आपने जगह जगह सड़क किनारे टेंट लगा देखा होगा , जिस पर लिखा होगा ----खानदानी सफाखाना ।
या फिर --पहलवान --हड्डी जोड़ तोड़ इलाज ।
या बसों में दवा बेचते भिखारी जैसे लोग ।
और तो और , यदि आप मनाली जैसे हिल स्टेशन पर घूमने जाएँ तो झोला टांगे कोई चरसी सा दिखने वाला व्यक्ति आकर कहेगा --साब थोड़ी सी दूँ --एक बार इस्तेमाल कर के देखिये !
इन्हें सड़क छाप डॉक्टर कह सकते हैं ।
आइये मिलते हैं , कुछ ऐसे ही सड़क छाप डॉक्टरों से :
दृश्य १ :
करीब बीस साल पहले की बात है । मैं बस में बैठा चंडीगढ़ की ओर जा रहा था । अम्बाला के पास बस एक ढाबे पर रुकी तो चलने से पहले बस में एक ऐसा ही व्यक्ति घुस आया और लगा अपनी सुनाने ।
साहेबान , ज़रा ध्यान दीजिये --क्या आपके दांत में कीड़ा है --डॉक्टर की फीस देकर तंग आ चुके हैं --कोई फायदा नहीं हो रहा --घबराइए नहीं --हमारे पास इसका इलाज है ।
एक आदमी से बोला --क्या आपके दांत में कीड़ा लगा है ?
आदमी बोला -जी हाँ ।
साहेबान देखिये , अभी आपके सामने इनके दांत का कीड़ा बाहर आता है एक मिनट में ।
उसके बाद उसने एक छोटी सी शीशी निकाली, उसमे से एक तिल्ली पर द्रव की एक बूँद लगाई और व्यक्ति के मूंह में लगा दिया । थोड़ी देर बाद उसने मूंह खोलने के लिए कहा और ये लो तिल्ली पर एक छोटा सा तिनका जैसा लगा था जिसे दिखाकर बोला --लीजिये साहेबान कीड़ा बाहर आ गया । न कोई ऑपरेशन , न कोई चीर फाड़ और कीड़ा बाहर ।
यदि आप के या आप के किसी रिश्तेदार के दांत में कीड़ा लगा हो तो एक शीशी ले जाइये --कीमत मात्र पांच रूपये ।
देखते ही देखते उसकी दस शीशियाँ बिक गई । पचास रूपये संभाल वह चुपचाप नीचे उतर कर गायब हो गया ।
दृश्य २ :
एक छोटे से कस्बे में सड़क पर एक कोने में एक जगह लोगों की भीड़ लगी थी । गोल दायरे में खड़े लोगों के बीच एक मदारी सा व्यक्ति तमाशा दिखा रहा था । फर्क बस इतना था की उसके पास जमूरा नहीं था , बल्कि खुद ही तमाशा दिखाने में लगा था ।
पहले उसने एक कटोरी में पानी लिया । फिर उसमे थोडा लाल रंग मिला दिया । फिर बोला --
साहेबान , कद्रदान . मेहरबान --आपकी आँखें दुखनी आई हों तो आप डॉक्टर के पास जाते हैं । डॉक्टर अपनी फीस ले लेता है लेकिन आपको कोई आराम नहीं आता । आप निराश हो जाते हैं । फिर डॉक्टर बदलते हैं --फिर फीस . फिर कोई आराम नहीं ।
लेकिन निराश न होइये --हमारे पास ऐसा इलाज है जो आँख की हर लाली को मिटा देगा ।
इसके बाद उसने कटोरी के पानी में दो चार बूँद किसी द्रव की डाली --और ये लो , पानी का रंग साफ हो गया ।
साहेबान , कद्रदान . मेहरबान --एक बार तालियाँ हो जाएँ --हमारे इलाज की कोई काट नहीं --नकली साबित करने वाले को हज़ार रूपये का इनाम --और इस इलाज की कीमत --साहेबान कोई १०० रूपये नहीं --पचास भी नहीं --दस भी नहीं --ज़नाब इसकी कीमत है बस पांच रूपये --जी हाँ , सिर्फ पांच रूपये , पांच रूपये , पांच रूपये ।
देखते ही देखते उसकी बीस शीशियाँ बिक गई ।
उसके बाद उसने दूसरा तमाशा शुरू किया --
फिर एक कटोरी में पानी -- पानी में एक पाउडर सा डाला --थोड़ी देर में पानी जमकर जैली जैसा हो गया --एक युवक से कहा , इसे उल्टा करके देखो -- जितना मर्जी हिला लो , एक कतरा भी नहीं गिरेगा ---
हम बच्चे थे , कुछ समझ नहीं पाए ।
हम बच्चे थे , कुछ समझ नहीं पाए ।
लेकिन देखते ही देखते उसकी सारी शीशियाँ बिक गई ।
नोट : सड़क छाप डॉक्टर ही नहीं होते , मरीज़ भी होते हैं ।
डॉक्टर साहिब, सही कहा!
ReplyDeleteएक ग़ज़ल तलत की आवाज़ में सुनी थी, एक लाइन पेश है, "...सब चले जाते हैं / कहाँ दर्दे जिगर जाता है// ऐसा उजड़ा कि फिर हमसे बसाया न गया", जब टीवी छाप डॉक्टर की दवाई लगाते ही कई भाषा में देखता / सुनता हूँ, दामी मल्हम लगाते ही बीमारों को कहते, "गायब"! "चोले गेलो"!, आदि...
और कैमिस्ट से तुरंत मलहम लगा लगा थक जाता है बीमार, दर्द बढ़ भले ही जाए किन्तु जाता ही नहीं, भले बीमार ही खुद क्यूँ न चला जाए :)...
समस्या तो यही है कि पहले शहरी गांव वाले को मूर्ख बनाता था, फिर गाँव वाला शहरी को मूर्ख बनाने लग पड़ा...
और अब हर कोइ खुद को ही बेवक़ूफ़ बना रहा है, सोचता है कोई और 'गांधी', लाठी और लंगोट पहन आएगा, अथवा कोई क्राइस्ट, और हमको हमसे ही आज़ादी दिलाएगा :)
aapne sahi kaha ye jholachaap dr.har jagah miljaate hain.jinke chakkar me ya to ashikshit ya gaon vaale aa jate hain.bada rochak,sach likha hai aapne.
ReplyDeleteहा हा हा और वह बिजली का खम्बा वाला काहें छोड़ दिया डाकटर साहब ?
ReplyDeleteऐसे लोग हर जगह मिल जाते हैं इनसे बचकर रहना ही समझदारी है।
ReplyDeleteमान गए साहब ... क्या कहने इन डाक्टरों के ...
ReplyDeleteताऊओं की हिंदुस्थान में कहीं कमी है क्या?:)
ReplyDeleteरामराम.
सदा थे, सदा रहेंगे. सडक छाप रोगियों के ये सडक छाप और झोला छाप डाक्टर ।
ReplyDeleteआज भी ऐसे झोला छाप डॉ हैं ....
ReplyDeleteपरम्परानुसार, 'भारत' में मानव जीवन के कई सत्य, अथवा सत्व, यानि सार, विभिन्न पिछड़े क्षेत्रों, गाँव आदि में भी, सदियों से उपलब्ध हैं..
ReplyDeleteजैसे हमारे माता-पिता कई बार दोहराते थे, (हिंदी रूपांतर), "(अपने को अधिक चालाक समझने वाले व्यक्ति) चतुर व्यक्ति के नाक में गू (शिट) लगता है"!
"हरेक नहले का दहला होता है"...
रावण अपने आप को बहुत ज्ञानी और शक्तिशाली समझता था, किन्तु उसका पाला सीता-राम (चन्द्र-सूर्य) से पड़ ही गया...
जैसे राहू भी ज्ञानी देवताओं के बीच बैठ भी गया, और अमृत भी पा गया, किन्तु सूर्य-चन्द्र द्वारा पकड़ा गया और विष्णु द्वारा सर कटा बैठा :)... इत्यादि...
जैसा मरीज वैसा डॉक्टर
ReplyDeleteयह तो गांव के बाजारों में आम बात है ।
ReplyDeleteअफ़सोस तो इस बात का है कि गाँव में ही नहीं , शहर में भी ऐसे डॉक्टर और ऐसे रोगी मिल जाते हैं । मेरा अपना पी ए
ReplyDeleteपत्नी को पैर में मोच आने पर सारा इलाज बताने के बाद भी पहलवान से मालिश करा कर लाया ।
मालिश वाले पहलवान तो शहरों में ही मिलते हैं । और सिद्ध बाबा --तांत्रिक आदि भी यहाँ कम नहीं । उनके पास जाने वाले पढ़े लिखे भी होते हैं ।
सदाबहार जवानी के नुस्खे और गंजे के सर पर बाल उगाने की गारंटी वाले भी डाक्टर मिल जाते है जिनके आस पास काफी भीड़ लगी रहती है |
ReplyDeleteये ही हाल है .....अफसोस की बात तो है.
ReplyDeleteगोवर्धन परिक्रमा मार्गपर इस तरह के नीम हकीमों की दुकाने खूब देखी जा सकती हैं , और ऐसे ही सड़क छाप मरीज भी!
ReplyDeleteमैंने पिछली पोस्ट में जिन वैद्यों का जिक्र किया था , वे आयुर्वेद के जाने -माने शोध संस्थान से हैं !
अफसोस की बात तो है ही!
ReplyDeleteयही सब देख हमारे ज्ञानी-ध्यानी पूर्वज - मानव के कार्य कलापों की विविधता को देख - मानव जीवन के सार को खोजते खोजते ब्रह्माण्ड के सार सौर-मंडल पर पहुँच, प्रत्येक व्यक्ति को सूर्य के चक्र अथवा चन्द्रमा के चक्र के माध्यम से कुल १२ राशियों में पहुँच गए... और हर राशि की प्रकृति तक पहुँच हर राशि के व्यक्ति की संभावित प्रकृति दर्शा गए... और सोचने वाली बात शायद यह है कि इतने भूचाल आये / ज्वालामुखी भी फूटा होगा जिस से बनी दक्षिण की चट्टानों (ट्रैप, बैसाल्ट) एक सुरक्षा की भावना देते रहे सदियों तक / नदियों में बाढ़ तो प्रति वर्ष आ अपना वीभत्स रूप दिखा जाती हैं कुछेक क्षेत्रों में / प्रलय भी समय समय पर शायद हुईं / हिमालय ने भी पृथ्वी के गर्भ से ऊपर आ, उत्तरी सागर जल को दक्षिण सागर में पहुंचा दिया, विन्ध्याचल पर्वत के ऊपर से भी / आदि आदि, और फिर भही हमारे पुराण, कथा कहानी आदि आज भी कैसे उपलब्ध हैं ????????
और शायद जो कहता है वो भगवान् पर विश्वास नहीं करता / इन राशि फल आदि पर विश्वास नहीं करता, वो भी बिल्ली के समान उत्सुकता वश राशि फल पढ़ लेता है समाचार पत्रादि में :) और हिन्दू मान्यता है की शक्ति रुपी भगवन के विभिन्न अंशों से ही आरम्भ कर, ८४ लाख योनियों से गुजर मानव रूप को पहली बार प्राप्त करता है, और अधिकतर अज्ञानता वश गुरु लोगों के उपदेशों को न मान एक सुनहरा अवसर खो देते है, जबकि हमारे पूर्वज 'श्रद्धा और सबूरी' के साथ गहराई में जा मोती प्राप्त कर कह गए "सत्यम शिवम् सुन्दरम"! और "सत्यमेव जयते"!
दाराल साहब बिलकुल ठीक कहा , झोला छाप डाक्टर नहीं मरीज भी होते है और जैसे कोई कुल्फी बेचने वाला कुल्फी बेचता है ऐसे ही दवाए भी बेची जाती है गावों में झोले में भरकर. हर मर्ज की दवा हर मरीज का डाक्टर भले जानवर ही क्यों न हो ? .. अब दाराल साहब तो गावों में नहीं मिलते और सरकार के अथक प्रयासों से भी प्राथमिक स्वस्थ केंद्र पर डाक्टर साहब नहीं रुक पाते और गाव हो जाता है झोला छाप के हवाले .
ReplyDeleteडाक्टर ऐसे होते हैं यह तो समझ में आ रहा है लेकिन सवाल यह है कि मरीज ऐसे क्यों होते हैं ? क्या यह हमारी चिकित्सा व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह नहीं है ? प्राइवेट डाक्टरों के महंगे इलाज व सरकारी अस्पतालों की कुव्यवस्था से परेशान/हताश लोगों को सड़क छाप डाक्टर आसानी से मूर्ख बना देते हैं। जब तक झोला छाप/सड़क छाप डाक्टर दिखाई देंगे यही माना जाना चाहिए कि हमारी चिकित्सा व्यवस्था दुरूस्त नहीं है।
ReplyDeleteमीरा बाई कह गयी, "रोगी अन्दर बैद बसत है / बैद ही औसध जाने रे"!
ReplyDeleteऔर उचित होगा याद दिलाना, कल गांधी जयंती के शुभ अवसर पर, "रघुपति राघव राजा राम / पतित पावन सीता राम"...
और इसके अतिरिक्त महामृत्युंजय मन्त्र, "ॐ त्रियम्बकं यजामहे, सुगन्धिं पुष्टिवर्धनं
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मोक्षिय मामृतात्."
Essence of mahamrityunjay mantr:
ReplyDeleteWe pray to Lord Shiva whose eyes are the Sun, Moon and Fire
May He protect us from all disease, poverty and fear
And bless us with prosperity, longevity and good health.
हा हा हा
ReplyDelete... लेकिन कुत्ते बिल्लियों का इलाज हमेशा कोठी छाप डाक्टर ही करता है ,
देखते हैं कि इंसान कुत्ते बिल्लियों जैसी हालत तक कब पहुँचता है ?
वोही मन्त्र संस्कृत में -
ReplyDeleteॐ त्रियम्बकं यजामहे, सुगन्धिं पुष्टिवर्धनं
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मोक्षिय मामृतात्.
आभासी जगत में वर्तमान में विचारों के आदान प्रदान का माध्यम जैसे इन्टरनेट है, अथवा इंद्रजाल (सौर मंडल का सार?) है, वैसे ही भूमि पर नदियों के तंत्र समान, मानव शरीर में, शनि ग्रह के सार अर्थात प्रतिरूप, नर्वस सिस्टम, नाड़ियों के जाल को माना गया है...
और हम आज जानते हैं की शनि एक रिंग प्लेनेट है, सूर्य की अपेक्षा ठंडा, और सुस्त कहलो क्यूंकि इसे सूर्य की एक परिक्रमा करने में - हमारी पृथ्वी को आधार मान - ३० वर्ष लग जाते हैं, जबकि सूर्य के निकटतम बुद्ध ग्रह लगभग एक चौथाई वर्ष ही लेता है और इसे 'मुंह में आग भरे' तेज़ भागने वाला, अर्थात धावक कहा जाता है... (शायद 'रोड रेज' / दुर्घटना आदि को दर्शाता मानव का गुरु)!...
आपकी बात से सहमत ... सड़क चाप मरीज भी होते हैं ... इसमें शिक्षा की कमी ज्यादा कागती है .. सामाजिक चेतना की भी कमी है ...
ReplyDeleteअंशुमाला जी , एक बार हम अपने dermatologist के पास गए बालों की मात्रा बढ़ने के नुश्खे के लिए । उनका बालों का खज़ाना देख हम वापस आ गए ।
ReplyDeleteवाणी जी , नब्ज़ देखकर रोग को पहचानने की बात हज्म नहीं होती ।
कुश्वंश जी , पाण्डे जी , दोष जनता का भी है । जानते पूछते हुए भी क्वेक्स के पास जाते हैं । बेशक स्वास्थ्य सेवाओं की कमी खलती है । लेकिन अपने पैरों पर कुल्हाड़ी भी क्यों मारनी है ।
डॉ अनवर ठीक कह रहे हैं । कुछ कुत्ते इन्सान से ज्यादा भाग्यशाली होते हैं ।
बढिया उदाहरण डॉक्टर साहब॥ सडकछाप जो ठहरे॥
ReplyDeleteवाह डाक्टर साहब, नीचे वाला क्या ग्रेविटी तोड़ डॉक्टर था...न्यूटन के लॉ को भी फेल कर देने वाला...
ReplyDeleteमेरठ में एक जर्राह का बोर्ड देखा था...उसमें एक एक पहलवान बना रखा था...अब फोड़ा, फुन्सी, जितनी भी बीमारियां हो सकती थीं, एक एक कर एरो से सभी उस पहलवान जी के पूरे शरीर में दिखा रखी थी...शर्तिया इलाज के दावे के साथ...मेरा सवाल था कि जब पहलवान जी को इतनी सारी बीमारियां एक साथ हैं तो वो पहलवान कैसे रह सकते थे...
जय हिंद...
सार्थक आलेख, सही है जैसा मरीज वैसा डॉ.... आज भी कोई कमी नहीं है हमारे देश में ना ऐसे मरीजों की और ना ही ऐसे डॉ की,आपने एक-एक बात एक दम सही कही है।
ReplyDeleteसमय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
http://mhare-anubhav.blogspot.com/
ऐसे सड़क छाप डॉक्टर दिखते ही रहते हैं...पर लोग उनकी बातों में कैसे आ जाते हैं....ये नहीं पता चलता
ReplyDeleteखुशदीप भाई , लगता है , आखिरी वाला शायद आप भी नहीं समझ पाए । :)
ReplyDeleteडॉक्टर साहिब, आज हम जान गए हैं (पश्चिमी वैज्ञानिकों की कृपा से, क्यूंकि हर कोई कोई न कोई लाभदायक कार्य कर रहा है) कि मानव मस्तिष्क में अरबों सेल हैं, किन्तु सबसे ज्ञानी व्यक्ति भी आज इनमें से नगण्य सेलों का ही उपयोग कर पाता है...
ReplyDeleteप्राचीन हिन्दुओं ने इसका कारण अन्नत काल-चक्र में काल विशेष का प्रभाव जाना....
अर्थात अनुमान लगा कह सकते हैं कि आरम्भ में, सतयुग में जिसमें माना जाता है कि मानव की कार्य क्षमता परमात्मा समान १००% से, १७,२८,००० वर्ष वाले युग के आरम्भ से, युग के अंत तक ७५% तक घट जाती है... हर व्यक्ति यूँ सक्षम रहा होगा सम्पूर्ण सेलों का उपयोग करने हेतु केवल आरम्भ में...
किन्तु काल के साथ साथ उसका ज्ञान घटता रहता है... यहाँ तक कि ४३ लाख ३२ हज़ार वर्ष वाले कलियुग में, केवल २५ से ०% कार्य क्षमता वाले युग में, प्राकृतिक तौर से, वो केवल सीमित ज्ञान वाला रह जाता है... और अंत में शून्य होने से पहले, किन्तु फिर से सतयुग में पहुँच फिर से यात्रा आरम्भ करता है... हिन्दू मान्यतानुसार ऐसा चक्र ब्रह्मा के एक दिन में १०८० बार चलता है, और अंततोगत्वा ब्रह्मा की रात आजाती है, जब सब प्राणी सूक्ष्म रूप में (आत्मा, शक्ति रूप में) 'कृष्ण' में (परमात्मा, नाद बिंदु विष्णु के प्रतिरूप हमारी गैलेक्सी के केंद्र में) समा कर, नए दिन के आरम्भ का इंतज़ार करते है, फिर से पृथ्वी पर एक नयी यात्रा आरम्भ करने हेतु... किन्तु केवल वे आत्माएं ही जो अपने सीमित जवान-काल में १००% ज्ञानी परमात्मा से जुडाव नहीं कर पाए थे, जो मानव के पृथ्वी पर जन्म का एकमात्र उद्देश्य माना जाता है...
नदी (नाडी?) के माध्यम से उपरोक्त को जानना चाहें तो हम पाते हैं कि मानारोवर से आरम्भ कर अपने उद्गम स्थल से, (गोमुख से गंगा जल / ह्रदय से शुद्ध रक्त और उसके हार्वे द्वारा रक्त के चक्र?), सागरजल से मिलने अपने टेढ़े-मेढ़े पथ पर अग्रसर हो जाता है, किन्तु मार्ग में पड़ने वाली अनंत बाधाएं - बाँध, भंवर, तालाब, गढ़े, आदि आदि, जल को मार्ग से भटका देते हैं, और इस प्रकार आखिरी बूँद तक सागर में मिलन हेतु बहुत समय निकल जाता है, और सागर से भी उसे बार बार बादल बन फिर जल-चक्र में फन्ना पड़ता है... ऐसे ही मानव जीवन में भी हम विभिन्न बाधाएं देख पाते हैं - प्राकृतिक अथवा मानव तंत्र जनित प्रतीत होती... फिर भी मानव को ब्रह्माण्ड का प्रतिरूप जान खगोलशास्त्र आदि के ज्ञानी-ध्यानी पूर्वज 'हस्त-रेखा विशेसज्ञं' अँगुलियों को ग्रहों से सम्बंधित जान पाए, और अंगूठे को विशेषकर मंगल ग्रह से, और तीन लाइन ('३', ॐ के प्रतिबिम्ब ब्रह्मा-विष्णु-महेश, तीन मुख्य नदियाँ गंगा-यमुना-ब्रह्मपुत्र, और तीन ही मुख्य नाडी भी (?) द्वारा व्यक्ति विशेष के जीवन काल में संभावित घटनाओं का अनुमान लगा पाए... किन्तु आज ज्ञान काल कि रेत में गुम हो गए सरस्वती नदी जल समान लुप्त हो गया है...
'जन-हित' मे आपने जो जांकारिया दी हैं उनकी आवश्यकता वस्तुतः पढे-लिखे लोगों को ज्यादा है,जैसा की हिन्दू टिप्पणीकार ने आधा-अधूरा महामृत्युंजय मंत्र देकर पढे-लीखों को गुमराह करने का प्रयास किया है ऐसे ही दूसरे तथा-कथित हिंदूवादी सदियों से करते आ रहे हैं और यही कारण है हमारे देश के पिछड़ेपन का तभी तो आपको शिकायत करने का मौका मिला।
ReplyDeleteखराब मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है वैसे ही सच्चे साधक धक्के खाते और चमचे मजे उड़ाते हैं।
"समझदार को इशारा काफी होता है", किन्तु मूर्ख को डंडा भी काफी नहीं होता, कह गए ज्ञानी-ध्यानी ...
ReplyDeleteशब्द के माध्यम से ज्ञान दूसरे तक पहुंचाना कठिन ही नहीं असभव होता है...
दौड़ने वाले के सामने केवल टांग अड़ाना काफी होता है उसको गिराने के लिए - किसी भी ज्ञानी अथवा अज्ञानी के लिए....
किन्तु गिरे हुए को उठाना अत्यंत कठिन...
जिस कारण बुद्ध भी कह गए "मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है"...:)
नवरात्रि के उपलक्ष्य में सभी को शुभकामनायें देते, जो 'आज' आम भारत / अमेरिका वासी इत्यादि देख रहा है, भले ही वो नवग्रह के सार से ही बना 'हिन्दू' हो, अथवा सिख, अथवा किसी और 'धर्म' से सम्बंधित, उसका वर्णन तो शब्दों के माध्यम से संभव है, किन्तु गहराई, उस के मूल तक, जाना, आज लगभग असंभव है...
अच्छा हो यदि जो भी किसी विषय में अधिक जानता है वो सत्य को उजागर करे...
डॉक्टर साहिब ने पहले भी कहा है कि वो मस्तिष्क के बारे में अधिक नहीं जानते हैं, और वो अपने क्षेत्र में उपलब्ध ज्ञान पर चर्चा करना पसंद करते हैं... किन्तु वो नाड़ी के द्वारा बिमारी के बारे में जान इलाज कर पाना संभव नहीं मानते...
'हिन्दू' मान्यतानुसार, 'भगवान्', नराकार ब्रह्म, की दृष्टि में सभी भले-बुरे, गोरे-काले, लम्बे-छोटे, आदि आदि सभी बराबर हैं! जिस कारण यह भी कहा जाता है कि भगवान् सभी को एक ही आँख से देखता है, अर्थात वो काना है...
ReplyDeleteऔर 'संयोगवश' हरि विष्णु / कृष्ण के सुदर्शन चक्र समान, चक्र-वात / हरिकेन के केंद्र को भी 'आँख' कहा जाता है :)...
और, ज्वालामुखी के शीर्ष में स्थित मुंह से निकलती लाल रंग की जिव्हा समान लावा, संकेत करता है माँ काली के मुंह से लटकी लहूँ से रंगी लाल जिव्हा का - और हिन्दू, काली के निवास स्थान को शिव के ह्रदय में दर्शाते हैं आये हैं अनादी काल से... :)
किन्तु मानव भगवान् का प्रतिरूप होते हुए भी 'दृष्टि दोष' के कारण (दो बहिर्मुखी आँखों में समन्वय न होने से, और 'अंतर्मन की आँख', अथवा 'शिव की तीसरी आँख' बंद होने के कारण), भटक जाता है...
जो काल के कलियुग की ओर निरंतर प्रगतिशील होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति में मानसिक द्वन्द को, 'महाभारत', अथवा परोपकारी देवता और स्वार्थी राक्षसों के बीच निरंतर चलते युद्ध समान, बढ़ावा देता है...
सभी आदरणीय सुधीजनों से निवेदन है कि एक दुसरे के विचारों का सम्मान करें । कोई अपने आप में सम्पूर्ण नहीं होता । हम भी नहीं हैं । इसीलिए तो विचारों का आदान प्रदान होता है ।
ReplyDeleteनवरात्रों की शुभकामनायें ।
यही हाल है सर जी...
ReplyDeleteजैसा मरीज वैसा डॉक्टर
ReplyDeleteडॉक्टर साहब, मतलब बहुत अच्छी तरह समझ गया था...क्या डॉयलॉग बोला जाता था वो भी याद है...
ReplyDeleteजय हिंद...
डॉक्टर दराल, आप काफी सुलझे व्यक्तित्व के हैं!
ReplyDeleteजब चिकित्सा की बात आती है, झोले छाप डॉक्टर / वैद्य आदि की भी बात आती है, तो शायद याद आ सकती है एक मान्यता जिसके अनुसार, 'पहुंचे हुए हिन्दू' आत्माएं, 'सिद्ध पुरुष', तो इस ज्ञान के आधार पर की सृष्टि की रचना ध्वनि ऊर्जा (ॐ, आमीन आदी) से हुई है, और कृष्ण का शंख 'पंचजन्य' कहा गया, अर्थात जो पांच तत्व साकार के निर्माण में आवश्यक हैं, अर्थात 'पंचतत्व' / 'पंचभूत', दूर से ही मन्त्र द्वारा इलाज करने में सक्षम थे, "न हींग लगे न फिटकरी / फिर भी रंग चोखा" :)
इस इलाज में बीमार व्यक्ति विशेष की तस्वीर के सामने, बीमारी पर निर्भर कर, विशेष मन्त्र आदि का जाप किया जाता था...
'बाणों' की पहुँच की दूरी योगी की क्षमता पर निर्भर करती थी... और क्यूंकि हर टेक्नीक के लाभ पहुंचाने के अतिरिक्त हानि पहुंचाना भी संभव है, ऐसे 'गुरु' भी प्रकृति में उत्पन्न हो जाते हैं, और साथ साथ उनसे सुरक्षा पहुंचाने हेतु भी उपाय पर शोध करने वाले भी...और जिसे 'दुर्गा का कवच' कहा गया...(पहले भी मैंने एक उदहारण दिया था कि कैसे हस्त-रेखा के आधार पर 'सुच्चे मोती' से मैंने एक डॉक्टर रिश्तेदार का गैस्ट्रिक प्रॉब्लम ठीक कर दिया था, किन्तु चर्म रोग ठीक नहीं कर पाया था)...
किन्तु, दूसरी ओर 'सिद्धों' ने यह भी कहा है कि जगत (साकार) मिथ्या है... संसार एक बाज़ार है जहां केवल असत्य ही बिकता है (जिसे 'मायावी' फिल्म जगत को संभवतः संकेत / द्योतक माना जा सकता है ?!... :)
डाक्टरों की कमी का फायदा भी इन्हें मिल रहा है , अगर हर ग्राम पंचायत में एक पुरुष और एक महिला डाक्टर हों तो समस्या का निदान हो सकता है ।
ReplyDeleteआपका विश्लेषण अद्भुत है. लेकिन मुझे लगता है कि लोगों की गरीबी भी एक कारण है इन नीम हकीमों और झोलाछाप, सडकछाप डॉक्टरों की सफलता का. यदि सही मूल्य पर अच्छी डॉक्टरों की सलाह और इलाज़ सभ जगह मिल सके तो शायद लोग इनसे दूर रहेंगे.
ReplyDeleteमेरे स्व. साडू भाई बताते थे कि कैसे जब वे उत्तर प्रदेश में सरकारी डॉक्टर लगे तो उनकी पहली पोस्टिंग उत्तरकाशी में हो गयी... एक दिन उनके पास एक लड़के को लाया गया जिसको भालू ने जंगल में माथे के ऊपर पकड़ लिया... वो चंगुल छुडा के भाग के आगया... किन्तु उसकी चमड़ी टोपी के समान खुल, सर में ही रह, लटक गयी और उसका सर गुलाबी नज़र आ रहा था... डिस्पेंसरी में कोई दवाई नहीं थी, सो उन्होंने बिना किसी एंटी बायोटिक लगा सिलाई करदी! और उनके आगरा के अनुभव के आधार पर आँखों के आगे सेप्टिक होने का दृश्य घूम गया...
ReplyDeleteकिन्तु प्रकृति का उस शुद्ध वातावरण की, पहाड़े वाली माता की, कृपा से, ऐसा कुछ नहीं हुआ!
और वो लडक कुछ ही दिनों में नौर्मल हो गया!...:)
किन्तु वर्तमान में तो शायद यह संभव न होता...
सरकार बेचलर ऑफ़ रुरल हेल्थ केयर ( BRHC) के नाम से एक चार साल का कोर्स शुरू करना चाहती थी जिसके अंतर्गत गाँव के बच्चों को मान्यता प्राप्त डिग्री देकर गाँव में ही प्रैक्टिस करने की सुविधा थी । इस तरह एक ओर गाँव के बच्चों को डॉक्टर बनने का अवसर मिलता , दूसरी ओर गाँव में ट्रेंड डॉक्टर्स की कमी नहीं रहती । लेकिन हमारे शहरी खाए पीये अघाये डॉक्टर दोस्तों ने अपने स्वार्थ में आकर इस स्कीम को लागु नहीं होने दिया । क्योंकि इससे उनके बिजनेस पर प्रभाव पड़ना निश्चित था ।
ReplyDeleteअब हालात वाही रहेंगे --न कोई डॉक्टर गाँव की ओर रुख करेगा , न वाहन कोई ट्रेंड डॉक्टर होगा ।
क्वेकरी जिंदाबाद !
उनका एक बेटा मर्चेंट नेवी में है... वो बता रहा था कि कैसे एक कर्मचारी डेक में ऊपर से गिर गया, चमड़ी फट गयी,और जहाज में कोई डॉक्टर नहीं था तो, क्यूंकि उसने अपने पिताजी को देखा था सिलाई करते, उसने भी फर्स्ट एड किट से ले दवाई लगा सिलाई कर दी... और जब पोर्ट में पहुँच डॉक्टर ने देखा तो उसने उसके काम की तारीफ़ की :)
ReplyDeleteझोला छाप डाक्टर नहीं मरीज भी होते है ....बिलकुल ठीक कहा आपने.............डाक्टरों की कमी को आपने एक नए दृष्टिकोण से व्याख्यायित किया है....लेख बहुत अच्छा और विचारणीय है।
ReplyDeleteपापी पेट का सवाल है जी, दुनिया में सब करना पड़ता है। 32 रुपए में 2400 कैलोरी भोजन जो जुटाना है। :)
ReplyDeleteयह कमाल तो बहुरूपिया / योगेश्वर / नीलकंठ शिव / नीलाम्बर कृष्ण / 'नीली छतरी' (नीली पगड़ी?) वाले, का कलियुग में था :)
ReplyDelete'हलाहल', 'कालकूट' विष (पोटाशियम सायानाइड?) को कंठ में सम्हाल पाना सरल रहा होगा क्या?...:)
योगी तो कह गए की भोजन भी विष है :)
अंग्रेजों ने भी कहा, "एक आदमी का भोजन दूसरे का विष है"... :)
Loved the whole concept of sadak chap doctor n patient.
ReplyDeleteyet I enjoyed the deep sarcasm behind it.
Fantastic read !!!
सही कहा डॉ साहेब ,ऐसे झोलाछाप डाक्टरों से हमे रोज टकराना पड़ता हें
ReplyDeleteडॉक्टर साहिब, कुछ ऐसे डॉक्टर भी होते हैं जो अपन खुद का लिखा प्रेस्क्रिप्शन नहीं पढ़ अकते! उसे सिर्फ उनका कम्पाउनडर ही पढ़ सकता है!
ReplyDeleteऐसा किस्सा हमारे कॉलेज दिनों में हमें एक रविवार देखने को मिला, जब मैं और मेरा एक मित्र हॉस्टल की डिस्पेंसरी में एक अन्य मित्र के पेट दर्द के लिए दवा रिपीट कराने डॉक्टर के पास गए, क्यूंकि कम्पाउनडर कहीं बाहर गया था... मिक्सचर का एक आइटम न उसे, न हमें, समझ आया तो उसने कहा, 'चलो इसे डालते ही नहीं / किसी को क्या पता चलेगा"!
(कहना नहीं होगा कि उसे लड़के 'घोडा डॉक्टर' कहते थे!)...
आपने बिल्कुल सही कहा है! अब क्या करें लोग फँस जाते हैं ये न समझते हुए की डॉक्टर कैसा है ! बहुत सुन्दरता से आपने एक एक बात को प्रस्तुत किया है!
ReplyDeleteदुर्गा पूजा पर आपको ढेर सारी बधाइयाँ और शुभकामनायें !
मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
जब हर जगह 'घुसपैठिये' सक्रिय हैं तब यह पेशा भी क्यों बचे ? आँखों में धूल झोंकने वाले हर जगह हैं और उससे ज़्यादा फँसने वाले !
ReplyDelete:) रोड साइड पर चलता फिरता सर्कस होता है ये सब .
ReplyDeleteयह बात काफी पुरानी हो गयी है, पांच दशक से थोडा अधिक, किन्तु आप विश्वास नहीं करोगे, मैं भी नहीं करता यदि स्वयं प्रत्यक्ष दर्शी न होता!
ReplyDeleteएक ऐपेंडीसाईंटिस के दर्द महसूस करते सहपाठी का ओपरेशन के लिए सर्जन ने पेट गलत काट दिया - जिधर ऐपेंडिक्स था ही नहीं! पेट सिल दिया गया कि फिर ठीक हो जाने पर सही जगह काटा जाएगा!
किन्तु उसका अवसर ही नहीं मिला :(
'भारत' महान देश है, तमाशबीन अधिक हैं - मदारी डमरू बजाता है तो भीड़ जमा हो जाती है, जो कटोरी को देख तितर बितर हो जाती है...
एक सुबह गुवाहाटी (सुपारी का बाज़ार) में जो तब गौहाटी (गाय का बाज़ार) कहलाता था तब... जब सुबह सुनसान सड़क की पटरी पर मैं चला जा रहा था अपने ख्यालों में... कि एक सांड (गाय का पति?, और शिव का वाहन) जो सड़क पर खडा था, किन्तु उसका सर पटरी के ऊपर था, और उस पर मेरी नज़र नहीं पड़ी थी... उसने मेरे हाथ से मेरी डायरी सर से धक्का मार नीचे गिरा दी! तभी मुझे उसकी उपस्थिति का आभास हुआ! और वो सर को झुकाए सिंग आगे किये खड़ा था... मुझे डायरी नीचे से उठानी थी... मैंने उसके सिंग पकड़ लिए, और सोचा बौलीवुड का हीरो क्या करता ऐसे में?
मैंने सिंग पकड़ उसका सर घुमाने हेतु प्रयास किया तो आभास हुआ उसकी शक्ति का!
फिर शिव की याद आ गयी! मैंने सिंग छोड़ उसके माथे पर हाथ फेर उसे मन ही मन कहा, :"अरे! तुम तो शिव के वाहन हो"!
वो तुरंत शांत हो गया... मैंने डायरी उठायी और तब भीड़ को तितर बितर होते देखा :)
भाग्यशाली रहे जे सी जी ।
ReplyDeleteशिव वाहन जी , अपने मालिक की तरह तांडव करने के मूढ़ में नहीं होंगे ।
डॉ दराल एक तो हम चमत्कार देखना चाहतें हैं दूसरे देश में डॉक्टरों का अकाल है .डॉ आज भी एक बड़ा नाम है चाहे वह यूनिवर्सिटी में पाया जाए या किसी क्लिनिक में .यहाँ कई तो चिकित्सा शोध कर रहें हैं बिना किसी डिग्री के स्वाध्याय के नाम पर . ला इलाज़ रोगों का इलाज़ भी जिनमे लीवर सिरोसिस ओर कैंसर तमाम किस्म के शामिल हैं .
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार,डॉक्टर साहिब.
ReplyDeleteठग भी ठगाई तभी कर पाता है,जब हम करने देते हैं.
आपने रोचक संस्मरण प्रस्तुत किये हैं.
हा! हा! डॉक्टर दराल जी, बचपन में मैं अपने सरकारी मोहल्ले की एक नाली को नहीं कूद पाता था, जबकि मेरे से छोटे भी कूद जाते थे, और इस कारण मेरा मजाक भी उड़ाया जाता था :)
ReplyDeleteआप मानोगे नहीं, पडोसी की एक 'पागल गाय' (गऊ माता?) ने मेरे पीछे दौड़, मुझे अपनी जान बचाने के लिए, यह संभव करा दिया! उसके बाद तो मैं आराम से उसे कूद जाता था :)
और, उसके पागलपन के पीछे उनके मालिक, हमारे पडोसी दो सिख भाई, की भारी भरकम (हार्ले डेविडसन) मोटर साइकिल थी...
जब वे सवेरे कार्यालय जाने के लिए उसे स्टार्ट करते थे, उसके ब्रह्मनाद समान घड घड से, वो उछलने लग जाती थी...
और कभी कभी खूंटे को उखाड़ , चेन समेत, भागने लगती थी...
और शिव के वाहन का ही रौद्र रूप नहीं होता... एक दिन तो उसने आइसक्रीम वाले का ठेला ही पलट कर सारी आइसक्रीम ज़मीन में गिरा दी थीं और हम बच्चे ललचाई नज़र से यह देख रहे थे :)
जय माता की!
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ReplyDeleteसस्ते की चाह को भुनाता,गरीब के 'धन' से धन्य होता मदारी!!!
ReplyDeleteएक अंग्रेजी में कहावत है, "मूर्ख और उसका पैसा शीघ्र जुदा हो जाते हैं"... जबकि 'हिन्दू' कहते आये हैं "लक्ष्मी चंचलम अस्ति"!
ReplyDeleteऔर गीता में भी अज्ञान को ही अनंत कृष्ण - निराकार शून्य, लक्ष्मीपति विष्णु के प्रतिनिधि - ने गलतियों का मूल बताया :) और विष्णु तो आराम से शेष शैय्या पर लेटे रहते हैं, योगनिद्रा में परमानंद की स्तिथि में :)
हिन्दू, आम कथा में, लक्ष्मी को कहते दर्शा गए हैं विष्णु से कहते, "आप तो सोये रहते हो / जबकि संसार को मैं ही चला रही हूँ"!
जे सी जी , ज्ञान की बातें काफी हो गई . अब बस मौज मस्ती की बातें करेंगे .
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