दिल्ली का एतिहासिक लाल किला । वही लाल किला जिसे शाहजहाँ ने बनवाया और जहाँ उनके बाद , बहादुर शाह ज़फर तक सब मुग़ल बादशाह रहे ।
वही लाल किला , जिसके लिए नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने आज़ाद हिंद फ़ौज को ललकारा था -चलो दिल्ली।
जहाँ आज़ाद हिंद फ़ौज के सैनिक पहुंचे तो सही , लेकिन कैदी बनकर , और उनपर मुकदमा चला । लेकिन सबको बरी कर दिया गया इस शर्त के साथ कि उनको आज़ाद हिंद की सेना में नहीं रखा जायेगा ।
यहीं से स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधान मंत्री श्री जवाहर लाल नेहरु ने १५ अगस्त १९४७ को ,स्वतंत्र भारत का तिरंगा पहली बार फहराया और देश को संबोधित किया ।
यहीं से हर साल देश के प्रधान मंत्री १५ अगस्त को ध्वज फहराकर देश को संबोधित करते हैं।
इतेफाक ही है कि इसी लाल किले को हमने पहली बार कुछ ही साल पहले देखा । पिछले महीने दूसरी बार जाने का अवसर मिला सबके साथ ।
प्रस्तुत है --लाल किले का भ्रमण , आपके लिए सचित्र ।
पूरब में रिंग रोड और यमुना नदी --पश्चिम में चांदनी चौक और जामा मस्जिद । यहाँ तक पहुँचाने के लिए आप दरियागंज से होते हुए जायेंगे ।
दरिया गंज से लाल किले की ओर ।
चांदनी चौक के सामने चौराहे से जाते हैं किले की ओर ।
इसके बाएं तरफ से प्रवेश द्वार से होकर , जहाँ सुरक्षा जांच के बाद आप पहुँच जाते हैं एक और प्रवेश द्वार पर जहाँ से एक गलियारे से होते हुए आप पहुंचेंगे इस प्रांगन में , जहाँ नज़र आएगा --दीवाने आम ।
दीवाने आम --जहाँ बादशाह जनता के दर्शन के लिए बैठते थे ।
सामने दिख रहा है वो छतरी नुमा प्लेटफोर्म जहाँ बादशाह का सिंघासन होता था । इसके चारों ओर स्वर्ण ज़डित रेलिंग होती थी ।
सिंघासन के तीन तरफ जनता के बैठने के लिए स्थान था , जिसके बाहर चांदी की रेलिंग लगी होती थी। यह भवन तीन तरफ से खुला है।
दीवाने आम के पीछे शाही निवास होता था। इस तस्वीर में बायीं तरफ दिख रहा है --दीवाने ख़ास। दायीं तरफ रंग महल है । आगे की तरफ ताल है जिसमे फव्वारे लगे हैं। सबसे बायीं तरफ हमाम घर होता था । जिसमे ठंडा और गर्म स्नान की सुविधा थी।
रंग महल पास से ।
रंग महल में सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे । यह शाही निवास का ही हिस्सा था । शाहजहाँ के समय में इसको इम्तियाज़ महल कहा जाता था । इसके बेसमेंट में शाही निवास होता था। इसके बीचों बीच एक जल धारा बहती थी , जो ठंडक प्रदान करती थी।
रंग महल में जल धारा --नहर-ए-वहिश्त ।
पूर्व की ओर का एक द्रश्य। रिंग रोड और किले के बीच का क्षेत्र अब एक खूबसूरत पार्क के रूप में विकसित किया गया है।
यह है -दीवाने ख़ास का अन्दर का नज़ारा । दीवारों पर बहुत खूबसूरत पेंटिंग और सोने की नक्कासी थी । दूर नज़र आ रहा है वो स्थान जहाँ मयूर सिंघासन होता था जिसमे प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा लगा था । वह आज भी अंग्रेजों के पास है।
दीवाने ख़ास
दीवाने ख़ास के सामने पार्क में अब लाईट एंड साउंड शो होता है। जिसे आप बेंचों पर बैठकर देख सकते हैं।
लाईट एंड साउंड शो --यहाँ पर ।
किले के बायीं तरफ के हिस्से में बड़े बड़े खूबसूरत पार्क हैं। जिनके बीचों बीच जल धाराएँ बनी हैं। इनमे फव्वारे भी बने हैं। दोनों छोर पर बैठकर देखने के लिए शाही गैलरी बनी हैं , जहाँ बैठकर शाही खानदान शाम को सुन्दर नजारों का लुत्फ़ उठता होगा।
बीच में यह एक जल श्रोत ( कुआँ ) है , जिससे पानी का प्रवाह नियंत्रित किया जाता था । पूरे पार्क में जल धाराएँ और फव्वारे कितना शकून प्रदान करते होंगे । हम तो यह फिल्मों में ही देख पाते हैं।
अंत में बायीं तरफ बने ये आलिशान भवन शायद अंग्रेजों ने बनाये होंगे --अपने अफसरों के लिए । इसी छोर पर दायीं तरफ एक कैंटीन भी है जो अंग्रेजों के ज़माने से बनी है। हमने तो यहाँ जाने की हिम्मत ही नहीं की।
यहाँ आकर पहली बार एहसास हुआ कि फिल्मों में जो शाही ठाठ बाठ दिखाए जाते हैं , वो वास्तव में सच में ही होते होंगे ।
यह भी एक हैरानी की बात लगती है कि जब बिजली भी नहीं थी , तब भी फव्वारे कैसे चलते होंगे ।
कैसे पानी यमुना से होकर महल में प्रवाहित होता होगा !
और बिना खिड़की दरवाज़ों के महल में आंधी आने पर क्या होता होगा !
ऐसे बहुत से सवाल ज़हन में उठने लगते हैं , ऐसी एतिहासिक जगह आकर।
Saturday, April 3, 2010
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ऐसा घुमाते हो आप कि मन करता है कि दिल्ली आकर बस आपके साथ घूम घूम कर देखें.
ReplyDeleteदिल्ली के लाल किले की सैर कर चुकी हूं .. इसके बावजूद आपके दिखाए चित्र और विवरण में नयापन लगा !!
ReplyDeleteइतने मनभावन चित्रों के साथ लालकिला की सैर कराने के लिए आभार।
ReplyDeleteमनमोहक चित्रों के साथ रोचक पोस्ट के लिये धन्यवाद!
ReplyDeleteपढ़ कर ऐसा लगा कि अभी अभी लालकिला घूम कर आ रहे हैं।
बाहर से बहुत बार देखा है, अंदर एक बार भी नहीं गया। अभी दिसंबर में जाना था पर उस दिन किला साप्ताहिक अवकाश के कारण बंद था। अगली यात्रा पर देखने का प्रयास करते हैं।
ReplyDeleteडॉक्टर साहब बहुत ही अच्छे चित्र हैं
ReplyDeleteआपने घर बैठे ही लाल किले की सैर करा दी।
आभार्।
बढ़िया प्रस्तुति डा० साहब , मैं तो सन १९९२ के बाद से नहीं जा पाया इसके अन्दर !
ReplyDeleteसालों बाद दिल्ली और लाल किले की सैर कर रहा हूं।आभार आपका।चित्र बहुत सुन्दर है और आपने वर्णन भी बहुत बढिया किया है।
ReplyDeleteडॉ. साहब बढ़िया प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत धन्यवाद...अभी कल ही मैं भी घूमने गया था मगर ५ बजे के बाद पहुँचा था तो संग्रहालय नही जा पाया.....
ReplyDelete...चार-पांच साल हो गये दिल्ली गये हुये ...फ़ोटो देखकर फ़िर से मन ललचा रहा है!!!
ReplyDeleteदिल्ली की सैर अच्छी लगी मगर गर्मी बहुत थी!
ReplyDeleteयूं तो पहले कई बार लालकिला देखा था, मगर आज लग रहा है कि मैने लालकिला देखा हुआ है।
ReplyDeleteइन सुन्दर तस्वीरों के लिये हार्दिक धन्यवाद
प्रणाम स्वीकार करें
डा. तारीफ जी, आप की तारीफ करनी ही होगी जिस तरह आप ऐतिहासिक स्थानों का वर्णन करते हैं! मैं बचपन से कई बार गया हूँ लाल किला देखने,,,और आखिरी बार एक बड़े भाई के मित्र 'एनआरआई' के साथ प्रकाश और ध्वनि कार्यक्रम देखने गया था कई दशक पहले...किन्तु आपके वर्णन को पढ़ लगा मैंने लालकिला पहले शायद ध्यान से नहीं देखा था :)
ReplyDeleteमाँ काली की जीभ समान लाल रंग को खतरे के निशान के समान माना गया है, और आज भी चौराहे पर गाड़ियों को रोक देता है,,,शायद इसी कारण आगरा का लाल किला अंत में शाहजहाँ की क़ैद भी बना, जहाँ से उसे सफ़ेद संगमरमर से बने ताजमहल को दूर से देखने को ही मिला जैसे हम चन्द्रमा को दूर से देखते हैं,,,और बहादुर शाह ज़फर भी भारत भूमि पर - देश के बाहर कैद के कारण - लौट कर न आ पाया,,,किन्तु प्रसिद्द हो गया, "कितना है बदनसीब ज़फर दफ़्न के लिए दो गज ज़मीं भी न मिली कूए यार में..." से...
तिरंगे झंडे को सलामी की सोच के बारे में कभी और लिखूंगा...
बढ़िया चित्र. ध्वनि और दृश्य कार्यक्रम बहुत अच्छा होता है लेकिन मच्छर बहुत काटते हैं :)
ReplyDeleteएक संग्रहालय भी है यहाँ
मैं भी कई साल पहले सपरिवार दिल्ली गया था ,लेकिन आतंकी हमले की वजह से अंदर जाना मना था तो बाहर से देख कर वापस आ गये थे
ReplyDeleteआज अंदर से भी देख लिया ।
मनमोहक चित्रों के साथ रोचक पोस्ट के लिये धन्यवाद!
ReplyDeleteDHANYAWAAD GHAR BAITHE LA KILE KE DARSHAN KARANE KE LIYEEEEEEEEE
ReplyDeleteडा. महेश सिन्हा के मच्छरों के आतंक पर पढ़ हंसी आई क्यूंकि यह प्राणी भी मेरी अस्सी के दशक में किये गए अनुसन्धान का विषय बना...और स्वयं मुझे कभी मलेरिया नहीं हुआ था (और न हुआ है अभी तक) मैंने इनको खून पीने दिया,,,मैं पहले आम आदमी की तरह बैठते ही मार दिया करता था,,,किन्तु एक विचार अचानक आया एक दिन कि ये कितनी सफाई से इन्जेकशन लगाते हैं - थोड़ी सी खुजली भर होती है बाद में,,,जबकि एक बार साठ के दशक में एक नर्स ने जांच के लिए खून निकालते समझ गलत जगह सुई लगा दी थी और वो जगह बाद में पहले नीली और फिर काली दिखी थी कुछ दिन तक,,,और वैसे भी सुई के नाम से ही बच्चे रो पड़ते हैं :)
ReplyDeleteमुझे यकीन नहीं हुआ जब पहले मच्छर ने कई मिनट तक मेरा खून चूसा और बाद में जब वो मोटा हो नीचे मेज़ पर चला तो वो शराबी कि भांति लडखडा के चल रहा था :)
इस पर बाद में मैंने एक मजाकिया कविता भी लिखी थी जिसमें मैंने मच्छर को डॉक्टर का गुरु दर्शाया था, जिसे पढने का सौभाग्य केवल कुछ ही मित्रों आदि को तब प्राप्त हुआ :)
डॉ टी एस दराल जी एक नही हजारो बार इस किले के सामने से निकला हुं, मेरी ससुराल भी इस के पास ही है, लेकिन इसे अब देख नही पाया एक बार बचपन मै गया था सो वो सब भुल गया, लेकिन आप के चित्रो ने ओर विवरण ने आज ताज के दर्शन करवा दिये.
ReplyDeleteधन्यवाद
समीर जी , आप आइये तो सही । हम आपको दिल्ली घुमा घुमा कर ही दिखायेंगे। :)
ReplyDeleteशास्त्री जी , दिल्ली आना हुआ था , तो एक फोन ही कर देते । आपके दर्शनों का लाभ हमें भी मिलता ।
द्विवेदी जी , यदि देखें तो एक गाइड ज़रूर कर लें । तभी आनंद आता है , कहानी सुनने में ।
जे सी जी , अब कोई इतना पेट भर लेगा तो बेचारा चलेगा कैसे । :)
@JC
ReplyDeleteमलेरिया नहीं हुआ तो इसे सौभाग्य ही समझे
मच्छर केवल मलेरिया नहीं अन्य कई रोगो का वाहक भी है .
डा. साहब ..वो म्युजियम तो रह ही गया सर , उसमें भी बडी अनोखी चीज़े हैं और घुसते निकलते समय मिलने वाला छोटा सा मीना बाज़ार ..जहां पर खूब गला काट तोल मोल होता है ..फ़ोटो खूब धांसू आए हैं और आपके वर्णन का तो कहना ही क्या ..अगली बार हम भी लटक लेंगे आपके साथ
ReplyDeleteअजय कुमार झा
वाह लालकिले के दर्शन फिर से हो गए। अब तो काफी सुन्दर हो गया है जी। आपकी फोटो पसंद आई। वैसे कल हम इंडिया गेट घूम कर आए थे। कुछ फोटो लाए थे।
ReplyDeleteअजय भाई , म्यूजियम के फोटो मैंने जान बूझ कर नहीं लगाये , क्योंकि सब जगह एक जैसे ही दिखते हैं। हाँ , मीना बाज़ार में हमने भी बिटिया के लिए एक गिफ्ट खरीदी थी। भई उसका जन्मदिन जो था । इसलिए पैसे के बारे में नहीं सोचा।
ReplyDeleteसुशील कुमार जी , आतंकवादी हमले के बाद लाल किला को काफी रिपेयर किया गया है । बाहर भी रिंग रोड की तरफ
पूरा साफ़ कर के पार्क बना दिया गया है। सुरक्षा भी बढ़ा दी गई है । और टिकेट भी ५० पैसे से बढाकर १५ रूपये कर दिया गया है। फिर भी देखने लायक तो है।
अच्छा लगा दिल्ली घूमकर ....पहले भी घूम चुकी हूँ ...और फिर दिल्ली तो दिल मे रहती ही है ,आपके साथ घूमना सुंदर रहा .
ReplyDeleteट्रेनिंग के दौरान खूब घूमे, आपने यादों को ताजा कर दिया...
ReplyDelete_____________
'शब्द सृजन की ओर' पर आतंकवाद की चर्चा.
डा. दराल जी, उस मच्छर की हालत शायद उस भूखे के समान थी जिसको बहुत दिनॉ से खाने-पीने को न मिला हो और भोजन मिलने पर रेगिस्तान के जहाज़ के समान टंकी फुल करने की सोच रही हो मन में :)
ReplyDelete@ डा. सिन्हा जी, मैं आपसे सहमत हूँ: जहां तक इस पृथ्वी पर 'जीवन' का प्रश्न है, अपने अनुभव से मैंने पाया कि सारा खेल 'भाग्य' (सौभाग्य या दुर्भाग्य) का ही है,,,किसी प्राचीन ज्ञानी ने भी विश्लेषण कर कहा था, "बालकपन खेलकूद में जाता है / यौवन मूर्खता में / और बुढापा हाथ मलने में",,,कुछ ऐसे ही जैसे मैंने भी ४६ वर्ष कि आयु में पहली बार गीता पढ़ सोचा कि मैंने इसे पहले क्यूँ नहीं पढ़ा था?...जबकि एक स्टाफ ने मुझे लगभग ९ वर्ष पूर्व उसकी एक कॉपी भेंट भी की थी भूटान/ उत्तरपूर्व प्रदेशों में जाने से पहले, जिसे में दिल्ली में छोड़ गया था और लौटने पर पढ़ा (केवल अंग्रेजी में अनुवाद, क्यूंकि संस्कृत मैंने केवल कक्षा ८ तक पढ़ी थी और मेरा जवानी में भगवान् में विश्वास इस सीमा तक ही था कि वो अनत ब्रह्माण्ड को अनंत काल से चला रहा है और मैं इतना ज्ञानी नहीं हूँ कि उसके काम में पंगा लूं :)...
माफ़ करना, मीडिया भय बढ़ा रहा है हवा के अतिरिक्त हरेक खाद्य सामग्री में 'विष' के समाचार दे,,,और आज तो बीमारियों के नए-नए नामों से डॉक्टर आम जनता का ज्ञानवर्धन कर ही रहे हैं,,,और भय भी उम्र बढाने के साथ-साथ निरंतर बढ़ा रहे हैं :)
बेहद खूबसूरत.
ReplyDeleteआज तो कमाल हो गया डॉ साहब ! बेहतरीन फोटोग्राफी ...पुरानी यादें ताजा हो गयीं ! शुक्रिया आपका
ReplyDeleteदराल सर,
ReplyDeleteलालकिले का ये टूर कराते कराते आपने ऐसा एहसास कराया कि किसी मुगल बादशाह की आत्मा ही हमारे अंदर आ गई...वैसे यहां एक लाइट एंड साउंड शो हुआ करता था...क्या अब भी होता है...
जय हिंद...
भव्यतम ,मनमोहक !
ReplyDeleteSach yah sachitr bhraman bahut lalcha gaya...dekhe barson guzre...ab phir ekbaar dekhneka man kar raha hai!
ReplyDeleteक्यूंकि मुझे अवकाश प्राप्ति के पश्चात खाली समय 'सौभाग्यवश' मिल रहा है, खुशदीप जी के फ्रेंच में 'सौंने ल्युमीयेर' यानि अंग्रेजी में 'लाइट एंड साउंड' पर अपनी टिप्पणी में उठाये प्रश्न से पता चलता है उनके व्यस्तता के विषय पर,,,उनकी निगाह से छूट गया कि डा. दराल साहिब ने एक जगह लिखा है , "दीवाने ख़ास के सामने पार्क में अब लाईट एंड साउंड शो होता है। जिसे आप बेंचों पर बैठकर देख सकते हैं।"
ReplyDeleteक्यूंकि यह विशेष कार्यक्रम शाम को होता है शायद डा. साहिब ने इसे न देखा हो,,,नहीं तो उस पर वो ध्वनि नहीं तो प्रकाश अवश्य डालते...
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मैं केवल यह कहना चाहुँगा कि प्रकाश और ध्वनि का सम्बन्ध बादल में बिजली चमकने के उदाहरण से प्राकृतिक रूप में सरलता से समझा जा सकता है: जिसमें प्रकाश पहले हम तक पहुँच जाता है और आवाज़ बाद में पहुँचती है,,,जबकि दोनों ही शक्ति के ही भिन्न रूप हैं...जिसे शायद हिन्दू मान्यता के आधार पर, कि नादबिन्दू द्वारा ब्रह्मनाद से सम्पूर्ण भौतिक ब्रह्माण्ड कि रचना संभव हो पायी है, और विष्णु भगवान् 'शेष नाग' पर, यानि शेष (किन्तु फिर भी अनंत शक्ति के आधार पर) आराम कर अपनी श्रृष्टि का अवलोकन कर रहे हैं - जैसे हम बेंच में बैठे बैठे 'शाहजहाँ' यानि दुनिया के बादशाह कि श्रृष्टि का अवलोकन कर पाते हैं आज भी :)
JC जी
ReplyDeleteआप भी भूल गए मच्छर पुराण इसी संदर्भ में आया था :)
दिल्ली के पड़ोस में इतने साल रह कर भी नही देख पाए जो आने इन चित्रों के माध्यम से दिखा दिया .....
ReplyDeleteकमाल की पारखी नज़र है आपकी ... मज़ा आया लालकिले का दर्शन आपके साथ ...
@डा. सिन्हा कुछ हद तक आपने ठीक कहा...मेरे 'मच्छर पुराण' को संदर्भित न करने का कारण था कि साधारणतया व्यस्त व्यक्ति के और उस पर एक 'ब्लॉगर' के मस्तिष्क में सदैव सोते जागते भी यह चल रहा हो सकता है कि वो अपने अगले ब्लॉग में क्या प्रस्तुत करेगा, कौनसी तस्वीरें विवरण को सुंदर बनायेंगी आदि आदि,,,जिस कारण संभव है कि जिस प्रकार डा. दराल के शब्दों में एक व्यस्त डॉक्टर एक बीमार को केवल डेढ़ से दो मिनट ही दे पाता है, पूरा लेख भी पढने का आम ब्लॉगर को भी समय न मिले,,,नहीं तो खुशदीप जी ने हम दोनों की टिप्पणी से ही 'सत्य' जान लिया होता! ('७० के दशक में कुछ वर्ष मेरे निजी काम से सम्बंधित एक माह की ट्रेनिंग और उसके पश्चात 'कम्प्युटर प्रोग्रामिंग' के दौरान मैंने पाया था कि मुझे सपने में भी 'गो टू' या 'इफ' स्टेटमेंट आदि दिमाग में घूम रहे होते थे - एक नशा सा छा जाता था,,,और तभी मैंने 'जिगो' शब्द भी जाना - आदमी के मस्तिष्क से भी लागू - "अन्दर कूड़ा भरा होगा तो कूड़ा ही बाहर निकलेगा" :)
ReplyDeleteसर क्या मन भावन नज़ारा है लगता है देखने जाना ही पड़ेगा. बहुत अच्छा लगा आपकी पोस्ट पढ़कर और मच्छरों की दास्तान सुन कर और भी ज्ञानवर्धन हो गया
ReplyDeleteमनमोहक और ख़ूबसूरत चित्रों के साथ आपने लालकिला का सैर करा दिया जो बेहद अच्छा लगा! धन्यवाद! बहुत ही सुन्दरता से आपने प्रस्तुत किया है!
ReplyDelete@रचना जी, अब देखिये कैसे ज्ञान हमारे सामने होते हुए भी शायद हमको उसका आभास नहीं होता,,,उदाहरण के तौर पर जैसा मैंने पहले भी कहा कि यह सब जानते हैं कि बादल से प्रकाश पहले आता है और ध्वनि बाद में,,,इसी श्रंखला में एक कड़ी समान यह भी हमें मालूम है कि कैसे पहली फिल्म केवल 'प्रकाश' पर ही आधारित थी, यानि वो आरम्भ में 'श्वेत-श्याम' ('काली-गौरी', कंप्यूटर के आधार 'जेरो' और 'एक' :) थी और 'ध्वनि' नदारद थी...जो अथक प्रयास के बाद ही आई!
ReplyDeleteप्रश्न उठ सकता है कि क्या यह संयोग मात्र था?
जैसे जमीन को खोदने से आलू / भूमिगत जल/ पेट्रोलियम आदि आदि तक पहुंचना संभव हुआ, थोडा सा भूत में गहराई में जा कर देखें तो पाएंगे कि खगोलशास्त्री भी उनसे आते आरंभ में 'प्रकाश' के कारण ही तारे और ग्रह आदि को गैलैलिओ से आरंभ कर टेलिस्कोप के आविष्कार के कारण बेहतर जान पाए,,,और भली भांति दिन प्रतिदिन जान पा रहे हैं क्यूंकि "आवश्यकता आविष्कार कि जननी है",,,और जबसे हाल ही में मानव ने अंतरिक्ष में भी ज्ञानवर्धन के लिए हस्तक्षेप आरंभ किया और चन्द्रमा को छू लिया तो लगभग '८० के दशक में संभव हो पाया शनि-ग्रह से प्रसारित होती 'ध्वनि' को सुन पाना,,,और एक दम निकट भूत में सूर्य से भी निकलती ध्वनि को जो 'सरस्वती वीणा' के समान एक हिन्दू को लग सकती है, यद्यपि पश्चिमी वैज्ञानिकों ने उसे हार्प समान बताया :)..."हरी अनंत / हरी कथा अनंता..."...
Hamari aaitihaasik dharoharon ke sundar chitramay aur gahari jaankari kee prastuti ke liye aabhar....
ReplyDeleteAapka prayas bahut saraniya aur parshansiya hai.. manan ko bahut achha laga..
mumbai me beth kar dilli bhraman kaa yah aanand bhi apne aap me suhanaa rahaa. aapke maadhyam se.dhnyavaad dr.saaheb
ReplyDeleteलाल किले का भ्रमण कर लिया हमने ....!!
ReplyDeleteएक बार निचे की पोस्ट फिर देख डाली .......!!
ऊपर बांस की झाड़ियों के बीच आपकी तस्वीर भी थी वो काट दी आपने ......??
mai kabhi dehali to nahi gai par ghar me beethe beethe hi dehali kapura najara kar liya.jan kari mili so alag.dhanyvad--------
ReplyDeleteहमारे कंप्यूटर पर तो डा. साहिब आप दिखाई दे रहे हैं!
ReplyDeleteकिन्तु, आपके मौन से ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कुछ समय से आप बहुत व्यस्त हो गए हैं...
सॉरी हरकीरत जी , बात समझ नहीं आई। जे सी जी ठीक कह रहे हैं-- फोटो तो है , जो ललित शर्मा जी ने लगाईं है, आभार सहित ।
ReplyDeleteजे सी जी चलिए आगे बढ़ते हैं , नई पोस्ट के साथ ।
बहुत दिनो बाद आपका ब्लाग देखा पिछले दिनो दिल्ली में घुम रहे थे लाल किले के बारे में आपने लिख बहुत अच्छा किया ।इस तरह के स्थान बहुत अच्छे लगते है प्रश्न भी उठते है आपके दिमाग में जो सवाल कौधे वह बहुत लोगो के मन में आते होगे जब हमन लाल किले की सैर की थी यही सोच रहे थे। इन्ही प्रश्नों के उत्तर खोज कर एक अन्य पोस्ट लिखे आप तो दिल्लीवासी ही है समय तो लगेगा पर मुश्किल भी नही।
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपके आगमन के लिए धन्यावाद .आपके ब्लॉग पर भी मै पहली बार आया हूँ और ब्लॉग पढ़कर मजा आ गया, लाल किला के बारे में मैंने अपने बलोद पर बताया है लिंक ये है -http://madhavrai.blogspot.com/2010/04/part-ii.html. आपने अपने ब्लॉग में लाहौरी गेट के बारे में नहीं लिखा है , फिर किले में अन्दर घुसते ही दुकाने है , वो कैसी दुकाने है और कब से है पता नहीं चला , , जो सारे सवाल आपने उठाये है जैसे की ये है ::
ReplyDeleteयह भी एक हैरानी की बात लगती है कि जब बिजली भी नहीं थी , तब भी फव्वारे कैसे चलते होंगे ।
कैसे पानी यमुना से होकर महल में प्रवाहित होता होगा !
और बिना खिड़की दरवाज़ों के महल में आंधी आने पर क्या होता होगा !
ऐसे सवाल हमारे जेहन में भी उठे थे.
आपका विवरण शानदार है , आगे दिल्ली के और नज़ारे का इन्तेजार रहेगा
और हाँ , आपने मोती मस्जिद , म्युसीयम और हम्माम का जिक्र नहीं किया है
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को पढकर लालकिले के दर्शन करने का मन कर रहा है
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