याद आया किस तरह कोई दोस्त किताब लेने या होम वर्क में मदद लेने आता तो हम खिड़की में बैठकर ही उसे सब कुछ सुना देते थे । कभी कभी घंटों गप्पें मारते रहते थे । लेकिन घर के अन्दर नहीं बुलाते थे , जाने क्यों ।
पिताजी के दफ्तर में ही काम करने वाले एक सहकर्मी की बेटी -- टॉम बॉय जैसी , अक्सर वॉलीबॉल खेलकर आती और बॉल उछालती हुई घर में घुस जाती । उसे बॉल के साथ देख कर अज़ीब सा लगता । लेकिन पड़ोस वाली आंटी समझती , मैं उस पर लाइन मार रहा हूँ ।
और वो सरदार जी --सरदार अर्जन ( अर्जुन ) सिंह । सुबह सवेरे नहा धोकर दफ्तर के लिए तैयार होते -- बालों की छोटी सी जूड़ी बनाते -- बालों के साथ चेहरे पर भी तेल चुपड़ते और चल पड़ते कमीज़ और कच्छा पहन कर -- एक हाथ में जूते पकड़े और पैंट कंधे पर टांगे । बताते कि पैंट और जूते दफ्तर जाकर पहनेंगे वर्ना घिस जायेंगे ।
सामने वाले ब्लॉक की उपरी मंजिल पर एक बुजुर्ग रहते थे । मोटे से , सफ़ेद बाल और बड़ी बड़ी मूंछें । उन्हें ठाकुर साहब कह कर बुलाया जाता था । गर्मियों में रोज शाम को छत पर पानी का छिड़काव करते । एक सुराही , एक गिलास और एक बोतल जिसमे सफ़ेद से रंग का कोई द्रव्य होता -- लेकर छत पर पहुँच जाते । और घूम घूम कर सफ़ेद द्रव्य की घूँट भरते रहते । किसी ने बताया , वे स्पिरिट पीते थे -- हालाँकि उस तरह की दारू हमने आज तक नहीं देखी । उनके पास एक बड़ा सा सुन्दर सा ट्रांजिस्टर था , जिस पर सुबह के समय सीलोन से हिंदी फिल्मों के मधुर गाने चल रहे होते ।
उन्ही की छत पर कभी कभी हम अपने एक दोस्त के साथ पतंग उड़ाने का मज़ा लेते । पतंग तो दोस्त ही उड़ाता , हम तो खाली चरखी पकड़ कर ही खुश हो लेते थे । कभी कभी जब पतंग स्थिर होती तो मांजा हाथ में पकड़ कर थोड़ी देर थामकर हमारी भी पतंगबाज़ी हो जाती ।
उन दिनों पतंग लूटने की बड़ी रिवाज़ थी । एक दिन स्कूल से घर आते समय बिजली के तार में फंसी एक पतंग छूटकर हमारे सामने आ गिरी । हमने भी आव देखा न ताव , उठाया और घर ले आए । कुछ ही दिन बाद गर्मियों की छुट्टियाँ होने वाली थी । उसे अच्छी तरह संभाल कर रखा और छुट्टियों में अपने साथ गाँव लेकर गया । लेकिन समस्या आई मांजे की । घर में ढूंढकर सारे धागे इक्कट्ठे किये और एक रस्सी बनाई गई । फिर बड़े शौक से सभी बच्चों को एकत्रित कर पतंग उड़ाने की कला का प्रदर्शन किया । लेकिन अफ़सोस , पहली बार में ही तेज हवा के झोंके के साथ पतंग का तिया पांचा हो गया और शो फ्लॉप हो गया ।
दो तीन मकान की दूरी पर एक साहब रहते थे । चकाचक सफ़ेद कपड़ों में नेताजी लगते । किसी दफ्तर में बाबु थे । लेकिन रोज सुबह इंदिरा गाँधी जी के घर पर जाकर शीश नवाते । आखिर , एक दिन उनकी मेहनत रंग लाई । उन्हें सेनिटेशन डिपार्टमेंट में किसी कमिटी का चेयरमेन बना दिया गया । अगले दिन से ही उनकी कायापलट हो गई । घर के आगे चार दीवारी कर दी गई , लॉन बन गया और रोज सुबह घर के आगे दरबार लगने लगा । यकायक रंक से राजा बन गए । चबूतरे पर बस एक कुर्सी होती जिस पर साहब विराजमान होते और सामने दरी पर जनता बैठती ।
उन दिनों सडको पर गुंडागर्दी भी बहुत होती थी । मनचले लड़कों का फेवरिट टाइम पास होता था -- लड़कियां छेड़ना । बेल बॉटम नई नई फैशन में आई थी । उस पर धर्मेन्द्र की स्टाइल में चौड़ी बेल्ट । इस तरह के कई रोमियो सड़कों पर घूमा करते । लड़कियों का सड़क पर चलना दूभर हो जाता ।
टी वी पूरी कॉलोनी में बस एक घर में होता था जो हमारे स्कूल के पास था । अक्सर उनकी खिड़की पर भीड़ लगी रहती । लेकिन समुदाय भवन में एक सरकारी टी वी हर रविवार को फिल्म और बुधवार को चित्रहार दिखाता । अपना गुजारा तो उसी से हो जाता । लेकिन जिंदगी की पहली फिल्म हमने तब देखी जब मैदान में टेंट लगाकर ५० पैसे टिकेट लगाकर एक शो किया गया । हम तो टेंट फाड़कर घुसे थे । फिल्म थी -- नई उम्र की नई फसल । फिर स्कूल में दिखाई गई गाईड और एक दिन ऐसा भी आया जब टी वी पर स्कूल में नील आर्मस्ट्रोंग को चाँद पर उतरते हुए दिखाया गया जिसे सारे स्कूल ने देखा ।
अचानक किसी के प्रवेश ने हमारा ध्यान भंग किया । मकान मालिक ने आकर नमस्ते की । और एक ऐसे अनुभव की अनुभूति हुई जो न सिर्फ हम दोनों के लिए बल्कि उस अंजान मकान मालिक के लिए भी एक अविस्मर्णीय यादगार बन कर रह गई ।
अगली और आखिरी किस्त पढना मत भूलियेगा ।