शनिवार के दिन सरकारी दफ्तर और कुछ स्कूल बंद होने से सड़कों पर थोड़ी फुर्सत सी रहती है ।
इस शनिवार जब मैं सुबह अस्पताल जा रहा था, सड़क पर एक दुखद द्रश्य देखा । करकरडूमा कोर्ट्स से होकर क्रॉस रिवर मॉल के सामने सड़क बिल्कुल खाली पड़ी थी । राष्ट्र मंडल खेलों की वज़ह से सड़क का द्रश्य अत्यंत सुन्दर दिखाई दे रहा था ।
मैं बायीं लेन में ड्राइव कर रहा था । तभी करीब २०० मीटर दूर सड़क के बीचों बीच मुझे एक वस्तु पड़ी दिखाई दी । वस्तु का आकार इतना बड़ा तो था कि उससे बचकर निकलना आवश्यक था ।
थोडा करीब आया तो पाया कि वह कोई वस्तु नहीं बल्कि एक जीता जागता मनुष्य था ।
और पास आने पर देखा कि वह एक युवक था जिसने एक पुरानी सी पेंट पहनी हुई थी । ऊपर से नंगा था । युवक अपनी टांगे मोड़कर , घुटनों और कोहनियों के बल औंधे मूंह पड़ा था ।
ध्यान से देखा तो पता चला --वहां सड़क पर एक छोटा सा गड्ढा बना था । उसमे पानी भरा था । शायद कोई दबा हुआ पाइप टूटा था ।
युवक ने गड्ढे में मूंह डाला हुआ था और वह पानी पी रहा था। जैसे जंगल में जंगली जानवर पानी पीते हैं ।
सुबह सुबह इस द्रश्य को देखकर मैं स्तब्ध रह गया । शायद वह कोई मानसिक रूप से विक्षिप्त निराश्रित मनुष्य था ।
क्या इक्कीसवीं सदी में भी मनुष्य का ऐसा रूप हो सकता है ! ! !
Wednesday, October 20, 2010
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शायद यही है हमारी रौशनियों का नंगा सच.
ReplyDeleteओह ..!
ReplyDeleteबहुत तकलीफदेह है यह देखना मगर ये भी एक सच है ...1
उफ़ क्या यही है इक्कीसवीं सदी ???
ReplyDeleteRongte khade kar dene walee sacchaee.............
ReplyDeleteman padkar bharee ho gayaa.........
सही चित्रण किया हमारे इस आधुनिक समाज का डा० साहब ! और यह एक्का-दुक्का केस नहीं, बहुत सारे है तथाकथित उन्नत होते राष्ट्र के पैबंद !
ReplyDeleteआपने सच्चाई को बखूबी शब्दों में पिरोया है! बहुत आश्चर्य हो रहा है और हैरानी भी की आख़िर यही है इक्कीसवीं सदी ?
ReplyDeleteअफसोसजनक !!
ReplyDeleteदराल सर। हमें भी पगलों की गतिविधियों के बारे में बड़ी उत्सुकता रहती है पर फिर इस ख्याल से कि लोग अपने बारे में भी शक कर सकते हैं.... ऐसी बातें ब्लॉग में नहीं लिखते।
ReplyDeleteराजे शा जी , मानसिक रोग भी एक किस्म का रोग ही है । समाज में इसके प्रति काफी भ्रांतियां रहीं हैं । लेकिन अब विचार बदल रहे हैं । अब अस्पताल को मेंटल हॉस्पिटल नहीं कहते । न ही ऐसे रोगियों को पागल ।
ReplyDeleteलेकिन अभी भी मानसिक रूप से विक्षिप्त निराश्रित लोगों के लिए पूरी तरह से सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं ।
कुछ कहते नहीं बन रहा। बस,मौन रहना चाहता हूँ।
ReplyDeleteयह भी इस सुंदर दिल्ली का एक द्र्श्य हे,
ReplyDeleteजानती हू इस रास्ते का टरेफिक ...और आज भी ऐसा हाल. सतब्ध हूँ ये पढ़ कर.
ReplyDeleteयदि मस्तिष्क में खलल है तो मनुष्य भी जानवर ही तो है :(
ReplyDeleteये देश की नही समाज की समस्या है १क्य वह व्यक्ति किसी सभ्य इंसान से पानी मांगता तो क्या उसे मिलता ?कई अवसरों पर बड़े बड़े भंडारे लगाने वाले भी क्या उसकी मदद करते ? शायद इसलिए उसने प्रकृति का आसान और सुगम तरीका चुना ...पशु की तरह ही सही कोई उसे झिड्केगा,मारेगा तो नही....!हम चाहे कुछ भी कहें आज भी हमारा समाज बहुत आदिम है....!उसको जानवर बनने को मजबूर भी हमने ही किया है....आत्मा झकझोरने पर भी कितनों ने उसकी मदद की ? ऐसे लोग हर जगह दिख जाते है ,पर कितनों को समाज ने अपना हिस्सा माना , बस यही हकीकत है
ReplyDelete... अफ़सोसजनक !!!
ReplyDeleteमानसिक विक्षिप्तता के शिकार लोग अक्सर सड़क किनारे मिल जाते हैं...सोचती हूँ...ऐसी संस्थाएं होनी चाहियें, जो इनका ख़याल रख सके और उनसे संपर्क कर के कोई भी इनके विषय में खबर कर सके.
ReplyDeleteदुनिया रंग रंगीली है!
ReplyDelete--
राजधानी का ऐसा रूप देख कर तो स्तब्ध ही होना पड़ेगा!
मित्रो यह एक एकाकी घटना है । ऐसा पहली बार ही देखा है । इसीलिए रिपोर्ट कर रहा हूँ । हालाँकि मेंटली चैलेंज्ड लोगों की कमी नहीं है यहाँ और देश के किसी भी कोने में ।
ReplyDeleteपोस्ट से लगता है कि आपको इस घटना ने विचलित किया है।
ReplyDeleteऐसे दृश्य तो आम हैं।
डा. साहिब, रोग शारीरिक अथवा मानसिक समझा जाता है आजकल और उसके अनुसार इलाज किया जाता है, जो अधिकतर, आमतौर पर, सफल होता नहीं देखा जाता (?),,,यद्यपि 'सत्य' की खोज के उपरांत प्राचीन हिन्दुओं, योगियों, ने मानव को तीन भाग में बंटा पाया,,, और उसके सही रख-रखाव के लिए शारीरिक और मानसिक व्यायाम के अतिरिक्त आत्मा को साधना भी आवश्यक समझा,,, क्यूंकि उनके अनुसार प्राकृतिक तौर पर प्राणियों का अस्थायी शरीर स्थायी और अनंत आत्मा के साथ अनंत काल-चक्र में कुछ वर्ष के लिए ही जुड़ा रह सकता है - मानव शरीर में १०० (+ / -) वर्ष ही, वृक्षों के रूप में यद्यपि आयु कुछेक वृक्षों की प्रजाति की १००० वर्ष के ऊपर भी हो सकती है,,, जो 'प्रकृति' की विविधता को प्राणियों में भी दर्शाता है...
ReplyDeleteऔर शारीरिक व्यायाम के रूप में 'योग' आज भी, बढ़ते तनाव के चलते, संसार के कई भागों में प्रचलित हो गया है,,, यद्यपि अभी भी 'आत्मा (और परमात्मा)' के विषय में गहराई में जा कर जानने के कोई विशेष प्रयास सुनाई नहीं पड़ते,,, केवल 'भारत' के कुछेक हिस्सों में उन्हें परंपरागत तौर पर कहीं-कहीं अपनाये जाते आज भी देखा जा सकता है,,,टीवी पर भी दिखाया जाता है,,,किन्तु अधिकतर (अज्ञानता वश ?) उसे अन्धविश्वास कह दिया जाता है,,,जबकि सब जानते हैं कि कैसे केवल एक साधारण बात भी एक मुंह से आरंभ हो दसवें तक पहुँचने पर ही कुछ और टेढ़ी बन जाती है कभी-कभी, और यहाँ तो सदियों का अंतराल है, जैसे 'सनातन' शब्द दर्शाता है...
सच है ...ऐसे द्रश्य मन विचलित कर देते है .
ReplyDeleteबहुत दुखदायी है। शायद आप सही कह रहे हैं 21वीं सदी तक यही हाल होने वाला है। शुभकामनायें।
ReplyDeleteDr.Sahab,
ReplyDeleteAisa isliye hota hai ki jo vipann hain unki taraf sampann logon ka dhyaan nahin hai.pahle kuen-baawdi-talaab aadi fir handpump aadi log lagwaate the taki pyason ko bhatakna n pade jaisa is aadmi ko karna pada.ye aaj ka vikaas hai.
दुखद....
ReplyDeleteअपना घर तो ठीक से सम्भाला नहीं जाता हमसे और हम चाँद पर जाने की तैयारी कर रहे हैं..
डा.साहिब, हमारे भारत देश के हर क्षेत्र में कुछ व्यक्ति उन्नत शिखर पर यदि दिखाई पड़ रहे हैं तो कुछेक बहुत निम्न स्तर पर भी विराजमान देखे जा सकते हैं (जैसा तनेजा जी ने भी दर्शाया है),,,जिसकी 'प्राकृतिक' सी लगने वाली झलक आपको 'पढ़े-लिखे लोगों में भी इम्तिहान में पाए जाने वाले नम्बरों से भी मिल सकती है,,, जहां किसी भी कक्षा में कहीं भी और किसी समय में भी आप पायेंगे की थोड़े ०% के निकट नंबर पाते हैं तो कुछेक १००% के निकट भी,,,जबकि किसी एक औसत नंबर के आस पास अन्य कई विद्यार्थी देखने को मिल सकते हैं...यह औसत संख्या क्या होगी, नीची अथव ऊंची, यह निर्भर करता है स्कूल पर: वो 'सरकारी' है या 'निजी',,, 'सरकारी' का हाल बुरा ही दिखाई देगा यद्यपि विविधता उनमें भी अवश्य उजागर होगी...
ReplyDeleteइस दुनिया में सब कुछ संभव है।
ReplyDeleteडा. साहब यदि मैं गलत नहीं हूं तो मैंने भी उस व्यक्ति को कोर्ट के बाहर सडक पर देखा था और हमने अपने प्रयासों से पुलिस वालों से कह कर उसे इहबास में दाखिल कराने का प्रयास भी किया था ...उसके बाद असल में हुआ क्या ये पता नहीं चला । मगर अफ़सोस कि राजधानी में भी अब तक इनके प्रति सरकार की संवेदनशीलता नहीं जगी है तो पूरी देश में तो कहना ही क्या ...काहे की इक्कीसवीं सदी सर ....दिल्ली के बाहर निकलते ही सदियां अपने आप पीछे की ओर भागने लगती हैं जितना दूर जाईये ..उतने ही सदियों पीछे मिलेगा समाज ।
ReplyDeleteझा जी , शायद वार्ड्स के फुल होने से उसे वहां भी जगह नहीं मिली होगी ।
ReplyDeleteवैसे भी आजकल सारे अस्पताल मरीजों से भरे पड़े हैं ।
पता नहीं क्या होगा इस देश का , इतनी आबादी के बढ़ते ?
जरूरी नहीं कि वह मानसिक रोगी हो..हो सकता है कि नल टूटे नल से एक प्यासा मजदूर अपनी प्यास बुझा रहा हो।
ReplyDelete..सोने की चिड़िया आँसू भी बहाती है !
दुष्यंत लिखते हैं
ReplyDeleteचीथड़े पहने हुए कल जो मिला था राह में
नाम मैंने पूछा तो बोला कि हिन्दोस्तान है।
ek din aisa bhi aayega jab pani na milne per insaan , insaan ke khoon ka pyasa ho jayega
ReplyDeletejal ki khatir rakt bahayega
manavta ko mitayeha, jangalipan ki oor laut jayega
ये बेहद दुखद घटना हैं, किसी के भी मन का विचलित होना स्वाभाविक हैं.
ReplyDeleteदराल जी,
मैंने मानसिक रूप से बीमार या पागल लोगो के लिए एक जनहित याचिका राजस्थान उच्च न्यायालय (हाईकोर्ट) में लगाईं थी, उस बात को तीन महीने हो चुके हैं अभी तक कोई उत्तर नहीं आया. दो बार पत्र भेज कर स्मरण भी कराने का प्रयास किया, लेकिन पहले का जवाब नहीं आया तो बाद वालो का जवाब कैसे आता??? वकील से कई बार पूछा तो हर बार एक ही जवाब मिलता -- "हड़ताल चल रही हैं. मुकद्दमे भी कुछेक ही सुने जा रहे हैं. बाकी, सभी केस लंबित हैं."
क्या करूँ, कुछ समझ में ही नहीं आ रहा. न्यायपालिका का ये हैं फिर नेता या राजनितिज्ञो और प्रशासन से क्या उम्मीद रखूं????
उफ्फ्फ्फ़, बेहद दर्दनाक और दुखद हैं ये सब.
ईश्वर, सबकी रक्षा करे और हिन्दुस्तान को सुधारे.
धन्यवाद.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
बेहद दर्दनाक और दुखद हैं
ReplyDeleteयाद आता है कि जो कहानी मैंने अपने बच्चों की पुस्तक में कभी पढ़ी, उसके अनुसार संत मदर टेरेसा ने जब कोलकाता में स्कूल से रिटायर हो भारत में रह गरीबों की सहायता करने का निर्णय लिया तो उन्होंने कुछ सोचा नहीं था वो क्या करेंगी,,, फिर भी उन्होंने सबसे पहले कालीबाड़ी में एक कमरा अपना उद्देश्य बता ले लिया... जब वो इसी उधेड़-बुन में लगीं थी तो एक शाम चौरंगी के बाज़ार में चलते चलते दूर से उन्होंने देखा कि एक स्थान पर भीड़ रास्ता बदल फिर आगे बढ़ जा रही थी,,, पास पहुँच ही उन्हें उसका कारण पता चला: वहाँ पर एक कोढ़ी लेटा हुआ था, जिससे बच कर सब निकल रहे थे...और क्यूंकि उनकी मनःस्तिथि औरों से भिन्न थी, उनको लगा कि उस कोढ़ी को उनकी परीक्षा हेतु भगवान् (जीसस) ने रख छोड़ा था - यह सोच उन्होंने उसे उठा, कमरे में ले जा उसकी सेवा करने का निर्णय ले लिया! उसके बाद उनका जीवन तो बस एक इतिहास बन गया...कहते हैं गौतम, बुद्ध, के जीवन में भी ऐसे ही कुछ, उनके पिता राजा शुद्धोधन के न चाहते हुए भी, दृष्टांत दिखाई पड़े जिन्होंने उनके जीवन में एक बहुत बड़ा परिवर्तन ला दिया...
ReplyDeleteऐसी घटनाएं मानव जीवन का उद्देश्य ढूँढने को विवश कर देती हैं sir..
ReplyDelete@ दीपक 'मशाल' जी, आपने सही कहा. किन्तु जैसे इतिहास दर्शाता है, न्यूटन से पहले भी और उसके समय पर भी, अनगिनत व्यक्तियों ने वस्तुएं धरती पर गिरती देखी होंगी लेकिन उनके नियम आदि को गहराई में जा कर जानने और उनको प्रकाशित करने का श्रेय उनको ही मिला...वैसे ही, दूसरी ओर, प्राचीन ज्ञानी: योगियों, ऋषियों, सिद्धों आदि ने घोर तपस्या (अनुसंधान?) द्वारा पृथ्वी पर आधारित मानव (प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ कृति) की कार्य-प्रणाली को प्रकृति में व्याप्त शक्ति के स्रोतों (सौर-मंडल के ९ सदस्यों) आदि से संलग्न जाना,,,और प्रकाशित भी किया होगा... किन्तु काल के प्रभाव (प्राणी और अन्य वस्तुओं की अस्थायी प्रकृति के चलते जन्म-मरण का काल-चक्र, पृथ्वी पर फैले ज्वालामुखी में समय-समय पर विस्फोट, नदियों के फैले तंत्र में बाढ़, और बर्फ के अत्यधिक पिघलने आदि से प्रलय आदि) के चलते आज भी सांकेतिक भाषा में पुराण आदि में लिखा पाया जाना आश्चर्य जनक प्रतीत होता है, और संभवतः उपयोगी भी हो सकता है, यदि समय साथ दे तो...
ReplyDeleteजी दराल जी ,
ReplyDeleteये कुछ ऐसी सच्चाइयाँ हैं जिनसे अक्सर हम बच कर निकल जाते हैं ....मैं भी अक्सर अपने घर के पास के बस अड्डे पर कब्ज़ा जमाये उस भिखमंगे को देखती रहती हूँ ...गंदे काले चिथड़ों में ...पास के कचरादानों से कचरा बिन बिन कर अम्बार लगा लेता है .... ...कभी देखती हूँ हाथ में कोई लोहे की छड सी पकडे सड़क के बीच लगे फूलों की मिटटी गोदते हुए ...तो कभी कानों में मोबाईल की तरह हाथ रखे जोर जोर से बातें करते हुए .....सोचती हूँ ये भी तो इंसान हैं ....न कभी नहाना न धोना इतनी गन्दगी के बीच भी जिन्दा हैं ....क्या इन्हें कोई बिमारी नहीं होती ....? शायद उसे भी कभी मोबाईल की चाह रही हो ...
रामकुमार जी ने सही लिखा .....
चीथड़े पहने हुए कल जो मिला था राह में
नाम मैंने पूछा तो बोला कि हिन्दोस्तान है।
इस हिन्दोस्तान में सब कुछ संभव है .....
कई बार आगे बढ़ने के लिए आँखें बंद करनी पड़तीं हैं .....
हरकीरत जी , दिल्ली जैसे शहर में भी ऐसे रोगी बहुत मिल जाते हैं सड़कों पर घूमते हुए । इतनी ज्यादा आबादी में यहाँ अच्छे भले लोगों की संभाल नहीं हो पाती । इसलिए इन लोगों की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता ।
ReplyDeleteलेकिन बहुत अफ़सोसज़नक तो है ही ।
पढ़कर मन विचलित हुआ।
ReplyDeleteदुख तो हैं ही दुनिया में उनसे मुक्ति कहाँ ।
ReplyDeletedukhad.
ReplyDeleteWWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
आज ही पता चला कि दिल्ली में एक लाख से ज्यादा निराश्रित लोग सड़कों पर रहते हैं । इनके लिए २४ आश्रय घर बनाये गए हैं और २४ और बनाने की योजना है । फिर भी अक्सर कोई न कोई लावारिस मरा पड़ा मिलता है जिसे सदगति देने वाला कोई नहीं होता ।
ReplyDeleteसच्चाई है ... वक़्त की मार या कुशासन ...
ReplyDeleteउफ्फ्फ!!!!!!मुझे तो पढ़कर ही कुछ हो रहा है अपने देखा तो क्या बीती होगी.दुखद विचलित करती सच्चाई हैं. वैसे क्रोस रिवर मॉल के आसपास sab कुछ टुटा फुट ही है और रहता भी है
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