आज फिर प्रस्तुत हैं , कुछ नज्में -जिंदगी से जुडी हुई :
१) रिक्शाचालक
वह गाँव से दूर
महानगर में आकर
साईकलरिक्शा चलाता ।
दस घंटे बहाकर पसीना
रोज
१५० रुपल्ली कमाता।
पचास गुल्लक में
घर का महीना ,
पचास
रोज का हफ्ता ,
और पचास को खा 'पीकर'
उसी रिक्शे पर
मज़े से सो जाता ।
२) भिखारिन
वह
दुबली पतली
अल्हड़ कमसिन सी
रोज उसी चौराहे पर
तीन छोटे भाई बहनों के
हाथ पकड़कर
हाथ फैलाती
लाल बत्ती पर खड़ी
लम्बी गाड़ियों के
मालिकों के सामने ।
कोई एक रुपया देता
कोई फटकार
वह आगे बढ़ जाती
उछलती
कूदती फांदती
झलकते
वक्षस्थल को
घूरती , ललचाई
वहशी नज़रों से बेखबर ।
अब उसके हाथों में
एक नन्हा शिशु
आ गया है ।
उसकी
फिर से गर्भवती हो गई
मां
बेवक्त
नानी बन गई है ।
३) वेश्या
वह रोज सवेरे
लहला धुलाकर
सजाती संवारती
नन्ही सी जान को ।
और बिठा देती
स्कूल के रिक्शा में
एक अच्छा
नागरिक
बनाने की चाह में ।
फिर
नहा धोकर
खुद सजती,
संवारती
अपने जिस्म को
और बैठ जाती
काम के इंतजार में ।
इंतजार जो
काम का कम
आराम का अधिक
किन्तु
कभी न ख़त्म होने वाला ।
स्कूल के रजिस्टर में
एक कॉलम
अभी तक खाली पड़ा है ।
बच्ची रोज पूछती है
मां से
अपने पिता का नाम ।
नोट : हम कुँए के मेंढक हैं । अपनी ही दुनिया में मस्त रहते हैं । बाहर निकलकर देखें तो दुनिया के कितने अनजाने रंग दिखाई देते हैं ।
Friday, April 8, 2011
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sachhai ko vyakt karti hui sateek rachna....
ReplyDeleteगली-सड़कों का सच.
ReplyDeleteराहुल सिंह की बात दोहराता हूँ गली सड़कों का सच ...
ReplyDeleteअपनी मस्ती में जीते हम लोग और जगह महसूस करना तो दूर उनके बारे में सोंचना तक पसंद नहीं करते ..:-(
शुभकामनायें आपको !
सच्चाई तो यही है,
ReplyDeleteइसे सिर्फ कुछ नजरे ही देख पाती है।
निर्मम सच बयाँ करती पंक्तियाँ...
ReplyDeleteसचमुच ये भी ज़िन्दगी के ही रूप हैं.
हमारे बीच का ही आदमी,हमारे बीच की ही भेड़िया!
ReplyDeleteयथार्थ चित्रण है यह मानव द्वारा मानव के शोषण का,जिसका विरोध हम अपने ब्लॉग पर लगातार करते हैं.
ReplyDeleteस्कूल के रजिस्टर में
ReplyDeleteएक कॉलम
अभी तक खाली पड़ा है ।
बच्ची रोज पूछती है
मां से
अपने पिता का नाम ।
मेरा भारत महान !
डा० साहब, आपने अपनी मार्मिक कविता में चूँकि यह जिक्र छेड़ा है, और बात चली है इसलिए बताना उचित समझता हूँ कि जिस कंपनी में नौकरी करता हूँ, उसकी वजह से ( मॉन्ट्रियल बेस्ड है) और अपने बहुत से परिचितों के कनाडा में बसे होने की वजह से वहाँ के बारे में थोड़ा बहुत जानकारी रखता हूँ ! आप भी कदाना घूमे हुए है तो शायद आपको भी यह जानकारी होगी मगर आपके पाठकों को बताना चाहूँगा कि वहाँ का मॉन्ट्रियल प्रांत जो फ्रेंच भाषी है, वहाँ परम्परा के मुताविक बच्चे के वर्थ सर्टिफिकेट पर पिता का नहीं, माँ का नाम लिखा जाता है ! दूसरी तरह अगर आप टोरंटो के इन्ग्लिश भाषी क्षेत्र की तरफ चले जाइए तो वहाँ बच्चे के सर्टिफिकेट पर न माँ का नाम मिलेगा न बाप का , वहाँ बच्चे को एक इंडीपेंडेंट इंटीटी समझा जाता है ! कहने का आशय यह कि आप बच्चे के बर्थ सर्टिफिकेट से उसके माँ-बाप का पता नहीं लगा सकते !
क्षमा चाहता हूँ, कनाडा की जगह कदाना टाईप कर दिया !
ReplyDeleteहर बार की तरह शानदार प्रस्तुति
ReplyDeleteसभी शब्दचित्र बहुत बढ़िया हैं!
ReplyDeleteतीनों रचनाओं में यथार्थ का बेहतरीन चित्रण ।
ReplyDeleteJC जी की टिप्पणी कब आएगी । आपके ब्लॉग पर सिर्फ उन्हीं की टिप्पणी का इंतज़ार करती हूँ।
ReplyDeleteबच्ची रोज पूछती है
ReplyDeleteमां से
अपने पिता का नाम ।
अब इसकी ज़रूरत नहीं है... अब तो मां का नाम दर्ज करना काफ़ी है।
गोदियाल जी , प्रशाद जी --हर बच्चे को अपने पिता का नाम जानने का हक़ है । इसीलिए तो तिवारी जी को भी कोर्ट के चक्कर लगाना पड़ रहा है ।
ReplyDeleteकनाडा में भले ही पिता का नाम न लिखते हों । लेकिन फिर भी हर बिन ब्याही मां को उसके बच्चे के पिता का नाम पता होता है ।
दुर्भाग्य तो उन बच्चों का है जो संतान भी होते हैं तो कॉकटेल पिताओं की । फिर भी समाज में सर उठाने की कोशिश करते हैं ।
ओह ..आज कि तीनों रचनाएँ यथार्थ को कहती हुई ..मार्मिक चित्रण ..
ReplyDeleteजीवन की निर्मम सच्चाईयां ये भी हैं ...
ReplyDeleteलालबत्ती की दुनिया यही है .......
ReplyDeleteएक कॉलम
ReplyDeleteअभी तक खाली पड़ा है ।
बच्ची रोज पूछती है
मां से
अपने पिता का नाम ।
इन्हीं सच्चाईयों के करीब चल रही है आधी दुनिया...
यथार्थ को कहती हुई तीनों रचनाएँ..मार्मिक चित्रण ..
ReplyDeleteयथार्थ का चित्रण करती तीनो रचनाये ह्रदयस्पर्शी हैं।
ReplyDelete.
ReplyDeleteइन प्रसँशनीय कविताओं के सँग यह नोट लगाने की आवश्यकता क्यों आन पड़ी, डॉक्टर साहब ?
वैसे आपकी बात से मैं भी इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ ।
इन कविताओं का मैं एक संकलन जरुर देखना चाहूंगा ?
ReplyDeleteसहज सपाट कवितायें -समाज के समान्तर !
ओह ..जिंदगी की कड़वी सच्चाइयां दिखाती हुई रचनाये..
ReplyDelete१५० रुपल्ली कमाता।
ReplyDeleteपचास गुल्लक में
घर का महीना ,
पचास
रोज का हफ्ता ,
और पचास को खा 'पीकर'
उसी रिक्शे पर
मज़े से सो जाता ।
सिर्फ १५० ...?
नहीं डॉ साहब मेरे ख्याल से ये रोज़ ५००,६०० तो कमाते हैं ....
अभी दो दिन पहले मैंने एक अंगूर बेचने वाले को कार से छुप छुप कर रुपये गिनते देखा ...करीब ३००० गिने होंगे उसने ..
अगर उसमें से १००० का भी माल हो तो २००० या १५०० की कमाई इनकी रोज़ की है ....
पर आज जितनी महंगाई है ये भी कम पड़ जाते हैं ....
वक्षस्थल को
घूरती , ललचाई
वहशी नज़रों से बेखबर ।
अब उसके हाथों में
एक नन्हा शिशु
आ गया है ।
उसकी
फिर से गर्भवती हो गई
मां
बेवक्त
नानी बन गई है ।
अभी हाल ही में मैं ऐसी ही एक कमसिन लड़की को देख सोच रही थी की ये कितने दिन बची रहेगी ....
उसने वक्षस्थल के ऊपर से कपड़ा बांध रखा था (उम्र १४,१५ ) सड़क किनारे पड़े कचरे को बिन रही थी ...
और आस पास खड़े लोगों की आँखें बरबस उठ जाती थी उसकी और ....
स्कूल के रजिस्टर में
एक कॉलम
अभी तक खाली पड़ा है ।
बच्ची रोज पूछती है
मां से
अपने पिता का नाम ...
तीनों नज्मों को देख आपकी संवेदनशीलता का पता चलता है ...
कई बार तो ऐसे दृश्य सोचने पर विवश करते हैं कि ये हमसे ज्यादा सुखी हैं या हम इनसे .....
----बडी पुरानी कहानियां हैं डाक्टर साहब,सब जानते हैं एक जमाने से.... हम कब तक सिर्फ़ कहते रहेंगे, सिर्फ़ संवेदना दिखा कर वाह वाही लूटते रहेंगे ---क्या समाधान होना चाहिये ये कब बतायेंगे ।
ReplyDelete---हरकीरत जी ने सही कहा..ये लोग भी खूब कमाते हैं अपितु एक साधारण नौकरी करने वाले मिडिल क्लास से अधिक और इन की झौंपडियों में टीवी, फ़्रिज भी मिल जायेगा....यदि इन्हें कोई मकान भी देदिया जाय तो उसे बेच कर फ़िर झोंपडी बसा लेंगे--क्योंकि वहां न बिजली का -पानी का न किराया देना होता है सब बचत ही बचत...
डॉ अमर कुमार जी , बस यूँ ही --emphasize करने के लिए ।
ReplyDeleteअरविन्द जी , प्रश्न सूचक चिन्ह क्यों लगा दिया ?
हरकीरत जी , १५० हो या १५००--एक ही बात है । यहाँ बात है एक साधारण से आदमी की --महीना , हफ्ता , पीना --ये तीन शब्द जिसके लिए बड़े महत्त्वपूर्ण हैं । शायद वह उसमे भी खुश है ।
ReplyDeleteएक डॉक्टर होने के नाते उम्र के साथ तन और मन में होने वाले बदलाव को अच्छी तरह समझते हैं । और लोगों की मानसिकता को भी । बहुत अफ़सोस होता है देखकर । मानव प्रवृति बड़ी दुष्ट भी हो सकती है ।
डॉ गुप्ता , बेशक एक डॉक्टर होने के नाते आप और हम यह अच्छी तरह समझते हैं कि वेश्यावर्ती समाज में सबसे पुराना व्यवसाय है । लेकिन इसी से जुडी नई मुसीबतें भी उत्पन्न हो रही हैं जैसे-- एड्स ।
ReplyDeleteकिसी भी समस्या के समाधान में सबसे पहला कदम होता है --उसके बारे में बात की जाये ।
अन्ना हजारे ने भी तो यही किया और कुछ तो सफलता मिली ही ।
इसे सिर्फ संवेदना दिखाकर वाह वाही लूटना कहना सही नहीं है ।
फिर हमने तो बस एक नज़्म लिखने का प्रयास किया है ।
देखा है ज़िन्दगी को, कुछ इतने करीब से.... सुन्दर कवितायें.
ReplyDeleteशहीद हर किसी को अच्छे लगते हैं, लेकिन पड़ोसी के घर में...
ReplyDeleteसमाज के दोगलेपन को नंगा करती सशक्त रचनाएं...
जय हिंद...
पंक्तियाँ यथार्थ का चित्रण करती हैं.निर्मम सच को..ह्रदयस्पर्शी
ReplyDeleteरिक्शाचालक,भिखारिन और वैश्या का अनोखा अंदाज प्रस्तुत किया आपने .
ReplyDeleteशानदार रचना के लिए आभार.
..यथार्त चित्रण ।
ReplyDeleteऔर पचास को खा 'पीकर'
ReplyDeleteउसी रिक्शे पर
मज़े से सो जाता ।
गहरे चिंतन से -
भरा है आपका लेखन ......
आसपास जो दिखता है -
निश्चित ही व्यथित कर देता है मन ......!!
Hardhayshparsi...
ReplyDeleteteeno rachnaye sach me jindgi ka kadva sach bayan karti hui bahut marmik chitran karti hui.
ReplyDeleteaabhar.
तीनों रचनाएँ बेहतरीन..आज के यथार्थ को बहुत सटीकता से चित्रण किया है...बहुत मार्मिक..
ReplyDeleteदिव्या जी , जे सी जी तो सचमुच कहीं व्यस्त हो गए लगते हैं । आशा करता हूँ कि स्वस्थ होंगे ।
ReplyDeleteबेहद संवेदनशील....ऐसी दृष्टी...
ReplyDeleteसभ्य सुसंस्कृत दुनिया का एक चेहरा ऐसा भी है....
सादर...
बेहतरीन,बेहद संवेदनशील,सुन्दर कवितायें
ReplyDeleteयथार्थ का सुन्दर चित्रण...
ReplyDeleteसशक्त और सार्थक रचना..