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कुछ दिन पहले भाई अविनाश जी का फोन आया -डॉ साहब आपको समारोह में ज़रूर आना है ।
मैंने जानना चाहा कि भाई इसमें हमारा क्या रोल रहेगा । कहने लगे बाहर से बहुत से लोग आ रहे हैं , ब्लोगर्स को पुरस्कार दिए जायेंगे, फिर चाय पानी होगा, साढ़े छै बजे से दूसरा कार्यक्रम है । तद्पश्चात रात्रि भोज का आयोजन है ।
मैंने फिर प्रश्न किया --लेकिन इसमें हमारा रोल क्या रहेगा ?
यही बात अविनाश जी समझा नहीं पाए । यही समझ आया कि बस मिलना जुलना होगा ।
खैर हमने खुद ही हिसाब लगाया कि इस तरह के कार्यक्रम में तीन तरह के लोग होते हैं ।
एक वो जो विशिष्ठ अतिथि होते हैं , उन्हें मंच पर बिठाया जाता है ।
दूसरे वो जिन्हें सम्मानित करने के लिए निमंत्रित किया जाता है ।
और तीसरे वो जिन्हें ऑडियंस में बैठकर तालियाँ बजाने के लिए आमंत्रित किया जाता है ।
अब हमें निमंत्रण तो मिला नहीं था ।
अविनाश भाई ने आमंत्रित ज़रूर किया था ।
लेकिन आमंत्रण पर जाना तो हम बहुत पहले छोड़ चुके । इसलिए जाने का कोई औचित्य तो था नहीं ।
लेकिन एक और खास वज़ह भी थी जाने की । बहुत से ब्लोगर साथी जिनसे ब्लॉग पर तो गुफ्तगू होती रहती थी लेकिन उनसे मिले कभी नहीं थे , समारोह में उपस्थित होने थे । उनसे मिलने का लालच हमें रोक नहीं पाया जाने से ।
साढ़े छै के बाद जब हम पहुंचे तो पता चला कि कार्यक्रम तो कुछ देर पहले ही शुरू हुआ था । सम्मान समारोह चल रहा था ।
जाते ही दिनेश राय द्विवेदी जी नज़र आए तो उन्होंने ने हमें और हमने उन्हें पहचान लिया और बैठने के लिए साथ मिल गया ।
लेकिन माहौल में कुछ टेंशन साफ नज़र आ रहा था । और जब भाषणबाजी शुरू हुई तो राजनीति की बातें शुरू हो गई । ऐसे में हमने तो खिसक लेना ही उचित समझा । बाहर आकर शुरू हुआ ब्लोगर्स साथियों से मिलने का सिलसिला ।
सबसे पहले ललित जी की नज़र पड़ी । बड़े आदर सहित मिलना हुआ । संजीव तिवारी जी कैमरा लिए तैयार खड़े थे । उनसे भी पहली बार मिले ।
इस बीच खुशदीप सहगल मिले तो बोले -अरे सर बैक बेंचर बन कर बैठे हो ।
हमने कहा भाई कंपनी के लिए द्विवेदी जी तो हैं ना ।
लेकिन वो किसी परेशानी में थे और जल्दी से निकल लिए ।
उद्देश्य तो लोगों से मिलना था । कितने ही लोगों से मिले पहली बार --कुमार राधारमण जी , जाकिर अली रजनीश , अवधिया जी , पाबला जी , निर्मला जी , संगीता पुरी जी , रतन सिंह शेखावत जी, जय कुमार झा जी से मिलना हुआ ।
राजीव तनेजा , वर्मा जी , शाहनवाज़ , विनोद पांडे सहित और भी युवा ब्लोगर्स से तो पहले भी मिलना हो चुका है ।
पाबला जी जाने क्यों देर तक दो सीट की जगह घेरे बैठे रहे । अंतत : हमें उन्हें फोन कर बुलाना पड़ा । आधुनिक तकनीक का भी कितना यूज और मिसयूज होता है । तीन चार पंक्तियाँ आगे बैठे पाबला जी को हमने एस टी डी कर के बुलाया और उनको भी रोमिंग का किराया देना पड़ा ।
किसी ने एक मासूम से नज़र आने वाले सुन्दर चुस्त तंदुरुस्त नटखट से युवक से मिलवाया और पहचानने के लिए कहा । देखकर कुछ पहचाना सा तो लगा लकिन फिर कुछ शक हुआ तो हमने उसके डोले शोले हाथ लगाकर देखे तो फ़ौरन पहचान गए । अरे यह तो महफूज़ अली थे । एक दम बच्चे से । फोटो में कितना अलग दिखते हैं सब ।
इसी तरह मिलना जुलना चलता रहा ।
लेकिन एक बात साफ नज़र आ रही थी । लोगों के चेहरों पर हंसी नज़र नहीं आ रही थी ।
हम डॉक्टर्स के कोई भी कार्यक्रम होते हैं तो औपचारिक कार्यक्रम के बाद सब प्यार से गले मिलते हैं और खूब हंसी मज़ाक चलता है ।
दो अवसर तो ऐसे होते हैं जिन पर डॉक्टर्स अपने प्रतिद्वंदियों से भी बड़े प्यार से गले मिलते हैं । एक होली पर और दूसरे मेडिकल एसोसिएशन की पार्टियों में ।
सब ऐसे गले मिलते हैं जैसे बरसों से बिछड़े यार मिल रहे हों ।
दिल से दिल भले ही ना मिले , लेकिन पेट से पेट तो मिलते ही हैं ।
क्या करें अधिकांश डॉक्टर्स के भी पेट जो निकले होते हैं ।
लेकिन ब्लोगर्स मीट में गले मिलने की रिवाज़ नहीं है । इसलिए हमें भी सावधानी बरतनी पड़ी ।
आजकल माहौल ही कुछ ऐसा है कि न जाने कौन क्या सोच ले ।
पुरुषों के मुकाबले महिलाएं ज्यादा रिलेक्स्ड नज़र आ रही थी ।
संजू तनेजा जी , संगीता जी , निर्मला जी और सुनीता शानू जी जिनको हम बाद में ही पहचान पाए , मुस्कराती हुई ही नज़र आई ।
इस बीच अविनाश जी से भी मिलना हुआ । लेकिन उनके चेहरे पर उडती हवाइयों को देखकर हमें आभास हो गया कि मामला कुछ गड़बड़ है । इसलिए हैलो भी होले से ही हुई ।
एक तरफ किताबों की दुकान लगी थी , जैसे कोई पुस्तक मेला लगा हो ।
कार्यक्रम के संयोजक रविन्द्र प्रभात जी अति व्यस्त नज़र आ रहे थे । वैसे भी उनसे कभी मिलना नहीं हुआ , न प्रत्यक्ष में न ही ब्लोग्स पर । वहां भी न राम राम , न दुआ सलाम ही हो पाई ।
इस बीच टोपी पहने अजय कुमार झा ने अपना परिचय दिया तो पहचाना ।
जाते जाते श्री अशोक चक्रधर जी से भी मुलाकात हो ही गई ।
कुछ ऐसे मित्र भी रहे जिनसे मिलना न हो सका । किन्ही कारणों से वे आ नहीं पाए होंगे जिनमे श्री राजेन्द्र स्वर्णकार जी , अरविन्द मिस्र जी , काजल कुमार जी, रूप चंद शास्त्री जी, और राकेश कुमार जी प्रमुख थे ।
राजेन्द्र जी से तो एक महीने पहले ही मिलने की बात हो गई थी । लेकिन परिस्थितिवश उनका आना संभव न हो पाया । अरविन्द जी का भी पहले ही पता चल गया था कि नहीं आने वाले ।
काजल कुमार जी तो आकर भी चले गए ।
रूप चंद शास्त्री जी सीट पर ही बैठे रहे , इसलिए मुलाकात नहीं हो पाई ।
संगीता स्वरुप जी भी जाने क्यों हमें दिखाई नहीं दी ।
अंत में हमने भी खा ( हवा ) पीकर ( चाय) सोचा --आ अब लौट चलें ।
लेकिन यही समझ में नहीं आया कि यह समारोह ब्लोगर्स के लिए था या ब्लोगर्स के माध्यम से आयोजकों ने अपना कोई विशेष कार्य सिद्ध किया था ।
मिलने जुलने को छोड़कर , बाकि हालात पर कई सवाल ज़ेहन में उठ खड़े हुए जो इस सम्मेलन में अवशेष के रूप में रह गए हैं और जिनका ज़वाब आपको ढूंढना है ।
नोट : इस कार्यक्रम के आयोजन में अविनाश वाचस्पति और रविन्द्र प्रभात की मेहनत की दाद देनी पड़ेगी ।
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अयोजकों ने जो भी किया हो मगर हमे सब से मिल कर बहुत खुशी हुयी। अफ्सोस यही है कि अधिक बातचीत नही हो पाई। शुभकामनायें।
ReplyDeleteखा पीकर हवा और चाय ( व्यंग्य) , प्रमुखों से आपकी मुलाकात हो नहीं पायी ।चलो चक्रधर से तो मुलाकात हुई। गले मिलने का रिवाज नहीं है अच्छा है।’’कोई हाथ भी न मिलायेगा तो गले मिलोगे तपाक से, ये अजीव किस्म का शहर है जरा फासले से रहा करो। कल हीे सोच रहा था कि मेरा पेट बढने लगा है किसी डाक्टर को दिखाउ। उम्दा संस्मरण और लेखन शैली की तो बात ही निराली है सर ।
ReplyDeleteचलिए इसी बहाने बहुत से लोगों से मुलाकात तो हो ही गयी ... जाना सफल रहा ...
ReplyDeleteमैं भी कुछ ब्लॉगरों से मिलने की लालसा लिए ही गया था। मैं जानता था कि आप मुझे पहचान ही नहीं सकते क्योंकि मेरी तस्वीर तो नेट पर है नहीं। इसलिए पहचानना मुझे ही था। पहचाना भी। बहुत सी बातें थीं करने की पर भीड़ और समय प्रबंधन के कारण संभव न हो सका। फिर सही। शुक्रिया आपकी सादगी और सलाहियत के लिए।
ReplyDeleteडॉ. साहब दाद ?
ReplyDeleteनिक्सोड्रम भी चाहिए होगी
या कोई और बेहतर हो इससे
जो उड़ रही थीं
वो हवाईयां नहीं
हवाईयों को चेहरे पर अपने
पर जमने नहीं देते
बस जिस कार्य में जुटते हैं
जुटते हैं शान से
आपने आमंत्रण का मान रखा
बहुत खुशी हुई
यही जीत है मेरी।
पूरा आलेख पढ़ा। बहुत ही इमानदारी और निर्भीकता से लिखा है आपने। पढ़कर यही लगा की शायद की कुछ अपनेपन की कमी थी .
ReplyDeleteवहां और लोग असहज थे , जहाँ गले लगकर ठहाके न हों , वहाँ उत्सव सी रौनक नहीं आ पाती ।
खैर थोड़ी बहुत कमी तो हर जगह रह ही जाती है , उम्मीद है अगली बार और भी भव्य और बेहतरीन आयोजन होगा।
पुनश्च , आयोजकों एवं पुरस्कार पाने वालों को बधाई ।
.
एक गीत याद अगया,
ReplyDelete"जीवन के सफ़र में राही
मिलते हैं बिछड़ जाने को
और दे जाते हैं यादें
तन्हाई में तडफाने को..."
:)
ReplyDeleteअविनाश जी आयोजक को सर दर्द तो होता ही है । और बुके मिले ना मिले , ब्रिक बैट्स ज़रूर मिलते हैं ।
ReplyDeleteफिर भी आपका प्रयास सराहनीय है । बाकि अनबुझे सवाल तो रहेंगे ही ।
दिव्या जी , मिलने मिलाने के लिए इस तरह के आयोजन उपयुक्त नहीं होते । क्योंकि यहाँ सभी अपने आप में खोये से होते हैं । और औपचारिक कार्यक्रम में समय भी कम मिलता है ।
ReplyDeleteमिलने के लिए छोटे छोटे समूह में मिलना ज्यादा सही है ।
शायद मिलने को ज्यादा अहमियत भी हमी ने दी ।