कहते हैं घर मनुष्यों से बनता है , चार दीवारों से नहीं । लेकिन चार दीवारों की भी अहमियत होती है । क्योंकि जहाँ मनुष्य पैदा होता है , पला बड़ा होता है , उसके साथ पुरानी यादें हमेशा जुडी रहती हैं ।
नए बने सात किलोमीटर लम्बे फ्लाई ओवर पर 8० की स्पीड से गाड़ी चलाते हुए एक स्थान ऐसा आता जहाँ पहुँचकर मन अतीत में हिलोरें मारने लगता । उस स्थान पर एक ओर वो स्कूल था जहाँ से हायर सेकंडरी की शिक्षा प्राप्त की थी । बायीं ओर वो झूले वाला पुल जिससे नाला क्रॉस कर थोड़ा आगे दो कमरे वाला सरकारी क्वार्टर जहाँ जिंदगी के छै साल बिताकर बचपन से ज़वानी का पुल पार किया । नाले वाला पुल पार करते हुए अक्सर पुल के साथ झूलने लगते और डरते भी रहते कि कहीं टूटकर ही न गिर जाए ।
इस बीच जिंदगी के छत्तीस साल गुजर गए । उस जगह दोबारा कभी जाना न हुआ। लेकिन एक अरसे से यहाँ से गुजरते हुए अक्सर वे दिन याद आते और उत्सुकता बढती गई । उन दर ओ दीवारों को दोबारा देखने की लालसा जाग उठी और बलवती होती गई ।
श्रीमती जी को भी वायदा किया था कि एक दिन वह जगह ज़रूर दिखायेंगे जहाँ से होकर आज हम इस मुकाम तक पहुंचे हैं ।
श्रीमती जी को भी वायदा किया था कि एक दिन वह जगह ज़रूर दिखायेंगे जहाँ से होकर आज हम इस मुकाम तक पहुंचे हैं ।
फिर एक दिन , उसी स्थान पर पहुँच कर अनायास ही गाड़ी का स्टीयरिंग दायीं ओर मुड गया । मोड़ से ज्यादा दूर नहीं था स्कूल । लेकिन अब वहां उसका नामों निशान भी नहीं था । उसकी जगह सर्वोदय स्कूल खुल गया था ।यानि उस स्कूल का अस्तित्त्व ही मिट गया था ।
वापस उसी स्थान पर आकर थोड़ा आगे जाकर वो मोड़ भी आ गया जहाँ से सीधी सड़क जाती थी उस कॉलोनी में या यूँ कहिये कि वो सड़क उसी कॉलोनी की थी ।
सड़क बड़ी साफ और वेल मेंटेंड दिखाई दे रही थी । जहाँ पहले साईकल और लम्ब्रेटा स्कूटर ही दिखाई देते थे , अब लम्बी लम्बी गाड़ियाँ खड़ी थी ।
सड़क बड़ी साफ और वेल मेंटेंड दिखाई दे रही थी । जहाँ पहले साईकल और लम्ब्रेटा स्कूटर ही दिखाई देते थे , अब लम्बी लम्बी गाड़ियाँ खड़ी थी ।
सबसे पहला पड़ाव आया सेन्ट्रल मार्केट का । बचपन में हर साल रामलीला यहीं देखते थे । लेकिन दशहरे की छुट्टियाँ होने से दो तीन दिन बाद ही गाँव चले जाते थे । इसलिए आज तक पूरी रामलीला कभी नहीं देख पाए ।
वह मैदान अब बड़ा छोटा सा नज़र आया । पार्क तो उतना ही रहा होगा लेकिन शायद अब देखने वाली नज़र बड़ी हो चुकी थी ।
बायीं ओर की दुकानों में एक फोटोग्राफर की दुकान होती थी जिसमे उसका बहुत खूबसूरत फोटो लगा होता था ।
वो थी ही इतनी सुन्दर कि देखने वाला देखता रह जाए । जान पहचान की थी लेकिन उम्र में आठ साल बड़ी थी।
बायीं ओर की दुकानों में एक फोटोग्राफर की दुकान होती थी जिसमे उसका बहुत खूबसूरत फोटो लगा होता था ।
वो थी ही इतनी सुन्दर कि देखने वाला देखता रह जाए । जान पहचान की थी लेकिन उम्र में आठ साल बड़ी थी।
लेकिन अब वहां न वो दुकान थी , न फोटो । कोई नहीं जानता अब वह कहाँ है ।
मार्केट के पीछे वाली गली में कुमार डेयरी भी नहीं थी लेकिन उस दुकान पर कुमार नाम अभी भी लिखा था । अब वहां मोटर गेरेज खुल गई थी । उन दिनों दूध बस डी एम एस का मिलता था या कुमार डेयरी का सप्रेटा दूध ।
कुछ पल ठगा सा खड़ा उस दुकान को देखता रहा जिसके आगे कभी एक हाथ में पांच पैसे और दूसरे में कांच का गिलास थामे, मैं पडोसी के लिए दूध की कतार में खड़ा था । असहज होती पत्नी ने जब ध्यान भंग किया तो हम चल पड़े आगे की ओर ।
लेकिन हलवाई की इकलौती दुकान अभी भी वैसी ही थी, जिसे रेस्तरां कहना बेइंसाफी ही होगी ।
मार्केट से थोड़ा आगे ही था वह मकान । दो ब्लॉक्स के बीच में पार्क होता था और एंट्री बैक लेन से । पार्क में बच्चे क्रिकेट खेलते । गर्मियों की रात में यही पार्क सामूहिक ओपन एयर नेचुरल ऐ सी शयन कक्ष बन जाता ।
मार्केट के पीछे वाली गली में कुमार डेयरी भी नहीं थी लेकिन उस दुकान पर कुमार नाम अभी भी लिखा था । अब वहां मोटर गेरेज खुल गई थी । उन दिनों दूध बस डी एम एस का मिलता था या कुमार डेयरी का सप्रेटा दूध ।
कुछ पल ठगा सा खड़ा उस दुकान को देखता रहा जिसके आगे कभी एक हाथ में पांच पैसे और दूसरे में कांच का गिलास थामे, मैं पडोसी के लिए दूध की कतार में खड़ा था । असहज होती पत्नी ने जब ध्यान भंग किया तो हम चल पड़े आगे की ओर ।
लेकिन हलवाई की इकलौती दुकान अभी भी वैसी ही थी, जिसे रेस्तरां कहना बेइंसाफी ही होगी ।
मार्केट से थोड़ा आगे ही था वह मकान । दो ब्लॉक्स के बीच में पार्क होता था और एंट्री बैक लेन से । पार्क में बच्चे क्रिकेट खेलते । गर्मियों की रात में यही पार्क सामूहिक ओपन एयर नेचुरल ऐ सी शयन कक्ष बन जाता ।
लेकिन अब वहां सारे साल निठल्ले बैठे रहे किसी निगम पार्षद या विधायक की कृपा से पार्क की बाउंड्री बनाकर सारा मज़ा किरकिरा हो चुका था बच्चों के क्रिकेट खेलने का ।
हालाँकि बैक लेन अब पक्की बना दी गई है ।
एक अज़नबी सी उत्सुकता आँखों में लिए चले जा रहे थे और ढूंढ रहे थे मकान नंबर ३४५ । तभी मकान नंबर ३४१ दिखाई दिया । लगा अब तो अगला ३४५ ही होगा । दिल की धड़कन थोड़ी तेज हो गई थी । मन में तरह तरह के ख्याल आ रहे थे । कौन रहता होगा वहां ? कैसे लोग होंगे ? क्या मिलना सही रहेगा ?
बाहर आँगन में चार पांच महिलाएं धूप का आनंद लेती हुई स्वेटर बुनते हुए गपिया रही थीं । सामने ३४५ दिख ही गया । फिर भी अनपढ़ों की तरह पूछ ही लिया कि क्या ३४५ नंबर यही है । कौन रहता है यहाँ , क्या घर में हैं? एक महिला ने कहा , शायद घर में नहीं हैं आप घंटी बजा कर देख लीजिये ।
धड़कते दिल से घंटी बजाई --दो बच्चे बाहर आए । पता चला घर में न पापा थे न मम्मी। लेकिन अब तक यादों में गोते लगा चुके थे । बच्चे से कहा --पापा को फोन कर के बुलाओ । बच्चे ने बड़ी मासूमियत से बिना सोचे समझे लेकिन आदर सहित अन्दर बुला लिया और कमरे में बिठाया ।
वही कमरा जहाँ कभी अपना अधिकार होता था --लेकिन ३६ साल पहले । अब बिल्कुल अज़नबी सा लग रहा था ।
एक अज़नबी सी उत्सुकता आँखों में लिए चले जा रहे थे और ढूंढ रहे थे मकान नंबर ३४५ । तभी मकान नंबर ३४१ दिखाई दिया । लगा अब तो अगला ३४५ ही होगा । दिल की धड़कन थोड़ी तेज हो गई थी । मन में तरह तरह के ख्याल आ रहे थे । कौन रहता होगा वहां ? कैसे लोग होंगे ? क्या मिलना सही रहेगा ?
बाहर आँगन में चार पांच महिलाएं धूप का आनंद लेती हुई स्वेटर बुनते हुए गपिया रही थीं । सामने ३४५ दिख ही गया । फिर भी अनपढ़ों की तरह पूछ ही लिया कि क्या ३४५ नंबर यही है । कौन रहता है यहाँ , क्या घर में हैं? एक महिला ने कहा , शायद घर में नहीं हैं आप घंटी बजा कर देख लीजिये ।
धड़कते दिल से घंटी बजाई --दो बच्चे बाहर आए । पता चला घर में न पापा थे न मम्मी। लेकिन अब तक यादों में गोते लगा चुके थे । बच्चे से कहा --पापा को फोन कर के बुलाओ । बच्चे ने बड़ी मासूमियत से बिना सोचे समझे लेकिन आदर सहित अन्दर बुला लिया और कमरे में बिठाया ।
वही कमरा जहाँ कभी अपना अधिकार होता था --लेकिन ३६ साल पहले । अब बिल्कुल अज़नबी सा लग रहा था ।
सामने थी वही खिड़की जिसके साथ न जाने कितनी यादें जुडी थी बचपन और तरुणाई की ।
और उस खिड़की को देखते हुए जो यादों में खोए तो तभी होश में आए जब मकान के मालिक ने प्रवेश किया और हमें सादर नमस्कार किया --- क्रमश :
और उस खिड़की को देखते हुए जो यादों में खोए तो तभी होश में आए जब मकान के मालिक ने प्रवेश किया और हमें सादर नमस्कार किया --- क्रमश :
किसी तकनीकि दोष की वज़ह से सुबह प्रकाशित की गई पोस्ट अब दिखाई दी है हमारीवानी और डैशबोर्ड पर . गोदियाल जी , आपकी टिप्पणी में कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन उसे सेकरीफाइस करना पड़ा .
ReplyDeleteडा० साहब, अभी दोबारा आपकी पोस्ट पर आना हुआ, सुबह से मेरे अलावा एक भी टिपण्णी नहीं आई,ऐसा तो आपकी पोस्ट पर पहली बार देख रहा हूँ ! लगता है, पहले पहल मेरी उपरोक्त टिपण्णी आपके अन्य टिपण्णी दाताओं को पसंद नहीं आई, इसलिए उसे डिलीट कर रहा हूँ ! सर्वाधिकार सुरक्षित :)
DeleteBy पी.सी.गोदियाल "परचेत" on आए तुम याद मुझे --जिंदगी के ३६ साल बाद --- at 4:50 PM
मैंने संस्मरण पढ़ते हुए भावुक होना शुरू ही किया था कि क्रमशः पढ़कर झटका लगा ...आगे की टिप्पणी भी ! क्रमशः :)
ReplyDeleteअली सा, इंतजार का फल मीठा होता है ना . ;)
Deleteछत्तीस साल बाद तिरेसठ का मौका!
ReplyDeleteउसमे अभी देर है :)
Deleteअपने बचपन में खो जाने का भाव बस आनन्द भर लाता है।
ReplyDelete३६ साल पुरानी बचपन की यादों को शब्दों में बड़ी खुबशुरती से प्रस्तुति किया,
ReplyDeleteऐसी यादें कभी भूलती नही है,,,,,,,
RECENT POST ,,,,, काव्यान्जलि ,,,,, ऐ हवा महक ले आ,,,,,
down the memory lane.................
ReplyDeleteहम भी यूँ ही अपने पुराने घर देख आते हैं यदा कड़ा....बच्चों को भी दिखा आये......
कैसे लगते हैं मम्मा ये सरकारी घर!!!
और हाँ तब की बड़ी बड़ी चीज़े अब सच्ची छोटी लगतीं हैं........(पार्क तो उतना ही रहा होगा लेकिन शायद अब देखने वाली नज़र बड़ी हो चुकी थी ।)
सच कहा आपने....
बस मन समुन्दर हो जाए सब कुछ को छिपाए रहे समुन्दर की तरह कितना असंघर्ष आलोडन है वहां परस्पर जीवों का हर स्तर पर -
ReplyDeleteऔर यहाँ भी दखल देंवें -
सोमवार, 28 मई 2012
क्रोनिक फटीग सिंड्रोम का नतीजा है ये ब्रेन फोगीनेस
विचार प्रवाह में लेके उड़ जाने वाली पोस्ट व्यतीत कभी अतीत होता ही नहीं है .अतीत के साए लम्बाते जाते हैं ....बहुत सुन्दर पोस्ट
ReplyDeleteऔर यहाँ भी दखल देंवें -
सोमवार, 28 मई 2012
क्रोनिक फटीग सिंड्रोम का नतीजा है ये ब्रेन फोगीनेस
बहुत कुछ बदल गया है ज़माने में,
ReplyDeleteखड़े रह गए हम तनहा आशियाने में !!
यादों के समंदर में गोते लगाना पसंद आया।
ReplyDeleteआपके संस्मरण को पढ़ते- पढ़ते हम भी खो से गए ऐसा ही महसूस होता है अपने बचपन की निशानियों को देख कर ..आगे का इन्तजार है
ReplyDeleteमहत्वपूर्ण है जिंदगी, घर के दर-दीवार |
ReplyDeleteछत्तीस से विछुड़े मगर, अब तिरसठ सट प्यार |
अब तिरसठ सट प्यार, शिला पर लिखी कहानी |
वह खिडकी संसार,दिखाए डगर जवानी |
आठ साल की ज्येष्ठ, मगर पहला था चक्कर |
चल नाले में डाल, सुझाता है यह रविकर ||
भाई चक्कर वक्कर तो कुछ नहीं था . लेकिन बाल मन को बहुत सुन्दर लगी थी . पारिवारिक सम्बन्ध थे .
Deleteबहुत समय गुजर गया फिर भी यादों के टुकड़े पा लिए आपने. ये क्रमश: अच्छा नहीं लगा. हम भी थे आपके साथ यात्रा में अचानक गतिअवरोधक आ गया.
ReplyDeleteशिखा जी , पोस्ट ज्यादा लम्बी हो जाती . आखिर बचपन की यादें दो चार लाइनों में तो नहीं आ सकती ना .
Deleteअच्छा लगा पढ़्कर ...भावमयी यादें....!!
ReplyDeleteशुभकामनायें.
सच ही है यादों के झरोखें से हम किसी और ही दुनिया में पहुँच जाते हैं.
ReplyDeleteआधुनिक मान्यता अनुसार बचपन के पांच वर्षों के भीतर ही ५०% आई क्यु आम व्यक्ति में हो जाता है और शेष पचास प्रतिशत शेष जीवन में धीरे धेरे बनता है... जबकि प्राचीन 'भारत' में कहावत थी की बच्चे को ५ वर्ष तक लाड करिए, फिर १० वर्ष उस पर नजर रखिये और १६ वर्ष का होने पर उस के साथ मित्र समान व्यवहार करिए... अर्थात १६ वर्ष की आयु से हरेक व्यक्ति के अपने स्वतंत्र व्यक्ति का निर्माण होना आरम्भ हो जाता है - किसी में अधिक गति से तो किसी में कम... ५ से १६ वर्ष की आयु में सूचना एकत्र तो होती है किन्तु विश्लेषण की क्षमता कम रहती है... और इस कारण जब मस्तिष्क की क्षमता बढ़ जाती है तो बचपन में देखी गयी कई बातों का अर्थ पता चलता है, किन्तु क्यूंकि 'परिवर्तन प्रकृति का नियम है", व्यक्ति की मानसिक रुझान पर निर्भर कर बदलाव 'अच्छा' या 'बुरा' लगता है... पिताजी के कार्यकाल में हम भी नयी दिल्ली में तीन सरकारी मकानों में रहे... पहली जगह मल्टी-स्टोरी फ़्लैट बन गए, दूसरे की जगह राम मनोहर लोहिया अस्पताल का ओपीडी, और तीसरे की जगह फायर स्टेशन हैं आज...
ReplyDeleteओह ! यानि बचपन की यादों की निशानी मिट गई . शहरों में ऐसा ही होता है .
Deleteफिर भी हमारे मन में वो घर और उनसे जुडी कई यादें आज भी वैसी ही अमर हैं!!!
Deleteबचपन के रास्ते बहुत याद आते हैं ...
ReplyDeleteआप खुशकिस्मत हैं कि एक ही शहर में रहे हैं , यह अच्छा किया कि उन गलियों को देख पुरानी यादें ताजा कर लीं !
दयाल जी,आपने तो हमें भी पुरानी गलियों की याद ताजा करा दी...आप का लेख पढते पढते हम भी बचपन की गलियों में पहुँच गये...आभार।
ReplyDeleteफिर भी अनपढ़ों की तरह पूछ ही लिया कि क्या ३४५ नंबर यही है । कौन रहता है यहाँ , क्या घर में हैं? एक महिला ने कहा , शायद घर में नहीं हैं आप घंटी बजा कर देख लीजिये ।
ReplyDeleteखुबसूरत यादें और इनसे जुडी बातें शायद हमें जीवन के आनंद को द्वि गुणित कराती हैं .
यादें यादें यादें .........और आनंद ......
दिल से लिखा संस्मरण . मै तो भावुक हो गया पढकर . मुझे भी अपने बचपन की गलियो को देखे दो दशक से ज्यादा हो गया है . आपकी पोस्ट पढकर दिल में उन्ही ख्यालो का आना शुर हो गया है .
ReplyDeleteइस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - सिंह या शिखंडी.... या फ़िर जस्ट रोबोट.... ब्लॉग बुलेटिन
ReplyDeleteदशकों बाद यादों की गली में पुनर्विचरण एक अलग ही अनुभव है। अच्छा लगा, अगली कड़ी का इंतज़ार है। मैने भी पिछ्ले दिनों कुछ गलियाँ घूमीं, काफ़ी बकाया हैं अगली भारत यात्राओं के लिये।
ReplyDeleteबचपन की यादें वास्तव में ही भावविभोर कर देती हैं
ReplyDeleteअभी तो बस शुरुआत है ...
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteडा साहब ; मुझे भी कुछ-कुछ ऐसा ही अंदेशा था कि शायद आपकी पोस्ट ब्लॉग वर्ल्ड में ठीक से प्रेषित नहीं हुई होगी, जिसकी वजह से पाठक वर्ग का ध्यान नहीं गया ! खैर, हम भी ढीठ किस्म के वादे के पक्के इन्सान है. हमने भी इसी लिए सर्वाधिकार सुरक्षित कर लिए थे, इसलिए हमारी वह पहली पहल टिपण्णी फिर से हाजिर है :)
ReplyDeleteआपने लिखा "एक फोटोग्राफर की दुकान होती थी जिसमे उसका बहुत खूबसूरत फोटो लगा होता था ।
वो थी ही इतनी सुन्दर कि देखने वाला देखता रह जाए । जान पहचान की थी लेकिन उम्र में आठ साल बड़ी थी। "
हाये ! :)
ऐ हुश्ने-ए-बहार, ऐ मेरे खुदा !
स्टूडियो के काउंटर से
फिसलता तुम्हारा वो हाथ,
मैंने लपककर थाम लिया होता !
अगर उस वक्त मैं
अपने दिल की सुनता,
तुम्हारी उम्र पर न जाता
और दिमाग से काम लिया होता !!
खैर, डा० साहब, कमान से निकला तीर और हाथ से निकला वक्त लौटकर नहीं आता, इसलिए आप अब इस शेर को मत दोहराना , भाभी जी ने सुन लिया तो .... वैसे भी अमूमन देखा गया है कि बुढापे में बीबी से पीटने की तमन्ना किसी भी मर्द की नहीं होती ! :) :)
डा० साहब , मुझे लगता है कि यह शायद आपकी पिछली सर्दियों की यात्रा रही होगी, क्योंकि आपने लिखा है कि महिलाये धुप सेकती स्वेटरें बुन रही थी !
हा हा हा ! गोदियाल जी , कोई पछतावा नहीं है . :)
Deleteजी हाँ , सही पहचाना आपने . इन सर्दियों में ही गए थे . फोटो में भी स्वेटर्स दिखाई दे रहे हैं .
कितना भी कुछ बदल जाए , पर आँखों के आगे वही सब गुजरता है , जो हम जी चुके होते हैं ....मुझे ऐसी यादें बहुत अच्छी लगती हैं
ReplyDeleteपुरानी यादोंॆ को साझा करने के लिए आभार!
ReplyDeleteयादों का मौसम कभी नहीं बदलता आप बहुत खुश किस्मत इंसान है जो आज भी आपने पुराने घर जाकर अपनी यादों को ताज़ा कर सके। मैं तो वो भी नहीं कर सकती। क्यूंकि मैं जिस घर में रहा करती थी, था तो वह भी सरकारी मकान ही किन्तु अब वहाँ पुराने मकानो को तोड़ कर नये मकान बनाने का सिलसिला शुरू हो चुका है। मुझे तो यह भी ठीक से पता नहीं है, कि वहाँ दुबारा मकान ही बनाये जा रहे हैं या शॉपिंग मौल....अब तो वहाँ बिता मेरा बचपन बस मेरे ज़ेहन में ही है और अब हमेशा मेरे ज़ेहन में ही रहेगा।
ReplyDeleteपल्लवी जी , सचमुच एक बार फिर उसी जगह जाकर वास्तव में बड़ा अद्भुत अनुभव हुआ था . यह सच है शहरों में अक्सर यह संभव नहीं होता .
Deleteगुज़रा हुवा समय भी उन वीथियों कों मिटा मनाही पाता जहा से हो के इंसान बचपन में गुज़रता है ...
ReplyDeleteयो जगह हमेशा बुलाती है ... खींच के ले आती है अपने पास ... अच्छा लगा आपका सफर देखना ...
याद आता हैं वो बचपन सुहाना....
ReplyDeleteवो आमो की अमराई वो गुलमोहर का जमाना ...!
वाकई में बचपन सुहाना ही होता हैं ....तरक्की ने सारे निशान साफ़ कर दिए ..आगे क्या होता हैं देखने को उत्सुक हैं ...
बचपन की यादें बड़े होने पर खूबसूरत ही लगती हैं ...मकान नंबर अब तक वही है , मकान भी वही है ,यह सुखद है वरना तो इतने सालों में नींव तक खुद जाती है !
ReplyDeleteबने हुए है हम भी आपकी यादों के साथ क्रमशः में !
JCMay 31, 2012 7:28 AM
ReplyDeleteकहे बिना नहीं रहा जाता कि 'हिन्दू' मान्यतानुसार मैं मानव रूप में (पहली बार) अनंत काल-चक्र में शक्ति रुपी आत्मा से आरम्भ कर ८४ लाख विभिन्न पशु रूप धारण कर पहुंचा 'अपस्मरा पुरुष' हूँ (नटराज शिव के चरण कि धूल समान), अर्थात भुलक्कड़ जिसे अपने भूत की सारी बातें याद नहीं है...
गीता में भी श्री कृष्ण, धनुर्धर अर्जुन को, कह गए कि उनमें और उसमें यही अंतर था कि अनत/ शेषनाग पर लेटे विष्णु (नादबिन्दू) के अष्टम अवतार कृष्ण को भूत का पता था कि वो आरम्भ से अर्जुन के साथ (ब्रह्मा के नए दिन के) आरम्भ से जुड़े थे, जबकि अर्जुन को अपने उसी रूप के, पांडुओं के भूत का पता था - और केवल वो ही अर्जुन को दिव्य चक्षु प्रदान कर उन्हें परम सत्य, शंख-चक्र-गदा-पद्म धारी, के दर्शन कराने में सक्षम थे, और शायद आज भी हों!
बेशक भाई साहब घर दीवारों का घेरा नहीं है लेकिन दरो -दीवार का एक एक अणु उन यादों से लिपटा रहता है जहां कभी हम भी होते थे भले घर आदमी की सोच से हलका या भारी बनता है जहां प्यार और समझ है परस्पर वहां हलका पन है फूल का और जहां कटुता वैमनस्य वहां पहाड़ सा बोझा बन जाता है घर .कृपया यहाँ भी -
ReplyDeleteबृहस्पतिवार, 31 मई 2012
शगस डिजीज (Chagas Disease)आखिर है क्या ?
शगस डिजीज (Chagas Disease)आखिर है क्या ?
माहिरों ने इस अल्पज्ञात संक्रामक बीमारी को इस छुतहा रोग को जो एक व्यक्ति से दूसरे तक पहुँच सकता है न्यू एच आई वी एड्स ऑफ़ अमेरिका कह दिया है .
http://veerubhai1947.blogspot.in/
बचपन जब आगोश में लेता है तो वर्तमान गुम हो जाना चाहता है
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति..!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!