कल शनिवार था । साथ ही नवमी भी थी । शनिवार को आधी छुट्टी होती है । अस्पताल से निकला तो सड़कों पर जगह जगह शामियाने गड़े मिले । वहां सैकड़ों की तादाद में पत्तल के डोंगों में लोग पूरी भाज़ी और हलवा खा रहे थे । नवमी का प्रसाद था ।
इन नज़ारों को देखकर बड़ा मन हुआ कि क्यों न हम भी ऐसा ही करें । हलवा पूरी देखकर मूंह में पानी आ रहा था ।
लेकिन फिर देखा कि खाने वाले ज्यादातर निम्न वर्ग के लोग थे --
रिक्शा चालक , मजदूर , फैक्टरी में काम करने वाले इत्यादि ।
और हम ठहरे चमचमाती कार में बैठे , सूटेड बूटेड , चेहरे से चिकने चुपड़े बड़े साहब जी ।
भला ये तौहीन कैसे सह सकते थे ।
बस इसी तरह ललचाई नज़रों से ये नज़ारे देखते हुए, ख्वाबों ख्यालों में हलवा पूरी का मज़ा लेते हुए हम घर पहुँच गए ।
कितना आसान होता है --उंच नीच और छोटे बड़े का भेद भाव मिटाने की बात करना ।
और कितना मुश्किल होता है --इस भेद भाव को मिटाना ।
आज दशहरे के दिन हम हर वर्ष रावण को जलाते है । यदि अपने अन्दर के अहंकार को भी मिटा पायें , तभी यह पर्व सार्थक होगा ।
Sunday, October 17, 2010
कितना आसान होता है --उंच नीच और छोटे बड़े का भेद भाव मिटाने की बात करना--
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रावण सत्ता और भोगवाद का प्रतीक था अत: हमें राम के त्याग का स्मरण करते हुए स्वयं की सत्ता को स्थापित करने के प्रयास से बचना चाहिए।
ReplyDeleteआज दशहरे के दिन हम हर वर्ष रावण को जलाते है । यदि अपने अन्दर के अहंकार को भी मिटा पायें , तभी यह पर्व सार्थक होगा ।
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने..हमसबको इसके लिए प्रयास तो जरूर करना चाहिए ....आपको रूककर पूरी हलवा खा लेना चाहिए था ..मैं तो खा लेता हूँ..
हाँ वहां नहीं खाता हूँ जहाँ मुझे पहले से पता होता है की यह आयोजन किसी ऐसे व्यक्ति ने रखा है जो एक तरफ तो समाज का खून चूसता है दूसरी तरफ हलवा पूरी का लंगर लगाता है ....
यदि अपने अन्दर के अहंकार को भी मिटा पायें , तभी यह पर्व सार्थक होगा ।
ReplyDeleteसार्थक संदेश ।
विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायें।
ReplyDeleteआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (18/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
दशहरे पर इस अन्दर के अहंकार को ही मारने की प्रतिज्ञा लेनी चाहिए.....बहरी रावण तो मर ही जायेगा....
ReplyDelete"यदि अपने अन्दर के अहंकार को भी मिटा पायें , तभी यह पर्व सार्थक होगा ।"
ReplyDeleteयही तो सबसे मुश्किल काम है अन्दर के रावण को मारने की कोशिश करो तो उसका ही अहम् सामने आ जाता है
हे भगवान आपने तो मेरी ही नब्ज़ पकड़ ली :)
ReplyDeleteएक बार, ऐसे ही भण्डारे का उद्घाटन मुझे करना था. पंडित जी के कहे अनुसार पूजा-पाजा करने के बाद, लाइन में लगे लोगों को खाने की शुरूआत तो मुझसे आयोजक भाइयों ने करवा दी पर इतने लज़ीज़ हलवा-पूरी खाने को मुझे किसी ने नहीं पूछा.
मुझे आजतक समझ नहीं आया कि इस प्रकार के भण्डारे का उद्घाटन, उद्घाटनकर्ता को खिलाने से क्यों नहीं किया जाता :)
बनारसी शायर..अलकबीर कहते हैं...
ReplyDeleteतू अपने भीतर के रावण का गला घोंट दे
देखते ही देखते सब राममय हो जाएगा..
..कड़वा सच ! गरीबों की मदद करने के लिए गरीबों के साथ बैठ कर खाना जरूरी नहीं है..संवेदना की एक नजर भी उनके दुःखों को कम कर सकती है। जब अमीरों के मन में गरीबों के प्रति संवेदना होगी तो कम से कम इतना तो होगा ही कि उनका हक नहीं मारा जाएगा।
एक अच्छे और ईमानदार ह्रदय रखने के लिए आपको मुबारकबाद डॉ दराल ! मैं भी कभी इस भीड़ में खड़ा होकर नहीं खा सका यही सोंच कर कि इन मजदूरों के साथ खड़े होकर खाने पर कैसा लगेगा ! अभिजात्य वर्ग का यह दर्प हमें कभी जमीन पर नहीं बैठने देता ! अधिकतर लोग ऐसी मानसिकता के हैं और स्वीकारने में शर्म आती है !
ReplyDeleteसादर
इससे बड़ा सन्देश और क्या हो सकता है
ReplyDeleteडॉ टी एस दराल जी आज आपको लगा की उनके साथ नहीं खा सकना , सही नहीं. कल आप इनके साथ खा भी सकते हैं. एक दिन दो तीन गाड़ीवाले दोस्त मिल के ऐसी जगह खा के आएं फिर देखिये, कितना प्यारा एहसास पैदा होता है. . आप सब को बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीकात्मक त्योहार दशहरा की शुभकामनाएं. आज आवश्यकता है , आम इंसान को ज्ञान की, जिस से वो; झाड़-फूँक, जादू टोना ,तंत्र-मंत्र, और भूतप्रेत जैसे अन्धविश्वास से भी बाहर आ सके. तभी बुराई पे अच्छाई की विजय संभव है.
ReplyDeleteबहुत सच्ची बात है ये. बड़े बड़े सिद्धांतो की बातें करना, भेद-भाव मिटाने के लिये भाषण देना और इन सब बातों को अमल में लाने में
ReplyDeleteज़मीन आसमान का फ़र्क है. शानदार पोस्ट.
विजयादशमी की अनन्त शुभकामनायें.
बस बात ही तो करना है.. बातों का क्या है कुछ भी कह सकते हैं.. कल 'आक्रोश' देखी. आप भी देखिएगा.
ReplyDeleteअसत्य पर सत्य की विजय के प्रतीक
ReplyDeleteविजयादशमी पर्व की शुभकामनाएँ!
बहुत बड़ा सच कह दिया आपने
ReplyDeleteहम अपने अपने मन में हमेशा ही पूर्वाग्रह पाले रखते हैं
और कई बार ऐसी बातें कहते रहते हैं
जिसे हम स्वयं पर नहीं उतार पाते ...
आपकी इस मासूम सी रचना में
एक सन्देश छिपा है,,,, नेक सन्देश !
किसी भी इंसान का ऐसा सच कहना
उस समाज में सच के व्यापक रूप से होने का ही संकेत है
बड़ी पावन और शुभ सोच का ही आगमन है
अभिवादन स्वीकारें .
mae hamesha saal mae kam sae kam do baar aesi hi line mae khadae ho kar parsaad khatee hun
ReplyDeleteआप ने मेरे मन की बात कह दी,सच मे हमे अपने अंदर के इस अंहकार को इस रावण को मराना बहुत कठिन हे, जब मै १८ १९ साल का था तो मुझे एक बार गुरुदुवारे मै लंगर बांटने की जिम्मे दारी निभानी पडी, मुझे रोटियो की टोकरी मिली रोटिया बांटने के लिये, तो मै बाहर बेठे हुये लोगो को रोटिया बांट आया, फ़िर उन्हे दाल भी दे आया, तभी एक आदमी ने मुझे धक्के मार कर बाहर फ़ेंक दिया ओर पागल करार दे दिया कि साले पहले संगत को दे, तो मैने पुछा यह भी तो संगत हे, तो उस का कहना था कि नही यह गरीब भिखारी हे.... यही हाल मैने मंदिर मै देखा ओर फ़िर जाना छोड दिया भगवान के इन घरो मे
ReplyDeleteविजयादशमी की बहुत बहुत बधाई
ReplyDeleteपहले इसी तरह की झिझक मुझे भी महसूस होती थी लेकिन जब से हमने खुद अन्य दुकानदार भाइयों के साथ मिलकर साल में एक बार ऐसे भंडारे का आयोजन करना शुरू कर दिया तो ये झिझक अपने आप कुछ कम होती चली गई..
ReplyDelete.
ReplyDeleteबहुत सही बात लिखी है आपने। लेकिन मैं तो स्वयं को नहीं रोक पाती। ऐसे अवसरों पर मिलने वाली , टेढ़ी मेढ़ी कड़ी-कड़ी पूड़ियों और ढेर से मिर्ची वाली सब्जी खाने का सुख स्वर्गिक होता है।
.
अजित जी , रावण को एक विद्वान के रूप में भी जाना जाता है । उसका एक ही अवगुण --अहंकार --उसे ले डूबा । आज भी जैसे रचना जी ने कहा , अहंकार को जीतना बड़ा मुश्किल काम है ।
ReplyDeleteकाज़ल जी , होना तो यही चाहिए कि पहला निवाला मुख्य अतिथि को दिया जाए ।
पाण्डे जी , यहाँ हम गरीबों की मदद की बात नहीं कर रहे , बल्कि अमीर गरीब के भेद भाव की बात कर रहे हैं ।
सतीश जी , मासूम जी , मुफलिस जी, वैसे तो हम सब धरातल से जुड़े हैं । लेकिन सांसारिक सफलताएँ मिलने से मन में अहंकार आ ही जाता है । इसी अहंकार को मिटाना , भगाना , दूर करना --बड़ा मुश्किल होता है । काश कि ऐसा कर सकें ।
ReplyDeleteरचना जी , हम भी कोशिश करेंगे । मैंने देखा है कि --हर इंसान में मासूमियत नज़र आती है ---जब वह खाना खा रहा होता है । उस समय सभी एक जैसे दिखते हैं ।
भाटिया जी , राजीव जी --लंगर और भंडारा सब के लिए होता है । हालाँकि कुछ लोग सिर्फ गरीबों के लिए ही भंडारा करते हैं ।
दिव्या जी , सही कहा आपने । मैंने भी एक बार कनौट प्लेस में सिखों का लंगर बड़े चाव से खाया था । मैं उसे आज तक नहीं भूला हूँ ।
आपसे सहमत। बहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteसर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोsस्तु ते॥
विजयादशमी के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!
काव्यशास्त्र
same to you.
ReplyDeletethanks.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
डॉ टी एस दराल जी @ आपने कहा अपने अंदर के इस अंहकार को इस रावण को मराना बहुत कठिन हे. आपके अंदर अहंकार रूपी रावण मुझे तो नहीं दिखा. यह केवल एक दूरी है, जिसे समाज ने खुद पैदा करदी है. इसी कारण से आज हम ना तो ग़रीब की भूख को महसूस कर सकते हैं और ना इस बात को की अमीर को किस दिमाग़ी उलझनों के कारण रात मैं नींद क्यों नहीं आती.
ReplyDeleteमेरे पिताजी रेलवे मैं बड़ी पोस्ट पे थे, बंगलो पे २० -२५ खलासी (मजदूर) और चोकीदार रहते थे. मैं उनके साथ , उनकी पकाई भंवरी बड़े मज़े से खाता था. आज भी उनमें से कोई मिल जाए तो बड़ी इज्ज़त देता है. उनकी आँखों की ख़ुशी बड़ी कीमती तोहफा हुआ करता था मेरे लिए.
हकीकत तो यही है....
ReplyDeleteविजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायें।
सही लिखा डॉ साहब आपने- कहना कितना आसान ..और अमल में लाना कितना कठिन.. अपनी इच्छाओं का भी त्याग कर ये भेद बनाये रखा ... अपने अहंकारो को हमने सींचा है बरसो से उसे त्यागने में तकलीफ होगी पर कदम बडाये जाये तो अच्छा रहेगा........पोस्ट बहुत अच्छी.. सच लिखने की हिम्मत को दाद देती हूँ.. शुभकामनायें..
ReplyDeleteकितना सही कहा आपने. यहाँ जब भी कहीं फ्री फूड दिखता है तो क्या क्लर्क और क्या चैयरमैन..सब लाईन में खड़े दिखते हैं बिना किसी शर्म या अहम के.
ReplyDeleteमगर यहाँ भी उस कतार में हम भरतीय कम नजर आते हैं, कैसे तौहीन करा लें कि फ्री फूड लेने खड़े थे..जबकि कोई देख भी नहीं रहा होता..शायद खून में रचा बसा है.
विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायें..
... behatreen !
ReplyDeleteHonest post!
ReplyDeleteअत्यंत कड़वा सच....................
ReplyDeleteहमें हमारे अहंकार से रु-ब-रु कराने का आभार.........
पर ये तो साये सा चिपका रहता है..............
हर समय मारने की चेष्टा, पर हर बार और मुखरित हो आ ही लिपटता है.........
बिलकुल दशहरे ही की तरह.................
चन्द्र मोहन गुप्त
महानगरों में एक सुविधा यह होती है कि भीड़ में कोई बिरले ही पहचानता है। फिर भी चूक गए। आप पहल करते,तो एक संभावना थी कि कुछ और वीआईपी लाईन में आ खड़े होते। और ध्यान रहे,जो आपने मिस किया,वह हलवा और पूरी मात्र होता,तो अफ़सोस न हुआ होता क्योंकि वह तो रोज़ बनाकर खाया जा सकता है। वह प्रसाद था।
ReplyDeleteडा. साहिब, जीवन का सत्य जानना यदि इतना सरल होता तो बात ही क्या थी, विशेषकर कलियुग के अंत के निकट, यानि श्रृष्टि के आरंभ में - जब हिन्दू-मान्यतानुसार, यानि पहुंचे हुए योगियों के अनुसंधान के आधार पर अर्जित ज्ञान के अनुसार, कुछ परोपकारी देवता और अधिकतर स्वार्थी राक्षशों के मिलेजुले योगदान के चलते चारों ओर विष व्याप्त था, और कलियुग के दौरान मानव की कार्य क्षमता केवल शून्य से बढ़ अधिकतम पच्चीस प्रतिशत के बीच ही थी... तो फिर 'आम आदमी' को कैसे पता चलता कि सर्वगुण संपन्न, निराकार नादबिन्दू, के शून्य यानि घोर अज्ञान कि स्तिथि से आरंभ कर लक्ष्य प्राप्ति यानि अनंत शिव तक पहुँचने हेतु विभिन्न क्षेत्र से सम्बंधित अनंत विषयों पर अनंत दृष्टिकोण से क्या क्या विचार उसके मन में समय समय पर उठे होंगे? जिनका उसने अवश्य समाधान कालांतर में प्राप्त कर ही लिया होगा :) और जिनके विषय में द्वापर से सम्बंधित 'कृष्णलीला' और त्रेता से सम्बंधित 'रामलीला' के माध्यम से भी सांकेतिक भाषा में विचार पढने को मिल सकते हैं...(कलियुग में 'रावण लीला' कहना शायद सही होगा जब आप जैसे परोपकारी थोड़े से ही देखने को मिल सकते हैं :)
ReplyDeleteदशहरे-दिवाली (माँ दुर्गा और काली से सम्बंधित पूजा आदि) के शुभ अवसर पर सभी को अनेकानेक बधाइयां!
किसी भी धरातल से सत्य पहचाने वही सुदृष्टि होती है।
ReplyDeleteभुख तब भुख और रोटी तब रोटी होती है।
डा. साहिब, भाटिया जी का अनुभव सुन याद आया कि कहते हैं कि एक सीधे-साधे व्यक्ति ने किसी गुरु का, परोपकार से सम्बंधित, "नेकी कर कूँवे में डाल", कथन सुना तो उसने सोचा क्यूं वो भी इसे न अपनाए?,,,उसने अगले दिन से उसे अपनाते हुवे एक गरीब व्यक्ति को खाना खिलाना आरम्भ कर दिया,,,
ReplyDeleteकिन्तु सम्पूर्ण ज्ञान की कमी के चलते, लकीर का फकीर होने के कारण, वो उसे उसके बाद कूँवे में डाल देता था :)
("पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ / पंडित भाया न कोई / ढाई आखर प्रेम का / पढ़े सो पंडित होई" - कह गए ग्यानी-ध्यानी )
सही कहा , डॉ नूतन जी । सच को स्वीकारना आसान नहीं होता ।
ReplyDeleteराधारमण जी , भले ही कोई न पहचानता हो , लेकिन इन्सान खुद से ही शर्माता है । खुद को ही जीतना मुश्किल होता है । बेशक प्रसाद की बात ही कुछ और है ।
बहुत ही प्रेरक सारगर्वित विचार .... आभार
ReplyDeleteबहुत ही सच्चाई से लिख डाला आपने...सच तो यही है.
ReplyDeleteसमानता की चाहे जितनी बातें कर लें...पर इस बात को झुठला नहीं सकते...कि हम भी उसी झूठे दिखावे वाले समाज का हिस्सा हैं.
पुनश्च: ऐसा प्रतीत होता है कि 'भारत' की मिटटी ने प्राचीन काल से कितने ही प्रलय आदि के बावजूद भी - निरंतर बदलते परिवेश में भी - 'आम भारतीय' के मानस पटल पर 'सादा जीवन और उच्च सोच' की छाप सदा बनाये रखने का प्रयास किया है,,, जिस कारण यद्यपि 'परम सत्य' यानि काल के परे अमृत आत्मा, (बाहरी भौतिक शरीर की मृत्यु का कारक 'विष' का उल्टा 'शिव'), को निराकार जाना गया, और यद्यपि अस्थायी और असत्य (मायावी) होते हुए भी मानव जीवन में 'सत्य' उसे माना गया जो समय यानि काल पर निर्भर नहीं है...जिस कारण मानव को ज्ञानियों का उपदेश कि अपने जीवन-काल में प्रयास करना चाहिए की धरती से शरीर के जुड़े रहते हुवे भी मन को परम सत्य से ही जुड़ा रखे...
ReplyDeleteरामायण अथवा रामलीला के सार के सन्दर्भ में कहा जाता है कि राम ने तो प्रत्यक्ष रूप में केवल कुछेक; रावण, कुम्भकर्ण, मेघनाद, आदि जैसे, राक्षशों की ही नैय्या पार लगायी और उन्हें बैकुंठ पहुंचाया, किन्तु उसके नाम ने अनगिनत लोगों (स्वार्थी मानव यानि राक्षशों की) नैय्या निरंतर पार लगाईं है! इस कारण आम आदमी का 'भारत' में लक्ष्य मुंह में राम का नाम आना माना गया (भले ही जीते जी न आये, कम से कम मरते समय) ...इस लिए हर वर्ष, (अपना जन्मदिन मनाने समान), मनाई जाने वाली रामलीला के माध्यम से, रावण के साथ-साथ राम का नाम तो लिया ही जाता है (जो शायद इस जीवन को सफल बनाने में काम आये :)...
bahut sahi kaha hai aapne. badhai!!
ReplyDeleteसच तो यही है.
ReplyDeleteविजयादशमी पर्व की शुभकामनाएँ
Ahankar hee to le doobata hai hume par isko pare rakh kar yadi hum sbake sath shamil hon to ek alag he sukh kee anubhooti hotee hai.
ReplyDeleteAapko Dashhare ke pawan parw kee shubh kamnaen.
याद आता है कि इस विषय पर हमारे पिताजी कभी-कभी एक कहावत दोहराया करते थे: तू भी रानी / मैं भी रानी / कौन भरेगा पानी?
ReplyDeleteक्या कहूँ दराल जी .....मैं तो आपकी नेकदिली और इंसानियत को सलाम करती हूँ .....
ReplyDeleteअगर सभी आपकी तरह सोचने लग जायें तो जीवन कितना सहज हो जाये .....
आज आपकी पोस्ट से आप बीती बहुत सी बातें याद आ गयी ....
कभी मुझ में भी ऐसे ही विचार हुआ करते थे ....
वक़्त ने बहुत कुछ सिखा दिया ....
@आदरणीय दराल साहब
ReplyDeleteयदि आपके कीमती वक्त से थोडा सा वक्त निकाल कर इस पोस्ट पर अपने विचारों से अवगत करवाएंगे तो मुझे बेहद ख़ुशी होगी
http://my2010ideas.blogspot.com/2010/10/blog-post_20.html
सच है डाक्टर साहब .... बस अपने आप को ही जीतना मुश्किल होता है ... अपने अंदर के रावण को ही जलाना मुश्किल होता है .... कथनी करनी का फ़र्क ....
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