हमारे देश की ७१ % जनता गाँव में रहती है । करीब ३८ % गरीबी की रेखा से नीचे रहते हैं ।
शहर और गाँव के , अमीरों और गरीबों के जीवन में कितना अंतर होता है और कितनी समानताएं होती हैं , यह वही जान सकता है जिसने दोनों ही जिंदगियों को करीब से देखा हो ।
प्रस्तुत है ऐसी ही एक रचना जो आपको रूबरू कराएगी जीवन की विषमताओं से ।
सूखी रोटी ये भी खाते हैं , वे भी खाते हैं।
शहर और गाँव के , अमीरों और गरीबों के जीवन में कितना अंतर होता है और कितनी समानताएं होती हैं , यह वही जान सकता है जिसने दोनों ही जिंदगियों को करीब से देखा हो ।
प्रस्तुत है ऐसी ही एक रचना जो आपको रूबरू कराएगी जीवन की विषमताओं से ।
सूखी रोटी ये भी खाते हैं , वे भी खाते हैं।
डाइटिंग ये भी करते हैं , वे भी करते हैं।
जो डाइटिंग अमीरों का शौक है ,
वही गरीबों के जीवन का खौफ है।
मज़बूरी यहाँ भी हैं, मज़बूरी वहां भी है।
मज़बूरी यहाँ भी हैं, मज़बूरी वहां भी है।
यहाँ हैल्थ की मज़बूरी है, वहां वैल्थ की मज़बूरी है ।
मक्की सरसों गाँव में हालात की बेबसी दर्शाता है ।
वही शहर के आलिशान रेस्तरां में डेलिकेसी कहलाता है ।
जई की जो फसल गाँव में , पशुओं को खिलाई जाती है
वही शहर में ओट मील बनके, ऑस्ट्रेलिया से मंगाई जाती है ।
फटे कपडे विलेजर्स का तन ढकने का , एकमात्र साधन है
कपडे फाड़कर पहनना , शहर के टीनेजर्स का लेटेस्ट फैशन है ।
कपडे फाड़कर पहनना , शहर के टीनेजर्स का लेटेस्ट फैशन है ।
यहाँ सिक्स पैक एब्स के लिए रात भर ट्रेड मिल पर पसीना बहाते हैं
वहां किसानों के एब्स मेहनत के पसीने से खुद ही उभर आते हैं।
मज़बूर ये भी हैं , मज़बूर वे भी हैं
यहाँ हैल्थ की मज़बूरी है, वहां वैल्थ की मज़बूरी है।
वहां मूंह अँधेरे जाते हैं , जोहड़ जंगल
यहाँ घर में ही कक्ष का आराम है ।
यहाँ हैल्थ की मज़बूरी है, वहां वैल्थ की मज़बूरी है।
वहां मूंह अँधेरे जाते हैं , जोहड़ जंगल
यहाँ घर में ही कक्ष का आराम है ।
वहां काम पर जाते हैं , पैदल चलकर
यहाँ पैदल चलना भी एक काम है।
गाँव की उन्मुक्त हवा में , किसानों के ठहाके गूंजते हैं
यहाँ हंसने के लिए भी लोग, लाफ्टर क्लब ढूंढते हैं।
वहां पीपल की शीतल छाँव से मंद मंद पुरवाई का मेल
यहाँ एयर की कंडीशन ऐसी कि एयर कंडिशनर भी फेल।
जो किसान अन्न उगाता है , एक दिन धंस जाता है
रोटी की तलाश में , और क़र्ज़ के भुगतान में
वहीँ शहरी उपभोक्ता फंस जाता है
कोलेस्ट्रोल के प्लौक में, और मधुमेह के निदान में ।
यहाँ भी मज़बूरी है , वहां भी मज़बूरी है
यहाँ हैल्थ की मज़बूरी है, वहां वैल्थ की मज़बूरी है ।
नोट : यह रचना आपको जानी पहचानी लगेगी । यह पहले प्रकाशित रचना का मूल रूप है ।
यहाँ हैल्थ की मज़बूरी है, वहां वैल्थ की मज़बूरी है ।
नोट : यह रचना आपको जानी पहचानी लगेगी । यह पहले प्रकाशित रचना का मूल रूप है ।
हेल्थ और वेल्थ के बीच कुछ तो सामञ्जस्य बिठाना पडेगा :)
ReplyDeleteमज़बूर ये भी हैं , मज़बूर वे भी हैं
ReplyDeleteयहाँ हैल्थ की मज़बूरी है, वहां वैल्थ की मज़बूरी है।
...............एकदम सही बात कही है..
व्यंग के साथ सोचने पर मजबूर करती अच्छी रचना ..
ReplyDeleteशहर और गांव के जीवन की तुलनात्मक व्याख्या करती एक अच्छी रचना |
ReplyDeleteबहुत सुंदर तुलना जी, लेकिन फ़िर भी गांव की जिन्दगी मस्त हे, ओर अगर मुझे भारत मे आ कर बसना हे तो किसी गांव मे ही बसूंगा
ReplyDeleteकैसा विरोधाभास है - चने हैं तो दांत नहीं और दांत है तो चने नहीं ।
ReplyDeleteमजबूर तुम, मजबूर हम....
विडम्बना है ...हमारे खानपान पर मार्केट की नजर है ...जो चीजे सस्ती सर्वसुलभ थी , वह बाजार के रास्ते महंगी और दुर्लभ हो कर हम तक पहुँच रही है !
ReplyDeleteकोई भूख से मर रहा है कोई ज्यादा खाने से।
ReplyDeleteकैसी वि्डम्बना है क्या शिकवा करें जमाने से॥
सुंदर रचना है।
मज़बूर ये भी हैं , मज़बूर वे भी हैं
ReplyDeleteयहाँ हैल्थ की मज़बूरी है, वहां वैल्थ की मज़बूरी है...
यथार्थ का आइना दिखाती बढ़िया कविया।
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समाज की यह दशा बढ़ रही आर्थिक विषमताओं के कारण है। खेद है कि यह दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती ही जा रही है। हास्य में कही गयी बाते गंभीर समाजिक चिंतन और तत्काल जरूरी जो चुके आर्थिक अनुसंधान की मांग करती है। आखिर हम कैसा भारत बनाना चाहते हैं ?
ReplyDeleteधनवान अन्न से तs, भूख से किसान मरे
हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे।
यहाँ और वहां में फर्क ... रोचक अंदाज में बढ़िया रचना प्रस्तुति...आभार
ReplyDeleteमेरे लिए तो यही नई कविता है क्योंकि मैंने पहली नहीं पढ़ी थी. सुंदर आकलन किया है आपने.
ReplyDeletesahi vyang rachna....vilambit pranam swikaren....
ReplyDeleteआज के समाज का सही चेहरा.हमारा यथार्थ दिखाता. अच्छी रचना
ReplyDelete१) हाय-हाय ये मजबूरी ....ये मौसम .......
ReplyDeleteहैल्थ वैल्थ का खूब सामञ्जस्य बिठाया है डॉ साहब .....
पर आज समाचार पात्र देखते हुए सोच रही थी कि आपकी पोस्ट आज जरुर कुष्ठ रोग पर होगी ....
हाँ ...इतना भी ऊपर मत चढ़ाइए ....नीचे देख कर ही डर लगे .....ज़मीं पर ही ठीक हैं ....
..यथार्थ तुलनात्मक अध्ययन है यह कविता.
ReplyDeleteडाक्टर साहब आपने कविवर भूषण की याद करा ही ... उनकी कविताएँ कोर्स में थीं और वो भी इसी अंदाज़ की होती थीं ...
ReplyDeleteमज़ा आ गया ...
मजबूरी अपनी अपनी है....यथार्थपरक रचना..
ReplyDeleteजब में आपकी और हमारी मजबूरी पढ़ रहा था तो मुझे भी कविवर भूषण की याद आ रही थी...
ReplyDeleteजो डाइटिंग अमीरों का शौक है ,
ReplyDeleteवही गरीबों के जीवन का खौफ है।
बढ़िया रचना.
हरकीरत जी , कुष्ठ रोग पर लिख नहीं पाया अति व्यस्तता के कारण । इसीलिए पुरानी कविता नए रूप में प्रस्तुत की है ।
ReplyDeleteकुछ लोग ज़मीं पर रहकर भी ऊंचे हो जाते हैं ।
नासवा जी और जे सी जी , कविवर भूषण को तो मैंने नहीं पढ़ा । यदि कोई रचना पढवा पायें तो मेहरबानी होगी ।
ReplyDeleteहमें भी कुछ सीखने को मिलेगा ।
बहुत ही सशक्त रचना पेश की है आपने तो!
ReplyDeleteडॉ. सा., मेरे लिए तो यह कविता नए सोपान ले कर आई हे --वाह ! क्या बात हे ?क्या समंज्यास बेठाया हे |
ReplyDeleteदो छोरों के जीवन की त्रासदी और विडंबना। असमान विकास और धनाढ्यता यही सब लाती है।
ReplyDeleteदराल सर..............बच्चों की बात मानने का शुक्रिया..मजा आ गया आकर.....मोहनी की मुस्कान देखते ही याद विश्वास हो गया कि अपने दिल्ली के ताउ बैठन वाले न सें.......क्षमा कीजिएगा..दिल्ली के ताउ कहने का अधिकार प्रदान करें.....किसी पोस्ट पर आपके ब्लालिंग छोड़ने की बात पर ही आपके ब्लॉग पर आया था.....दिल खुश हो गया....धक धक गर्ल फिर ये कविता...क्या कहने.....आंखों के कई सपने आपने फिर याद दिला दिए......सच में दिल्ली के ताउ की जययययययययययययय होोोोोोोोो
ReplyDeleteऔर हां.....कसम उस 1000 वॉट की मुस्कुराहट की.....पूरा घंटे भर का इंटरव्यू करने की पंद्ह साल पुरानी इच्छा पूरी करके रहूंगा.....और किताब तो..खैर जल्दी ही आएगी....नाम भी सालो पहले ही ऱख दिया था.......हां यवतमाल का रुख करने वाला हूं......आपकी दोनो पोस्ट से कुछ मिलता जुलता कार्यक्रम .है न संयोगं दिल्ली के ताउजी ......ये नाम अच्छा न लगे तो कहिएगा....
ReplyDeleteगाँव की उन्मुक्त हवा में , किसानों के ठहाके गूंजते हैं
ReplyDeleteयहाँ हंसने के लिए भी लोग, लाफ्टर क्लब ढूंढते हैं।
रोचक अंदाज ....
अच्छी रचना .....
भाई रोहित , ये पोस्ट तो दिन में पढने लायक है । मियां थोडा जल्दी सो जाया करो।
ReplyDeleteवैसे इंटरव्यू में हमें बुलाना मत भूलना । दर्शकों में बैठ कर हम भी दर्शन कर लेंगे ।
सूखी रोटी ये भी खाते हैं , वे भी खाते हैं।
ReplyDeleteडाइटिंग ये भी करते हैं , वे भी करते हैं।
गरीब अमीर मे दृ्ष्टीभेद कमाल है । रचना मे निहित सच को अगर अमीर समझ ले तो कोई गरीब न रहे। बधाई इस रचना के लिये।
जई की जो फसल गाँव में , पशुओं को खिलाई जाती है
ReplyDeleteवही शहर में ओट मील बनके, ऑस्ट्रेलिया से मंगाई जाती है ।
गाँव की तो अपनी मज़बूरी है मगर शहर की मज़बूरी हमारी पैदा की हुई है !
आपने जिस बखूबी से व्यंग्य को रचना में निरुपित किया है ,आप उसके लिए बधाई के पात्र हैं !
यहाँ भी मज़बूरी है , वहां भी मज़बूरी है
ReplyDeleteयहाँ हैल्थ की मज़बूरी है, वहां वैल्थ की मज़बूरी है ।
बहुत खूब, जिनके पास हेल्थ है, उसे मेंटेन करने के लिए उनके पास वेल्थ नहीं , जिनके पास वेल्थ है वे बाकी तो वेल्थ से मेंटेन करलेंगे मगर हेल्थ ?
तीन बेर खाती सो तीन बेर खाती है, बिजन डुलाती सो बिजन डुलाती है.
ReplyDeletekya kaha jaaye sir...pehli baar aayi hoon, aur ye padhne ke baad kuch kehte nahin ban raha.....bohot bohot kamaal ki post hai....jo chun chun kar teer saadhe hain na....bas kamaal hai....awesome!!!!!
ReplyDeleteयह भी वह भी और हम सब भी :)
ReplyDeleteमज़बूर ये भी हैं , मज़बूर वे भी हैं
ReplyDeleteयहाँ हैल्थ की मज़बूरी है, वहां वैल्थ की मज़बूरी है।
आज के यथार्थ पर बहुत सटीक व्यंग..साथ ही दिल को छू जाती है प्रस्तुति की कशिस ...बहुत सुन्दर
यह भी वह भी यथार्थ दिखाता. अच्छी रचना thanx sir.
ReplyDeleteराहिल सिंह जी , आप की बात समझ में नहीं आई ।
ReplyDeleteअब क्या करें जी दोनों चीजे एक साथ रहती ही नहीं। कैसे समझाए इनको?
ReplyDeleteमक्की सरसों गाँव में हालात की बेबसी दर्शाता है ।
ReplyDeleteवही शहर के आलिशान रेस्तरां में डेलिकेसी कहलाता है ।
क्या तुलनात्मक व्याख्या की है...हर चीज़ की....एक-एक पंक्ति बार-बार पढने लायक....बहुत खूब
yatharth ke dharatal par likhi ek behad uttam
ReplyDeletekavita....
bar-bar sarahniy .
किसी की मजबूरी तो किसी का स्टाइल
ReplyDeleteतीन बेर खाती सो तीन बेर खाती है का मतलब है- जो कभी ३ बेर अर्थात तीन Time खाती थी वह अब ३ बेर अर्थात तीन Plum खाती है ।
(यह कविता एक रानी के बुरे दिनों पर कवि’भूषण’जी ने लिखा है )
वाह डॉक्टर साहब क्या बढ़िया चित्र प्रस्तुत किया है जीवन स्थितियों का ।
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