अस्पताल के आपातकालीन विभाग के द्वार के बाहर शहतूत का एक पेड़ है । आजकल यह पेड़ पके शहतूत से लदा पड़ा है । छोटे आकार के हलके और गहरे चॉकलेट ब्राउन रंग के शहतूत देखकर ही मूंह में पानी आ जाता है ।
अक्सर वहां से गुजरते हुए इस पेड़ पर नज़र पड़ते ही अपने बचपन के दिन याद आ जाते हैं जब गाँव में नीम की पकी निम्बोली तोड़ तोड़ कर खाते थे । माइक्रो साइज़ के आम जैसी पकी निम्बोली बड़ी रसीली होती थी ।
याद आते हैं वो कंटीली झाड़ियों सी बेरी के बेर --छोटे छोटे लेकिन बेहद स्वाद ।
और वो जंगली झाड़ियाँ जिनमे गोल गोल छोटी छोटी जामुन जैसी --पलपोटन लगी होती थी ।
कितने मज़े से तोड़ तोड़ कर खाते थे ।
अब चाहकर भी पके शहतूत तोड़ नहीं सकते । आखिर बड़े हो गए हैं भाई , शायद बड़े आदमी ।
शहरी , सभ्य , सुशिक्षित !
आखिर मर्यादा भी तो कोई चीज़ होती है ।
रसीले शहतूत हवा के झोंके के साथ ज़मीन पर टपकने लगते हैं ।
कभी कभी ज्यादा पकने पर बिना झोंके के भी अपना स्थान छोड़ पृथ्वी पर अवतरित हो जाते हैं ।
और लीन हो जाते हैं माटी में अपना वज़ूद भूलकर ।
रौंद दिए जाते हैं , आने जाने वालों के पैरों तले ।
शायद यह शहतूत के पेड़ का ही कसूर है --वह क्यों उपजा इस सभ्य सुशिक्षित समाज में ।
ज़मीन पर शहतूत बेजान से पड़े हैं-- लहू लुहान !
लेकिन इनका लहू लाल नहीं है । काली हो गई है सारी ज़मीन ।
लेकिन यह छोटा बच्चा छोटा ही है । न पढ़ा लिखा , न सभ्य समाज का नागरिक । परन्तु यह कर क्या रहा है ?
अरे यह तो शहतूत इक्कट्ठे कर रहा है चुन चुन कर ।
सोचता हूँ वह उनका क्या करेगा ।
हाईवे पर अक्सर बच्चों को जामुन बेचते देखा है --पांच या दस रूपये में एक डोंगा भरकर ।
ऐसे ही इकठ्ठा करते हैं और खुद खाने की बजाय बेच देते हैं उनको बच्चे ।
क्या यह बच्चा भी---?
आखिर कब तक देश का बचपन भूखा रहेगा ?
कब तक ? ?
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आदरणीय दराल साहिब,
ReplyDeleteबहुत मार्मिक सत्य है.
शहर में बचपन बदल जाता है,
हर चीज़ की तरह पैसे में ढल जाता है.
लेकिन गाँव की तस्वीर अब भी वैसी ही है.
शुक्र है मैं पहाड़ में हूँ.
आज भी बेर,जामुन,आम,अमरुद का स्वाद चख लेता हूँ.
.
ReplyDeleteएक अच्छी पोस्ट
आपके प्रश्न का उत्तर तो इँडिया शाइनिंग वाले दे सकते हैं ।
bhaaijaan atynt snvednshil muddaa uthaaya he shaayd hm oraap koshish kren to kuchh faayda mil jaaye . akhtar khan akela kota rajsthan
ReplyDeleteमन को झकझोर देने वाला ,मार्मिक लेख ...
ReplyDelete"बच्चों में ही मानवता का उच्चादर्श पनपता है
देश वही हँस पाता है जिस देश का बचपन हँसता है '
आपके प्रश्न का उत्तर तो हम सब ढूंढ रहे हैं ..
ReplyDeleteप्रभावशाली पोस्ट.
बचपन में बहुत सारे शहतूतों के पेड़ों के बीच था घर, बहुत खाए। आज भी याद आते हैं। अब तो सारे ही पेड़ कट गए हैं।
ReplyDeletevqkt kee maar padhi hai shahtoot par........
ReplyDeletebahut badiya maarmsparshi prastuti..
sensitive issue asar chod gaya...
ReplyDeleteआपके प्रश्न ने मन को झकझोर दिया !
ReplyDeleteयह एक ऐसा सच है जो हमारी संवेदना को छूकर कुछ करने को प्रेरित करता है !
आभार !
मगर सत्ता पर काबिज लोगों को इससे क्या लेना-देना!
ReplyDeleteमहत्वपूर्ण पोस्ट , कष्टदायक सवाल ...और जवाब अनुत्तरित ! हमें खुद अपने ऊपर भरोसा नहीं कि कब तक ..??
ReplyDeleteशुभकामनायें !!
उत्तर-विहीन प्रश्न, फिर भी तलाश जारी है | सार्थक पोस्ट, आभार ....
ReplyDelete"आखिर कब तक देश का बचपन भूखा रहेगा ?
ReplyDeleteकब तक ??"
जब तक इंसान हकीकत से मुह मोड़कर भेड़ चाल चलेगा, डा० साहब, जो हम अभी वर्ल्ड कप के बाद देख रहे है! और यह सदियों से चलता आया है और आगे भी चलेगा !
मुझे तो मकोय की भी याद आ गयी !:)
ReplyDeleteआप लाभदायक जानकारी देते हैं .
ReplyDeleteआज आपके ब्लॉग का लिंक 'ब्लॉग कि ख़बरें ' ब्लॉग पर लगाया जा रहा है .
http://blogkikhabren.blogspot.com/
यह मकोय क्या चीज़ है अरविन्द जी ?
ReplyDeleteजब मैं अपने बच्चों से कह रहा था कि अपने घर में भी शहतूत का पेड थे तो वो पूछने लगे--
ReplyDeleteशहतूत... वो क्या होता है।
सभ्य समाज में
ReplyDeleteदिखते हैं रोज
ऐसे
नज़ारे भी
बच्चे
बेचते हैं
जामुन,शहतूत
और गुब्बारे भी।
मार्मिक पोस्ट ...बच्चे खुद खाने के बजाये बेच कर कुछ पैसा कमाना चाहते हैं ..छोटे छोटे बच्चे अपने घर कि ज़िम्मेदारी को निबाहते हैं ...आपने अनुत्तरित प्रश्न पूछ लिया है
ReplyDeleteये दौलत भी ले लो, ये शौहरत भी ले लो,
ReplyDeleteभले छीन लो मुझसे मेरी जवानी,
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन,
वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी...
कभी रेत के ऊंचे टीलों, पे जाना,
घरौंदे बनाना, बनाके मिटाना,
वो मासूम चाहत की तस्वीर अपनी,
वो ख्वाबों खिलौनों की ज़ागीर अपनी,
ना दुनिया का गम था, ना रिश्तों का बंधन,
बड़ी खूबसूरत थी वो ज़िन्दगानी...
ये दौलत भी ले लो, ये शौहरत भी ले लो...
जय हिंद...
पोस्ट को पढना शुरू किया तो शहतूत के पेड , नीम की निम्बोली , बेर से लदे पेड आँखों के सामने से गुजर गए और अपने बचपन की यादें ताजा हो गयी ...मगर जब इस बच्चे के बारे में सोचा तो , कितना संयम होता है इन बच्चों में ...
ReplyDeleteऐसे ही संक्रांति के दिन जान की बाजी लगा कर लूटी हुई पतंगे बेचते छोटे बच्चे नजर आ जाते हैं ...
देश का बचपन कब तक भूखा रहेगा ...प्रश्न झकझोरता है !
कुछ लोग रसभरी को भी मकोय कहते हैं.वैसे मकोय छोटा गोल फल है जो पेट की बीमारियों के लिए काफी मुफीद है.जब तक हमारी संस्कृति में ढोंग -पाखण्ड का बोल-बाला रहेगा तब तक तो बचपन भूका ही रहेगा. हम आप यो ही चिंता करते रहेंगे ,शायद कभी सभी जाग्रत हो जाएँ और सन्मार्ग पर चलने लगें तभी इसका भी निदान हो जाएगा.
ReplyDeleteशहतूत से पेट नहीं भरता----अच्छा है बेच कर रोटी तो खरीद सकता है...चोरी-बे ईमानी-लूट( जो आजकल के पढे लिखे भरे पेट बच्चे कर रहे हैं) से तो अच्छा है....
ReplyDeleteआखिर कब तक देश का बचपन भूखा रहेगा ?
ReplyDeleteडॉ साहेब आपने तो यक्ष प्रशन रख दिया है ...
बस हरदय को मज़बूत कर ....... सोचते रह जाईये...
"...आखिर कब तक देश का बचपन भूखा रहेगा ? ..."
ReplyDeleteजब तक यह पापी पेट है? किन्तु भूख केवल पेट ही की नहीं होती जानते हैं सभी... बचपन ही नहीं बुढापा भी भूखा है?!
अब मैं कुछ नहीं कहूँगा प्राचीन ज्ञानीयों ने तपस्या कर क्या पाया!
वाकई शहतूत के बहाने से आपने झकझोर दिया!
ReplyDeleteभरण पोषण का जुगाड जैसे भी हो.
ReplyDeleteबालपन का अभाव केवल बच्चे की पीड़ा नहीं है। नींव का लगातार खोखला होता जाना भविष्य के प्रति आशंकित करता है।
ReplyDeleteजब तक 'ए राजा' जैसे गुंडे रहेंगे , तब तक देश के मासूम ऐसे ही भूखे रहेंगे।
ReplyDeleteवह क्यों उपजा इस सभ्य सुशिक्षित समाज में ।
ReplyDeleteयह 'क्यों' तो शाश्वत सा बनता जा रहा है
धन्यवाद माथुर जी ।
ReplyDeleteडॉ गुप्ता , यह पक्ष भी सही है । लेकिन सोचता हूँ कि कैसा लगता होगा उस बच्चे को जो खुद खाने की बजाय किसी दूसरे को देता होगा । आखिर बच्चा तो बच्चा ही होता है ।
bahut marmsparshi post. gareeb baccho ka bachpan aisa hi hota hai unhe shehtoot bechkar roti ka jugad karna hai apne chhote behen bhaiyon ke liye. vo hi uski praathmikta hai.
ReplyDeleteसही सवाल उठाये हैं आपने....
ReplyDeleteशर्म से सर झुक जता है...छोटे बच्चों की ऐसी हालत देख.
@मकोय है -Solanum nigrum
ReplyDeleteजी कई बार मैं भी यही सोचती हूँ ....
ReplyDeleteनाले के किनार से जिस साग भाजी को हम छी: कहकर नहीं तोड़ते वही जब ये बच्चे तोड़ कर बाज़ार में बेचते हैं तो हम खरीद कर ले आते हैं .....