top hindi blogs

Friday, September 23, 2011

भरोसा एक पल का नहीं , मंसूबे जिंदगी भर के ....


शाम का धुंधलका , आसमान में उमड़ आए काले बादलों से असमय होता अँधेरा--बाज़ार में शाम की खरीदारी करती महिलाओं की चहल पहल --घर में बच्चे खेलने की फ़िराक में होमवर्क निपटाने की जल्दी में --काम के बोझ का मारा बेचारा बाबु हाथ में ब्रीफकेस लिए कमर झुकाए घर की ओर प्रस्थान करता हुआ --रोजमर्रा की जिंदगी का एक और दिन समाप्ति की ओर।

तभी एक जोरदार आवाज़ , गडगडाहट के साथ --छत के पंखे हिलने लगे , दीवार पर टंगी तस्वीरें गिर कर टूट गई --और धड़ाम , कोई दीवार गिरने की आवाज़ --लोग घरों से बाहर निकल सड़क पर आ गए --किसी ने पीछे मुड़कर देखा , घर की छत गिर गई थी --कुछ समय पहले जहाँ बैठा था , वहां सीमेंट का एक बड़ा टुकड़ा टूट कर बिखर गया था --कुछ पल का ही फासला था जिन्दगी और मौत के बीच।

आस पास सभी जगह तबाही का आलम -अचानक बिजली भी गुम --घुप्प अंधकार --

चारों ओर हाहाकार , कोलाहल , चीत्कार --किसी को कुछ पता नहीं क्या करें , कहाँ जाएँ --तन पर स्वेटर से ठंडी हवा के झोंकों से कुछ तो राहत--लेकिन तभी आसमान में छाये बदल भी फट पड़े --मूसलाधार बारिस में भीगकर स्वेटर भी बेकार --ठंडी हवा बदन को चीरती हुई ज्यों सैंकड़ों सूइयां एक साथ चुभती हुई --कंपकपाते बच्चे को दामन में समेट कर ठण्ड से बचाने का निसफल प्रयास करती माँ-- हृदय विदारक दृश्य।

यह दृश्य किसी हॉरर फिल्म का नहीं , बल्कि सिक्किम में आए भूकंप से होने वाली तबाही का है , जिसमे सैंकड़ों लोग मृत और घायल और हज़ारों बेघर हो गए।

यह मंज़र अब धीरे धीरे सामने आ रहा है , सड़क मार्ग और संचार साधन खुलने पर।

यहाँ दिल्ली में बहुमंजलीय ईमारत के अपने आरामदायक अपार्टमेन्ट में बैठा एक ब्लोगर जुटा है ब्लॉग पर धड़ाधड टिप्पणियां करने में --ब्लॉगजगत में गहमागहमी छाई हुई है --तर्क वितर्क , आरोप प्रत्यारोप , बनते बिगड़ते आभासी रिश्ते --ब्लॉगजगत जैसे बौखला सा गया है---

अचानक अहसास होता है --दिल्ली भी हाई सीस्मिक ज़ोन में है --यदि यही तबाही यहाँ भी हुई होती तो ! !

ऊंची ऊंची बिल्डिंग्स में रहने वाले कहाँ जायेंगे भागकर --मौत से भी भागकर कोई बचा है !
फिर ख्याल आता है ---

भरोसा एक पल का नहीं , मंसूबे बनाने बैठे हैं उम्र भर के ।
जो पल अभी है , उसे यूँ ही बर्बाद कर रहे हैं , फालतू की बातों में।


इसलिए आईये प्रण करें --आज से ही ब्लोगिंग में कोई ईर्ष्या द्वेष वाली बात नहीं करेंगे ।

नोट : ब्लोगिंग में सद्भावना बनाये रखने के लिए आप सब का सहयोग अपेक्षित है ।



45 comments:

  1. जहा प्रेम है वहा द्वेष तो होगा ही संसार के इस नियम को हम बदल नहीं सकते है पर इतना तो प्रयास सभी को करना चाहिए की सभी अपनी सीमा में हो और यदि व्यंग्य मजाक में कोई बात किसी के दिल को लग जाये तो माफ़ी मांग ले और जो दूसरो का सहने की आदत ना हो तो किसी को कुछ कहे भी नहीं और अपनी पुरानी की गई गलतियों को कम से कम अब सेघी बघार कर सीना फुलाना लोग छोड़ दे |

    ReplyDelete
  2. एक मंजर गुजर गया आँखों के आगे से.
    यहाँ दिल्ली में बहुमंजलीय ईमारत के अपने आरामदायक अपार्टमेन्ट में बैठा एक ब्लोगर जुटा है ब्लॉग पर धड़ाधड टिप्पणियां करने में --ब्लॉगजगत में गहमागहमी छाई हुई है --तर्क वितर्क , आरोप प्रत्यारोप , बनते बिगड़ते आभासी रिश्ते --ब्लॉगजगत जैसे बौखला सा गया है---
    अफ़सोस ..

    भरोसा एक पल का नहीं , मंसूबे बनाने बैठे हैं उम्र भर के ।
    जो पल अभी है , उसे यूँ ही बर्बाद कर रहे हैं , फालतू की बातों में
    एकदम सच.।

    ReplyDelete
  3. डॉक्टर साहिब, यह तो सभी को पता होगा कि हमारी पृथ्वी कभी आग का गोला थी और हवा-पानी से धीरे धीरे ठंडी हो ऊपर से ठंडी हो धूलिकण और नीचे सख्त किन्तु टूटी फूटी चट्टान आदि में बदल गयी है, एक दूसरे से सटी, दरारें मिटटी से भरी... किन्तु अभी भी इस ग्रह के दिल में पिघली हुई चट्टानें हैं जिसके ऊपर सारी टूटी फूटी चट्टानें तैर सी रही हैं, और एक दूसरे से कभी कभी टकरा भी रही हैं... जम्बुद्वीप के उत्तर में इसी दबाव के कारण हिमालयी श्रंखला भी बनी है!

    प्राचीन हिन्दुओं ने हमारे ग्रह, पृथ्वी, हमारे सौर-मंडल के मुख्य सदस्य को, गंगाधर / चन्द्र शेखर शिव, महादेव, नटराज, आदि सहस्त्र नाम द्वारा पुकारा...

    और, संहारकर्ता शिव, नटराज, प्रसिद्द है 'तांडव नृत्य' के लिए, जो स्टेज पर किसी भारत नाट्यम के कलाकार द्वारा किया तो अच्छा लगता है... किन्तु इसे वर्तमान 'वैज्ञानिक' भूचाल अथवा भुमिकम्पन कहते हैं जो ज्वालामुखी फटने, अथवा विशेषकर वर्षा काल में - जोड़ों के बीच मिटटी के घुल जाने के कारण - चट्टानों के फिसलने से दोनों के बीच घर्षण से उत्पन्न उर्जा के किसी गहरे या उथले केंद्र बिंदु से बाहर चारों ओर लहर समान फैलने से भूस्खलन और भुमिकम्पन से मकान या तो मिटटी के साथ साथ नीचे चले जाते हैं, अथवा अन्य स्थिर स्थानों में भूमि के आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, सभी दिशाओं में हिलने से वे इमारतें जिनमें इन हलचल का हिसाब नहीं रखा गया, उनमें दरारें अथवा पूरी इमारत के गिर जाने का भय रहता है... और जान माल कि संभावित हानि, जो भूचाल की गहराई, शक्ति, और झटके के समय पर निर्भर करता है...

    और यदि ये चट्टानें सागर के नीचे होती हैं तो सुनामी अर्थात सागर में ऊंची लहरें उठने की भी सम्भावना रहती है तटीय क्षेत्रों में...

    इसे हमारे पूर्वजों ने ब्रह्माण्ड के ही एक बड़े डिजाइन का अंश माना, अथवा कहलें, तपस्या / साधन द्वारा योगियों ने जाना''.

    आधुनिक वैज्ञानिक अभी इस डिजाइन को समझ नहीं पाए हैं, शायद चीन में एक ही उदाहरण है जिसमें पूर्वानुमान के आधार पर केवल एक स्थान विशेष पर संभावना जान जनता को वहाँ से समय रहते खाली करा लिया गया...

    मानव को पृथ्वी का प्रतिरूप माना गया, जिस कारण जो पृथ्वी के साथ घट रहा है वो प्राणियों के साथ भी घट रहा है, परिवार टूट रहे हैं, दिल में आग है, नृत्य भी हो रहे हैं... आदि आदि...

    ReplyDelete
  4. आपका दृष्टिकोण शतशः सही है। किसी एक को दूसरे पर कटाक्ष नहीं करना चाहिए केवल अपने विचार व्यक्त करने चाहिए। यदि आपकी यह सीख सब मान लें तो बेहद खुशी की बात होगी।

    ReplyDelete
  5. डॉ. दराल साहब ,
    आप सरल ह्रदय के व्यक्ति हैं ...जाहिर है कुछ बातें आपको व्यथित कर रही हैं ...
    किन्तु आपसे सिद्धांततः सहमत होने के बावजूद कहूँगा कि कुछ लोग इतने शातिराना
    और अपराधी वृत्ति के हैं कि वे प्यार पुचकार से नहीं मानते ..न ही अनुनय विनय से मानते हैं ..
    उनके लिए निरंतर सख्त बने रहना पड़ता है ...हार्ड कोर क्रिमिनल की दवा सख्ती ही है ...
    मैं वे उद्धरण नहीं देना चाह रहा है जो आप को अप्रिय लगेगा -किन्तु वीड आउट की प्रक्रिया शुरू हो गयी है ..

    ReplyDelete
  6. अरविन्द जी , सरल हृदय हैं , यह तो ठीक है। लेकिन व्यथा बिल्कुल नहीं है । गीता का प्रभाव पूर्ण रूप से दिल और दिमाग पर है । बस कुछ लोगों की बुद्धि पर तरस आता है । इसीलिए एक कोशिश है ताकि ब्लोगिंग में लोग अपना कीमती समय व्यर्थ न कर सार्थक बातों में लगायें ।
    अब इस पोस्ट पर भी ब्रिक्बैट्स आने लगें तो कोई आश्चर्य नहीं ।
    फिर भी एक आखिरी प्रयास है । उसके बाद हम भी मस्त हो जायेंगे ।

    ReplyDelete
  7. सब को सन्‍मती दे भगवान।

    ReplyDelete
  8. दिल्ली भी हाई सीस्मिक ज़ोन में है इसलिए आज से ब्लोगिंग में कोई ईर्ष्या द्वेष वाली बात नहीं करेंगे ।

    ReplyDelete
  9. काशी निवासी शिव के ह्रदय में लाल जिव्हा वाली माँ काली है, अग्नि है, किन्तु वे कंठ में विष धारण कर, और माथे को ठंडा रखने को चंद्रमा और गंगा जल रखे हैं, और कैलाश पर्वत के ऊपर सपरिवार बैठे नाटक देख रहे हैं...
    जिस कारण वे 'विष' का विपरीत, 'शिव', कहलाये, आत्मा समान अमृत पृथ्वी, जो अग्नि से जल राख नहीं बन सकती; पानी में घुल अस्तित्व नहीं खो सकती; तलवार ही क्या, ऐटम / हाईड्रोजन बम से नहीं कट के टुकड़े टुकड़े हो सकती...वर्तमान वैज्ञानिकों के अनुसार भी हमारी धरा, जिसने हमें धरा हुआ है कुल ७०+ वर्ष से ही, वो नश्वर प्राणी जगत को हिमालय की श्रंखला समान, श्रंखला बढ रूप से साढ़े चार अरब वर्ष से अपना कार्य करती आ रही है... कहते हैं "बुद्धिमान को इशारा ही काफी होता है" बाकी तो सब का अपना अपना भाग्य है, और कहावत है "बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी", प्रलय तो एक दिन, किसी भी पल, होना ही है तो फिर "...बहुरि करोगे कब..."?

    ReplyDelete
  10. ईर्ष्या द्वेष करने से सबसे बड़ा नुक्सान खुद का ही है ...अपना फायदा ही सोच लो !तो भी सब ठीक हो जायेगा ...???
    शुभकामनाएँ!

    ReplyDelete
  11. @प्रण करें --आज से ही ब्लोगिंग में कोई ईर्ष्या द्वेष वाली बात नहीं करेंगे।

    हम तो प्रण करके ही आए थे। :)

    ReplyDelete
  12. सारगर्भित आलेख सच में आपकी यह पोस्ट पढ़कर ऐसा लगा जैसे सब कुछ आँखों के सामने ही चल रहा हो॥यादें.. से पूरी तरह सहमत हूँ। ईर्षा द्वेष करने से सबसे बड़ा नुकसान खुद का ही है....
    समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है।
    http://mhare-anubhav.blogspot.com/

    ReplyDelete
  13. आपने मूड बना दिया है तो एक हिंदी गज़ल ( वैसे गज़ल मैं बहुत कम लिखता हूँ ) लिखने का मन हो रहा है, आपकी पोस्ट का विषय ही ऐसा है तो मैं क्या करूँ...

    क्या तेरा क्या मेरा पगले
    चार दिनों का फेरा पगले

    छोरी छोरा छुट जायेंगे
    उठ जायेगा डेरा पगले

    पत्थर का दिल क्यों रखता है
    तन माटी का ढेरा पगले

    सूरज सा चमका है जग में
    जिसने तन मन पेरा पगले

    मूरख क्यों करता गुरूवाई
    एक गुरू सब चेरा पगले।
    ..................

    ReplyDelete
  14. इस प्रण के प्रति वे क्‍या करेंगे, जो इसी भरोसे जमे हुए हैं.

    ReplyDelete
  15. सटीक लेख ...काश ...ऐसे लोग कुछ समझ पाते ...कि बेकार की बातो में कुछ नहीं रखा ....सबको सम्मान करने की शक्ति दे भगवान
    --

    ReplyDelete
  16. इसलिए आईये प्रण करें --आज से ही ब्लोगिंग में कोई ईर्ष्या द्वेष वाली बात नहीं करेंगे ।

    आपकी सलाह मानली जाये तो द्वैत की थ्योरी पूरी नही होती और अगर द्वैत पूरा ना हो तो संसार नही चल सकता. और शायद आपने हरयाणे की एक बहुत प्रचलित कहावत सुनी होगी जिसे पूरा यहां लिखना अशिष्टता कहलायेगी. असल में रंडूवे रंडापा नही काटने देते वर्ना तो समस्त शांति ही शांति है.

    रामराम.

    ReplyDelete
  17. डॉ साहेब यह सच हैं की हमे हर कही किसी भी फिल्ड में इर्षा या द्वेष नहीं रखना चाहिए --हमेशा सब का भला --सो अपना भला ही सोचना चाहिए ...

    जब भुज में और लातूर में भूकम्प आया था तो हम बाम्बे वालो ने भी उसका स्वाद चखा था ? कुछ पल का ही सही ! पर सिहरन तो हुई ही थी ...

    ReplyDelete
  18. जाएगा जब यहां से कुछ भी न साथ होगा
    दो गज़ कफ़न का टुकडा तेरा लिबाज़ होगा:(
    तो फिर क्यों न कहें- दुक्खड़म मिच्छामी

    ReplyDelete
  19. अशोक जी , बहुत सही कह रहे हैं ।
    अच्छा किया पाण्डे जी , बात को ग़ज़ल में कहकर मुहर लगा दी । सुन्दर ग़ज़ल के लिए आभार ।
    राहुल जी , उन्हें भी अक्ल आ जाएगी ।

    ReplyDelete
  20. ताऊ जी , क्या कहें , अब हमने तो शिष्टता की कसम खा ली है ।

    ReplyDelete
  21. डॉक्टर साहिब, आदमी अपस्मरा पुरुष, यानि भुलक्कड़, इसलिए अज्ञानी, कहलाता है... नटराज शिव के पैर के नीचे पृथ्वी पर धूलि कण के समान दबा...
    कृष्ण ने भी अर्जुन से कहा कि वो केवल अपने वर्तमान जीवन के बारे में ही जानता था... किन्तु, क्यूंकि परम ज्ञानी कृष्ण उसके साथ आरम्भ से थे, (अर्थात ब्रह्मा के नए दिन के आरम्भ से), वो उसके भूत को भी जानते थे...

    अर्थात क्यूंकि प्रत्येक प्राणी में परमेश्वर का ही अंश (परम ज्ञानी आत्मा) विद्यमान तो है, किन्तु योगमाया के कारण, अर्थात आत्मा के विभिन्न कार्यक्षमता वाले नवग्रह के सार (सौर-मंडल के नौ सदस्यों, सूर्य से शनि तक के सार) से बने शरीर के साथ, 'मूलाधार चक्र अथवा बन्ध' में मंगल ग्रह के सार (श्री गणेश, विघ्नहर्ता) के साथ, योग द्वारा कुंडली मारे लिपटे सर्प के समान लेटा हुआ... जिसके फन के ऊपर परमज्ञान है, और जो सहस्रार चक्र अथवा बन्ध' तक पूरा तभी पहुँच सकता है जब व्यक्ति विशेष तपस्या / साधना द्वारा (चंचल मन को स्थिर कर) 'कुंडली जागरण' कर पाए... अर्थात विभिन्न शक्ति पीठ पर केन्द्रित, भंडारित शक्ति और सूचना को एकत्र कर अपने मस्तिष्क अर्थात सहस्रार तक पहुंचा दे...
    डिजाइन के अनुसार मानव या तो देवता है (परोपकारी है) या राक्षस है (स्वार्थी है)...
    आप का डॉक्टर होने के नाते देवता होना आवश्यक है, जो शत प्रतिशत केवल सैट युग में ही है (कलियुग में २५% वाला पास!)... जिसका अनुमोदन मिश्र जी ने भी किया... आपको बधाई!...

    किन्तु वर्तमान कलियुग होने के कारण आप भी जानते हैं कि सभी डॉक्टर देवता स्वरुप नहीं हैं, अधिकतर 'राक्षस' अधिक देवता कम मात्रा में हैं... और यह आज तो लगभग हम सभी पर, किसी भी क्षेत्र में कार्यरत पर, लागू है...
    किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम हार मान लें... प्रयास करते रहना आदमी का धर्म है, और गीता में कृष्ण ने भी हताश अर्जुन को ज्ञान दिया थ,,, शायद हमारे बाहरी चक्षु साधारण अथवा सूरदास समान (धृतराष्ट्र समान भी किसी किसी का 0) बंद होने पर भी हमारा तीसरा साधारणतया बंद अथवा अधखुला नेत्र पूरा खुल जाए, कृष्ण के दिव्य चक्षु समान :)

    ReplyDelete
  22. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  23. मैं आपके साथ हूँ भाई जी !
    काश आपकी बात सब मान लें तो हिंदी ब्लॉग जगत आनंदमय न हो जाए ! लोगों को उनकी भूल का अहसास कराना यहाँ अपराध माना जाता है चाहें आप कितने ही स्नेह से क्यों न समझाने का प्रयत्न करें ! अगर स्नेह और अपनापन को बिना शक लोग समझ लें तो फिर समस्या ही नहीं है !
    " यह आया मुझे समझाने ! " का भाव यहाँ कुछ अच्छा नहीं होने देता ...काश लोग प्रतिद्वंदिता न कर एक दूसरे की संगति में आनंद लें, सुख महसूस करें !
    हार्दिक शुभकामनायें !

    ReplyDelete

  24. बेहतरीन लोग भी यहाँ बिना आपको ध्यान से समझे पढ़े, आपके बारे में, मन में आपका एक व्यक्तित्व निर्माण कर लेते हैं और तुरंत अपनी कडवी प्रतिक्रिया उगल देते हैं !

    और जब जवाब में वैसी ही प्रतिक्रिया मिले तब अपने कष्ट का वर्णन करते हैं !

    हम दूसरे के दर्द को समझाने का प्रयत्न किये बिना अच्छे मित्र या हितैषी कैसे साबित हो सकते हैं ?

    शुभकामनायें आपको !

    ReplyDelete
  25. जे सी जी , अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बात मान उनका अनुसरण किया था . इसीलिए सफल हुए .
    बाकि कलियुग तो है ही . यहाँ देवता होने की उम्मीद लगाना नासमझी होगी . लेकिन इन्सान तो बना जा ही सकता है .

    लोगों को उनकी भूल का अहसास कराना यहाँ अपराध माना जाता है चाहें आप कितने ही स्नेह से क्यों न समझाने का प्रयत्न करें --एक दम दुरुस्त बात कही है सतीश जी .

    ReplyDelete
  26. दराल जी ,
    एक दिन हीर भी इन दीवारों में गुम हो जाएगी .....
    यहाँ भी कई बार भविष्यवानियाँ हो चुकी हैं ....
    एक शक्तिशाली भूकंप की .....
    इस बार तेज तो काफी था पर यहाँ नुक्सान नहीं हुआ ....
    पर हमें हर दुसरे तीसरे महीने झटके लेने की आदत हो गई है अब ....
    अभी मैं सोच ही रही थी की इस बार भूकंप आये को काफी दिन हो गए
    और जनाब हाजिर हो गए .....:))

    ReplyDelete
  27. बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

    ReplyDelete
  28. ब्लोगिंग में लोग अपना कीमती समय व्यर्थ न कर सार्थक बातों में लगायें ।
    बस यही अपेक्षित है

    ReplyDelete
  29. सच में ईर्षा द्वेष करने से सबसे बड़ा नुकसान खुद का ही है....दराल जी ........सारगर्भित आलेख

    ReplyDelete
  30. हरकीरत जी, ३० दिसंबर, १९८२, पूर्णमासी का दिन था... मैं गौहाटी (अब गुवाहाटि) अपने कार्यालय में दूसरी मंजिल के कमरे में बैठा था... लंच टाइम था... लगभग सभी लोकल अफसर खाना खाने घर चले गए थे...
    ठीक दो बजे इमारत इतनी जोर से हिली कि मेरी कुर्सी मुझे झुलाने लगी दांये-बांये, और जब मुझे लगा मैं फर्श पर गिर जाऊंगा वो फिर से वापिस सीधी हो गयी !!! जान में जान आई!
    मेरे एक सीनियर तभी घबराए से आये और बोले "भूमि कम्पो आही सिले"! लेकिन फिर केवल मुझे पा अंग्रेजी में वोही बात दोहराई...
    चार बजे फिर ऐसी आवाजें आयीं जैसे दूर से घुड़सवार दौड़ हमारी ओर आ रहे हों! खिड़की से मैंने देखा लोग घर से निकल बाहर आ रहे थे, और फिर झटका महसूस हुवा...
    फिर छह बजे भी एक झटका महसूस हुआ...
    यह देख मैंने सोचा अब आठ बजे भी आ सकता है... घर पहुँच पत्नी और बच्चों ने भी अपने अनुभव बताये..मेरी पत्नी तो बाहर नहीं भागी... जबकि अन्य सभी घरों से पडोसी बाहर भाग के निकल आये थे, और मेरी पत्नी को भी भागने को कहा था... किन्तु आर्थराईटिस के कारण उसने सोचा गिर के ही टांग न तुडाले...जो होगा देखा जाएगा!
    खैर ८ बजे कोई झटका नहीं आया :)
    अगले दिन समाचार पात्र में पढ़ा कि कोई जान-माल की हानि नहीं हुई... केवल एक व्यक्ति भूचाल के इतिहास से घबरा पहली मंजिल से खिड़की से कूद टांग तुड़ा बैठा!

    ReplyDelete
  31. डॉक्टर साहिब, गीता के (कर्मयोग) अध्याय ३ के केवल दो श्लोक ४२-४३ ही नीचे दे रहा हूँ -

    "कर्मेन्द्रियाँ जड़ पदार्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, मन इन्द्रियों से बढ़कर है, बुद्धि मन से भी उच्च है और वह (आत्मा) बुद्धि से भी बढ़कर है"
    "इस प्रकार हे महाबाहु अर्जुन! अपने आपको भौतिक इन्द्रियों, मन, तथा बुद्धि से परे जान कर और मन को सावधान आध्यात्मिक बुद्धि (कृष्णभावनामृत) से स्थिर करके आध्यात्मिक शक्ति द्वारा इस काम-रुपी शत्रु को जीतो "...

    ReplyDelete
  32. हरकीरत जी , आशा है जे सी जी की बातें पढ़कर अब डर कम हो गया होगा ।

    ReplyDelete
  33. सही कह रहे है डॉ साहब,यही जीवन है-सच है.

    ReplyDelete
  34. एक शख्स जूते वाले की दुकान पर डिमांड कर रहा था ऐसा जूता चाहिए जिसकी कम से कम दो साल चलने की गारंटी हो...

    शख्स जूता लेकर बाहर निकला, सड़क पर पहुंचा कि तेज़ रफ्तार ट्रक ने उसे कुचल दिया...

    आदमी की खुद की एक मिनट की गारंटी नहीं, और वो नादान जूते की गारंटी मांग रहा था..

    जय हिंद...

    ReplyDelete
  35. @ खुशदीप जी, मुझे भी याद आगया वो केस!
    उसमें ट्रक चालाक को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गयी थी... किन्तु सज़ा को सुनते ही उसकी ह्रदय=गति रुकने से देहांत हो गया था :(

    जय माँ जगदम्बा!

    ReplyDelete
  36. हमने तो पहले हि प्राण किया हुआ है एक बार फिर दोहरा लेते है आज से ब्लोगिंग में कोई ईर्ष्या द्वेष वाली बात नहीं करेंगे. बहुत सही सन्देश.

    ReplyDelete
  37. सार्थक प्रयास है ब्लागजगत को साफ सुथरा बनाये रखने के लिये । साधुवाद ,धन्यवाद और आभार।

    ReplyDelete
  38. जे सी जी , और खुशदीप --दोनों उदाहरण हार पल याद रखने लायक हैं ।

    ReplyDelete
  39. डॉ0 साहब, लोग ही तो हैं, फिर अपनी आदत से कैसे बाज आ जाएं। :)
    ------
    मनुष्‍य के लिए खतरा।
    ...खींच लो जुबान उसकी।

    ReplyDelete
  40. absolutely right..
    life is too unpredictable these days.. Anything can happen.
    Its wise appreciate good instead of depreciating bad.

    ReplyDelete
  41. डॉक्टर साहिब, आज तो २७ रुपये के लिए आप के हरयाणा के गुडगाँव में एक टोल नाका वाला बेचारा मामूली कर्मचारी मारा जा सकता है तो कह सकते हैं कि अब तो भगवान् / खुदा भी जान के अनजान, पत्थर दिल ही, होगया होगा :(
    और आप अभी भी यह मानते हो कि घोर कलियुग अभी नहीं आया :(

    भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र,. जहां प्रति वर्ष मोंनसून हवाएं ऐसे खिंची जाती हैं जैसे वहाँ कोई शक्तिशाली मैगनेट हो जो लोहे को आकर्षित करता है (अथवा एक ब्लैक होल जो तारों को खींच लेता है), एक माना हुआ कामाख्या माँ / विष्णु का मूलाधार शक्ति पीठ है... और यहाँ अम्बुवाची (बादलं से सम्बंधित) मेले में भारत के सभी तांत्रिक भी बादलों के साथ खिंचे आते हैं...

    और बताना आवश्यक न होगा कि इतनी जल्दी हम भूल नहीं सकते कि सिक्किम निवासियों ने कभी सपने में भी न सोचा होगा कि ऐसी शक्ति धरती से निकलेगी जो क्षण में सब भूगोल और सिक्किम निवासियों / भारत देश का भी भाग्य बदल देगी!

    हम तो भाई माँ जगदम्बा से सबको सद्बुद्धि देने की प्रार्थना करते हैं!

    ReplyDelete
  42. 'भारत' में वैदिक काल वर्तमान में क्रिस्चियन युग के आरंभ से छः सदी पूर्व समाप्त हुआ और बौद्ध और जैन धर्म का आरम्भ हुआ...
    'भगवान्' बुद्ध, अर्थात राजकुमार सिद्धार्थ को - राज कुमार राम के समान, जो बनवास के दौरान पंचवटी में वटवृक्ष की छाया में निवास किये, किन्तु धर्मपत्नी सहित? - सोने की राजगद्दी को छोड़, किन्तु परिवार का त्याग कर (वटवृक्ष की जाति के) 'बोधी वृक्ष' की छ्या में वर्षों (आठ वर्ष?) बैठ 'सत्य' का बोध हो गया! बौद्ध धर्म 'भारत' से आरम्भ कर भारत के चारों फ़ैल गया, और क्या यह आश्चर्यजनक / संकेत नहीं लगता कि वटवृक्ष समान बौद्ध धर्म भारत में कम हो यहाँ 'हिन्दू', अर्थात 'सनातन धर्म' का फिर से जन्म हो गया जबकि यह अन्य देशों में फैला रहा..

    और शायद इसका 'पतन' हिमालय के तिबत से दलाई लामा के चीन के दबाव से भारत पलायन ससे आरम्भ कर, हिन्दुकुश पहाड़ में 'बामयान बुद्ध' की विशाल प्रतिमाओं के खंडन से सांकेतिक रूप से आरम्भ हो गया...और पूर्व में म्यांमार में वहाँ कि सरकार और बौद्ध भिक्षुओं के बीच युद्ध और 'भारत' की सरकार के एक मूक दृष्टा समान चुप रहना, जापान में पूर्वी फुकुशीमा क्षेत्र में भूचाल और सुनामी से अहुई हानि ने हिला के रख दिया :( इत्यादि इत्यादि...

    और, गीता में योगेश्वर कृष्ण ने मानव को उल्टा वृक्ष बताया, जिसकी जड़ किन्तु पृथ्वी में न हो, आकाश में हैं (चंद्रमा में जो शिव के मस्तक पर दिखाया जाता है पवित्र, माँ गंगा के साथ?)... जिस कारण पृथ्वी झटके देती रहती है समय समय पर - याद दिलाने को कि यात्रा मूल से मूल तक की है, सो अपने मूल को याद करो, सभी जीव की माँ,जगदम्बा, को, महाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वती को !

    ReplyDelete
  43. भरोसा एक पल का नहीं , मंसूबे बनाने बैठे हैं उम्र भर के ।
    जो पल अभी है , उसे यूँ ही बर्बाद कर रहे हैं , फालतू की बातों में।
    सामान सौ बरस का पल की खबर नहीं .नकारात्मक विचारों का अंत नहीं .व्यर्थ चिंतन पर रेस्पोस्न्स से व्यर्थ चिंतन ही उपजता है .बेहतर है रेस्पोंस ही न दिया जाए .डॉ दराल के सकारात्मक विचार जीवन की गुणवत्ता और सरसता बनाए रखने के लिए बहुत ज़रूरी हैं क्योंकि औसत उम्र मेरी आपकी ८० बरस भी हो सकती है सवाल क्वालिटी ऑफ़ लाइफ का .

    ReplyDelete
  44. सच कहा है डाक्टर साहब ... पर इंसान कितनी जल्दी भूलने लगता है .. इतने बड़े हादसों को भी सबक नहीं बन्ने देता ...

    आपको और परिवार को नव रात्री की मंगल कामनाएं ..

    ReplyDelete