर की ओर, फिर उसी ट्रैफिक और इंसानी जंगल में जिसकी दूषित वायु में साँस लेते हुए साँस लेने का आभास हर घड़ी होता रहता है क्योंकि इसके लिए भी प्रयास करना पड़ता है।  लेकिन इस तरह एक मुद्दत के बाद गाँव की सैर कर आनंद आ गया।



Thursday, August 11, 2011

उम्र पचपन की , दिल बचपन का --

बचपन गाँव में गुजरा . फिर शहर में रहने लगे तो छुटियाँ गाँव में ही बीतती . उन दिनों में भी गाँव में अपना फार्म हाउस था --जी हाँ दादाजी ने गाँव से बाहर दो बीघा खेत में मकान बनाया था . गाँव के पनघट में जब पानी सूख गया तो आधे गाँव द्वारा हमारे फार्म हाउस में लगे हैण्ड पम्प का पानी ही पीने के लिए प्रयोग किया जाने लगा .


गर्मियों की छुट्टियों में पानी लेने आई रंग बिरंगी पोशाक धारण किये पनिहारियों को निहारना निर्मल आनंद की अनुभूति प्रदान करता था .

गाँव की औरतें वैसे जैसे भी रहें , लेकिन पानी भरने जाते समय अपनी सबसे बढ़िया ड्रेस पहन कर आती थी .नई नवेली दुल्हन के तो क्या कहने . घूंघट समेत वस्त्रों से भले ही सारा शरीर ढका हो , लेकिन सिर्फ हाथों को ही देखकर अंदाज़ा हो जाता था कि फलाने की बहु कितनी सुन्दर है .

अब यह हमारी मजबूरी थी कि हमारे घर में हमारे लिए तो बस चाचियाँ , ताइयां और दादियाँ ही थी --बहु कोई नहीं थी .होती भी कैसे --सारे भाई बहनों में सबसे बड़े , खानदान के सबसे बड़े चिराग हमी तो थे .

उसपर ऐसे शर्मीले कि हमारे शर्मीलेपन पर शर्म भी शर्मशार हो जाए .

फिर एक दिन अचानक बड़े हो गए . शहर में रहने लगे . गाँव पूर्ण रूप से छूट गया . शर्माना भी थोडा कम हुआ . जाने कैसे मंच से दोस्ती हो गई . डॉक्टर होने के साथ साथ कब लाफ्टर चैम्पियन , हास्य कवि , और मंच संचालक बन गए , पता ही नहीं चला ।

लेकिन आज भी जब कभी गाँव की किसी चाची या ताई से मुलाकात होती है और वो प्यार से सर पर हाथ रख कर पुचकारती है , तो उसी तरह शर्माकर बच्चा सा महसूस करता हूँ ।

आज उम्र भले ही पचपन की हो गई हो , लेकिन दिल में कहीं कहीं एक बच्चा अभी भी जिन्दा है

शायद यही जिन्दादिली का अहसास कराता रहता है

Saturday, January 29, 2011

यहाँ हैल्थ की मज़बूरी है, वहां वैल्थ की मज़बूरी है--



हमारे देश की ७१ % जनता गाँव में रहती है । करीब ३८ % गरीबी की रेखा से नीचे रहते हैं ।
शहर और गाँव के , अमीरों और गरीबों के जीवन में कितना अंतर होता है और कितनी समानताएं होती हैं , यह वही जान सकता है जिसने दोनों ही जिंदगियों को करीब से देखा हो ।

प्रस्तुत है ऐसी ही एक रचना जो आपको रूबरू कराएगी जीवन की विषमताओं से


सूखी
रोटी ये भी खाते हैं , वे भी खाते हैं
डाइटिंग ये भी करते हैं , वे भी करते हैं
जो डाइटिंग अमीरों का शौक है ,
वही गरीबों के जीवन का खौफ है

मज़बूरी
यहाँ भी हैं, मज़बूरी वहां भी है
यहाँ हैल्थ की मज़बूरी है, वहां वैल्थ की मज़बूरी है
मक्की सरसों गाँव में हालात की बेबसी दर्शाता है
वही शहर के आलिशान रेस्तरां में डेलिकेसी कहलाता है
जई की जो फसल गाँव में , पशुओं को खिलाई जाती है
वही शहर में ओट मील बनके, ऑस्ट्रेलिया से मंगाई जाती है

फटे कपडे विलेजर्स का तन ढकने का , एकमात्र साधन है
कपडे फाड़कर पहनना , शहर के टीनेजर्स का लेटेस्ट फैशन है ।

यहाँ सिक्स पैक एब्स के लिए रात भर ट्रेड मिल पर पसीना बहाते हैं
वहां किसानों के एब्स मेहनत के पसीने से खुद ही उभर आते हैं
मज़बूर ये भी हैं , मज़बूर वे भी हैं
यहाँ हैल्थ की मज़बूरी है, वहां वैल्थ की मज़बूरी है



वहां मूंह अँधेरे जाते हैं , जोहड़ जंगल
यहाँ घर में ही कक्ष का आराम है ।

वहां काम पर जाते हैं , पैदल चलकर
यहाँ पैदल चलना भी एक काम है
गाँव की उन्मुक्त हवा में , किसानों के ठहाके गूंजते हैं
यहाँ हंसने के लिए भी लोग, लाफ्टर क्लब ढूंढते हैं
वहां पीपल की शीतल छाँव से मंद मंद पुरवाई का मेल
यहाँ एयर की कंडीशन ऐसी कि एयर कंडिशनर भी फेल

जो किसान अन्न उगाता है , एक दिन धंस जाता है
रोटी की तलाश में , और क़र्ज़ के भुगतान में
वहीँ शहरी उपभोक्ता फंस जाता है
कोलेस्ट्रोल के प्लौक में, और मधुमेह के निदान में
यहाँ भी मज़बूरी है , वहां भी मज़बूरी है
यहाँ हैल्थ की मज़बूरी है, वहां वैल्थ की मज़बूरी है

नोट : यह रचना आपको जानी पहचानी लगेगीयह पहले प्रकाशित रचना का मूल रूप है


Saturday, May 22, 2010

यहाँ हैल्थ की मजबूरी है , वहां वैल्थ की मजबूरी है ---

ब्लोगिंग में आजकल जो गहमा गहमी , वाद विवाद और आरोप प्रत्यारोप हो रहे हैं , उनसे अलग कुछ ऐसे मित्र ब्लोगर भी हैं जो सभी विवादों से दूर निर्विकार भाव से हिंदी सेवार्थ कार्य में लीन हैंऐसे ही एक मित्र हैं , मुंबई में रहने वाले श्री नीरज गोस्वामी जी , जो नियमित रूप से प्रसिद्ध शायरों , ग़ज़लकारों और कवियों की पुस्तकों और रचनाओं से परिचय कराते रहते हैं

हमारे देश में लगभग ७२ % लोग गावों में रहते हैंवहां ज्यादातर लोग गरीबी में वास करते हैंहालाँकि इसका मतलब यह नहीं कि गाँव में सभी गरीब और शहर में सिर्फ अमीर ही रहते हैं । कुल मिलाकर गाँव और शहरों में गरीबों की संख्या , अमीरों की संख्या से कहीं ज्यादा है।

मन हुआ कि इस अमीरी -गरीबी और गाँव -शहर के अंतर पर एक रचना लिखी जाये ।
मैंने ये विचार नीरज भाई के सामने रखा और उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर एक कविता बना डाली । गुस्ताखी करते हुए इस के साथ थोड़ी छेड़ छाड़ कर , आपके सन्मुख रख रहा हूँ ।

( ये = अमीर , वे /वो = गरीब , यहाँ = शहर , वहां =गाँव )

सूखी रोटी 'ये' भी खाते
सूखी रोटी 'वे ' भी खाते ।
डाइटिंग से 'ये' वज़न घटाते
भूखा रह वे दुबला जाते ।
इनको साइज़ जीरो का शौक
उनको बस सर्वाइवल का खौफ ।

ये भी हैं मजबूर, वे भी हैं मजबूर ।
यहाँ हैल्थ की मजबूरी है , वहां वैल्थ की मजबूरी है।


मक्की सरसों जब 'वे' खाएं
गावों में बेबस कहलायें।
पर शहरों में चला के ऐसी
खाते 'ये' कह ' डेलिकेसी' ।
जई फसल जो ढोर हैं खाते
ओट मील ये कह उसे मंगाते

ये भी हैं मजबूर, वे भी हैं मजबूर ।
यहाँ हैल्थ की मजबूरी है , वहां वैल्थ की मजबूरी है।


जिम में जा 'ये' एब्स बनाते
'वो' महनत से खुद गठ जाते।
कपडे फाड़ ये करते फैशन
उनको तन ढकने का टेंशन ।
पैदल चल वो काम पे जाएं
यहाँ पैदल चलना भी काम कहाए।

ये भी हैं मजबूर, वे भी हैं मजबूर ।
यहाँ हैल्थ की मजबूरी है , वहां वैल्थ की मजबूरी है।


वो हँसते हैं लगा ठहाके
ये हंसने को क्लब हैं जाते ।
वो पीपल की छाँव में रहते
दुःख पाकर भी गाँव में रहते ।
होती क्या जाने पुरवाई
'ये' ऐ सी में रहते भाई ।

ये भी हैं मजबूर, वे भी हैं मजबूर ।
यहाँ हैल्थ की मजबूरी है , वहां वैल्थ की मजबूरी है

वो किसान जो अन्न उगाये
क़र्ज़ में खुद ही फंस जाये।
बीच में जब लाला आए
उसी अन्न से धन कमाए।
फिर बी पी डायबिटीज हो जाए
खाना कुछ भी खा ना पाए

ये भी हैं मजबूर, वे भी हैं मजबूर ।
यहाँ हैल्थ की मजबूरी है , वहां वैल्थ की मजबूरी है।


दोनों ही बस ये चाहें
'वो' से हम 'ये' हो जाएँ
'ये' से हम 'वो' हो जाएँ।
लेकिन न ये वो बन पायें
न ही वो ये बन पायें
जो जैसे हैं , वैसे रह जाएं ।

ये भी हैं मजबूर, वो भी हैं मजबूर ।
यहाँ हैल्थ की मजबूरी है , वहां वैल्थ की मजबूरी है।


यह प्रयास कैसा लगा , बताइयेगा ज़रूर।