आजकल ग़ज़लें लिखने का शौक चढ़ा है । दो तीन टूटी फूटी ग़ज़लें लिखी तो लगा कि बन गए ग़ज़लकार । फिर ख्याल आया कि जब तक रोमांटिक ग़ज़ल नहीं लिखी , तब तक असली ग़ज़लकार कैसे बनेंगे । कुछ ब्लोगर मित्रों ने भी उकसाया । बस यहीं मार खा गए । क्योंकि --
इश्क कभी किया नहीं ,हुस्न की तारीफ करनी कभी आई नहीं। फिर रोमांटिक ग़ज़ल क्या खाक लिखते।
ऐसे में जो मन में आया , लिख दिया । भाई तिलक राज कपूर जी के लेख पढ़कर एक ग़ज़ल लिखने की कोशिश की । जब उन्हें सुनाया तो ज़ाहिर है, तकनीक में फेल हो गए । फिर उन्ही से आग्रह किया कि भाई इसका शुद्धिकरण आप ही कर दें । कपूर साहब ने अनुग्रहीत कर चुटकी में ग़ज़ल का रूप बदल सही शक्ल दे दी । प्रस्तुत हैं --यह ग़ज़ल -- दोनों रूपों में ।
पहले प्रेम भाव की अभिव्यक्ति पढ़ें , मूल रूप में ।
दिल को चुपके से , चुरा गया कोई
हम को हम से ही , मिला गया कोई ।
तन्हा थे हम भी , कितने बरसों से
नज़र मिली तो बस , लुभा गया कोई ।
दिल था सूखा सा , रेता सहराँ में
बरखा बादल बन , करा गया कोई ।
फंसी थी कश्ती , ग़म के भँवरों में
मांझी साहिल तक , तरा गया कोई ।
तम के घेरों में , पा रहे थे सकूं
मन में दीप जला , डरा गया कोई ।
अहं के साये में , जी रहा ` तारीफ`
इश्क के तीर चला , हरा गया कोई ।
अब देखिये और पढ़िए इसका शुद्धिकृत रूप , सही मात्रिक क्रम में ।
दिल में आकर बस जाता है
वो ही अपना कहलाता है।
बरसों से हम सोच रहे थे
पास कोई* कैसे आता है।
दिल के इस सूखे सहरॉं में
तू बरखा जल बरसाता है।
कश्ती जब फँसती देखी तो
मांझी बन तू आ जाता है।
ग़म का जब अंधियार दिखा तो
उजियारा बन तू छाता है।
जब 'तारीफ़' भटकता देखा
राह सही पर वो लाता है ।
*यहाँ कोई को कुई पढ़ा जायेगा ।
अब आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा ।
मुझे तो पहली वाली जयादा पसंद आयी बस शकूं को सकूं कर दें !
ReplyDeleteमुझे तो दोनों ही बढ़िया लगीं!
ReplyDelete--
जवाब नही आपका भी डॉक्टर साहिब!
मंझधार में फंसी कश्ती को पार लगाने वाला , उजियारा बन कर छाने वाला ...
ReplyDeleteबिना इश्क किये भी ऐसी खूबसूरत ग़ज़ल !! ...:)
इश्क कभी किया नहीं
ReplyDeleteचलो ये तो मान लेते हैं मगर हुस्न की तारीफ करनी कभी आई नहीं। ये कैसे मान लें इतने सालों से बीवी साथ रह रही है तब तो ये सरासर झूठ है। वो0 बीवी क्या जो अपनी तारीफ सुननी न चाहे? ?
मगर गज़ल बहुत अच्छी है और तिलक भाई साहिब तो उस्ताद हैं ।उनके हाथ लग जायें तो गज़ल क्यों नही बनेगी? धन्यवाद।
उम्दा प्रस्तुति...सर आप वाकई गजलकार बन गए हैं .....आभार
ReplyDeleteहैडिंग पर बिलकुल भरोसा नहीं है डॉ साहब !
ReplyDeleteअच्छी भली स्मार्ट पर्सनालिटी पाई है
"खुदा महफूज़ रखे हर बाला से"
बहुत बढ़िया ...दोनों ही पसंद आयीं...आपने तो वही बात कर दी कि..घोड़ी नहीं चढ़े तो क्या बरात भी नहीं देखी ...बिना इश्क किये ही खूबसूरत एहसास से सजा दी है गज़ल..
ReplyDeletePoore prakaran se film Umrao Jaan ka vah drishya yaad aaya jisme Dil Cheez Kya Hai Aap Meri..... sher parimaarjit roop me saamne aata hai.Magar,mujhe kahna hoga ki aap ki ghazal mool roop men hi behtar bani hai.
ReplyDeleteसर उम्दा गजल है ,सलाम करता हूं आपको और आदरणीय तिलकराज कपूर जी को ।
ReplyDeleteमैनें भी एक कोशिश की है ,अन्यथा मत लीजियेगा । बस डिलीट कर दीजियेगा और छोटा समझ कर माफ कर दीजियेगा -
चुपके से दिल , चुरा गया कोई
हम को हम से ,मिला गया कोई ।
हम तो तन्हा थे , कितने बरसों से
आज दिल को , लुभा गया कोई ।
दिल था सूखा सा , रेता सहराँ में
हाय ! बारिश , करा गया कोई ।
फंसी थी कश्ती , ग़म के भँवरों में
बन के मांझी , तरा गया कोई ।
तम के घेरों में , पा रहे थे सकूं
मन में दीपक ,जला गया कोई ।
अहं के साये में , जी रहा था ` तारीफ`
दिल के चलते , हरा गया कोई ।
वैसे तो दोनों इ अच्छी हैं. लेकिन, मुझे तो भई पहले वाली ज्यादा पसंद आई हैं.
ReplyDeleteडाक्टरी के साथ-साथ कविता करना बहुत अच्छी बात हैं. आपके पेशे की व्यस्तता और तनाव को दूर करने में और मरीजो की तकलीफों, चिंताओं, और परेशानियों को दूर करने में आपकी कविता बड़ा और महत्तवपूर्ण योगदान दे सकती हैं.
कृपया मरीजों को भी अपनी कवितायें सुनाये ताकि आपका तनाव तो दूर हो ही मरीज़ भी राहत-हल्का महसूस करेगा.
बहुत बढ़िया,
धन्यवाद.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
अजी हमे तो समझ ही नही गजलो ओर कविताओ की, इस लिये हमे तो बस वाह वाह ही कहना आता है, बहुत खुब जी. धन्यवाद
ReplyDeleteवाह तीनों ही बेहतरीन हैं ।
ReplyDeleteनिर्मला जी , ये तो बीबी की ही हिम्मत है । वर्ना हमें तो सच में तारीफ करनी नहीं आती जी ।
ReplyDeleteअजय कुमार जी , अच्छी कोशिश है । बस जो मात्रिक क्रम की त्रुटियाँ हम भी दूर नहीं कर पाए , वही इसमें भी हैं। सही क्रम तो कपूर जी ने बनाया है ।
आपकी पोस्ट का शीर्षक एकदम सही है.. ये सब हर किसी के बूते की बात नहीं :) (वर्ना मैं आजतक अपने आप को अकेले ही समझे बैठा था)
ReplyDeleteदोनों बढ़िया लगी..
ReplyDeleteवाह वाह...बहुत बढ़िया
ReplyDeleteतारीफ़ में जिनकी शब्द ही खो जाएं
ReplyDeleteकैसे करें तारीफ़ जरा आप ही बताए
बढिया गजल--हर शेर उम्दा है
ये तो शौक है-हर शब्द चंगा है
बस जिन्दगी युं चलती रहे।
राम राम
Doctor saahab ... vaise bhaav to samaan hi hain dono mein .. to ishq karna to aata hai aapko ... baaki ship to aate aate aa hi jaayega ...
ReplyDeleteVaise dono lajawaab hain ...
मुझे तो दोनों ही बहुत अच्छी लगी...
ReplyDeleteबहुत ही शानदार और जानदार लगी आपकी ग़ज़ल .बधाई!!
ReplyDeleteदोनों पढ़ी....सुधार और बदल में अंतर दिखा...पहली अपनी जगह है, दूसरी अपनी जगह...
ReplyDeleteसुधार तो गर काफिया और रदीफ और बहर एक ही रहती तो माना जाता...यह तो नई बात ही कही गई नई तरीके से भले भावार्थ एक हों. :)
बेहतरीन दोनों ही.
आपकी पोस्ट चर्चा ब्लाग4वार्ता पर
ReplyDeleteसही कहा , समीर जी ।
ReplyDeleteतिलक जी ने ये मात्रिक क्रम लिया है ---२ २ २ २ २ २ २ २ = १६
मैंने मतला बनाया --२ २ २ २ २ , १ २ १ २ २ २ = २०
लेकिन बाकि अशआर में क्रम रहा --
पहला मिसरा ----- २ २ २ २ २, २ २ २ २ २ = २०
और दूसरा मिसरा --२ २ २ २ २ , १ २ १ २ २ २ = २०
इस तरह फर्क हो गया , जो ठीक नहीं हो सका । हालाँकि मात्राएँ समान हैं ।
लेकिन मुझे लगता है , यह ग़ज़ल न होकर , गीत बन गया है ।
साहब हमारे लिए दोनों सही है बल्कि पहली वाली के शब्द सचमुच लाजवाब हैं ! पर ग़ज़ल तकनीक के बारे में अंगूठा टेक हैं !!
ReplyDeleteमुरारी जी, मियां कहाँ रहे इतने दिन ।
ReplyDeleteब्लॉग वापसी पर हार्दिक स्वागत है ।
आपका ब्लॉग खुल नहीं रहा है । फिर कोशिश करते हैं ।
aap to harfan moula hai........
ReplyDeletethouno rachanae lajawab hai..........
sirf izhar hee pyar nahee hota .............ehsaas hee kafee hai..........
अब जनाब हमारी प्रतिक्रिया क्या लेंगे? बिना इश्क किये...बिना हुस्न की तारीफ किये 'तारीफ' जी इतनी बढ़िया गज़ल लिख गए तो जरूर कुछ बात तो है 'तारीफ' जी में...और सिर्फ एक बार वाह कहने से तो काम नहीं चलेगा...बार बार वाह वाह कहेंगे जी.
ReplyDeleteहमें तो दोनों ही अच्छी लगी क्योंकि इस विषय का विज्ञान नहीं आता है
ReplyDeleteवाह! वाह! तारीफ़ जी!
ReplyDeleteशाह रुख खान ने अटल जी से चुटकी लेते उनकी पुस्तक के विमोचन के उपलक्ष्य पर कहा था कि इस देश का दुर्भाग्य है कि जिसे कवि होना चाहिए, उसे प्रधान मंत्री बना दिया जाता है!
ग़ालिब भी कह गए "इश्क ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया / वर्ना हम भी आदमी थे काम के"...
बीमारों के लिए अच्छा हुआ आप कवि बाद में और डॉक्टर पहले बने!
हा हा हा ! जे सी जी । सही कहा , डॉक्टर तो हम भी थे काम के । लेकिन अब भी हैं , बस इलाज़ का तरीका बदल गया है ।
ReplyDeleteदिल के इस सूखे सहरॉं में
ReplyDeleteतू बरखा जल बरसाता है।
aap itni achhi ghazal bhi likhte hain, maloom na thaa.
Bahut se logon ko ye ghazal apne dil ki hi baat lag rahi hogi..
aabhar.
बिलकुल सही
ReplyDeleteहम को हम से ,मिला गया कोई ।
मात्रा का तो हमें ज्ञान नहीं ..अनाड़ी हैं हम तो कविता दिल से पड़ते हैं ...माफ कीजियेगा ...हमें तो पहली वाली ज्यादा पसंद आई
ReplyDeletepahli wali gazal me jo baat hai, wah kuchh alag hi hai bilkul kisi bachhe ki tarah masoom , nirdosh si ....
ReplyDeleteसर आपका प्रयास अच्छा है लेकिन व्याकरण की दृष्टि से जो सुधार किया गया वो सुन्दर तो है पर आधे भाव खा गया लगता है..
ReplyDeletesir, aap ko doctor kisne banaya!aap ko to shaayar hona chahiye tha ,kyonki iss tanaav bhari jindagi ka eelaj to sher-o-shayari se hi kiya ja sakta hai jo ki aap kar rahe hai .bahut achcha!best of luck.
ReplyDeleteग़ज़ल के दोनों रूपों को पसंद करने के लिए आप सभी साथियों का धन्यवाद ।
ReplyDeleteग़ज़ल की मात्रिक शुद्धि तिलक राज कपूर जी द्वारा संसोधित रचना में ही है । इसके लिए मैं उनका आभार व्यक्त करता हूँ ।
हमने जो लिखा है उसे गाने या गुनगुनाने के लिए आपको एक रेडीमेड धुन दे रहे हैं ।
किसी नज़र को तेरा , इंतजार आज भी है
कहाँ हो तुम के ये दिल बेक़रार आज भी है ।
बस गाइए और आनंद लीजिये ।
दिल को चुपके से , चुरा गया कोई
ReplyDeleteहम को हम से ही , मिला गया कोई ।
वा....वाह.....व...वाह.......ओये होए .......!!
कौण सी जी .......टिप्पणियाँ देखनी पड़ेगी ....कोई ब्लोगर ही तो नहीं .....?
इश्क कभी किया नहीं..........अब छोडिये भी ....बहलाना .......!!!!
वो तो जनाब की आँखें ही बतलाती हैं .......
तन्हा थे हम भी , कितने बरसों से
नज़र मिली तो बस , लुभा गया कोई ।
बल्ले............!!
कितने बरसों से ......?????
बधाइयां जी बधाइयां.......!!
तम के घेरों में , पा रहे थे सकूं
मन में दीप जला , डरा गया कोई
हा....हा....हा......डरिए मत हमारा पूरा सहयोग है जी ......!!
काव्य का महत्वपूर्ण तत्व है भाव और जब भाव अच्छे हों और उनतक पढ़ने/सुनने वाला पहुँच जाये तो आनंद प्राप्त होता है इसपर दो मत हो ही नहीं सकते। जहॉं तक ग़ज़ल के अनुशासन की बात है वह आरंभ में थोड़ा जरूरी इसलिये हे जाता है कि नये ग़ज़लकार के भाव के बजाय लोग बह्र-ओ-वज़्न पर केन्द्रित होकर भाव का आनंद खो देते हैं। समीर लाल जी की बात ठीक है कि सुधार तभी कहा जाता है जब बह्र और रदीफ़ काफि़या कायम रहे।
ReplyDeleteमेरा प्रयास तो मात्र एक उदाहरण था आरंभिक बह्र का कि किस प्रकार यही बात सरल बह्र में भी कही जा सकती है। शुरुआत में ही कठिन बह्र लेना समस्या का कारण हो जाता है।
सफ़लता पर बधाई।
तिलक जी , आपकी बात को गाँठ बांध लिया है ।
ReplyDeleteप्रयोग में लाने का पूरा प्रयास रहेगा ।
आभार ।
गज़ल वगैरा की तो मुझे समझ नहीं है लेकिन दोनों ही रचनाएँ बढ़िया लगी...खास कर के पहले वाली
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