पूर्वी दिल्ली के एक शानदार मॉल की सबसे उपरी मंजिल पर खड़ा मैं देख रहा था नीचे की चहल पहल -- आते जाते , हँसते मुस्कराते , इठलाते चहकते --- युवा नर नारी , कोई हाथों में हाथ डाले , कोई कोने में खड़े होकर चिपियाते, फुसफुसाते ( कड्लिंग ), -- लेकिन सब खुश -- बाहर की दुनिया से बेखबर .
कितनी अजीब बात थी -- बाहर की दुनिया में कहीं पानी नहीं , कहीं बिजली -- पेट्रोल ज्यादा महंगा या सब्जियां -- गर्मी से परेशान काम पर जाते लोग या ट्यूशन के लिए जाते छात्र .
लेकिन यहाँ बस एक ही दृश्य -- सब खुश , मग्न , चिंतारहित, पूर्णतया मित्रवत .
कुछ पल के लिए खो सा गया अतीत की यादों में . याद आने लगा वो समय जब प्री मेडिकल में था -- एक रुपया प्रति सप्ताह जेब खर्च मिलता -- खर्च होता ही नहीं था . कहाँ किसे फुर्सत थी केन्टीन में बैठने की . सभी तो करियर बनाने में लगे रहते थे . लेकिन महीने के अंत में एक फिल्म ज़रूर देखते और पार्टी हो जाती .
फिर मेडिकल कॉलेज में आ गए -- जेब खर्च बढ़कर दस रूपये प्रति सप्ताह हो गया . अब रोज एक चाय और समोसा हो जाता था . कभी कभार शाम को टहलते हुए पास की आई एन ऐ मार्केट में चले जाते , छोले बठूरे खाने . तीन रूपये में बड़े स्वादिष्ट छोले बठूरे मिलते थे . लेकिन अक्सर जेब में दस रूपये डालकर जाते और उस दुकान के सामने दो चक्कर लगाकर बस
चक्षु पान कर ही लौट आते . मन में विचार बना लिया था -- ऐसा करने से दृढ इच्छा शक्ति का विकास होता है .
अब कभी कभी लगता है -- इच्छा शक्ति कुछ ज्यादा ही दृढ हो गई है . खर्च करने का मन ही नहीं करता . बच्चे भी हँसते हैं और कंजूस कहने लगे हैं . सोचता हूँ , शायद सही ही कहते हैं . कहाँ गई वो खर्च करने की आदत ! फिर लगता है इसके लिए जिम्मेदार हालात हैं . वेतन सीधा बैंक में चला जाता है . सारे बिलों का भुगतान ओंनलाइन हो जाता है . श्रीमती जी सारी शौपिंग अपने क्रेडिट कार्ड से कर आती है और फिर उसका बिल हमारे कार्ड से भरने की नाकाम कोशिश करती हैं . अंतत : भुगतान तो चेक से हो ही जाता है .
अब देखा जाए तो कैश खर्च करने का अवसर ही नहीं मिलता . इसलिए अपनी तो आदत ही छूट गई है हाथ से पैसे देने की .
लेकिन यहाँ मॉल में आकर एक अलग ही दुनिया देखने को मिलती है . लोग दुकानों में कम , बाहर घूमते या बैठे ज्यादा नज़र आते हैं . सर्दी हो या गर्मी या आंधी आए या तूफ़ान -- मॉल के अन्दर तो सब ऐ सी ही होता है . इसलिए मौसम की मार नहीं झेलनी पड़ती . कोई यह भी नहीं पूछता --आप यहाँ क्या कर रहे हैं ? या कर क्या रहे हैं ? ऐसा स्वछन्द वातावरण स्वतंत्र भारत में शायद पहली बार मॉल कल्चर आने के बाद ही मिला है .
पिछले दस सालों में दिल्ली और देश की जैसे कायापलट ही हो गई है. एस्केलेटर या इलिवेटर पर खड़े होकर लगता ही नहीं हम भारत में हैं . चमचमाते फर्श और दीवारें , उम्दा साफ सफाई , टॉयलेट्स भी आधुनिक -- लगता है जैसे इम्पोर्टेड शब्द अब शब्दावली से ही हट गया हो .
इस बौलिंग ऐले को देख कर तीन साल पहले कनाडा यात्रा की याद आ गई जब पहली बार हमने वहां बौलिंग की थी . अब यहाँ ही यह सुविधा देख कर अत्यंत रोमांच हो रहा था .
साथ ही विशाल शीशे की खिड़की से बाहर मेट्रो लाइन पर जाती मेट्रो को देख कर तो जैसे स्वर्गिक आनंद की अनुभूति हो रही थी . सोच कर भी अजीब लग रहा था , यह वही क्षेत्र है जहाँ कुछ साल पहले गंदगी ही गंदगी दिखाई देती थी . लेकिन अब मेट्रो ने सब पलट कर रख दिया था .
लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावित किया -- फ़ूड कोर्ट ने . इत्तेफ़ाकन इस मॉल में हमारा आना कम ही हुआ है . इसलिए सारा मॉल घूमकर देखने के बाद जब पहुंचे खाने की जगह तो वहां का नज़ारा देखकर हत्प्रध रह गए . पांच बजे भी लगभग सारी टेबल्स भरी थी . ९० % लोग हमारे बच्चों की उम्र के थे . लोग क्या , यूँ समझिये ब़ोय्ज, गर्ल्स , बॉय फ्रेंड , गर्ल फ्रेंड और कुछ खाली फ्रेंड्स -- सब मज़े से बैठे खाते पीते हुए गप्पें हांक रहे थे . कुछ तो होमवर्क और त्युसन भी वहीँ बैठकर पढ़ रहे थे . पति पत्नी तो कम ही दिखाई दिए . फिर भी , कोई किसी की तरफ नहीं देख रहा था --यह देखकर हमें भी अच्छा लगा वर्ना ताका झांकी से तो हमें भी परेशानी होती रही है .
अब बारी आई खाने की . शाम के पांच बजे ज्यादा कुछ तो नहीं खाया जा सकता था . अब हम अंग्रेज़ तो हैं नहीं , जो शाम होते ही रात का खाना खा लें ( सपर ) . काफी खोज बीन करने पर हमें पसंद आये --गोल गप्पे ( पानी पूरी ) . यूँ तो यह आइटम खाए हुए सालों हो चुके थे क्योंकि इन्हें खिलाने का विशेष तरीका हमें नहीं भाता . लेकिन यहाँ की बात कुछ और थी . यहाँ हाथ में ग्लव्ज पहनकर काम किया जा रहा था . हालाँकि जब प्लेट सामने आई तो पता चला -- गोल गप्पे खिलाने वाला भी हम में से ही किसी को बनना पड़ेगा . आखिर श्रीमती जी ने यह काम किया और हमने गोल गप्पे गपने का .
यहाँ आकर यही लगा --जब तक हम रूटीन लाइफ में उलझे रहते हैं , तब तक जीवन की रंगीनियों को भूले रहते हैं . अब जब यहाँ भी सब कुछ उपलब्ध है तो क्यों न इन सुविधाओं का फायदा उठाते हुए जीवन में रस घोलते हुए आनंद लिया जाए . आखिर , ज्यादा पैसा बचा कर भी क्या करना है . आज की युवा पीढ़ी से सीखते हुए कुछ मौज मस्ती पर भी खर्च करना चाहिए . वैसे भी एक दिन सब यहीं रह जाना है .
सारांश : जो व्यक्ति जितना ज्यादा कंजूस होता है , वह उतना ज्यादा दयालु होता है . क्योंकि वह अपना सब कुछ दूसरों के लिए छोड़ जाता है .
अपन तो बहुत निर्दयी है...निर्मम...क्रूर........
ReplyDeleteहाथ में पैसा टिकता नहीं......
शायद साथ वाला ज्यादा ही दयालु है इसलिए हम ऐसे हो गए :-)
सादर
अनु
जो व्यक्ति कंजूस होता है उसे पता ही नहीं होता कि वह दयालु है। पता तो डा0 साहब को होता है। यह अब मरने वाला है, ढेर सारी संपत्ति जमा कर ली है इसने अपने परिवार के लिए। कितना दयालु है!:)
ReplyDelete"जो व्यक्ति जितना ज्यादा कंजूस होता है , वह उतना ज्यादा दयालु होता है . क्योंकि वह अपना सब कुछ दूसरों के लिए छोड़ जाता है "
ReplyDeleteलाजबाब सन्देश डा० साहब !
"चक्षु पान कर ही लौट आते . मन में विचार बना लिया था -- ऐसा करने से दृढ इच्छा शक्ति का विकास होता है "
चक्षु पान से दृढ इच्छा शक्ति का विकास ??? ये बात कुछ हजम नहीं हुई, डा० साहब ! :) वैसे ये है काफी पेचीदा सवाल कि इससे इच्छा शक्ति का विकास होता है अथवा इच्छा शक्ति को जबरन दबाया जाता है ! .
कहाँ से कहाँ ले गए गोदियाल जी ! :)
Deleteहम तो छोले बठूरे की बात कर रहे थे .
अब हम क्या कहें ...?भाई गिदियाल जी ने जो कह दिया !
ReplyDeleteशुभकामनाएँ!:-)))
माफ़ी भाई जी ...गोदियाल जी...पढा जाये !नज़र का कसूर :-)
ReplyDeleteमजा आया इस माल विजिट में.
ReplyDeleteबहुत रोचक, आनन्द आ गया।
ReplyDeleteकिसी कन्जूस का भी महिमा मंडन किया जा सकता है यह आपकी लेखनी से सीखा।
दिलचस्प
ReplyDeleteबहुत कुछ बातें रिलेटिव भी होतीं हैं डॉ साब.
ReplyDeleteज्यादातर परिवारों में खर्चे बेतहाशा हैं और हम जैसे लोग अक्सर ही अगली सैलेरी का इंतज़ार करते हैं.
हमें बचपन में बहुत कुछ नहीं मिल पाया इसलिए हम चाहते हैं के बच्चे कम्फर्ट से रहें. इस चक्कर में हम अपने ऊपर खर्च करने में कटौती कर रहे हैं. यदि कुछ बचा भी रहे हैं तो इसलिए कि कुछ सालों बाद बच्चों की पढ़ाई का खर्च निकालना मुश्किल हो जाएगा.
नौकरी करने को दस साल होते आये और लोग सलाह देते हैं कि दिल्ली में अपना घर तो होना चाहिए. सलाह देना आसान है. कामचलाऊ घर भी यहाँ तीस लाख से कम का नहीं मिलेगा, वह भी दिल्ली से बाहर. सारी उम्र किश्तें भरते बीतेगी इसलिए घर खरीदने का विचार मन में ही नहीं लाते. बच्चे बड़े होने पर घर लेने लायक बने तो ठीक नहीं तो उम्र भर हमें कोसेंगे:)
लो जी, मैं यहाँ कहाँ अपना दुखड़ा रोने लगा. आपकी पोस्ट पढ़कर अच्छा लगा. महीने में दो बार अपनी भी माल विजिट हो जाती है और ऐसे ही अनुभव होते हैं.
समझ में नहीं आता कि इन्सान करे क्या! जवानी में जिन खुशियों को दरकिनार करके वह बुढ़ापे के लिए पैसा बचाता है वह बुढ़ापे में इंजॉय नहीं के जा सकतीं ;)
निशांत जी , इस दौर से सभी गुजरते हैं . हम भी गुजरे हैं . गौर कीजिये --एक रुपया प्रति सप्ताह जेब खर्च . लेकिन मॉल में शौपिंग बस १० % लोग ही करते हैं . बाकि सब बस घूमने जाते हैं . अच्छा तो यह है -- कुछ समय और पैसा एन्जॉय करने के लिए भी निकाला जाए , भले ही महीने में एक बार जैसा हम कॉलेज में करते थे .
Deleteयह फलसफा भी .. क्या कहने
ReplyDeleteमॉल में अच्छा चिंतन कर डाला आपने. वाकई इन तस्वीरों से कोई आज से १० साल पहले की भी तुलना कर ले तो..वाकई समय काफी बदल गया है.
ReplyDelete@जो व्यक्ति जितना ज्यादा कंजूस होता है , वह उतना ज्यादा दयालु होता है . क्योंकि वह अपना सब कुछ दूसरों के लिए छोड़ जाता है .
ReplyDeleteकाम की बात यही है। :))
JCJuly 01, 2012 6:58 PM
ReplyDeleteआपने सही कहा , दिल्ली शहर का जीवन अचानक बदल गया लगता है... कुछ ही वर्षों में पी वी आर, मेट्रो और मॉल कल्चर ने दिल्ली शहर (एन सी आर) का वातावरण ही बदल दिया है... हम को तो स्कूल के दिनों में पौकेट मनी एक आना मिलता था! और तब भी कुछ न कुछ मिल जाता था खाने के लिए! बचा बचा के उस एक आने को रखना पड़ता था... अब जब थोड़ी हैसियत बढ़ी, तो कभी कभी सोचते हैं कि आजकल आदमी एक दम विदेशी वातावरण में रह गंद और दुर्गंच से बचा रह सकता है - जबकि ऐसा नहीं है कि सारी दिल्ली साफ़ सुथरी हो गयी हो!
जे सी जी , जिंदगी में यह भी एक विरोधाभास रहता है --जब ज़रुरत होती है तब हैसियत नहीं होती और जब हैसियत बन जाती है तब ज़रुरत नहीं रहती . इसीलिए यही लगता है -- जितना वतमान को जी लिया जाए उतना ही अच्छा है क्योंकि कल क्या हो , किसी को नहीं पता होता .
Deleteआपने कहा, "कल क्या होगा किसी को नहीं पता"...
Deleteहमारे पूर्वजों द्वारा छोड़े गए ऐसे संकेत (जैसे 'ॐ' द्वारा) आज भी मिलते हैं जो दर्शाते हैं कि उन्होंने तीन ('३') गुण वाले सृष्टिकर्ता, पालक, और संहारकर्ता, अर्थात किसी एक ही मूल अदृश्य शक्ति की झलक को किसी भी काल अथवा स्थान पर उपस्थित हरेक अस्थायी प्राणी/ व्यक्ति में भी पाया... और उस अदृश्य शक्ति को मानव की गतिविधि के माध्यम से ही जानने का प्रयास भी किया...
मानव जीवन के उद्देश्य को इस प्रकार केवल उस अदृश्य शक्ति को - जिसके हम सभी प्रतिबिम्ब भी कहलाये गए - हरेक को जानने का प्रयास करना बताया...
पुनश्च - शायद समय का फेर है! जब 'वैदिक काल' था, यहाँ 'भारत' में योगी, सिद्ध आदि निवास करते थे - पानी पर चलते थे, एक जगह से दूअरी जगह पलक झपकते ही पहुँच जाते थे, बिना किसी जहाज/ मशीन आदि आदि के...
Deleteऔर उस समय यूरोप में जंगली रहते थे!!!
पूर्व और पश्चिम, इस प्रकार, साईकिल के दो पैडल समान समझे जा सकते हैं - जब एक ऊपर होता है तो दूसरा नीचे, और इस उंच-नीच के कारण जो शक्ति बनती है वो ही तो साईकिल (काल चक्र) को आगे (या पीछे, सतयुग से कलियुग की ओर) ले जाती है!!!
जो व्यक्ति जितना ज्यादा कंजूस होता है , वह उतना ज्यादा दयालु होता है . क्योंकि वह अपना सब कुछ दूसरों के लिए छोड़ जाता है .
ReplyDeleteशायद जान बूझ कर नहीं छोड़ता बस आदत बन जाती है ... लेकिन हम इस रूप में भी सोच सकते हैं ... मॉल का सजीव चित्रण कर डाला ... बढ़िया चिंतन
सही कहा संगीता जी , आदत ही होती है कंजूसी की . लेकिन इसे बदलना चाहिए , आखिर जिंदगी एक बार ही मिलती है . वह भी छोटी सी ही होती है .
Deleteयहाँ पहले बच्चो के खेलने के लिए पूरा एक कोर्नर था, जिसे बंद कर दिया गया :-(
ReplyDeleteइस कारण अब यहाँ जाने को मन ही नहीं करता, या यह कहूँ, कि बच्चे अब यहाँ जाने ही नहीं देते.... :-(
वैसे यह आपने सही कहा, अब से दस साल पहले तो यहाँ चारो ओर कूड़ा-कचरा पड़ा रहता था.... और आज सस्ती में मस्ती....
चलिये मॉल कल्चर के कारण ही सही आपको यह तो समझ आगया की सब यही पड़े रह जाना है एक दिन इसलिए यदि मौका मिले तो जितनी हो सके मस्ती मार ही लेनी चाहिए। क्या पता कल हो न हो :))
ReplyDeleteकंजूस और दयालू?
ReplyDeleteदृढ इच्छा शक्ति का विकास करने का फोर्मुला काफी देर से मिला.
जी आपको दृढ इच्छा शक्ति का क्या करना है . बस खर्च करते रहिये और बिल श्रीमान जी की ओर खिसकाते रहिये . :)
Deleteआपने तो आँखें खोल दी, कल से कंजूसी बंद। मॉल के अनुभव बहुत कुछ अपने जैसे ही लगे...
ReplyDeleteजो जितना कंजूस है उतना बड़ा दयाल,
ReplyDeleteजीवन भर है जोड़ता रखता सबका ख्याल
रखता सबका ख्याल,अंत भला कर जाता
कंजूसी न करता,तो क्या दयालु कहलाता
दयालु बनने के लिए कंजूसी करते रहिये
हींग लगे न फिटकरी,दयालु का पद गहिये
बिलकुल सच कहा आपने -अब यह परिवर्तन सब तरफ गोचर होता है .माल कल्चर इधर भी है उधर भी .पैसा कैसे बचाया जाता है क्यों बचाया जाता है हमें कुछ खबर नहीं है सारा जीवन अनियोजित तरीके से जिया है .पैसे की तंगी भी नहीं महसूस हुई .लो प्रोफाइल जी लिया जीवन अब फुर्सत है पेंशन है सात समुन्दर पार आ जातें हैं जब जी चाहे .बच्चे यहाँ भी हैं वहां भी .यहाँ लडकी वहां लडका ,यहाँ दोस्त दामाद वहां वधु पुत्र ,हम एप्न्दिक्स सरीखे सो एक जगह ठहरते ही नहीं है .इस हिसाब से हम निर्दय हैं क्योंकि हम कंजूस नहीं हैं ,पैसे को हाथ का मेल समझें हैं .कृपया यहाँ भी पधारें -
ReplyDeleteram ram bhai
रविवार, 1 जुलाई 2012
कैसे होय भीति में प्रसव गोसाईं ?
डरा सो मरा
http://veerubhai1947.blogspot.com/
वीरुभाई जी , इसीलिए कहा है --चैरिटी बिगिन्स एट होम . पहले अपना भला , फिर जगत का . आखिर दूसरों का भला तभी किया जा सकता है जब आप स्वयं भले चंगे हों . भूखा क्या किसी को रोटी खिलायेगा !
Deleteयह पोस्ट बढ़िया लगी...
ReplyDeleteआखिरी लाइन में जो सत्यता है वो शायद ही कंजूस को मालूम हो !
जी हाँ , कंजूस आदमी कभी यह महसूस नहीं कर पाता की वो क्या मिस कर रहा है .
Deleteआपका सारांश बेहद पसंद आया. मैं बिलकुल दयालु नहीं हूँ. न कभी होना चाहूंगा! ईश्वर मुझे दयालु होने से बचाए रखे!! :)
ReplyDeleteयही सही है .
Deleteमॉल के भीतर एक अलग ही दुनिया नजर आती है, जहाँ कोई चिंताग्रस्त नजर नहीं आता . शौपिंग ना भी करें , गर्मियों में भटकने या एसी का फयदा उठाते हुए आरामदायक स्थिति में खाने पीने का लुत्फ़ तो उठाया ही जा सकता है .
ReplyDelete.
ReplyDelete.
.
आपका सारांश बेहद पसंद आया, पर मैं बिलकुल उस तरह का दयालु नहीं हूँ, न कभी होना चाहूंगा! कंजूस भले ही यह सोच कर बचाता है कि वह अपने बच्चों के लिये छोड़ कर जा रहा है पर हकीकत यह है कि यदि संतान योग्य है तो उसे पिता के छोड़े की जरूरत नहीं है और यदि अयोग्य है तो उसके लिये क्या कुछ छोड़ना ?
...
प्रवीण जी , कंजूस सोचता ही तो नहीं . बस एक आदत बन जाती है .
Deleteसारांश एक व्यंग है, कंजूसी पर .
दयालु का डिक्लरेशन और वह भी मृत्योपरांत -हुंह!
ReplyDeleteसभी आनन्द के पीछे ही दौड लगा रहें हैं.
ReplyDeleteकंजूस भी,दरियादिली से खर्च करने वाला भी.
क्या जो दिखता है वह ही सच होता है.
भारतीय संस्कृति में पैसों को परिवार और समाज की सम्पदा माना जाता है इसलिए अनावश्यक खर्च करना मना है। लेकिन वर्तमान में पैसा व्यक्तिगत सम्पत्ति है इसकारण जितना चाहे खर्च करो और उधार लो। पानी-पूरी के स्थान पर आप सेव-पूरी खाइए, यह बनी बनायी आती है और बहुत लाजवाब होती है।
ReplyDeleteअजित जी , सामर्थ्य होते हुए भी आवश्यक खर्च न करना कंजूसी कहलाता है . आजकल लोगों के पास डिस्पोजेबल इनकम बहुत होती है , इसे खर्च करना गलत नहीं हो सकता .
Deleteसेव पूरी के बारे में सुना नहीं .
दराल जी
Deleteएक बार हम मॉल में गए साथ में बिटिया भी थी। उसने हमारे लिए पानी-पूरी मंगाई, वह रेडीमेड बनी हुई आयी। बहुत ही स्वादिष्ट थी। फिर एक बार हम दोनों अकेले चले गए पानी-पूरी खाने। हमने भी पानी-पूरी का ही आर्डर दिया। जब उसने हमें गोपगप्पे और पानी अलग-अलग पकडाया तो माथा ठनका। हमने उससे कहा िक यह क्या है, तुमने सब कुछ बनाकर क्यों नहीं दिया। तब उसने कहा कि वह सेव-पूरी कहलाती है।
यहाँ तो दोनों को गोल गप्पे ही कहते हैं . :)
Deleteकंजूस जब तक जीवित रहता है वह खर्चे के मामले में अपनों के लिए भी दयालु नहीं होता है ....
ReplyDeleteसही कहा मिश्र जी .
Deleteतो दयालू होने के लिये अपनी इच्छायें मारनी पडती हैं । सही बात है। चलो अब हम भी निर्दयी बन जाते हैं।
ReplyDeleteनिर्मला जी , इच्छाएं मारकर कोई दयालु नहीं होता . न ही अपने ऊपर खर्च करना निर्दयी होना है . :)
Deleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल के चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आकर चर्चामंच की शोभा बढायें
ReplyDeleteसमाचार पत्रों में भी कभी कभी ऐसे समाचार पढ़ने को मिल जाते हैं कि कैसे किसी (कंजूस?) भिखारी के मरने के बाद उस के घर में उस के द्वारा भीख में जमा किये गए लाखों रूपये मिले!!!
ReplyDeleteजी हाँ , भ्रष्ट लोग भी धन को छुपा कर जोड़ते रहते हैं , जैसे साथ लेकर ही जायेंगे . लेकिन अफ़सोस , सारा यहीं रह जाता है . इसलिए एक नंबर का हो या दो नंबर का --खर्च तो कर ही लेना चाहिए . हालाँकि रिश्वत के paise को खर्च करने में भी लोग डरते हैं .
Deleteअंततोगत्वा, गीता में भी तो सोच समझ कर ही लिखा गया होगा कि सब गलतियों का मूल अज्ञान है!!!... अर्थात, जैसा आपने भी कहा, कल क्या होगा किसी को भी नहीं पता... आम आदमी आम तौर पर साकार जगत/ पैसे को अधिक महत्त्व देता है, और परम्परा को निभाते पैसा बचा के रखता है (भले ही वो सफ़ेद हो अथवा काला)... मानव शरीर को सिद्धों के दृष्टिकोण से, अदृश्य शक्ति, आत्मा (कृष्ण/ अमृत परमात्मा शिव), और सफ़ेद रश्मि वाले सूर्य और उसके नौ (९) ग्रहों की मिटटी के योग से बने होने के कारण मानव जीवन में इसे द्वैतवाद उत्पन्न होने का मुख्य कारण जान, आदमी को एक जीवन काल में सत्य और असत्य के बीच भेद करना लगभग असंभव जान आत्मा को बार बार काल-चक्र में लौटना स्वाभाविक जाना...:(..
Deleteहम नहीं कंजूस भाई ,
ReplyDeleteहम न मख्खी चूस भाई ,
हम तो हैं बस हम ही भाई ,
बढिया विश्लेषण कंजूस की नै व्याख्या .
मॉल्स में सबसे जायदा भीड़ ,फ़ूड कोर्ट में ही देखी जाती है...दुकानें तो खाली पड़ी रहती हैं...पर अच्छी बात ये है कि कोई भेदभाव नहीं.. हर तबके के लोग इस माहौल का लुत्फ़ उठा सकते हैं.
ReplyDeleteअजब तेरी रहमत! समाजवाद आया भी तो किस रास्ते से ...
ReplyDeleteअनुराग जी , लेकिन यहाँ सब खुश हैं . किसी को कोई शिकायत नहीं . :)
Deleteजो भी है आपने निष्कर्ष बहुत अच्छा निकाला है ... कंजूर आदमी सबसे बड़ा दयालू ... जो है सबके लिए छोड़ जाना है आखिर ...
ReplyDeleteइसलिए खाओ पीओ मौज करो ... जिंदगी न मिलेगी दुबारा ...
"जिंदगी न मिलेगी दुबारा" पर, अर्थात इस 'पश्चिमी' सोच पर, दुबारा सोचना चाहेगा कोई कोई शायद, विशेषकर 'ह्न्दु'! क्यूंकि मान्यता है कि साकार रूप (पिंड) शक्ति (आत्मा) और 'मिटटी' अर्थात नवग्रह के सारों के योग का नतीजा है - भले ही वो सूक्ष्म जीव हो, अथवा कोई बड़ा सितारा... और पृथ्वी पर आधारित असंख्य प्राणी रूपों में, पशु जगत में, मानव सर्वोच्च कृति है जो काल-चक्र में चलते चलते, चौरासी लाख निम्न श्रेणी रूप धारण कर, मानव शरीर प्राप्त करता है... और इसी रूप में ही, किसी भी व्यक्ति के लिए, एक १०० (+/-) वर्ष के सीमित जीवन काल में ज्ञान उपार्जन कर परम सत्य तक पहुंचना संभव है - जो कि मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य भी है... और माना जाता है कि आम आदमी, वर्तमान कलियुग होने के कारण. अधिकतर मार्ग से भटक जाता है (विष के प्रभाव से? जिसे केवल शिव ही अपने कंठ में धारण करने में 'माँ' की कृपा से सक्षम हैं, अथवा उनके प्रतिरूप भी?!)......
ReplyDeleteरोचक पोस्ट!
ReplyDeleteis-tarah ye sabit hua ke hum dayalu hain?????
ReplyDeletepranam.
डॉक्टर साहिब, हम एक विषय से दूसरे विषय पर चर्चा करते चले जाते हैं, और कई दृष्टिकोण सामने आ जाते हैं......
ReplyDeleteस्वयं अपने को जानने के लिए, एक पोस्ट इस विषय पर भी कृपया लिखें कि हम स्वप्न कैसे देखते हैं??? अर्थात जब हम थक कर सूर्यास्त के पश्चात निद्राबस्था में चले जाते हैं तो फिल्म समान तसवीरें हमारे मानस पटल पर कैसे उभरती हैं??? जो सत्य प्रतीत होती हैं!!!
और, उसी प्रकार, जागृत अवस्था में भी, जब हम कभी कभी किसी कारण वश कुछ भी नहीं सोचना चाहते, फिर भी एक ही नहीं कई बार अनेक विचार आते रहते हैं!!! वो विचार किसके होते हैं, हमारे अथवा किसी और के? शायद किसी अदृश्य जीव/ जीवों के (जिन्हें भूत कहा जाता आया है !)???...
जे सी जी , गीतानुसार , यह मन बड़ा चलायमान है . कभी चुप बैठता ही नहीं . इसे वश में करने के लिए बहुत ताकत लगानी पड़ती है , ध्यान की . जब वश में आ जाता है , तभी परम शांति का अहसास होता है . इसलिए दिन हो या रात , नींद में या जागते हुए , यह सोचता ही रहता है .
DeleteJCJuly 04, 2012 8:16 PM
Deleteडॉक्टर साहिब, मेरा तात्पर्य आधुनिक चिकित्सा जगत की धारणा क्या है जानने से था...
अपने पूर्वजों के विचार तो हमने काफी जान लिए हैं कथा-कहानियों, गीता आदि पढ़...
और यह भी समझ गए हैं कि हम आत्माएं हैं, शरीर नहीं! क्यूंकि वो मिथ्या है, एक सिनेमा के रुपहले परदे पर उभरती आकृति समान, जिनके साथ हर आत्मा अपने आप को सम्बंधित महसूस करने लगती हैं - १०० (+/-) वर्ष तक बचपन से बुढापे तक....
ऐसे ही भविष्य में भी समय समय पर किसी अन्य रूप में भी आ कर, जब तक हर आत्मा को मोक्ष नहीं मिल जाता, जो मनुष्य जीवन में ही संभव है, और जन्म-मृत्यु-पुनर्जन्म का चक्र टूट नहीं जाता... किन्तु न मालूम यह आवश्यक क्यूँ है!!!... ...
गीता आदि पढ़ अपन की समझ में आ गया कि साकार मानव एक मॉडल है! किन्तु कोई ऐरा-गैरा नहीं, सम्पूर्ण ब्रह्मांड का!!! किन्तु, शक्ति से साकार की चरम सीमा तक पहुँचने का काम यद्यपि शून्य काल में ही हो गया (क्यूंकि सृष्टि कर्ता, नादबिन्दू, शून्य कल और स्थान से सम्बंधित है), किन्तु अस्थायी, सीमित काल तक चलने वाले मॉडल की सुविधा के लिए शून्य से अनंत तक और फिर वापिस शून्य तक उत्पत्ति और पतन , पहाड़ पर चढ़ाव और उतार समान, को अनंत काल-चक्र में, लूप में जैसे, डाल महायुगों में होते दर्शाया गया है - जिसे विष्णु के अनंत/ शेष नाग पर योगनिद्रा में लेट दर्शाया जाता है सांकेतिक भाषा में...:) इसी लिए योगी कह पाए "शिवोहम!" अर्थात मैं अनंत आत्मा हूँ जो योगमाया के कारण बदलता प्रतीत होता है!!!
Deleteसाहब कित्ती बार बतला दिया अपन न कंजूस हैं न दयालू.आपकी टिप्पणियाँ हमारे लेकाहन की आंच यूं ही बनी रहें .शुक्रिया .
ReplyDeleteशुक्रिया भाई जी .
Deleteडॉ साहब मैंने तो सुना है , कि कंजूसो का पैसा डाक्टर लोग खाते है !
ReplyDeleteउसी के बच्चे खाते हैं , मरणोपरांत ! :)
ReplyDeleteएक दुनिया ये अलग सी ...जो हर कोई नहीं समझ सकता
ReplyDelete