पिछली पोस्ट में कुछ ब्लोगर्स द्वारा एड्स के रोगियों की भर्त्सना किया जाना उचित नहीं लगा । मित्रो बोले तो बिदास वाले रोहित जी से सहमत होते हुए , इतना कहना चाहूँगा कि एड्स के बहुत से रोगी ऐसे होते हैं , जिनकी कोई गलती नहीं होती ।
जैसे :
पति से पत्नी को हुआ संक्रमण ।
गर्भवती मां से शिशु को संक्रमण ।
ब्लड ट्रांसफ्यूजन से हुआ संक्रमण ।
ये रोगी ऐसे होते हैं , जिनकी कोई गलती नहीं होती , फिर भी रोगी बन जाते हैं ।
केवल अनैतिक यौन संबंधों द्वारा एड्स का होना सामाजिक तौर पर भर्त्सनीय है ।
अब ज़रा इन दुष्कर्मियों पर भी नज़र डालें :
अख़बारों में भरे समाचार ,चारों ओर भृष्टाचार ही भृष्टाचार ।
आधी रात में सड़क से उठा कर सामूहिक बलात्कार ।
स्विस बैंकों में जमा लाखों करोड़ ,
कहीं शादी में कर रहे खर्च करोड़ ।
सोचता हूँ कि आदमी कुकर्म करने से पहले सोचता क्यों नहीं ।
आदमी क्यों सोचता है कि ये दुनिया उसकी ज़ागीर है ?
या उसे किसी का डर ही नहीं है ?
इसी को ध्यान में रखकर एक भजन लिखा है । गुनगुनाने में आनंद आएगा ।
कितना भी कतराये सजना , इक दिना तो जाना है
जिस धन पर इतराये इतना , सब यहीं रह जाना है ।
सारा जीवन रिश्वतखोरी , कर रहे सीनाज़ोरी
फिर काहे घबराये भैया , क़र्ज़ यहीं भर जाना है ।
काले धन से काले धंधे , बे धड़क करता बन्दे
मुख ढक कर शरमाये कैसे , अब सज़ा तो पाना है ।
जिसको तू अपना माने है , वो कहाँ ये जाने है
जो बोये थे कांटे तूने , खुद तुझे चुग जाना है ।
शुभ कर्मों का लेखा जोखा , पुल बंधे "तारीफ़ों" का
जो इंसां को इंसां समझे , सुर वही कहलाना है ।
( सुर = देवता )
इस रचना में मात्रिक शुद्धि का विशेष ख्याल रखते हुए सभी पंक्तियों में मात्रिक क्रम एक जैसा ही रखा है जो इस प्रकार है --२ २ २ २ २ २ २ २ , २ १ २ २ २ २ २ , सिर्फ तकनीकि जानकारी के लिए ।
नोट : कृपया यह मत सोचियेगा कि हमने सन्यास लेने की सोच ली है । बस दो दिन की बात और है ।
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जितना भी कमा ले दोस्त मेरे मग़र याद रख ,
ReplyDeleteकफ़न में जेबें नहीं हुआ करती | बहुत अच्छी गज़ल मुबारक हो
शुभ कर्मों का लेखा जोखा , पुल बंधे "तारीफ़ों" का,
ReplyDeleteजो इंसां को इंसां समझे , मानव वो कहलाना है ।
--
अब ठीक है जी! वजन बराबर हो गया!
--
आपने बहुत सुन्दर बात कही है!
दो दिन तो काट लेंगे..जल्दी आईये.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रेरक बात.... आभार
ReplyDeleteबहुत अच्छी और प्रेरणा देने वाली पोस्ट ...
ReplyDeleteजिसको तू अपना माने है , वो कहाँ ये जाने है
ReplyDeleteजो बोये थे कांटे तूने , खुद तुझे चुग जाना है ।
... behatreen abhivyakti !!!
अफसोस,कि जो बात आप भजन के जरिए कह रहे हैं,उसे केवल वृद्धावस्था की सहज सोच माना जाता है। तब कुछ भी करना भागते भूत की लंगोटी पकड़ने की कोशिश ही होती है। अगर यह भाव जीवन के प्रारंभिक दिनों में आ जाए,तो जीवन सुख-दुख के बंधनों से मुक्त हो,आनंदमय बीतता है।
ReplyDeleteकाले धन से काले धंधे , बे धड़क करता बन्दे
ReplyDeleteमुख ढक कर शरमाये कैसे , अब सज़ा तो पाना है ।
बढ़िया रचना ....सच्चाई दर्शाती हुई
भजन पढ़कर आनंद आ गया। अब गुनगुनाएंगे भी..
ReplyDeleteसारा जीवन रिश्वतखोरी , कर रहे सीनाज़ोरी
फिर काहे घबराये भैया , क़र्ज़ यहीं भर जाना है
कितनी सही बात कही है आपने। भजन है या कहें कि जीवन का सार, जीवन को जीने का विचार। पर सोच कर जान कर भी इंसान कहां रह पाता है बिना कुकर्म किए बिना। शुद्ता के पैमाने पर तो कम ही लोग खरा उतरते हैं। हमारे समेत अधिकतर यही कहेंगे कि भई हमारी कमीज उसकी कमीज से कम काली है।
ReplyDeleteमेरी पिछली पोस्ट की टिप्पणी पूरी तरह से लोगो के एड्स के मरीजों के प्रति राय पर थी। जिनकी कोई गलती नहीं होती उन लोगो के बारे में हम यही कह सकते हैं कि प्रारब्ध मे लिखे को कौन टाल सकता है। मगर आपने एक डॉक्टर के तौर पर सबको देखा और ये सोच हर जगह होनी चाहिए। एड्स रोगियो को बेहतर बताने का मतलब ये नहीं था कि अनैतिक उससे भी ज्यादा असुरक्षित यौन संबंधों को बढ़ावा देने वालो का समर्थन कर रहा हूं। यहां अनैतिक से ज्यादा असुरक्षित का भी इसलिए प्रयोग कर रहा हूं कि इसकी वजह से कई ऐसे लोग जिनकी कोई गलती नहीं होती वो भी शिकार हो जाते हैं इस जानलेवा बीमारी के। बाकी आपके भजन को गाते या समझते हुए इंसान अपने पापों की संख्या ही कुछ कम करने की सोच लो तो सोने पर सुहागा हो जाए।
जो इंसां को इंसां समझे , सुर वही कहलाना है ।
ReplyDeleteएकदम सही बात है ! पूरी कविता मानवता को सच्ची राह दिखाती है !
धन्यवाद डा. दराल जी !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
मुझे एक शबद बहुत अच्छा लगता है-
ReplyDeleteजिंद मेरिए मिट्टी दी ए ढेरिए, इक दिन चलणा...
वाकई ये शरीर मिट्टी का एक ढेर ही तो है, एक दिन तो इसे दुनिया से चलना ही है...
जय हिंद...
कष्ट तो कष्ट ही है भले ही वो दांत आदि का दर्द हो या एड्स के सामान कोई घातक बिमारी,,,और हर हालत में यह मानव जाति का ही (परिवार के सदस्य आदि से आरंभ कर) कर्त्तव्य हो जाता है कि उसका कोई समाधान जितना शीघ्र संभव हो सके किया जाए...और जहां तक मानव मृत्यु का प्रश्न है वो तो निश्चित है ही, यद्यपि वो किसी व्यक्ति विशेष के लिए किस रूप में आएगी यह अधिकतर किसी को पता नहीं होता - अच्छे-भले स्वस्थ व्यक्ति भी दुर्घटना आदि में जान गवां बैठते हैं कभी-कभी...
ReplyDeleteडा .सा :,
ReplyDeleteआपने भजन के माध्यम से बहुत सरल तरीके से जीवन का सत्य सामने ला दिया है ;अब यह लोगों का दायित्व है कि ,कोरी सराहना करने के बजाये उस पर अमल करें.
वस्तुतः ध्यान -भजन सब बाल्यावस्था तथा युवास्था में ही अमल करने के हैं.वृधावस्था में कुछ करना संभव ही नहीं ,ऐसी टिप्णी-बहुत सही की गयी है.
राधारमण जी , जे सी जी , माथुर जी , यह सही है कि मानव जितना जल्दी समझ ले उतना ही अच्छा है । लेकिन आखिर में भी अक्ल आ जाए तो गनीमत ही कहलाएगी ।
ReplyDeleteयहाँ तो ऐसे लोग भी हैं जो सारे पाप करने के बाद साथ साथ ही मंदिर , तीर्थ धाम या गंगा यमुना में डुबकी लगाकर सोचते है कि सारे पाप धुल गए ।
ऐसे नकली भक्तों को जाने कब अक्ल आएगी ।
एक बढ़िया जानकारी और उसके साथ साथ एक बढ़िया रचना..बहुत बहुत बधाई...दो दिन तो इंतज़ार कर ही लेंगे..
ReplyDeleteमैं सोच ही रहा था ,तभी आपके नोट पर ध्यान चला गया ।
ReplyDeleteसार्थक लेख है ,आभार
शुभ कर्मों का लेखा जोखा , पुल बंधे "तारीफ़ों" का
ReplyDeleteजो इंसां को इंसां समझे , सुर वही कहलाना है ।
sundar!
आपने सही कहा एड्स केवल इन्सान की अपनी गल्ती से नही होती ऐसे मरीजों के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार जरूरी है।इस पर मेरी एक कहानी मुस्कान है जो सभी ने बहुत पसंद की थी। आपकी रचना आज के सन्दर्भ मे बेहतरीन अभिव्यक्ति है। धन्यवाद और शुभकामनायें।
ReplyDeleteजिसको तू अपना माने है , वो कहाँ ये जाने है
ReplyDeleteजो बोये थे कांटे तूने , खुद तुझे चुग जाना है ...
आपका सूफ़ियाना अंदाज़ बहुत ग़ज़ब का है डाक्टर साहब ... जीवन की सच्चाई को लिखा है आपने ... बहुत खूब ..
बढ़िया जानकारी
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