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Monday, December 6, 2010

ये दुनिया नहीं ज़ागीर किसी की ---

पिछली पोस्ट में कुछ ब्लोगर्स द्वारा एड्स के रोगियों की भर्त्सना किया जाना उचित नहीं लगा । मित्रो बोले तो बिदास वाले रोहित जी से सहमत होते हुए , इतना कहना चाहूँगा कि एड्स के बहुत से रोगी ऐसे होते हैं , जिनकी कोई गलती नहीं होती ।
जैसे :
पति से पत्नी को हुआ संक्रमण
गर्भवती मां से शिशु को संक्रमण
ब्लड ट्रांसफ्यूजन से हुआ संक्रमण

ये रोगी ऐसे होते हैं , जिनकी कोई गलती नहीं होती , फिर भी रोगी बन जाते हैं ।

केवल अनैतिक यौन संबंधों द्वारा एड्स का होना सामाजिक तौर पर भर्त्सनीय है

अब ज़रा इन दुष्कर्मियों पर भी नज़र डालें :


अख़बारों
में भरे समाचार ,चारों ओर भृष्टाचार ही भृष्टाचार
आधी रात में सड़क से उठा कर सामूहिक बलात्कार
स्विस बैंकों में जमा लाखों करोड़ ,
कहीं शादी में कर रहे खर्च करोड़

सोचता हूँ कि आदमी कुकर्म करने से पहले सोचता क्यों नहीं
आदमी क्यों सोचता है कि ये दुनिया उसकी ज़ागीर है ?
या उसे किसी का डर ही नहीं है ?

इसी को ध्यान में रखकर एक भजन लिखा हैगुनगुनाने में आनंद आएगा ।

कितना भी कतराये सजना , इक दिना तो जाना है
जिस धन पर इतराये इतना , सब यहीं रह जाना है ।

सारा जीवन रिश्वतखोरी , कर रहे सीनाज़ोरी
फिर काहे घबराये भैया , क़र्ज़ यहीं भर जाना है ।

काले धन से काले धंधे , बे धड़क करता बन्दे
मुख ढक कर शरमाये कैसे , अब सज़ा तो पाना है ।

जिसको तू अपना माने है , वो कहाँ ये जाने है
जो बोये थे कांटे तूने , खुद तुझे चुग जाना है ।

शुभ कर्मों का लेखा जोखा , पुल बंधे "तारीफ़ों" का
जो इंसां को इंसां समझे , सुर वही कहलाना है ।
( सुर = देवता )

इस रचना में मात्रिक शुद्धि का विशेष ख्याल रखते हुए सभी पंक्तियों में मात्रिक क्रम एक जैसा ही रखा है जो इस प्रकार है -- , , सिर्फ तकनीकि जानकारी के लिए

नोट : कृपया यह मत सोचियेगा कि हमने सन्यास लेने की सोच ली है । बस दो दिन की बात और है ।