लगभग पौने दो करोड़ आबादी वाला दिल्ली शहर।
इसे पंडितों की मेहरबानी कहें या हमारा विश्वास , शादियों के लिए वर्ष में गिने चुने दिन । नतीजा , एक दिन में हजारों शादियाँ । कभी कभी एक दिन में तीन तीन शादियों के निमंत्रण ।
शादियाँ भी अब गली के नुक्कड़ या पार्क में नहीं , बल्कि ३०-३५ किलोमीटर दूर किसी फार्म हाउस में । जाने में ही लगे दो घंटे का समय । यदि ट्रेफिक जाम में फंस गए तो सारा मज़ा किरकरा ।
पहले तो निमंत्रण पत्र देखकर ही आप सकते में आ सकते हैं ।
आजकल शादी के कार्ड नहीं छपवाए जाते , बल्कि डिजाइनर पैक बनवाए जाते हैं , जिसमे एक तरफ आधा किलो बादाम , दूसरी ओर सिल्क के कपडे में लिपटा असंख्य पर्तों वाला कार्ड , जिसमे कम से कम चार दिन का प्रोग्राम बुक होता है ।
सिल्क का कपडा भी इतना कि उसमे किसी आधुनिका की दो तीन जोड़ी ड्रेस बन जाएँ ।
पुरुषो को तैयार होने में सिर्फ दस मिनट लेकिन महिलाओं को चाहिए दो घंटे ।
इस पर विडंबना यह कि फार्म हाउस की खुली हवा में थ्री पीस सूट में भी ठण्ड से ठिठुरने लगते हैं दिसंबर की सर्दी में ।
लेकिन मात्र एक साड़ी में लिपटी शुद्ध भारतीय नारी स्वेटर या शाल को हाथ पर लटकाए मज़े से चटकारे लेकर चाट पापड़ी खाती नज़र आयेंगी ।
इधर मेन गेट पर बैठे शहनाई वाले या तबलची ढोलक बजाएं , उधर स्टेज के पास बना डी जे का फ्लोर और चिंघाड़ता हजारों वाट का म्यूजिक सिस्टम हिंदी फिल्मों के लेटेस्ट हिट सोंग्स परोसता हुआ ।
आप चाहें भी तो किसी से बात करने की जुर्रत नहीं कर सकते ।
वैसे भी आजकल कौन किस से बात करने में दिलचस्पी रखता है ।
रही सही कसर बरात में छूटने वाली चाइनीज आतिशबाजी पूरी कर देती है ।
खाने की ओर देखें तो बड़े से बड़ा विद्वान भी चकरा जाए कि क्या खाएं , क्या न खाएं ।
उत्तर भारतीय , दक्षिण भारतीय , चाइनीज , कॉन्टिनेंटल , इंटर कॉन्टिनेंटल , यहाँ तक कि एक्स्ट्रा टेरेस्ट्रियल व्यंजनों की कतार देखकर समझदार भी असमंजस में पड़ जाएँ ।
हलवाई की पूरी दुकान देखकर डायबिटिक्स भी अपनी बीमारी भूल जाएँ ।
रात के खाने में तीन रोटियां खाने वाले सीधे सादे प्राणी को ३०० व्यंजन देखकर अपने गरीब होने का अहसास होने लगता है ।
अंत में यदि आपको अपने मेज़बान के दर्शन हो जाएँ और आप अपना लिफाफा सौंपने में कामयाब हो जाएँ तो जीवन कृतार्थ लगने लगता है ।
ऐसी होती हैं दिल्ली की शादियाँ ।
ज़ाहिर है , मेहमान कितने ही हों , लेकिन देखकर यही लगता है कि इस तरह की शादियों में खाना बहुत बचता होगा । मैंने एक केटरर से पूछा कि वो इस बचे हुए खाने का क्या करते हैं ।
उसने बताया कि वो इसे फेंक देते हैं ।
अब ज़रा सोचिये यदि वह सच बोल रहा था तो यह कितना भयंकर सच होगा ।
जिस देश में अन्न पैदा करने वाला किसान भूख और क़र्ज़ के बोझ से मर जाता है , वहां खाने की ऐसी बेकद्री !
और यदि वह झूठ बोल रहा था तो , उस खाने का क्या होता होगा , यह सोचकर ही दिल कांपने लगता है ।
यदि आपको पता चल जाए कि उस बचे हुए खाने का क्या होता है तो शायद आप शादियों में खाना खाना ही छोड़ दें ।
नोट : शादियों के मौसम में अगली पोस्ट में पढना न भूलें , शादियों के चटपटे अनुभव , हास्य कविता के रूप में ।
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Delhi kee Shadi ke bahane aapne shadiyon ka yatharth chitran prastut kar diya hai .... ...jis tarah se log thaliyon mein khana chhod leti hai aur fenk kar chale jaate, ek pal bhi es anaaj kee ahmiyat nahi samjhte, dekhar man mein ek tees uthti hai... chahte huye bhi kuch n kah paana ajeeb see kashmkash mein ek khattas se man bhi ghar kar jaati hai...
ReplyDelete..sardiyon mein 4 baar Delhi kee shadi attend kee hai lekin thand ke maare bura haal hota hai... khob odhkar dubak kar rahna padta hai...
मज़ा आगया यार डॉ !
ReplyDeleteआज तो पूरी विवाह तैयारियों का पोस्ट मार्टम कर दिया ...थक गए होगे अब आइये हँसते हैं ..हा..हा...हा...हा....
बड़े दिन बाद झन्नाटे दार पोस्ट पड़ने को मिली !
सही अनुभव दिलचस्प बयान ...लॉक किया जाए
बाप रे ...हाउ पोश :)..वैसे यहाँ तो ये सब देखने को भी नहीं मिलता.
ReplyDeleteदराल साहेब,
ReplyDeleteदिल्ली वैसे भी दिलदार लोगों की है...शादी का कार्ड जब भी आया है निहायत ही सादा सा रीसाईकिल किया हुआ पेपर होता है...जिसपर बहुत ही साधारण सा आमंत्रण...
हम तो यहाँ किसी शादी में जाते हैं तो ४ कोर्स डिनर पर ही संतुष्ट होकर चले आते हैं...अब हो कांटिनेंटल होता है या इंटर कांटिनेंटल...इस बहस में पड़ने की आवश्यकता ही नहीं होती...क्यूंकि जो मिला है वही खाना है.....शादी की रस्मअदायगी के बाद लोगों के भाषण सुनते हैं ...बहुत हुआ तो डी जे पर नाच लेते हैं और ११ बजे रात तक रवानगी की राय लेते हैं...
सच पूछिए तो वैभव के दर्शन भारत में ही होते हैं...जाने क्यूँ यहाँ लोग हर काम इतने साधारण तरीके से करते हैं...फिर चाहे वो मल्टी मिलिनियर ही क्यों न हो...सुना है वारेन बफेट तक के पास गिनती के कपड़े हैं...और बिल गेट्स को भी कभी ढंग के कपड़ों में नहीं देखा...
प्रेसिडेंट क्लिंटन की बेटी की जब शादी हुई हाल में तो गिनती के लोग आए थे...जबकि प्रेसिडेंट की बुश की बेटी की शादी में ५०० लोग थे...लोगों ने इसी बात पर आँखें तरेर दी कि इतन्न्न्ने लोग ?
अब हम परेशान है कि मेरे बेटे कि जब शादी करेंगे तो क्या करेंगे...:) धोबी के वो हैं जी न ये कर सकते न वो कर सकते....हा हा हा हा ....
हाँ ...बचे हुए खाने की वहाँ शायद रीसईकिलिंग होती हो ...तो आश्चर्य नहीं...
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति...और इंतज़ार है आपकी कविता का...
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ReplyDeleteअरे बाप रे ..!
ReplyDeleteपहले तो छपा ही नहीं हमरा कमेन्ट और अब ३ बार छप गया ..!!
माफ़ी चाहते हैं डागडर साहेब...:):)
""यदि आपको पता चल जाए कि उस बचे हुए खाने का क्या होता है तो शायद आप शादियों में खाना खाना ही छोड़ दें""
ReplyDeleteहा हा पोलखोल जबरजस्त रपट है .. पढ़कर कई लोग शादी की पार्टियों में खाना छोड़ देंगें ... हा हा रोचक संस्मरण आभार
mazedar par sahee khaka kheecha aapne............
ReplyDeletesardee kaise lagegee mahilao ko fir saree zevar jo chup jate hai........
ha ha ha ..........
did par din showmanship badatee hee ja rahee hai.........
dikhave me hee ijjat jo samjhee jatee hai.........
agalee post ka intzar..........
shi khaa jnaab hmari bhanji ki rohini me kdkdaati srdi ka drd hm sh chuke hen . akhtar khan akela kota rajsthan
ReplyDeleteदिल्ली की शादी हमने भी अटेण्ड की है। सच है ऐसी शादी अभी तक दूसरी नहीं देखी। यहाँ एक से एक रईस की भी नहीं। लेकिन शादी का खाना क्या करते हैं इस बात में मैं आप से सहमत नहीं हूँ, क्योंकि मेरे कई परिचित हैं जो ये ही कार्य करते हैं। शादी वाले दिन ही जितना इधर-उधर दे सकते हैं दे देते हैं, बाकि फेंकने में ही जाता है। कोई रिसाइकिल नहीं होता। हाँ मिठाइयां जरूर काम में ली जाती है। वो भी अपने रिश्तेदारों के बाँटने में। उन्हें इतनी फुर्सत ही नहीं कि वे ये सब करें और दूसरे दिन का मीनू बिल्कुल अलग होता है तो कुछ कर ही नहीं सकते। बड़ी शादियों में दो सौं से तीन सौ तक तो उनके ही काम करने वाले रहते हैं इसलिए इतना खाना तो उन लोगों को ही चाहिए। हमने भी कई शादियां की हैं लेकिन खराब होने वाला फेंकने में ही जाता है।
ReplyDeleteडॉ दराल साहब बहुत यथार्थ वर्णन किया है आपने -कुछ सटीक सटायर भी -अभी दिल्ली भ्रमण के दौरान मैंने एक भव्य शादी पंडाल सजते देखा -हम इतना फिजूल खर्ची क्यों करते हैं ?
ReplyDeleteदराल जी ,
ReplyDeleteबड़ा ही सटीक और मनोरंजक चित्र खींचा दिल्ली की शादियों का.
आपके लिए तो शादी के ऐसे दृश्य आम होंगे. मेरी एक दक्षिण भारतीय सहेली के भतीजे ने दिल्ली की पंजाबी लड़की से शादी की. मेरी सहेली के लिए ये सारा तड़क-भड़क बिलकुल नया था .वो आश्चर्य से तीन दिनों तक हमें उस शादी की कहानी सुनाती रही.
हा हा हा ! सतीश जी , बड़े दिनों से हम भी दिल मसोस कर बैठे थे ।
ReplyDeleteअब शादियों पर गुब्बार निकाल रहे हैं ।
आप तो डाक्टर हैं आप ही बतायें कि थ्री पीस की ठंडक के सीजन में भी महिलाएँ बिना स्वेटर के ही कैसे रह पाती हैं.
ReplyDeleteकविता जी , सरिता जी , दिल्ली की सर्दी में ठण्ड से अकड़ जाते हैं यदि फेरों पर बैठना पड़े ।
ReplyDeleteलेकिन सही कहा , महिलाओं को जेवरों की गर्मी मिलती रहती है ।
आजकल शादियों में होते फ़िज़ूल के खर्चों को देखकर दिल बड़ा दुखता है ।
अदा जी , हम भी सिर्फ पचास लोगों की बारात लेकर गए थे ।
ReplyDeleteआज भी मैं यही सोचता हूँ कि शादी में खास खास १५०-२०० से ज्यादा लोग नहीं होने चाहिए ।
लेकिन इस भौतिक युग में दिल्ली जैसे शहर में ५००-१००० लोग जब तक आमंत्रित न किये जाएँ , स्टेटस बनता ही नहीं ।
अजित जी , हाल ही में हमारी सोसायटी में एक शादी के बाद हमने नालियों को खाने से भरा देखा । यदि यही खाना सुबह गेट के बाहर मेज रखकर गरीबों में बाँट दिया जाता तो कितना अच्छा होता ।
फार्म हाउसिज में केटरर का ठेका होता है । उसके पास रोज की बुकिंग होती है । आज का खाना कल , परसों भी इस्तेमाल हो सकता है ।
वहां भी खाने की नुमाइश ही होती है ।
जी हाँ!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया पोस्ट लगाई है आपने!
नये-नये रईस धन का भौंडा पर्दर्शन कर रहे है!
मानों शादी न होकर शवाँग-तमाशा हो!
आपकी पोस्ट की चर्चा कल (18-12-2010 ) शनिवार के चर्चा मंच पर भी है ...अपनी प्रतिक्रिया और सुझाव दे कर मार्गदर्शन करें ...आभार .
ReplyDeletehttp://charchamanch.uchcharan.com/
` शादियों के लिए वर्ष में गिने चुने दिन '
ReplyDeleteआजकल पण्डितों के पास बहुत से प्रावधान है जिससे वे आपकी सुविधानुसार दिन, समय आदि निकाल लेते है। अब तो एक चलन आम हो गया, बानाबंद नहीं मिल रहा है तो नाम बदल दो :)
दराल साहब हम ने भी एक शादी २३/११ को दिल्ली मे देखी, बिल्कुल ऎसी ही जेसी आप ने लिखा, हम ने तो बस दो तंदुरी रोटिया ओर थोडी सब्जी ही खाई, लेकिन जब हमारे बेटो ने अगर भारत मे शादी की तो शादी बिल्कुल साधारण होगी ओर घर पर ही सारा खाना तेयार करवांयेगे, तडक भडक से दुर
ReplyDeleteडॉक्टर साहब अभी अभी मेरी बेटी की शादी हुई है खाना थोडा कम पड़ गया था बाद वालो को सब चीजे उपलब्ध नहीं हुई उसकी आलोचना हुई पर मुझे इस बात का कोई दुःख नहीं है क्योंकि आलोचना तो कुछ वक़्त बाद बंद हो जाएगी पर खाने की बर्बादी दुखदायक होता.
ReplyDeleteभाई साहब इसीलिए हम दिल्ली की ठंड में सिकुड़ने और ठिठुरने से पहले ही घर पहुंच गए।:)
ReplyDeleteसही बात है, आज की शादियां यू होती हैं मानो शहर में किसी और की शादी हो रही हो जिससे आपका कुछ लेना देना न रहा हो. किसी को किसी से कुछ लेना-देना नहीं होता इन शादियों में. मै तो अक्सर ऐसी कई शादियों में नहीं जाता... आज तक तो किसी ने नहीं पूछा कि आप क्यों नहीं आए, क्योंकि बुलाने वालो को पता ही नहीं लगता कि कौन आया या कौन नहीं आया...जीवन में बहुत से पचड़े और भी हैं, किसके पास फ़ुर्सत है आपको हाज़िरी चैक करने की ?
ReplyDeleteजब मैं आपकी पोस्ट पढ़ रहा था तो लगा जैसे मैं अपना लिखा ही पढ़ रहा था!
ReplyDeleteदिल्ली में रह, दिसम्बर माह में ही मेरा (इन्ही कारण से जगदलपुर में, पंडित जी और अन्य पांच निकट सम्बन्धी बारातियों सहित जा, और लौटने के बाद रिसेप्शन में सीमित अतिथियों को आमंत्रित कर), और मेरी छोटी बहन, एक छोटे भाई, मेरी दूसरी बेटी का दिल्ली में विवाह संपन्न हुआ, और अन्य कई रिश्तेदारों, मित्रों, आदि की दिल्ली की ठण्ड में विविध अनुभव हुए...
हा हा!! यही नजारा है चहु ओर...मस्त!! :)
ReplyDeletebhut khoob....
ReplyDeleteDR saheb, Delhi ki shaadi ka aapane yatharth chitran prastut kiya hai. Lekin hum garib Bombay wale kahan jaye?? Hamare yaha toh shaadiya 'Hall' mai hoti hai. Aapse zalan ho rahi hai. Aise Bagiche to sirf aap delhi walo ke nassib mai hi hote hai. heheheehe !! :)
ReplyDelete1907 (shayad)January mai Guruji ki beti ki shaadi may jaane ka mouka mila tha. Delhi se bahut dur high-way par bagicha tha. Aisi bhavya shaadi maine jivan mai kabhi nahi dekhi thi. T.V. star's bhi aaye the. Kuch raajneta bhi the. Bhojan ki aisi barbadi meri kalpanaon se pare thi. Usi din se maine Guruji ke paas jana chod diya. Jinke nakshe kadam par hum chalte hai.
ReplyDeleteUnse aasi barbadi ki ummid kaise kar sakte hay. Dhanyavad.
भाटिया जी , शोभा जी , शादियाँ जितनी सादगी से की जाएँ , उतना ही अच्छा रहता है । क्योंकि बाद में जिंदगी इसी बात पर सुखी रह सकती है कि पति पत्नी में कैसी अंडरस्टेंडिंग है ।
ReplyDeleteaapke nek विचारों की कद्र करता हूँ ।
बुलाने वालो को पता ही नहीं लगता कि कौन आया या कौन नहीं आया--
ReplyDeleteकाजल कुमार जी आपने तो हमारी आने वाली कविता की लाइनें ही लिख दी ।
सही कहा आपने ।
लेकिन एक बात ज़रूर है कि लोग लिफ़ाफ़ों से पता लगा लेते हैं कि कौन आया कौन नहीं आया । हा हा हा ।
दर्शन कौर जी , मैं भी सीधी साधी शादी में ही विश्वास रखता हूँ ।
ReplyDeleteकोई पैसा उडाये तो पूरे मज़े भी लेता हूँ ।
लेकिन खाने की बर्बादी देखकर बहुत अफ़सोस होता है ।
शायद आप २००७ लिखना चाहती थी ।
बिलकुल ठीक कहा डा.सा :आपने ,ऐसे ही आजकल हर जगह बर्बादी हो रही है .अब केवल अपनी समृद्धि ही लोग दिखाते हैं ,आत्मीयता अब कहाँ है.
ReplyDelete... rochak va bhaavpoorn charchaa !!!
ReplyDeletesab dikhava hai.......
ReplyDelete@दराल सर,
ReplyDeleteवाकई शादियों को मैनेज करना बड़ा मुश्किल होता जा रहा है...
सिल्क का कपडा भी इतना कि उसमे किसी आधुनिका की दो तीन जोड़ी ड्रेस बन जाएँ...
उस कपड़े से तो मल्लिका शेरावत की तो पूरे साल की ड्रेसेज़ बन जाएगी...
इस पर विडंबना यह कि फार्म हाउस की खुली हवा में थ्री पीस सूट में भी ठण्ड से ठिठुरने लगते हैं दिसंबर की सर्दी में । लेकिन मात्र एक साड़ी में लिपटी शुद्ध भारतीय नारी स्वेटर या शाल को हाथ पर लटकाए मज़े से चटकारे लेकर चाट पापड़ी खाती नज़र आयेंगी ।
ये तो शोध का विषय है डॉक्टर साहब ऐसे मौकों पर भरी सर्दियों में भी महिलाओं को ठंड क्यों नहीं लगती...
जय हिंद...
क्या लिफाफे पैक करते हुये आपके पसीने नही छूटे? ये शादियां कई बार बजट ही अपसेट कर देती हैं। खैर एक हाथ से ले दूसरे से दे वाला धन्धा पता नही कब खत्म होगा। दिल्ली दिल वालों की यूँ हा नही कहा जाता। अगली पोस्ट का इन्तजार। धन्यवाद।
ReplyDeleteदिल्ली की शादियों की एक खासियत बारातियों का रुक-रुक के नाचते-नाचते आना होता है,,,कुछेक शादियों में क्यूंकि आमंत्रित अतिथियों को दिल्ली में ही दूर दूर घर जाना होता है और इस कारण बरात देर तक पहुँचती ही नहीं है, बिना दूल्हे के दर्शन किये ही, लिफाफा लड़की की माता-पिता को पकड़ा, हम खाना खा घर आ गये थे!
ReplyDeleteलेकिन मात्र एक साड़ी में लिपटी शुद्ध भारतीय नारी स्वेटर या शाल को हाथ पर लटकाए मज़े से चटकारे लेकर चाट पापड़ी खाती नज़र आयेंगी । .....
ReplyDeleteऊँ...हूँ..........अच्छी बात नहीं किसी..... गैर .....स्त्री .....!!!????!!!
ये शादी की पार्टियां हर जगह ऐसे ही होती हैं दराल जी .....यहाँ भी ....
पता नहीं यूँ पैसे लुटा क्या मिलता है लोगों को .....
@ नोट : शादियों के मौसम में अगली पोस्ट में पढना न भूलें , शादियों के चटपटे अनुभव , हास्य कविता के रूप में ।
ओये होए ....अगली बुकिंग अभी से ....?????
वाह क्या बात है। ऐसी शादियां तो इतनी अटैंड कर ली है कि अगर कुछ सादगी वाली शादी अटैंड करते हैं तो लगता है कहां आ गए। हां अच्छा जरुर लगता है। दिल्ली की सर्दी तो वैसे भी फेमस हो रखी है बालीवुड की मेहरबानी से। पर हां खाने की बर्बादी देश के मुंह पर तमाचा है। पर जो किसी को लगता नहीं। हजारों बच्चे यही खाना कुड़े में ढंढते हुए मिल जाएंगे आपको। एक पेट खाकर जिस देश की 40 फीसदी आबादी गुजारा करती हो उस देश के महान नागरिकों की नुमाइश क्या कहिएगा। पर ये सिर्फ दिल्ली में नहीं है। बीजेपी अध्यक्ष गडकरी साहब उस जमीन पर करोड़ों खर्च करने से नहीं चुकते जो किसानों कि आत्महत्या के कारण लाल हो चुकी है। तो क्या कहें हम लोग। बहुत कम जगह ऐसा होता है जहां खाना सही जगह पहुंच जाता है।
ReplyDeleteखुशदीप भाई , हमने तो जान बूझ कर मल्लिका के साथ कंशेशन किया था ।
ReplyDeleteवैसे शोध का विषय तो है । इस पर भी एक पी एच डी होनी चाहिए ।
निर्मला जी , सही कह रही हैं आप । अब तो हमें साल के शुरू में ही बज़ट बनाना पड़ेगा ।
क्या बात है जे सी जी , आपने तो हमारी आने वाली हास्य कविता की बातें पहले ही लिख दी ।
हा हा हा ! हरकीरत जी , हमने तो अपने वाली को देखकर ही ये पंक्ति लिखी थी । हमारी ऐसी हिम्मत कहां कि हम किसी गैर स्त्री की तरफ आँख --!!!
ReplyDeleteअगली बुकिंग --फार्म हाउस की शादियों में ऐसा ही होता है । बुकिंग कितने ही दिनों की हो , खाना वही रहता है ।
सही कहा रोहित जी , हमारे जैसे देश में खाने की ऐसी बर्बादी देखकर बड़ा दुःख होता है ।
किसी को तो पहल करनी पड़ेगी ।
किसी भी अवसर पर खाने की बर्बादी पर बहुत दुःख होता है , लेकिन शादी में ढेर सारी स्टाल्स पर खाने में बहुत मज़ा आता है। शादी का मौसम है और आप लोग मज़े ले रहे हैं।
ReplyDeleteडॉ साहेब ,गलती से २००७कि जगह १९०७हो गया |और शायद का मतलब था की २००७ या २००८ की बात है
ReplyDeleteसच है डाक्टर साहब .. अब वो सादा पन ख़त्म होता जा रहा है ... बाज़ार वाद हावी हो गया है ...
ReplyDeleteसबसे बढ़िया-सलाद। कहीं और भी खा लिया हो,तो पचा देता है बेचारा!
ReplyDeleteप्लेट भी तो इतने भारी होते हैं कि ,वजन उठाना मुश्किल । अब इतना दूर घूमकर सारे खानों के दर्शन भी नहीं हो सकते ।
ReplyDeleteअजय कुमार जी , इसीलिए हम तो प्लेट उठाने से पहले ही कुलिनिय्री टूर कर लेते हैं ।
ReplyDeleteवैसे भी ९० % खाना तो सिर्फ देखने के लिए ही रखा जाता है ।
यह आजकल डेकोरेशन का तरीका है ।
रात के खाने में तीन रोटियां खाने वाले सीधे सादे प्राणी को ३०० व्यंजन देखकर अपने गरीब होने का अहसास होने लगता है
ReplyDeleteसहमत
डा. दराल जी,
ReplyDeleteसमाज के झूठे दिखावे का आपने अच्छा पोल खोला है !
आपके पोस्ट में लाल रंग से लिखी पंक्तियाँ वास्तव में समाज के असली चहरे का प्रतिधिनित्व करती हैं !
साभार ,
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
आजकल की शादियों पर अच्छा व्यंग्य है।
ReplyDeleteड दराल, सिर्फ़ दिल्ले में ही नहीं देश भर में एसी ही शादियां होती हैं , और सब जानते हैं,कोई नई बात नहीं है.
ReplyDelete...अब तो एक दैनिक वेतन भोगी भी एसी ही शादी करना चाहता है...महजनाः येन गतो स पन्था...
---.सब अति-भौतिकता व दिखावे की बात है...मूल बात है खाने की बर्बादी से बचा जाय.....पर वास्तव में इस दावत( गिद्धभोज.कहूंगा.) में जो आपने वर्णन किया है लोगों को चाहे खाना न मिलता हो पर वर्वाद नहीं होता...क्योंकि ठेकेदार अपने अर्थशास्त्र के अनुसार चलता है और उतना ही बनाता है जिसमें उसका नुकसान न हो...इसीलिये तो, पुराने पन्गत सिस्टम को हटाकर यह वुफ़े सिस्टम आया...हां कुछ लोग प्लेटे में अधिक खाना लेकर बर्बाद अवश्य करते हैं, अन्यथा प्रायः खाना कम ही पडता है...
----आप तो डाक्टर हैं जानते ही होन्गे कि वास्तव मे ही महिलाओं को
ठण्ड कम लगती है जिसका वैग्यानिक कारण है महिला शरीर में चर्बी की अधिक मात्रा होना जो इन्सुलटर की भान्ति काम करती है...
डॉ गुप्ता , यह भी एक होड़ सी है जो दिखावे को बढ़ावा दे रही है ।
ReplyDeleteकाला धन बोलता है इन शादियों में । लेकिन शरीफ आदमी पिस जाता है , तुलनात्मक स्थिति में ।
आपने साइंटिफिक कारण सही दिया है । लेकिन सोचता हूँ क्या ओबीज पुरुषों को भी सर्दी कम लगती होगी।
बड़ा मनोरंजक चित्र खींचा दिल्ली की शादियों पर, अच्छा व्यंग्य !
ReplyDeleteये शादी की चर्चा अच्छी रही. वैसे ये एक सत्य है की पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को ठण्ड कम लगती है किसी शोध में ऐसा निष्कर्ष निकला था
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