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Monday, January 10, 2011

घर की शिक्षा ही बच्चे को एक अच्छा इंसान और अच्छा नागरिक बनाती है--

क्या आपने कभी किसी कुम्हार को चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाते देखा है ? देखिये किस तरह वह मिट्टी को गूंधकर चाक पर घुमाकर मन चाही आकृति प्रदान कर मिट्टी के बर्तन बना देता हैपसंद आने पर तोड़कर फिर एक नया बर्तन बना देता है

फिर वह उसे अंगारों में दबाकर पका देता हैऔर बर्तन हो गए तैयार इस्तेमाल के लिए

लेकिन अब यदि वह चाहे भी तो उन्हें तोड़कर दोबारा नए बर्तन नहीं बना सकता
क्योंकि बर्तन अब पक गए हैं


इसी तरह एक चित्रकार को देखियेवह कोरे कागज़ पर मन चाहे रंग भर कर तस्वीर बनाता है
लेकिन एक बार तस्वीर बन गई और रंग भर दिए , तो फिर उसके बाद वह चाहे भी तो तस्वीर की शक्ल नहीं बदल सकता
क्योंकि तस्वीर में भरे रंग मिटाए नहीं जा सकते

कुछ ऐसा ही हाल बच्चों के मन मस्तिष्क का होता है

जब तक बच्चे का मन कच्चा है , आप उसे जो चाहे सिखा सकते हैं
जब तक बच्चे का मन कोरा है , आप जो चाहे उस पर रंग भर सकते हैं

एक बार पक गया , यानि परिपक्व हो गया , फिर चाहकर भी आप कुछ नहीं बदल पाएंगे
इसलिए समय रहते ही बच्चों पर ध्यान देना ज़रूरी है
लेकिन किस आयु तक ?

पहले जहाँ बच्चों को १४-१५ वर्ष की आयु तक समझाया जा सकता था , अब आप -१० वर्ष की उम्र तक ही बच्चे को काबू कर सकते हैं
क्योंकि उसके बाद आधुनिकता की आंधी में बहकर वह आपसे ज्यादा दुनिया देख चुका होता है
कहते हैं जितना शिक्षा स्कूल कॉलिज में ज़रूरी है , उतनी ही घर की शिक्षा भी ज़रूरी है
बल्कि घर की शिक्षा ही बच्चे को एक अच्छा इंसान और अच्छा नागरिक बनाती है

समय निकल जाने के बाद , सिर्फ पछताने के और कुछ हाथ नहीं आता

बच्चे के कोमल मन पर इंसानियत का रंग भरते समय ध्यान रहे कि रंग कच्चा हो , वरना उतर जायेगा
जैसे कपड़ों से कच्चा रंग उतर जाता है

इसलिए यदि आवश्यकता हो , तो आप पहले अपना व्यक्तित्त्व सुधारें तभी बच्चों को कुछ सिखा पाएंगे

बच्चे सही रास्ते पर चलें , इसके लिए ज़रूरी है कि उनकी संगत सही होवरना वही हाल होगा जो एक रंगीन कपड़े को एक सफ़ेद कपडे के साथ धोने पर होता है

यानि एक कपड़े का काला रंग ,सफ़ेद कपड़े पर चढ़ जायेगा और फिर लाख कोशिश करलें , उतरेगा नहीं

और अब एक सवाल :

काले कपड़े का रंग सफ़ेद कपड़े पर चढ़कर उतरता क्यों नहीं ?
यानि यदि रंग इतना पक्का था तो उतरा क्यों ?
और यदि कच्चा था तो अब उतरता क्यों नहीं ?

शायद इसका ज़वाब कोई केमिकल या पॉलीमर इंजीनियर ही दे सकता है

42 comments:

  1. दराल साहब बहुत सुंदर बात कही आप ने,हम अपने बच्चे को सिर्फ़ एक खास उम्र तक ही अपने संस्कार दे सकते हे, ओर उस समय दिये संस्कार ही बच्चे को आगे जीवन मे काम आते हे, बिलकुल सहमत हे जी आप के इस कथन से, धन्यवाद

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  2. बहुत ही उपयोगी आलेख!
    साभार ,
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  3. हां डॊक्टर सा’ब, अब तो Moral Science स्कूली कोर्स से हट ही गया है :(

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  4. बिल्कुल सही कहा आप ने यही कारण है की परिवार को बच्चे की पथम पाठशाला कहा जाता है | लेकिन आज कल के चार पांच साल के बच्चे भी इतने स्मार्ट होते है की आप उनको भी जल्दी कुछ सिखा नहीं सकते है या अपने आचरण से उदाहरन नहीं दे सकते है | एक बार कुछ सिखाने या बातकरने का प्रयास कीजिये ऐसे ऐसे सवाल जवाब करते है की आप को विश्वास नहीं होगा की ये सारे सवाल जवाब इतने छोटे मुँह से निकाल रहे है |

    वैसे आप का सवाल भी मजेदार है मै भी उत्तर की प्रतीक्षा में हु |

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  5. कहते हैं घर बालक का पहला विद्यालय होता है.सच ही है वैसे भी आजकल स्कूल में तो कुछ सिखाते नहीं सिर्फ पढ़ाते लिखाते हैं ऐसे में सारी जिम्मेदारी माता पिता की ही है.
    आपके सवाल तो वाकई कठिन हैं..

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  6. शुक्र है इस विषय पर सब ठीक रहा ! बढ़िया लिखा है आपने अक्सर बचपन में हम यह ध्यान नहीं दे पाते हैं !

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  7. अच्छा लिखा है आपने. आज के outsourcing के दौर में तो यूं लगता है मानो मां बाप ने बच्चों में संस्कारों की ज़िम्मेदारी बा स्कूल पर ही छोड़ दी है. ऐसे में ज़्यादा मुश्किल नहीं होना चाहिये ये जान पाना कि आने वाले पीढ़ी कैसी होगी...

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  8. जैसे एक पिच से दूसरी पिच में क्रिकेट के खिलाड़ी विभिन्न खेल का प्रदर्शन करते हैं, शायद वैसे ही सवाल कपडे कपडे का है :) मेरे एक चचेरे प्रोफ़ेसर भाई कहा करते थे कि क्या मच्छर का बेटा हाथी के बेटे के समान हो सकता है? ऐसे ही शायद जींस का (या जन्म-समय का) कमाल है कि एक बच्चा दूसरे से भिन्न होता अथवा हो सकता है, एक ही परिवार में भी...

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  9. आजकल माता-पिता को भी नहीं मालूम की हमें क्‍या सिखाना है? वे तो केवल उन्‍हें केरियर की दौड़ में दौड़ाना चाहते हैं और इसके लिए ही सारे प्रयास शैशव-काल से ही रहते हैं।

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  10. i am totally agree with you. My three year old son, "Madhav"(http://madhavrai.blogspot.com/) is also entering in the same zone.

    i have taken note of your suggestion.
    if u have some more plz sahre with us

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  11. जी हाँ , भाटिया जी । यही संस्कार ही बच्चे के जीवन में काम आते हैं ।
    लेकिन अजित जी ने भी सही कहा कि मात पिता को ही कहाँ पता होता है कि क्या सिखाना है ।

    सतीश जी , आप जैसे पेरेंट्स से सबको सीखना चाहिए । वरना काजल कुमार जी की बात सच होती दिखाई देगी ।
    छोटा सा माधव पुत्र भी सहमत है ।

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  12. अच्छा विषय डा० साहब, और यह कहूँगा की आज के परिदृश्य पर अगर हम गौर फरमाए तो पायेंगे कि एक शहर के नालायक बच्चे और एक गाँव के होनहार बच्चे के बीच भी वास्तविक धरातल पर जमीन-आसमान का फर्क है ! शहर का बच्चा नालायक होते हुए भी उस होनहार गाँव के बच्चे से बहुत आगे है, दुनियादारी खूब जानता है जबकि गाँव का बच्चा सिर्फ एक किताबी कीडा अपने में चंद संस्कार लिए, मगर उन्हें वह वास्तविक धरातल पर भुना नहीं पाता! विषय का भरपूर ज्ञान होने के वावजूद भी उस शहरी फंटूस को नहीं पछाड़ पाता जिसे आठ का टेबल भी नहीं मालूम मगर दुनियादारी जानता है ! Churning out educated children is not sufficient. In order for them to succeed , they also need to be street smart. जिन बच्चे को माहौल नहीं मिल पाता, मोटिवेशन नहीं मिल पाता, बच्चा फ्रैंक नहीं होता, नतीजन बड़े होकर बच्चा जिंदगी की दौड़ में औरो से पीछे रह जाता है ! अत : माँ-बाप के घर वालों की इसमें भूमिका अहम् है मगर अहर तरफ से सिर्फ एक ही दिशा में नहीं !



    रही बात आपके सवाल की बात है तो सवाल भी आपने २४ तोले का ही उठाया है! उसका जबाब यही है की सफ़ेद रंग गलत संगती में पड़ गया है और अब कोई इलाज नहीं है :)

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  13. आज कल के माँ बाप के पास समय कहाँ है की वो कुछ सिखाएं वो तो अपना ही करियर बनाने में व्यस्त हैं

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  14. सबसे ज्यादा चिंता की बात ये है कि बच्चों के स्लेबस में इन बातों के लिए कोई जगह नही है और घर पर उन्हें एकल परिवार में कुछ मिल नही पता...अब क्या करें ?सरल तरीका यही है कि बच्चों को घर पर ही मोरल शिक्षा दी जाये और रोज़ घटित होने वाली घटनाओं से बुरा भला समझाए.....तभी वे कुछ सीख पाएंगे....

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  15. बच्‍चे का व्‍यवहार और व्‍यक्तित्‍व बदलता है, चरित्र और स्‍वभाव नहीं.

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  16. पश्चि्मी अंधानुकरण और लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति के साथ,माता -पिता की जीजीविषा की दौड़ में नौनिहालों का बचपन प्राचीन वांग्मय के श्रेष्ठ संस्कारों से विमुख हो रहे हैं। कुछ लोग आधुनिक होने के कारण पुरातन पंथी नहीं होना चाहते। भौतिकवाद की आंधी सब कुछ बहा ले जाना चाहती है।
    फ़िर भी कुछ बात ऐसे है कि "हस्ती मिटती नहीं हमारी"

    सुंदर आलेख के लिए आभार,

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  17. मैंने प्राथमिक शिक्षा अपने गाँव में रहकर ग्रहण की । लेकिन यही वो समय था जब हमारे दादाजी रोज हमें पकड़कर बैठ जाते थे और लेक्चर पिलाते थे ।
    आज मैं सोचता हूँ तो पाता हूँ कि हम कितने भाग्यशाली रहे ।
    क्योंकि ४० साल पहले भी दादाजी ने हमें अपने इतिहास से लेकर सेक्स एजुकेशन तक --सभी कुछ सिखाया ।
    शिक्षा का महत्त्व , खुद का चाल चलन , बड़ों का सम्मान करना , सामाजिक रीति रिवाज़ , पब्लिक स्पीकिंग , सेहत बनाना , अच्छा खान पान , शरीर की स्वच्छता , भोजन और भजन , योग आसान , ध्यान , ब्रह्मचर्य का पालन --कोई ऐसा विषय नहीं रहा जिस पर हमें बताया नहीं गया ।

    क्या आज ऐसे मां बाप हैं जो अपने बच्चों को इतना सिखा पाते हैं ।
    अफ़सोस अब न तो दादा दादी साथ होते हैं , न कोई सिखाने वाला ।
    नतीज़ा --आधुनिकता के नाम पर अपनी संस्कृति स्वाहा होती नज़र आ रही है ।
    अब न बड़ों का सम्मान है , न सदाचार ।
    बच्चे यदि सीखते भी हैं तो बस भ्रष्टाचार ।

    सही है कि आजकल अभिभावकों के पास समय ही कहाँ है ।

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  18. बहुत ही सुन्दर तरीके से समझाया है, आपने...सच है...बचपन में मस्तिष्क पर पड़ी छाप अमिट होती है.
    आज के बच्चे सुने या नहीं...पर हमें उन्हें अच्छी बातें बताना-समझाना जारी रखना चाहिए...कुछ तो असर होगा ही.

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  19. देश के भविष्य आज के ये छोटे बच्चे और इनमें संस्कार विकास की पर्याप्त व्यवहारिक जानकारी देते आपके इस चिंतनशील लेख से वर्तमान पेरेन्ट्स अपने बच्चों के भावी विकास के लिये पर्याप्त उपयोगी मार्गदर्शन हासिल कर सकते हैं ।

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  20. दराल सर
    आपने अपने ही एक उत्तर में सवाल का हल दे दिया है..जाहिर है दादा-दादी नाना-नानी तो अब साथ रहते नहीं तो बच्चे क्या सीखेंगे...पहले भी कम से कम पिता तो व्यस्त ही रहते थे पर घर पर कोई न कोई बड़ा होता था, जो किस्से कहानियों के सहारे ही जीवन मूल्य सीखा देता था। भले ही सभी मूल्य अपना नहीं सके हो हम, कम से कम इतना तो पता होता है हमारी पीढ़ी को की हम क्या कर रहे हैं....पर अब तो नैतिकता की परिभाषा ही बदल गई है। हालांकि इसकी शुरुआत बीस साल पहले ही हो गई थी जब स्कूल में बच्चों के बीच सुनने को मिलता था कि ईमानदार वो होता है जिसे बेईमानी का मौका नहीं मिले....खासतौर पर दिल्ली मे तो ये बातें कुछ स्कूलों में ही टीचरों के मुंह से सुन कर हैरानी होती थी....क्योंकि मेरी तो प्रथम पाठशाला मेरा परिवार ही रहा है....सोचता हूं कि आने वाली नस्लें क्या सीखेंगी और किससे?

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  21. ... saarthak va prabhaavashaalee post !!

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  22. बच्चों पर घर और आसपास के परिवेश का गहरा प्रभाव पड़ता है। लेकिन यह भी सत्य है कि अच्छा गुरू कभी भी बिगड़ चुके बच्चों को सुधार सकता है।
    ..सार्थक चर्चा।

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  23. एक सार्थक आलेख । ज्यादा से ज्यादा लोग पढ़ें और अनुकरण करें यहाँ लिखी बातों का, तो बहुत कुछ सुधार संभव है।

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  24. डा. साहेब ,आज का माहोल इतना बिगड़ चूका है की हम चाह कर भी कुछ नही कर सकते --धर मे चाहे जितने अच्छे
    संस्कार दो --बच्चे को तो बाहर निकलना ही पड़ेगा ----उस पर ये विदेशी चैनल , विदेशी संसकृति --बच्चो पर ज्यादा
    प्रभाव डालते है --जो कुछ बचपन मे सिखाया था आज वो कहा है --?
    आज बच्चो को कुछ बोलो तो कहते है ' पकाओ मत ' |
    आपके सवाल मे ही जबाब है ----
    काला रंग बुराई का धोतक है --चढ़ गया तो उतरता नही--और सफ़ेद रंग शालीनता का --'एक बार पकड़ा है--छोड़ूगा नही'--?

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  25. बहुत सार्थक आलेख , डा दराल-- बधाई....सब हमारी पीढी का ही दोष है कि सुख-सुविधा रत हमने अपनी सन्तति को उचित मार्ग दर्शन नहीं दिया....आगे...अब भी सोचें तो बहुत कुछ होसकता है...

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  26. इस कंक्रीट के जंगल मे अब वो रिश्ते -नाते कहा ---जिन्हें दादा - दादी या नान - नानी कहते है --जो बच्चो को परियो की
    कहानिया सुनाया करते थे ---संस्कारो की धुट्टी पिलाया करते थे ---अब वो सब किस्से -कहानियो मे ही रह गए है
    क्योकि, कोई भी बुजुर्ग इस महानगर मे आना नही चाहता --सबको अपना गाँव प्यारा है -- हम ही मजबूर है ----|

    आज की पोस्ट लाजबाब है -----धन्यवाद --|

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  27. ऐसा कहा जा सकता है कि किसी भी समय हम पाते हैं कि मानव अधिकतर वर्तमान को (अपने अपने) भूत की तुलना में बदतर प्रतीत करते हैं,,,यही आइनस्टाइन का (relativity का) वैज्ञानिक नियम जैसा भी प्रतीत होता है,,,और दूसरी ओर प्राचीन हिन्दू योगी आदि भी इसकी गहराई में जा इसे काल का प्रभाव दर्शाए,,,

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  28. डा. सा :आपका मूल लेख और फिर उस पर कमेन्ट से सारी बातें स्वतः -स्पष्ट हैं कि,आज कल बच्चों पर ध्यान न देने की गलती को सुधार जाए.इसके लिए हमें पुनः अपनी प्राचीन गुरुकुल पद्धति को अपनाना होगा."आठ और साठ घर में नहीं"शीर्षक लेख में ब्लाग के प्रारंभ में ही मैंने ऐसी कामना की थी.कल विवेकानंद जी के विचारों में भी ऐसा ही देखने को मिलेगा.

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  29. बच्चों पर मात पिता के रहन सहन का बहुत असर पड़ता है । इसलिए ज़रूरी है कि स्वयं हम बच्चों के लिए एक उदाहरण बनें ।
    इसके लिए खुद को सही रखना पड़ेगा ।

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  30. कमाल है -सवाल का ज़वाब किसी ने नहीं दिया अभी तक ।

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  31. बहुत सच्ची सलाह ,मेरा बेटा १० साल का है ,प्रयास जारी है ।

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  32. डा. साहेब लगता है--कोई इंजिनियर आपके ब्लोक तक नही पंहुचा ---ही ---ही ---ही --:)

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  33. apke viacharon se sahamat hun ...pratham pathashala parivaar or ghar hi hota hai...

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  34. दर्शन जी , इंजीनियर तो कई दर्शन दे कर चले गए । लेकिन ज़वाब नहीं सूझा ।
    शायद बहुत मुश्किल सवाल है ये ।

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  35. पहले कपडे में चढ़ाया गया काला रंग कच्चा था, इसलिए उतर गया (सिर्के आदि में भिगा शायद पक्का हो सकता था) ,,,किन्तु दूसरा सफ़ेद कपड़ा उसकी पसंद का था, इसलिए उसको उसने पहले कपड़े को छोड़ पकड़ लिया,,,किन्तु धीरे धीरे धुलाई के बाद समय के साथ वो भी हल्का हो सकता है... (जल को युनिवर्सल सोलवेंट जाना जाता है)...

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  36. जैसा बोएंगे, वैसा ही काटेंगे...

    अगर बच्चों के सामने हम अपने माता-पिता का सम्मान नहीं करेंगे तो फिर खुद हम आगे चलकर बच्चों से कैसे अपने लिए सम्मान की उम्मीद कर सकते हैं...

    संयुक्त परिवार खत्म होते जा रहे हैं...एकल परिवारों में बच्चों की हर फरमाईश पूरी कर देने पर ही माता-पिता अपने फर्ज़ की इतिश्री समझ रहे हैं...ये बच्चों को इनसान कम स्वार्थी और मैटियरिलिस्टक रोबोट ज़्यादा बनाता जा रहा है...

    कुम्हार की मिसाल आपने बेमिसाल दी है....

    जय हिंद...

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  37. सही कहा खुशदीप जी , मात पिता को बच्चों के लिए रोल मोडल होना चाहिए ।

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  38. बड़े परिवारों में,कुछ सिखाने की अलग से ज़रूरत नहीं होती थी। अग्रजों के व्यवहार से अनुज स्वयं सीखते थे। परिवारों के बेहद छोटे होते जाने और आर्थिक उन्नति के ही सफलता का पैमाना बनते जाने के कारण घर की शिक्षाएं भी बेकार जा रही हैं।

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  39. अत्यंत उपयोगी आलेख....
    सादर आभार...

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