देख लूँ तो चलूं --आखिर समीर लाल जी की उपन्यासिका पढने का अवसर मिल ही गया । वास्तव में यह लघु उपन्यास कम और जिंदगी की डगर पर चलना सिखाने वाली एक सार्थक पुस्तिका ज्यादा है । इसकी भूमिका में ही श्री पंकज सुबीर ने सही लिखा है कि इसे पढ़कर आपको लगेगा जैसे आप अपने ही जीवन की कहानी पढ़ रहे हैं ।
मुझे भी पढ़ते हुए यही लगा कि जैसे जीवन के अनुभव मेरे हों और शब्दों में ढाला हो समीर लाल जी ने ।
कनाडा में एक लम्बे अरसे से रह रहे समीर लाल जी ने निश्चित ही दोनों देशों की जिंदगी को करीब से देखा और समझा है ।
लेकिन इस पुस्तिका की विशेष बात यह है कि इसमें एक एक घंटे के सफ़र की दास्तान को इतने मनोरंजक तरीके से प्रस्तुत किया गया है कि आप इसे ही एक सांस में पढ़ डालेंगे ।
कई वृतांत तो ऐसे हैं जिन्हें आपने उनके ब्लॉग पर भी पढ़ा होगा लेकिन एक धाराप्रवाह रूप में पढ़कर आपको पता भी नहीं चलेगा कि कैसे कहानी में फिट हो गया ।
आइये आपको इसे पढवाते हैं संक्षिप्त में, एक एक भाग में :
भाग १:
यह कहानी है एक मित्र के गृह प्रवेश में अकेले जाने की , जो मात्र एक घंटे की दूरी पर है ।
हाईवे पर सूअरी और सुंदरी के साथ सफ़र की दास्तान को बड़े मनोरंजक रूप में प्रस्तुत किया गया है ।
भाग २ :
मित्र ने घर एक गाँव में बनाया है । यहाँ बताया है कि किस तरह वहां सभी को अपना देश और गाँव याद आता है । कवियों की कविताओं में भी बस गाँव ही बसे रहते हैं जबकि वे खुद पीछे छोड़ कर आए हैं ।
विदेश जाते समय मन में उमड़ते घुमड़ते विचारों और भावनाओं को बड़ी खूबी से सुनाया है समीर जी ने ।
हालाँकि गाँव यदि ऐसा हो तो किसे तकलीफ होगी --
भाग ३ :
टिम हॉरटन्स की कॉफ़ी पीते हुए वहां काम करने वाले १४-१५ साल के बच्चों को देखकर लगता है जैसे बाल श्रम या बाल शोषण जैसी बात यहाँ कोई नहीं जानता । यह अलग बात है कि जिसे हम बाल श्रम कहते हैं , उसे वहां चाइल्ड डेवलेपमेंट कहते हैं ।
भाग ४:
यहाँ एक एनोरेक्षिक ( डाइटिंग पर ) नवयौवना के आहार का आँखों देखा हाल प्रस्तुत किया है समीर लाल जी ने ।
मानो कह रहे हों --
वे कम खाते हैं शौक से
हम खाकर भी मरते हैं भूख से ।
भाग ५ :
यहाँ वहां की गोरी मेमों और लंगूर से दिखने वाले मर्दों पर गहरा कटाक्ष है ।
ऐसा लगता है कि हम हिन्दुस्तानी गोरी चमड़ी से बहुत प्रभावित रहते हैं । तभी तो गीतों में भी लड़की अक्सर गोरी ही होती है न कि काली ।
लेकिन ऐसा भी नहीं है --सांवली लड़की को भी शायरों ने बहुत सराहा है ।
भाग ६ में समीर जी ने जर्मनी में समलैंगिक परेड का बड़ा रोचक वर्णन किया है जिसे आप खुशदीप सहगल के ब्लॉग पर पढ़ ही चुके हैं ।
यहाँ भी समलैंगिक विवाह का प्रचलन होने लगा है ।
कैसा ज़माना आ गया है । पहले मां बेटे से कहती थी --बेटा शादी किसी सुन्दर , सुशील और गृह कार्य में दक्ष लड़की से ही करना ।
लेकिन हमारे कंजर्वेटिव समाज में आज माएं यही कहती हैं कि बेटे शादी तो लड़की से ही करना ।
भाग ७ :
में विदेश में रहने वाले लोगों के मात पिता के कशमकश को दिखाया गया है ।
जाने वाले चले जाते हैं । फिर आते हैं मेहमान बनकर । बूढ़े मां बाप बस राह ही तकते रहते हैं उनके आने की ।
भाग ८ : यहाँ मृत्यु पर होने वाले दिखावे और आडम्बरों को बखूबी बताया गया है , यहाँ भी और वहां भी ।
भाग ९ : जगह कोई भी हो , मर्द बाज़ नहीं आते अपनी हरकतों से । हाइवे पर भी साथ वाली गाड़ी में झांककर देखते हैं कि लड़की कैसी है जैसे उससे चक्कर ही चला लेंगे ।
समीर जी कहते हैं कि जिंदगी हो या कार --साइड मिरर में देखकर नहीं चला करती ।
भाग १० :
आर्ट ऑफ़ लिविंग पर गहरा कटाक्ष । कहते हैं जिस उम्र में आर्ट ऑफ़ डाइंग सीखनी चाहिए , उसमे आर्ट ऑफ़ लिविंग सीखकर क्या करेंगे ।
बात तो पते की कही है ।
भाग ११ :
देश भारत हो या कनाडा --ड्राईवर डरते हैं तो बस ट्रेफिक पुलिस से ।
वहां के हैवेज पर १२० की स्पीड पार करते ही फ़ौरन चलान कट सकता है ।
लेकिन जब हाइवे ऐसे खुले हों तो किसका दिल नहीं करेगा गाड़ी दौड़ाने का ।
सड़क के दोनों ओर घने जंगल से निकलकर जंगली जानवर बेचारे कुत्ते की मौत मर जाते हैं ।
भाग १२ :
जिसे देखो बस भागा ही जा रहा है । वहां दौड़ने के लिए हाइवेज जो बने हैं । यहाँ की तरह नहीं कि सड़क किनारे बना दिए मंदिर या दरगाह और रोक दिया ट्रेफिक ।
भाग १३ :
लेकिन फिर भी एक शून्य सा लगता है । गलियों में , घरों के बाहर , लोगों के मन में भी ।
कोई शोर नहीं , कोई परिंदा नहीं , यहाँ तक कि एक कुत्ता भी नहीं ।
ऐसी ही होती हैं वहां की गलियां । एक दम सुनसान ।
भाग १४ :
गोरों का असर यहाँ ही नहीं , वहां भी लोगों के दिलो दिमाग पर छाया रहता है । यह बात किसी भी पार्टी या भोज में देखी जा सकती है । मित्र के घर पर भी एक गोरे के साथ सभी बड़े चाव से बात कर रहे थे जैसे वह एक आम आदमी नहीं बल्कि बिल क्लिंटन हो ।
हम तो सोचे थे कि बस हम ही स्टार स्ट्रक हैं।
भाग १५ :
अंत में समीर जी एक अनजानी वो का ज़िक्र करते हैं ।
हम भी सोच रहे थे कि अब तक लिंडा का ज़िक्र कैसे नहीं आया । वही लिंडा जिस पर जून २००८ में लिखा लेख पढ़कर हम पहली बार समीर जी से प्रभावित हुए थे और उनसे मिलने का विचार बनाया था ।
शायद पूरी कहानी में लिंडा ही एक काल्पनिक पात्र है ।
नोट : यह समीर लाल जी के लघु उपन्यास की समीक्षा नहीं है । पढ़ते हुए कहीं न कहीं एक एक बात सत्य प्रतीत हुई । क्योंकि २००८ में अपने तीन सप्ताह के कनाडा भ्रमण में हमने भी यहीं बातें देखी और महसूस की थी जिन्हें श्री समीर लाल जी ने बहुत खूबसूरत अंदाज़ में प्रस्तुत किया है ।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
आपने बहुत ही ख़ूबसूरती के साथ वर्णन किया है !अब तो मन ये कर रहा है की हम भी ये सब जीवंत देखें ,देखते है कब मौका मिलता है...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया..विस्तृत वर्णन.
ReplyDeleteaapki baat sahi haisameer जी ne बहुत ही khoobsoorti ke saath chote chote lamhon को saheja है ....
ReplyDeleteapne jeevan ke aas paas bikhle pal .....
"ऐसी ही होती हैं वहां की गलियां । एक दम सुनसान ।"
ReplyDeleteडा० साहब, आप भले ही यह कहें कि यह समीक्षा नहीं है किन्तु आपने समीर जी के उपन्यास की अच्छी सारयुक्त समीक्षा पेश की है !
उपरोक्त उद्धृत लाइन को पढ़कर कल का एक वाकया याद आ गया ! एक पाकिस्तानी न्यूज़ साईट को पढ़ रहा था! एक खबर थी कि पाकिस्तान के प्रतिव्यक्ति के सर के ऊपर ५७०५७ रूपये का विदेश लोंन है ! तो एक मुस्लिम भाई ने टिपण्णी कर रखीथी कि इसको कम करने का एक ही उपाय है कि हम लोग जनसंक्या को बढ़ाकर दुगना कर दे ! लों घटकर प्रति व्यक्ति आधा रह जाएगा ! :)
इस सार संक्षेप के लिए आभार !
ReplyDeleteआपनें पढने की उत्सुकता और दूनी कर दी,आभार प्रस्तुति के लिए.
ReplyDeleteबढ़िया मंत्र मुग्ध करने वाला लेख ! शुभकामनाये डॉ साहब !
ReplyDeleteडा.सा :ने पुस्तक संक्षेप में स्पष्ट कर दी जिससे पूरी पुस्तक का आभास हो गया.बहुत-बहुत धन्यवाद.
ReplyDeleteबहुत ही ईमानदारी से आपने पुस्तक की समीक्षा की है!
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी समीक्षा। आपने इसे पढने की रुचि जगा दी।
ReplyDeleteबहुत सुंदर जी धन्यवाद
ReplyDeleteसंयोगवश मुझे भी अभी एक घंटे पूर्व ही गुरुदेव श्री समीरलालजी 'समीर' का दोनों देशों के बीच के मानव मन का यह समीर दर्शन "देख लूं तो चलूं" उनकी रोचक शैली के साथ एक बैठक में ही पढ पाने का सुयोग उपलब्ध हुआ और उपन्यासिका की समाप्ति के साथ ही अब आपकी ये समीक्षा भी मेरे सामने मौजूद है । वाकई ये जीवन के सफर में चलना सिखाने के साथ ही आर्ट आफ डाईंग तक पर नजर पहुंचाने वाली बेमिसाल कृति है ।
ReplyDeleteआपने सुन्दर वर्णन किया है....पुस्तक है ही इतनी रोचक, एक बैठक में ख़त्म करनेवाली
ReplyDeleteआपका अंदाज भी कम नहीं.
ReplyDeleteइस सार संक्षेप पर पढकर उत्सुकता बढ गयी है।
ReplyDelete---------
ध्यान का विज्ञान।
मधुबाला के सौन्दर्य को निरखने का अवसर।
पुस्तक का स्वाद तो पता नहीं कब चखने को मिलेगा पर समीक्षा बहुत बढ़िया रही. समीर लाल जी को भी बहुत बहुत बधाईयां.
ReplyDeleteभाग ७ : "...जाने वाले चले जाते हैं । फिर आते हैं मेहमान बनकर । बूढ़े मां बाप बस राह ही तकते रहते हैं उनके आने की ।"
ReplyDeleteसे याद आया साठ के दशक के आरम्भ में अमेरिका के दूतावास से हमारे कॉलेज आये श्री नूनन से हमारी, कुछ नवयुवकों की, दोनों देशों की संस्कृति पर तुलनात्मक चर्चा का,,, और उनके विचार सुन हमें गर्व हुआ अपने हिन्दुस्तानी, एक प्राचीनतम सभ्य संस्कृति का अंश, होने का,,,और उनसे सुना कैसे भारत में जो भी व्यवस्था अनादिकाल से चली आ रही थी कैसे उसमें हरेक सदस्य का ख्याल रखा गया था किन्तु कैसे अब वो पश्चिम के प्रभाव से टूट रही थी!
डॉ सा. कनाडा हो या लन्दन सब जगह एक जेसा माहोल हे --इसलिए मुझे अपना वतन बेहद प्यारा हे --उपन्यास की समीक्षा पसंद आई --|
ReplyDeleteडॉक्टर साहब,
ReplyDeleteसमीर जी की किताब के हर अच्छे आयाम से आपने इस पोस्ट में परिचित करा दिया...
समीर जी के प्रस्थान के वक्त मुलाकात में आपकी कमी सबको खली...लेकिन आप कर्मभूमि में थे, जिसे देखना भी बहुत ज़रूरी था...
जय हिंद...
डॉ साहब ये नए तरीके से समीक्षा हमें तो बहुत रास आई ....
ReplyDeleteहमने तो तय कर लिया सबसे पहले पुस्तक आपको ही भेजेंगे ....
और ये देखूं तो चलूँ ....उस दिन से हमारे टेबल पे पड़ी है ...समीर जी को ढेरों बधाई इस पुस्तक के लिए ....
दुआ है वो दुसरे उपन्यास की तैयारी अभी से शुरू कर दें ...उनमें क्षमता है इस बात की ...उनका लेखन हमेशा स्तरीय होता है ...
एक दिन मैंने जब उन्हें कहा कि आप उपन्यास क्यों नहीं लिखते ...तब उन्होंने बताया कि वो लिख चुके हैं बस इंडिया आते ही विमोचन होगा ...
वैसे उनके इस लेखन में किसी मास्टरनी का भी हाथ है मुझे लगता है .....हा...हा...हा.....
जो लाल रंग से गल्तियाँ निकालती रही ....क्यों ....?
खुशदीप जी , क्या करें मजबूरियां भी आ जाती हैं कभी कभी ।
ReplyDeleteअरे वाह , हीर जी । फिर तो जल्दी ही आपकी भी बुक पढने को मिलेगी । वो भी मुफ्त में ।
हा हा हा ! गलतियाँ तो हमने भी देखी लेकिन पढने में इतना मज़ा आ रहा था कि उनकी तरफ ध्यान ही नहीं गया ।
आप भी ध्यान रखना और किसी मास्टर की मदद ले लेना जी ।
बहुत सुन्दर समीक्षा !
ReplyDeleteआभार डॉ दराल ।
बहुत अच्छी लगी समीक्षा।
ReplyDeleteवसन्त की आप को हार्दिक शुभकामनायें !
ReplyDeleteआप तो बहुत अच्छे समी़ाक हैं मै तो सोचती रह गयी कि समीक्षा करूँगी मगर आप नम्बर ले गये। सच मे पुस्तक पढ कर आनन्द आ गया। समीर जी को बधाई।
ReplyDeleteनिर्मला जी , हमने तो पहले ही लिख दिया था कि यह समीक्षा नहीं है । इतनी सामर्थ्य ही नहीं है जी ।
ReplyDeleteआप लिखिए , हमें इंतजार रहेगा ।
आद. डा. दराल जी,
ReplyDeleteसमीर लाल जी की किताब के बारे में आपके विचार पढ़कर उनकी पुस्तक पढ़ने के लिए मन लालायित हो रहा है ! पुस्तक प्राप्ति का पता बता दें तो बड़ी कृपा होगी !
बहुत आभार आपके इस अपार स्नेह का.
ReplyDelete