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Saturday, June 2, 2012

वो खिड़की जो कभी बंद , कभी खुली रहती थी --- एक संस्मरण .


पिछली पोस्ट में आपने पढ़ा , किस तरह हम ३६ साल बाद अपने पुराने निवास पर पहुंचेअब आगे ---



बंद खिड़की को देखकर हम डूब गए ख्वाबों ख्यालों में । याद आया किस तरह हम खिड़की खोलकर बाहर का नज़ारा देखा करते थे । अक्सर बाहर बच्चे खेल रहे होते थे । लेकिन हमारा तो समय पढाई का होता था । कभी कभार काम ख़त्म कर थोडा समय मिलता तो बाहर निकल जाते । लेकिन खेलने के लिए नहीं बल्कि पैदल एक चक्कर लगाने के लिए । हमारे मास्टर जी बताते थे , किस तरह वो टॉयलेट में बैठ कर भी मन ही मन पाठ रटते रहते थे

याद आया किस तरह कोई दोस्त किताब लेने या होम वर्क में मदद लेने आता तो हम खिड़की में बैठकर ही उसे सब कुछ सुना देते थे । कभी कभी घंटों गप्पें मारते रहते थे । लेकिन घर के अन्दर नहीं बुलाते थे , जाने क्यों ।

पिताजी के दफ्तर में ही काम करने वाले एक सहकर्मी की बेटी -- टॉम बॉय जैसी , अक्सर वॉलीबॉल खेलकर आती और बॉल उछालती हुई घर में घुस जाती । उसे बॉल के साथ देख कर अज़ीब सा लगता । लेकिन पड़ोस वाली आंटी समझती , मैं उस पर लाइन मार रहा हूँ

और वो सरदार जी --सरदार अर्जन ( अर्जुन ) सिंह । सुबह सवेरे नहा धोकर दफ्तर के लिए तैयार होते -- बालों की छोटी सी जूड़ी बनाते -- बालों के साथ चेहरे पर भी तेल चुपड़ते और चल पड़ते कमीज़ और कच्छा पहन कर -- एक हाथ में जूते पकड़े और पैंट कंधे पर टांगे । बताते कि पैंट और जूते दफ्तर जाकर पहनेंगे वर्ना घिस जायेंगे

सामने वाले ब्लॉक की उपरी मंजिल पर एक बुजुर्ग रहते थे । मोटे से , सफ़ेद बाल और बड़ी बड़ी मूंछें । उन्हें ठाकुर साहब कह कर बुलाया जाता था । गर्मियों में रोज शाम को छत पर पानी का छिड़काव करते । एक सुराही , एक गिलास और एक बोतल जिसमे सफ़ेद से रंग का कोई द्रव्य होता -- लेकर छत पर पहुँच जाते । और घूम घूम कर सफ़ेद द्रव्य की घूँट भरते रहते । किसी ने बताया , वे स्पिरिट पीते थे -- हालाँकि उस तरह की दारू हमने आज तक नहीं देखी । उनके पास एक बड़ा सा सुन्दर सा ट्रांजिस्टर था , जिस पर सुबह के समय सीलोन से हिंदी फिल्मों के मधुर गाने चल रहे होते ।

उन्ही की छत पर कभी कभी हम अपने एक दोस्त के साथ पतंग उड़ाने का मज़ा लेते । पतंग तो दोस्त ही उड़ाता , हम तो खाली चरखी पकड़ कर ही खुश हो लेते थे । कभी कभी जब पतंग स्थिर होती तो मांजा हाथ में पकड़ कर थोड़ी देर थामकर हमारी भी पतंगबाज़ी हो जाती ।

उन दिनों पतंग लूटने की बड़ी रिवाज़ थी । एक दिन स्कूल से घर आते समय बिजली के तार में फंसी एक पतंग छूटकर हमारे सामने आ गिरी । हमने भी आव देखा न ताव , उठाया और घर ले आए । कुछ ही दिन बाद गर्मियों की छुट्टियाँ होने वाली थी । उसे अच्छी तरह संभाल कर रखा और छुट्टियों में अपने साथ गाँव लेकर गया । लेकिन समस्या आई मांजे की । घर में ढूंढकर सारे धागे इक्कट्ठे किये और एक रस्सी बनाई गई । फिर बड़े शौक से सभी बच्चों को एकत्रित कर पतंग उड़ाने की कला का प्रदर्शन किया । लेकिन अफ़सोस , पहली बार में ही तेज हवा के झोंके के साथ पतंग का तिया पांचा हो गया और शो फ्लॉप हो गया

दो तीन मकान की दूरी पर एक साहब रहते थे । चकाचक सफ़ेद कपड़ों में नेताजी लगते । किसी दफ्तर में बाबु थे । लेकिन रोज सुबह इंदिरा गाँधी जी के घर पर जाकर शीश नवाते । आखिर , एक दिन उनकी मेहनत रंग लाई । उन्हें सेनिटेशन डिपार्टमेंट में किसी कमिटी का चेयरमेन बना दिया गया । अगले दिन से ही उनकी कायापलट हो गई । घर के आगे चार दीवारी कर दी गई , लॉन बन गया और रोज सुबह घर के आगे दरबार लगने लगा । यकायक रंक से राजा बन गए । चबूतरे पर बस एक कुर्सी होती जिस पर साहब विराजमान होते और सामने दरी पर जनता बैठती ।

उन दिनों सडको पर गुंडागर्दी भी बहुत होती थी । मनचले लड़कों का फेवरिट टाइम पास होता था -- लड़कियां छेड़ना । बेल बॉटम नई नई फैशन में आई थी । उस पर धर्मेन्द्र की स्टाइल में चौड़ी बेल्ट । इस तरह के कई रोमियो सड़कों पर घूमा करते । लड़कियों का सड़क पर चलना दूभर हो जाता ।

टी वी पूरी कॉलोनी में बस एक घर में होता था जो हमारे स्कूल के पास था । अक्सर उनकी खिड़की पर भीड़ लगी रहती । लेकिन समुदाय भवन में एक सरकारी टी वी हर रविवार को फिल्म और बुधवार को चित्रहार दिखाता । अपना गुजारा तो उसी से हो जाता । लेकिन जिंदगी की पहली फिल्म हमने तब देखी जब मैदान में टेंट लगाकर ५० पैसे टिकेट लगाकर एक शो किया गया । हम तो टेंट फाड़कर घुसे थे । फिल्म थी -- नई उम्र की नई फसल । फिर स्कूल में दिखाई गई गाईड और एक दिन ऐसा भी आया जब टी वी पर स्कूल में नील आर्मस्ट्रोंग को चाँद पर उतरते हुए दिखाया गया जिसे सारे स्कूल ने देखा ।

अचानक किसी के प्रवेश ने हमारा ध्यान भंग किया । मकान मालिक ने आकर नमस्ते की । और एक ऐसे अनुभव की अनुभूति हुई जो न सिर्फ हम दोनों के लिए बल्कि उस अंजान मकान मालिक के लिए भी एक अविस्मर्णीय यादगार बन कर रह गई ।

अगली और आखिरी किस्त पढना मत भूलियेगा

Monday, May 28, 2012

आए तुम याद मुझे --जिंदगी के ३६ साल बाद ---


कहते
हैं घर मनुष्यों से बनता
है , चार दीवारों से नहीं लेकिन चार दीवारों की भी अहमियत होती है । क्योंकि जहाँ मनुष्य पैदा होता है , पला बड़ा होता है , उसके साथ पुरानी यादें हमेशा जुडी रहती हैं ।

नए बने सात किलोमीटर लम्बे
फ्लाई ओवर पर 8० की स्पीड से गाड़ी चलाते हुए एक स्थान ऐसा आता जहाँ पहुँचकर मन अतीत में हिलोरें मारने लगता । उस स्थान पर एक ओर वो स्कूल था जहाँ से हायर सेकंडरी की शिक्षा प्राप्त की थी । बायीं ओर वो झूले वाला पुल जिससे नाला क्रॉस कर थोड़ा आगे दो कमरे वाला सरकारी क्वार्टर जहाँ जिंदगी के छै साल बिताकर बचपन से ज़वानी का पुल पार किया । नाले वाला पुल पार करते हुए अक्सर पुल के साथ झूलने लगते और डरते भी रहते कि कहीं टूटकर ही न गिर जाए ।

इस बीच जिंदगी के छत्तीस साल गुजर गए उस जगह दोबारा कभी जाना न हुआ। लेकिन एक अरसे से यहाँ से गुजरते हुए अक्सर वे दिन याद आते और उत्सुकता बढती गई । उन दर ओ दीवारों को दोबारा देखने की लालसा जाग उठी और बलवती होती गई ।

श्रीमती जी को भी वायदा किया था कि एक दिन वह जगह ज़रूर दिखायेंगे जहाँ से होकर आज हम इस मुकाम तक पहुंचे हैं

फिर एक दिन , उसी स्थान पर पहुँच कर अनायास ही गाड़ी का स्टीयरिंग दायीं ओर मुड गया । मोड़ से ज्यादा दूर नहीं था स्कूल । लेकिन अब वहां उसका नामों निशान भी नहीं था । उसकी जगह सर्वोदय स्कूल खुल गया था ।यानि उस स्कूल का अस्तित्त्व ही मिट गया था

वापस उसी स्थान पर आकर थोड़ा आगे जाकर वो मोड़ भी आ गया जहाँ से सीधी सड़क जाती थी उस कॉलोनी में या यूँ कहिये कि वो सड़क उसी कॉलोनी की थी


सड़क बड़ी साफ और वेल मेंटेंड दिखाई दे रही थी । जहाँ पहले साईकल और लम्ब्रेटा स्कूटर ही दिखाई देते थे , अब लम्बी लम्बी गाड़ियाँ खड़ी थी ।

सबसे पहला पड़ाव आया सेन्ट्रल मार्केट का । बचपन में हर साल रामलीला यहीं देखते थे । लेकिन दशहरे की छुट्टियाँ होने से दो तीन दिन बाद ही गाँव चले जाते थे । इसलिए आज तक पूरी रामलीला कभी नहीं देख पाए ।
वह मैदान अब बड़ा छोटा सा नज़र आया । पार्क तो उतना ही रहा होगा लेकिन शायद अब देखने वाली नज़र बड़ी हो चुकी थी


बायीं ओर की दुकानों में एक फोटोग्राफर की दुकान होती थी जिसमे उसका बहुत खूबसूरत फोटो लगा होता था ।
वो थी ही इतनी सुन्दर कि देखने वाला देखता रह जाए जान पहचान की थी लेकिन उम्र में आठ साल बड़ी थी।

लेकिन अब वहां वो दुकान थी , फोटो कोई नहीं जानता अब वह कहाँ है

मार्केट के पीछे वाली गली में कुमार डेयरी भी नहीं थी लेकिन उस दुकान पर कुमार नाम अभी भी लिखा था । अब वहां मोटर गेरेज खुल गई थी । उन दिनों दूध बस डी एम एस का मिलता था या कुमार डेयरी का सप्रेटा दूध ।
कुछ पल ठगा सा खड़ा उस दुकान को देखता रहा जिसके आगे कभी एक हाथ में पांच पैसे और दूसरे में कांच का गिलास थामे, मैं पडोसी के लिए दूध की कतार में खड़ा था । असहज होती पत्नी ने जब ध्यान भंग किया तो हम चल पड़े आगे की ओर ।
लेकिन हलवाई की इकलौती दुकान अभी भी वैसी ही थी, जिसे रेस्तरां कहना बेइंसाफी ही होगी

मार्केट से थोड़ा आगे ही था वह मकान । दो ब्लॉक्स के बीच में पार्क होता था और एंट्री बैक लेन से । पार्क में बच्चे क्रिकेट खेलते । गर्मियों की रात में यही पार्क सामूहि ओपन एयर नेचुरल सी शयन कक्ष बन जाता


लेकिन अब वहां सारे साल निठल्ले बैठे रहे किसी निगम पार्षद या विधायक की कृपा से पार्क की बाउंड्री बनाकर सारा मज़ा किरकिरा हो चुका
था बच्चों के क्रिकेट खेलने का ।

हालाँकि बैक लेन अब पक्की बना दी गई है ।

एक अज़नबी सी उत्सुकता आँखों में लिए चले जा रहे थे और ढूंढ रहे थे मकान नंबर ३४५ । तभी मकान नंबर ३४१ दिखाई दिया । लगा अब तो अगला ३४५ ही होगा । दिल की धड़कन थोड़ी तेज हो गई थी । मन में तरह तरह के ख्याल आ रहे थे । कौन रहता होगा वहां ? कैसे लोग होंगे ? क्या मिलना सही रहेगा ?

बाहर आँगन में चार पांच महिलाएं धूप का आनंद लेती हुई स्वेटर बुनते हुए गपिया रही थीं । सामने ३४५ दिख ही गया । फिर भी अनपढ़ों की तरह पूछ ही लिया कि क्या ३४५ नंबर यही है कौन रहता है यहाँ , क्या घर में हैं? एक महिला ने कहा ,
शायद घर में नहीं हैं आप घंटी बजा कर देख लीजिये ।

धड़कते दिल से घंटी बजाई --दो बच्चे बाहर आए । पता चला घर में न पापा थे न मम्मी। लेकिन अब तक यादों में गोते लगा चुके थे । बच्चे से कहा --पापा को फोन कर के बुलाओ । बच्चे ने बड़ी मासूमियत से बिना सोचे समझे लेकिन आदर
सहित अन्दर बुला लिया और कमरे में बिठाया ।

वही कमरा जहाँ कभी अपना अधिकार होता था --लेकिन ३६ साल पहले । अब
बिल्कुल अज़नबी सा लग रहा था
सामने थी वही खिड़की जिसके साथ न जाने कितनी यादें जुडी थी बचपन और तरुणाई की


और उस खिड़की को देखते हुए जो यादों में खोए तो तभी होश में आए जब मकान के मालिक ने प्रवेश किया और हमें सादर नमस्कार किया --- क्रमश :