एक तरह ठीक भी था । यदि बाघों को लुप्त होने से नहीं बचाया गया तो आने वाली पीढियां उन्हें सिर्फ तस्वीरों में देख पाएंगी । शायद यह सब का मिला जुला प्रयास ही था कि आज बाघों की संख्या २९५ बढ़कर १७०६ हो गई है ।
लेकिन इसके साथ ही एक और चिंताज़नक समाचार आया कि बाघों के रहने के लिए जंगली क्षेत्रों की कमी हो गई है । इसका कारण है , मनुष्य द्वारा काटे जाने वाले जंगल और वृक्ष ।
अब खतरा हो गया है कि यही बाघ कहीं रिहायशी इलाकों में घुसकर जान और माल का नुकसान न कर दें ।
अब यदि बाघ आदमखोर बन गए तो आदमी का भी बाघखोर बनना निश्चित है ।
वैसे भी चीनी लोग तो बाघ के अंगों से न जाने कितनी तरह की दवाएं बनाते हैं ।
ज़ाहिर है , बाघों को मनुष्य से बचाने के लिए और मनुष्य को बाघों से बचाने के लिए पर्यावरण को बचाना आवश्यक है ।
और यह प्रयास हो भी रहा है । अब आप किसी भी पेड़ को बिना अनुमति लिए नहीं काट सकते ।
भले ही पेड़ की वज़ह से खुद आपकी ही जिंदगी खतरे में क्यों न पड़ जाए ।
अब ज़रा यहीं देखिये :

अब यहाँ भी देखिये :

डिवाईडर से करीब ४ फुट अन्दर इस पेड़ से टकराकर कम से कम एक कार क्षतिग्रस्त हो चुकी है । जिस तरह से टक्कर लगी थी , कहना मुश्किल है कि उस ड्राइवर का क्या हुआ होगा ।
क्या सचमुच पेड़ों को बचाए रखना इतना आवश्यक है कि चाहे इंसान की जान चली जाए , पर पेड़ न जाए ?
या कोई रास्ता है जिससे कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे ?
चिकित्सा क्षेत्र में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि यदि शरीर का कोई अंग इतना गल या सड़ जाए कि उससे सारे शरीर में ज़हर फैलने का खतरा हो जाए और जान पर बन आए तो उस अंग को काट दिया जाता है ।
यह बात पर्यावरण पर क्यों नहीं लागु होती ?
ज़रा सोचिये ज़रूर ।
पर्यावरण को बचाने के लिए हर सम्भव प्रयास किया जाना चाहिए।
ReplyDeletelagoo hona chahiye .........
ReplyDeleteडा० साहब, अभी भी शेर इस देश की प्रति व्यक्ति कुल मानव आवादी के (१७०६/१२१ करोड़ )= ०.००००००१४०९ बैठता है ! और हम लोग उनकी इतनी सी तादाद पर ही डरने लगे ? जैसा कि आपने कहाँ भी कि शायद यह पिछले साल किये गए सभी लोगो के प्रयास का परिणाम है कि उनकी आवादी २०० से थोड़ा ज्यादा बढ़ गई, अगर यही प्रयास हम निरंतर रखे तो इंसानों की जंगलों में घुसपैठ पर लगाम लगाईं जा सकती है ! डा० साहब, शहरों में जो इक्का दुक्का पालतू पशु दीखते है, हम मानव उन्हें "आवारा पशुओं" की संज्ञा देते है ! और चूँकि वे हम मानवो की आवादी में घुसे बैठे है इसलिए उन्हें गिरफदार कर, मारकर, कहीं दूर भेजकर अपने लिए मार्ग प्रशस्त करते है ! लेकिन जब इंसान इन शेरों और जंगली जानवरों के रिहायश में घुसपैठ करता है, तो वहा आवारा इंसान है और जानवरों को भी पूरा हक़ है कि वे उनके साथ भी वही सुलूक करे जो उनके खिलाफ आवादी में घुसने पर होता है !
ReplyDeleteवैसे दोनों ही पेड़ों की हिम्मत की दाद देता हूँ ! एक वह जो इस जालिम दुनिया और प्रकृति के हजार जुल्मो-सितम सहने के बाद भी अपने को खडा रखने की जी तोड़ कोशिश कर रहा है, और दूसरा वह जो बेहूदी ड्राइविंग की मार झेलकर भी तनकर खडा है !वैसे डा० साहब, आपने अक्सर देखा होगा की रात को पुलिस वाले सड़कों पर जो वैरियर लगाते है उसे ड्यूटी ख़त्म होने के बाद ज्यों का त्यों सड़क पर छोड़ जाते है, मजेदार बात यह है कि उनसे ज्यादातर कोई भी वाहन चालाक नहीं टकराता !
और जैसा कि आपने अंत में कहा, " यह बात प्रयावरण पर क्यों लागू नहीं होती '" तो मैं यह कहूंगा डा० साहब, कि वह बात प्रयावरण पर भी लागू होनी चाहिए लेकिन दूसरे अंदाज में, उस अंदाज में नहीं, जिस अंदाज में हमारे डाक्टर लोग चाहते है :) बल्कि इस अंदाज में कि जब इंसान प्रयावरण के लिए इस तरह नासूर बन जाए तो उसका क्या अंजाम होना चाहिए ! आज अगर मेरे पास एक फ़्लैट है और मेरे दो बच्चे है, तो मैं इसे चिंता में दुबला हुए जा रहा हूँ कि अभी से उनके लिए भी दो और फ्लैटों का इंतजाम करके रखु , मगर यह नहीं सोचता कि जिन जंगली जानवरों का घर उजाड़कर हम करकरीत के जंगल अपने लिए बसा रहे है उनके बच्चों का क्या होगा ?
उम्मीद है आप मेरी इस असहमति को अन्यथा नहीं लेंगे !
शेर से जंगल और जंगल से शेरों की रक्षा होती है.
ReplyDeleteगोदियाल जी , आपकी बात सौ प्रतिशत सही है । पर्यावरण की रक्षा में ही वन्य जीवन की रक्षा है और मानव जाति की भी ।
ReplyDeleteलेकिन क्या लकीर के फ़कीर बने रहना सही है ।
यदि एक शुभ काम से दुसरे काम में बाधा पहुंचे तो कोई उपाय तो ढूंढना पड़ेगा । ताकि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे ।
हल भी है --एक पेड़ काटो तो दस लगाओ ।
पर्यावरण की रक्षा होनी ही चाहिए पर यदि वो किसी की मौत्त का सामान बन जाय तो उसे नष्ट करना ही अक्लमंदी है !
ReplyDeleteबात शायद बाघ की हो रही है मगर मुद्दा महत्वपूर्ण है !
ReplyDeleteआँखे खोलता हुआ लेख ! फोटो बहुत अच्छे लगे !हार्दिक शुभकामनायें !
ReplyDeleteजी अरविन्द जी , बाघ की ही बात कर रहे हैं । बाघ को ही बोल चाल की भाषा में शेर कहते हैं ।
ReplyDeleteआप छोटी छोटी बातों को लेकर बहुत सही विषय उठाते है....धन्यवाद !!ठीक है पर्यावरण संरक्षण आवयशक है पर जान की कीमत पर नही!एक के बदले अनेक पेड़ लगा कर काफी कुछ भरपाई की जा सकती है !बाधा बने पेड़ों को तो काटना ही उचित है....
ReplyDeleteअच्छा लगा आपके विचार जानकर ..
ReplyDelete‘यदि शेरों को लुप्त होने से नहीं बचाया गया तो....
ReplyDeleteगज़ल कहा जाए:)
अगर राह में कहीं रोड़ा अटकने पर वृक्ष काटना आवश्यक हो तो काटे जा सकते हैं, पर उपयुक्त स्थान पर वृक्ष लगाने में कोताही नहीं बरतनी चाहिए।
ReplyDeleteकाटने के पश्चात वृक्ष न लगाना शर्मनाक है। सभी मौसम में वृक्षों की आवश्यकता होती है। वृक्ष लगाने हेतु कड़ाई की जानी चाहिए।
vichaar karne ki aavashyakta hai.......
ReplyDeleteविचारणीय आलेख.
ReplyDelete@बाघ --टाईगर
ReplyDeleteशेर - लॉयन
दोनों जानवरों में थोडा अंतर है ...
पर्यावरण को बचने का प्रयास तो करना ही चाहिए , मगर इन तस्वीरों की तरह नहीं !
विकासशील देशों में चौड़ी होती सड़कों के लिए पेड़ों की कटाई करनी अवश्यक हो तो एक पेड़ के स्थान पर दस पेड़ लगाने का आपका विकल्प ज्यादा बेहतर है !
अगर कहीं इंसानी जान बचाने के लिए मजबूरी वश पेड़ों को काटा भी जाए तो उससे ज्यादा या कम से कम उतने ही पेड़ उसकी जगह कहीं ओर अवश्य लगाए जाने चाहिए...
ReplyDeleteडॉ दराल साहब ,
ReplyDeleteयह ठीक बात नहीं है कि बाघ को बोलचाल में शेर कहा जाय -ऐसा कहा भी नहीं जाता ..
हम इस गलती को सुधारने में कम से कम तीन दशक से एडी चोटी एक किये हुए हैं और हर
जगह इस बात का प्रतिवाद करते हैं -टोक जरुर देते हैं !
बाघ और शेर अलग प्रजातियां है इनके नाम के घाल मेल से इनकी पहचान करने में भी भ्रम उत्पन्न होता है ,
मैं अक्सर यह कहता हूँ कि हमारा कितना दुर्भाग्य कि हम अपने बड़े वन्य पशुओं को पहचान तक नहीं पाते
उनका संरक्षण क्या करके कर पायेगें ...
जबकि बाघ हमारा राष्ट्रीय पशु है और १९७१ तक शेर हमारा रास्ट्रीय पशु था -
यह बुद्धिजीवियों तक में व्याप्त वह निंदनीय भूल है जिसके चलते एशियाड तक का हमारा शुभंकर था तो बाघ मगर कह दिया गया शेरू !
यह एक गंभीर बात है -बाघ धारियां लिए होता है नर शेर के अयाल होते हैं मतलब मुंह के पीछे बड़े बाल !
बहुत विनम्र अनुरोध है की भविष्य में कृपा कर इस तरह के भूल की पुनराव्रत्ति न करें -इससे गलतफहमी बढ़ती जाती है !
@पुनश्च
ReplyDeleteअब देखिये आपके शेर कहने से टिप्पणियों में बाघ का आंकड़ा शेर के लिए जा रहा है और नेट पर यह अक्षम्य गलती पहुँच कर विस्तारित हो रही है -अनुरोध है मूल पोस्ट में सुधार कर लें !
इंडिया के तिरंगे झंडे में बीच में सफ़ेद के ऊपर नीला चक्र है,,,इसे हम संयोग कहें या कुछ अन्य आधुनिक 'कलयुग' की सोच, सूर्य की किरणें दूधिया सफ़ेद हैं और उसकी उपस्तिथि में आकाश नीला (असत्य) दिखता है...किन्तु हम शायद जानते हैं कि साकार कि उपस्तिथि के लिए आवश्यक पंचभूतों में से एक, 'आकाश', यानि, अनंत अंतरिक्ष काला (कृष्ण) है,,,जैसा वो रात्रिकाल में भी दिखता है और जब सुनहरा रंग लिए चन्द्रमा (इंदु) का उस पर राज्य होता है, जो कह सकते हैं सत्य को दर्शाता है,,,और शायद इस कारण प्राचीन 'भारत' में 'हिन्दू' (जिन्होंने चन्द्रमा के चक्र के आधार पर दिन और मास कि गणना की) के लिए सुनहरे शरीर पर काली धारियां लिए बाघ का महत्त्व अधिक माना गया (माँ दुर्गा का वाहन माना उसे)...'सही' या 'गलत' सिक्के के दो पहलू हैं एलॉपैथी का सही होमेओपैथी का उलट हो सकता है...और यदि कोई छू कर ही आपके कष्ट का निवारण कर सकता है तो आप क्या ओपेरेशन टेबल पर लेटोगे?
ReplyDelete.
ReplyDeleteजो चित्र आपने दिखाए हैं , उसमें सड़कों पर पेड़ों की उपस्थिति सैकड़ों road-accidents को निमंत्रण दे रही है । ऐसे में पेड़ों का काटा जाना ही बुद्धिमानी है । इसकी भरपाई कोई मुश्किल तो नहीं । बगल में दिख रहे divider पर करीने से अनेक वृक्षों का रोपण किया जाना चाहिए।
सड़क पर दिख रहे दो पेड़ इसलिए नहीं बचे हैं की इन्हें पर्यावरण बचाने के लिए छोड़ा गया है । ये तो मात्र निठल्लापन है , कामचोरी है । कोई मरे-जिए , इनका क्या जाता है ।
वैसे डॉ दराल आप दिल्ली में रहते हैं , इस मुद्दे पर त्वरित एक्शन लीजिये । मित्रों के साथ मिलकर पहले divider पर वृक्षारोपण करवाइए फिर वाहन चालकों की सुरक्षा हेतु वृक्ष कटवाइए।
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अरविन्द जी , लो जी कर दिया ठीक ठाक ।
ReplyDeleteलेकिन मेरे ख्याल से तो :
टाइगर = बाघ
लायन = सिंह
और शेर --टाइगर और लायन--दोनों के लिए इस्तेमाल करते हैं ।
अब ज़रा यह भी बताएं कि बब्बर शेर को अंग्रेजी में क्या कहते हैं ?
अब असल बात पर आते हैं । दरअसल हरयाणवी लागों को हर बात मिसाल देकर कहने की आदत होती है । हमने भी शेर / बाघ की मिसाल देकर पर्यावरण की सुरक्षा का ज़िक्र किया है ।
अरविन्द जी , इस विषय पर आपकी टिप्पणी का अभी तक इंतजार है ।
क्या कोई रास्ता है जिससे कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे ?
आप सही कह रही हैं दिव्या जी ।
ReplyDeleteवैसे डिवाईडर में नए पौधे लगाये जा चुके हैं । और यहाँ कई पेड़ हटा भी दिए गए । लेकिन इसी को छोड़ दिया गया । जाने क्यों ?
पेड़ पर्यावरण की सुरक्षा के लिए हैं और पर्यावरण हमारे लिए। पर्यावरण की सुरक्षा को पेड़ विशेष से जोड़ने वाला विभाग जड़ ही कहा जाएगा। ठीक है कि पेड़ों में भी जान है और उनसे ही हमारा अस्तित्व है,मगर मनुष्य की जान की तुलना पेड़ की जान से नहीं की जा सकती। ऐसे जानलेवा पेड़ों के की अनदेखी के लिए ज़िम्मेदार लोगों पर ज़ुर्माना लगाना एक उपाय प्रतीत होता है।
ReplyDeleteयहां तो सब काम ही ऐसे हो रहे है कि सांप भी मर रहा है और लाठी भी टूट रहीं है।सही भी है आत्म रक्षार्थ आदमखोर का शिकार होगा ही। क्या जरुरी है कि सडक के किराने ही दरख्त लगाये जायें । र्प्यावरण जरुरी है मगर शरीर का अंग दुखदायी हो जाये उसको काटना ही वहतर है।अब प्रगति होगी सडकंे भी बनेगी खेल के मैदान भी बनेंगे । मगर और भी तो बहुत जगह है पेड लगाने को पेड तो हर हालत में लगाये ही जाना चाहिये ।
ReplyDeleteविचारणीय आलेख.सार्थक पोस्ट पर्यावरण बचाने की एक मुहीम ...
ReplyDeleteयहाँ तो बहुत ही विकट समस्या है....ऐसी स्थिति आने पर तो पेड़ काटने ही पड़ेंगे, पर मुश्किल ये है कि लोग ऐसे बहाने भी बना लेते हैं...पर्यावरण के सम्बन्ध में जागरूकता बहुत जरूरी है.
ReplyDeleteबिल्कुल ऐसा ही पेड़ मेरे सेक्टर के बाहर भी सड़क के बीचो-बीच है...वहां शनिदेव की मूर्ति स्थापित है...यहां रात को कई बार गाड़ियां चबूतरे से टकरा चुकी हैं...लेकिन जहां आस्था का सवाल आ जाए वहां अधिकारी भी कार्रवाई करने से डरते हैं...
ReplyDeleteजय हिंद...
@ खुशदीप जी
ReplyDeleteश्रृष्टि की रचना से सम्बंधित प्राचीन हिन्दुओं के 'बीज मन्त्र ब्रह्मनाद' के सन्दर्भ में सूर्य से और 'उसके पुत्र' शनि से भी प्रसारित होती ध्वनियों को वर्तमान में 'पश्चिम' के वैज्ञानिकों ने भी रिकॉर्ड कर लिया है! सूर्य (ब्रह्मा?) से निकलती ध्वनि को तार-यंत्र हार्प समान पाया है और इस लिए जन्म से हिन्दू आज समझ सकता है कि क्यों हिन्दू अनादि काल से माता सरस्वती को सफ़ेद साडी में, जैसी उससे प्रसारित होती किरणें सफ़ेद हैं, और हाथ में वीणा लिए दर्शाते आ रहे हैं :) और शनि (सुदर्शनचक्र धारी विष्णु?) से निकलती आवाज को घंटियों की टुनटुन, चिड़ियों की चहचहाट, और ढोल की मिश्रित आवाज़ सा, जो शायद समझने में सहायक हो कि क्यूँ 'हिन्दू' मंदिर में घंटी और ढोल आदि बजाये देखे जाते हैं (यानि यह दर्शाता है कि प्राचीन हिन्दुओं की पूजा आदि आस्था के पीछे उनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण था!)...
पुनश्च - पहले भी कहीं मैं लिख चुका हूँ कि वृक्ष कि आयु उसके अंदर प्राकृतिक रूप में बने 'ऐन्युलर रिंग' से जानी जाती है,,,जितना पुराना उतने अधिक छल्ले,,, जिसे शायद जान वार्षिक 'बट सावित्री' पूजा के माध्यम से विवाहित स्त्रियाँ वृक्ष के चारों ओर परम्परानुसार रिंग समान धागे बांधते देखे जाते हैं,,,और ब्राह्मण लोग जनेऊ धारण करते हैं रक्षाबंधन के दिन...
ReplyDeleteparishthiti ke anusaar niyam me chhoot honaa chaahiye
ReplyDeleteखुशदीप , आपने एक और सवाल उठाया है । कभी इस पर भी लिखने का मन है । आस्था के नाम पर हम कितने धर्म भीरु हो जाते हैं , इसका सचित्र वर्णन । बस थोडा इन्तज़ार ।
ReplyDeleteआभार डॉ साहब ,
ReplyDeleteबबर शेर ,सिंह और शेर एक ही हैं -
बाकी मुद्दे पर तो पंचों की राय आ ही गयी है !
मैं और आप नहीं थे (?) जब यह पृथ्वी आग का गोला थी,,,फिर हवा-पानी से यह ठंडी हुई और पहला जीव साधाराण बेक्टीरिया के रूप में आया (?),,,यानि सूक्ष्माणु का ही राज्य था आरम्भ में जो उत्पत्ति के साथ श्रंखला बद्ध तरीके से साधे चार अरब वर्षों में शायद केवल कुछ लाख वर्ष पहले ही मानव के हाथ आ गया,,,किन्तु अज्ञानता वश और कुछ छोटी मोटी सफलता हासिल कर उससे उपजे घमंड के कारण (यह जानते हुए भी कि मानव मस्तिष्क में उपलब्ध अरबों सेल होते हुए भी आधुनिक मानव केवल नगण्य का ही उपयोग कर सकता है) अब उसके हाथ से भी छिनने वाला प्रतीत होता है (?),,,जिस कारण पर्यावरण विशेषज्ञ परेशान तो नज़र आ रहे हैं किन्तु क्या वो कोई ऐसा उपाय ढूँढने मैं सक्षम होंगे जो सभी देशों को मान्य हो? और क्या आम (धर्मभीरु? और पहलवान? दोनों) आदमी यह सब देखते हुए भी लाचार दृष्टा ही रह जाएगा? समय ही बतायेगा (शायद खाली पृथ्वी को?)...
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