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Wednesday, June 30, 2010

पहले जिंदगी सरकती थी , अब दौड़ लगाती है -----

पिछली पोस्ट के वादानुसार, प्रस्तुत है एक कविता अस्पताल में लिखी गई , आँखों देखी , सत्य घटनाओं पर आधारित ।


शहर के बड़े अस्पताल में ,खाते पीते लोग
भारी भरकम रोग का उपचार कराते हैं ।


तीन दिन बाद रोगी हृष्ट पुष्ट और रोगी से ज्यादा
उसके
सहयोगी , बीमार नज़र आते हैं ।


यहाँ कर्मचारी तो सभी दिखते हैं ,पतले दुबले और अंडर वेट
पर कस्टमर होते हैं मोटे ताज़े , कमज़ोर दिल और ओवरवेट

भारी पेट का वेट , बड़ी मुश्किल से उठा पाते हैं
फिर भी खाने से पहले , सूप ज़रूर मंगवाते हैं


एक दफ्तर के बड़े साहब की बीबी , बीमार हो गई
अस्पताल में सी सी यू के बिस्तर पर, सवार हो गई।


साहब ने बेंच पर बैठे बैठे , पूरी रात गुज़ार दी
बोले भैया डॉक्टर ने आज , सारी अफ़सरी उतार दी ।


उधर एक हरियाणवी को जब , हार्ट अटैक हो गया
अस्पताल में ही खाप का मिलन , सैट हो गया ।


बेटा बेटी , पोते नाती और सास बहुओं का , ताँता लग गया
हर रूप रंग के लोगों से अस्पताल का , कोना कोना पट गया।


सब अपना खाना पीना और बिस्तर साथ लाये थे
कुछ तो बाल बच्चों समेत , १०० कोस दूर से आये थे ।


और जब वह अपार जन समूह , एक नेता का सम्मान करने लगा
उस बड़े अस्पताल का प्रांगण , किसान रैली का मैदान लगने लगा ।


एक पेज थ्री की पात्र महिला , काला चश्मा लगा मटक रही थी
शायद पिछली रात की मदिरा , उसकी आँखों में खटक रही थी।


मोहतरमा अपने लिव इन पार्टनर को दिखाने लाई थी
सोशल वर्कर थी , एड्स की काउंसेलिंग कराने आई थी।


एक मिडल क्लास मरीज़ को जूनियर डॉक्टर , सरे आम समझा रहा था
उसके टूटे दिल की रिपेयरिंग का , हिसाब किताब बता रहा था ।


उधर उसका युवा बेटा फोन पर डिस्कस कर रहा था
अपने पिता के जीवन की कीमत फिक्स कर रहा था ।


कुछ नई पीढ़ी के युवा भी रोगी सेवा में व्यस्त थे
पर कान में इयर फोन लगा , अपने में मस्त थे ।


जिसे देखो मोबाइल पर बतियाए जा रहा था
कोई पूछ रहा था , कोई हाल बताये जा रहा था ।


मैं हैरान था याद कर , तीस साल पहले का हाल
जब न गाड़ियाँ होती थी , और न मोबाईल ।


उपचार तब भी होता था , इलाज़ अब भी होता है
लाचार तब दिल को रोता था , बंदा अब बिल को रोता है ।


माहौल भले ही जुदा कितना है
लेकिन फर्क आज बस इतना है ।


जिंदगी अब मौत से भी होड़ लगाती है
पहले जिंदगी सरकती थी , अब दौड़ लगाती है।


नोट : इस कविता में किसी की भावनाओ को ठेस पहुँचाने का प्रयास नहीं किया गया है। डॉक्टर्स के लिए सभी तरह के मरीज़ समान होते हैं । व्यक्तिगत जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं होता । कृपया अन्यथा न लें ।

Sunday, June 27, 2010

बड़ा मुश्किल होता है एक डॉक्टर के लिए मरीज़ का रिश्तेदार होना---

सरकारी नौकरी का एक फायदा तो है कि आप जब चाहो , छुट्टियाँ ले सकते हो। हमने भी गर्मियों में बाहर जाने के ख्याल से १५ दिन का अर्जित अवकाश ले लिया । सोचा था कि इस बार कुछ दिन के लिए शिमला के पास चैल ही हो आते हैं । वहां अपने एक दोस्त का होटल है जिसमे डिस्काउंट भी मिल जाता है ।

लेकिन जो सोचा , वही हो , यह ज़रूरी नहीं । हुआ भी कुछ ऐसा ही । अचानक पिता जी की तबियत खराब हुई और उन्हें एक बड़े प्राइवेट अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा । अब एक सप्ताह के लिए हम सब व्यस्त हो गए । हालाँकि अब ठीक हैं और छुट्टी कर घर आ चुके हैं ।

लेकिन इस एक सप्ताह में कुछ अलग ही अनुभव हुए , जो आपके साथ बांटता हूँ

बीमारी में सबसे ज्यादा मुश्किल होती है , रोगी के रिश्तेदारों की । विशेष तौर पर उनको जिन्हें अस्पताल में रहना पड़े , दिन रात । अब रोगी को तो भर्ती कर दिया जाता है , आइ सी यू या सी सी यू में , जहाँ दिन रात नर्सें उनकी देखभाल करती रहती हैं ।

और रिश्तेदार बैठे रहते हैं बाहर बेंच पर , दिन रात । यह सिलसिला तब तक चलता रहता है जब तक मरीज़ को जेनरल वार्ड में नहीं भेज दिया जाता । अब यदि आपको प्राइवेट रूम मिला है तो आप के लिए भी सोने का इंतजाम हो जायेगा । वर्ना वहां भी ज़मीन पर लेट लगाओ।

लेकिन मुझे लगता है कि एक अटेंडेंट के रूप में एक डॉक्टर की हालत सबसे दयनीय होती है । अब जो नॉन मेडिकल रिश्तेदार होते हैं , वे तो डॉक्टर से बात करके संतुष्ट हो जाते हैं । डॉक्टर ने कहा है कि सब टेस्ट भेज दिए हैं , शाम तक रिपोर्ट आ जाएगी । चिंता की कोई बात नहीं है ---वगैरा वगैरा ।

लेकिन एक डॉक्टर को तो पता होता है कि किस टेस्ट का क्या मतलब है । यदि पोजिटिव आया तो क्या परिणाम हो सकता है । वो बेचारा तो चिंता में घुला रहता है जब तक सब कुछ ठीक ठाक नहीं हो जाता ।

सच बड़ा मुश्किल होता है एक डॉक्टर के लिए मरीज़ का रिश्तेदार होना

खैर हम भी पहले दिन सी सी यू के बाहर बेंच पर बैठे रहे । खाली , कोई काम नहीं । लेकिन रहना भी ज़रूरी था ।
बैठे बैठे आते जाते लोगों को देखते रहे । और कर भी क्या सकते थे । लोगों की बातें भी सुनते रहे । अलग अलग किस्म के लोग । सबकी अलग अलग समस्याएँ । सबकी अलग अलग प्रतिक्रियाएं ।

सुनकर बड़ा अजीब लग रहा थामरीजों के रिश्तेदारों के बीच बैठकर और उनकी बातें सुनकर ऐसा महसूस हो रहा था जैसे ऊपर वाला अपना धाम छोड़कर पृथ्वी पर उतर आया हो , जनता से ये जानने के लिए कि लोग उनके बारे में क्या सोचते हैंया फिर ऐसा जैसे कोई राजा भेष बदलकर प्रजा के बीच घूम रहा हो उनकी बातें सुनते हुए

इस अनुभव को शब्दों में बयाँ करना बड़ा कठिन है । एक आम आदमी के लिए कितना कठिन हो सकता है , जीवन मृत्यु के बारे में निर्णय लेना । कभी कभी ऐसा लगता था कि मैं किसी को कुछ सलाह दे डालूंलेकिन फिर यही लगता कि बिन मांगे सलाह देना भी कोई उचित बात नहीं । वैसे भी ये फैसले आप खुद ही लें तो बेहतर है ।

खैर , कहते है कि खाली दिमाग शैतान का घर । लेकिन एक कवि का दिमाग भला कहाँ खाली रह सकता है । तो भई खाली बैठे बैठे हमने भी सोचा कि क्यों न इन्ही हालातों पर एक कविता लिख दी जाये । वो भी हास्य व्यंग कविता । आखिर कुछ नज़ारे तो वास्तव में ही बड़े हास्यस्पद लग रहे थे ।

आप भी सोच रहे होंगे कि भला अस्पताल में हास्यस्पद हालात कैसे बन सकते हैंअब यह तो हमारी कविता पढ़कर ही पता चलेगा

तो इंतज़ार कीजिये अगली पोस्ट का

Tuesday, June 22, 2010

वो बड़े खुशनसीब होते हैं , जिनके आप जैसे दोस्त होते हैं ---

सन १९७७ का जून महीना दिल्ली के सात भावी डॉक्टर शिमला घूमने गए । अपना तो यह पहला अवसर था जब हमने दिल्ली से बाहर कदम रखा था । यहीं पैदा हुए , पले बढे , पढ़े । कोई रिश्तेदार भी दिल्ली से बाहर नहीं । आखिर दोस्तों के साथ चल ही दिए ।

शिमला घूम घाम कर जब वापस लौटने का दिन आया तो सबने सोचा कि घरवालों के लिए शिमला की कोई अच्छी सी निशानी लेकर चलना चाहिए । कोई ऐसी वस्तु जो शिमला की विशेषता हो , जिसे देख सब वाह वाह कर उठें ।
सबने खूब दिमाग लगाया, खूब दिमाग लगाया और अंत में यही फैसला हुआ ।

सबने एक एक किलो शिमला मिर्च तुलवाई और ठूंस ठूंस कर बैग में भर ली

बड़ी शान से घर पहुंचे । बेटा पहली बार बाहर जाकर वापस आया था । हमने भी छूटते ही घोषणा कर दी कि एक बहुत खूबसूरत तोहफा लाये हैं शिमला से । लेकिन इसके बाद एक के बाद एक , हमें तीन शॉक लगे

पहला झटका तब लगा जब हमने बताया कि हम शिमला मिर्च लाए हैं और मां ने बताया कि ये तो दिल्ली में भी मिलती है ।
खैर इस झटके से उभरकर हमने कहा कि मिलती होगी लेकिन हम जितनी सस्ती लाए हैं उतनी सस्ती यहाँ नहीं मिल सकती ।
अब दूसरा झटका लगा । पता चला कि दिल्ली में तो इससे भी सस्ती मिलती है ।

लेकिन हमने भी बड़े साहस से काम लेते हुए कहा कि इतनी ताज़ा और बढ़िया किस्म यहाँ मिल ही नहीं सकती ।
लेकिन तीसरे झटके से तो हम आज तक भी नहीं उभर पाए हैं । क्योंकि जब बैग खोला , तो जून की गर्मी में २४ घंटे से बैग में ठूंसी हुई शिमला मिर्च का मलीदा बना हुआ था । आखिर, सारी की सारी फेंकनी पड़ी ।

अब इस कारनामे पर सब इतने हतोत्साहित थे कि आज तक किसी ने किसी से नहीं पूछा कि उसके घर पर क्या तमाशा हुआ ।
आज उनमे से कोई अमेरिका , कोई कनाडा , कोई ब्रिटेन में और बाकि यहीं , उच्च श्रेणी के डॉक्टर हैं

शिमला के माल रोड पर चार मित्रइनमे हम कौन से हैं ?

आज जब कभी सोचता हूँ तो लगता है , हमसे समझदार तो अपना साहबजादा ही रहा । बेटा पांच वर्ष की उम्र में स्कूल की ओर से मसूरी घूमने गया तो वहां से अपनी मां के लिए १५ रूपये खर्च कर एक हैण्ड पर्स लेकर आया । श्रीमती जी ने आज १५ साल बाद भी संभाल कर रखा है , बेटे की पहली गिफ्ट कोजब भी सोचता हूँ , हामिद का चिमटा याद जाता है


पिछले वर्ष आज ही के दिन हमें विदेश भ्रमण का पहला अवसर मिला । अपने उसी दोस्त की वज़ह से , जिसने हमें शिमला घुमाया था ।

डॉ विनोद वर्मा के साथ , घर के बाहरदोनों कैसे बच्चों की तरह खुश हो रहे हैं

तीन सप्ताह तक हम सपरिवार वर्मा परिवार के साथ रहे । साथ घूमे फिरे , खाया पीया , मौज मस्ती की ।
हमें अपनी कवितायेँ सुनाने का भी मौका मिला ।

स्कारबोरो , टोरोंटो , बोब्केजियोन , एल्गोन्क्विन , एजेक्स और क्यूबेक जैसे शहरों में अपना कविता पाठ हुआ ।

यह अलग बात है कि ज्यादातर कवि सम्मेलनों में श्रोता अपने मित्रगण और उनके बच्चे ही होते थे

डॉ वर्मा के घर पर मित्रगण-बाएं से हमारे साथ अनिल जी , संजय , डॉ वर्मा , पीछे खड़े प्रदीप और राज सिंह

एक कवि सम्मलेन में तो श्रोता सिर्फ दो ही थेहमारे मेज़बान पति -पत्नी

जी हाँ जुलाई को हमें श्री समीर लाल जी के दर्शनों का लाभ मिला , उनके निवास स्थान पर जो डॉ वर्मा के निवास के काफी करीब ही था

भले ही पहली बार मिले थे , लेकिन कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि पहली बार मिले हैं । साधना भाभी जी ने जो स्वादिष्ट खाना खिलाया , उसका स्वाद आज भी याद है ।

समीर लाल जी के निवास पर , डॉ वर्मा और हमलेकिन सबने अपना हाथ मजबूती से क्यों पकड़ा हुआ है ?

हम शिमला से तो शिमला मिर्च लेकर आये थे । कनाडा से लाये - Tim Hortons की कैपुचिनो फ्रेंच वनिला कॉफ़ी का एक डिब्बा जिसका स्वाद हमें वैसे ही भाया था जैसे मेरठ मेडिकल कॉलिज के बाहर ढल्लू के ढाबे की चाय पसंद आई थी ।


कहते हैं खाने के बगैर जिंदगी नहीं । गुजर बसर करने के लिए खाते पीते तो सभी हैं । लेकिन जो मज़ा दोस्तों के साथ बैठकर खाने पीने , सुनने सुनाने , सुख दुःख बांटने और बतियाने गपियाने में है , वह और किसी बात में नहीं है ।

खुशकिस्मत हैं वो लोग , जिनके दोस्त होते हैं
वो और भी खुशनसीब होते हैं , डॉ विनोद वर्मा और समीर लाल जी जैसे दोस्त जिनके करीब होते हैं

लेकिन ध्यान रहे कि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजतीदूसरे हाथ को भी अपना फ़र्ज़ याद रखना पड़ता है

Thursday, June 17, 2010

चाय बिन मांगे , पानी मांगे से हम पिलाने लगे ---एक ग़ज़ल

कहते हैं -- अतिथि देवो भव: । हमारे देश में अतिथि का आदर सत्कार करना परम कर्तव्य माना जाता हैलेकिन ऐसा लगता है कि बदलते ज़माने के साथ यह सोच भी बदल रही हैं

बोर्ड रूम में मीटिंग चल रही थीअस्पताल की गर्म समस्याओं पर गर्मागर्म बहस चल ही थी बाहर भी गर्मी , अन्दर भी गर्मी झलक रही थी सी भी प्रभावी नहीं हो रहा थाऐसे में किसी ने पानी माँगाहमने अटेंडेंट को पानी लाने के लिए कहाथोड़ी देर बाद वह आदत से मजबूर , यंत्रवत सा चाय की ट्रे लिए गयाहमने उसे फिर पानी के लिए कहा और महमान को ये पंक्तियाँ लिखकर थमा दी , ताकि उनकी पिपाषा कुछ देर शांत रह सके :

किल्लत ये पानी की है या सोच की ,
मेहमान को चाय बिन मांगे
और पानी मांगने पर ही हम पिलाने लगे

बस इसी से जन्मी यह ग़ज़ल सी रचना
तकनीकि बारीकियों में जाकर , भावार्थ पर ध्यान देकर पढेंगे तो अवश्य आनन्द आएगा


चित्र साभार हिंदुस्तान टाइम्स के सौजन्य से


महमाँ जो घर में मंडराने लगे
घर जाने से हम घबराने लगे

पानी की यूँ किल्लत होने लगी
मांगे पर ही पानी लाने लगे ।

खाने को जब कुछ और नहीं मिला
माटी के लड्डू वो खाने लगे ।

खुद की आईने में जो छवि दिखी
अपने साये से कतराने लगे ।

ज़ालिम पर जब कोई जोर चला
दे गाली दिल को बहलाने लगे

मुर्दों की बस्ती में 'तारीफ' क्यों
गूंगे बहरों को समझाने लगे


नोट : खाना पानी एक सीमित साधन हैयदि अभी से सचेत नहीं हुए तो एक दिन इन्ही की वज़ह से चित होना पड़ेगा


Monday, June 14, 2010

जब वफादार ही बेवफा हो जाये , तो क्या कीजे ----

बेशक कुत्ता एक वफादार प्राणी है लेकिन यदि आपके प्रिय टॉमी , मोती , जूजू या पूपू को कोई गली का कुत्ता काट ले और उसे रेबीज़ हो जाये तो वही स्वामिभक्त , जान से भी प्यारा आपका पालतू कुत्ता , आपकी जान का दुश्मन बन सकता है जी हाँ , मनुष्यों को रेबीज़ का रोग अक्सर और मुख्यतया कुत्ते के काटने से ही होता है
इसी विषय पर अस्पताल के डॉक्टरों और नर्सों को अधिक जानकारी देने के लिए हमने अपने अस्पताल में रेबीज़ पर एक व्याख्यान का आयोजन किया जिसमे अस्पताल के एमरजेंसी विभाग के अध्यक्ष डॉ जे पी कपूर ने विस्तृत जानकारी प्रदान की


कार्यक्रम का शुभारम्भ करते हुए हमने एंटी -रेबीज विभाग का प्रभारी होने के नाते सब को एंटी -रेबीज़ उपचार पर होने वाले व्यय का विस्तृत ब्यौरा देते हुए बताया कि :

* रेबीज़ एक १०० % फेटल रोग है यानि यदि यह रोग हो जाये तो मौत निश्चित है
* इस रोग का कोई इलाज़ नहीं है
* लेकिन इस रोग की रोकथाम करने से १०० % बचा जा सकता है
* रोकथाम करने में प्रतिवर्ष सरकार के करोड़ों रूपये खर्च हो जाते हैं
* इस खर्च को काम करने के लिए सरकार ने एक्सपर्ट्स की राय मानकर एंटी-रेबीज़ टीकों के लगाने के तरीके में बदलाव किया है ( इस एक्सपर्ट्स ग्रुप में हम भी शामिल थे )
* इस तरीके से यह खर्च कम होकर केवल २५% रह गया है

अपने व्याख्यान में डॉ कपूर ने बताया :

रेबीज के लक्षण : रेबीज का सबसे खतरनाक और शर्तिया लक्षण है --हाइड्रोफोबिया यानि पानी से डर लगना इसके बाद कुछ जानने की ज़रुरत नहीं रहती क्योंकि इसका कोई इलाज़ ही नहीं है

रेबीज इनके काटने से हो सकती है : रोग ग्रस्त कुत्ता , बिल्ली , गाय , भैंस आदि पालतू पशु , जंगली चूहा , बन्दर

यदि इनमे से कोई भी आपको काट लेता है तो क्या करना चाहिए ?

* सबसे पहले जख्म को बहते पानी में दस मिनट तक साबुन लगाकर लगातार धोना चाहिए
* इसके बाद जख्म पर कोई भी एंटीसेप्टिक जैसे बीटाडीन , डेटोल या सेवलोन आदि लगा दें
* तुरंत अपने डॉक्टर के पास जाइये

डॉक्टर क्या करेगा ? डॉक्टर आपको टीका लगाएगा---

) टेटनस का टीका
) एंटी रेबीज वैक्सीन
) यदि काटने से खून भी निकला है तो एंटी सीरम का टीका भी लगाना पड़ेगा यह एक बार ही लगता है
) एंटी रेबीज वैक्सीन के लिए आपको कुल पांच बार टीके लगवाने पड़ेंगे , ,,१४ और २८ दिन पर यहाँ ज़ीरो दिन पहले टीके का दिन है ये टीके मांस पेशियों ( इंट्रामस्कुलर ) में लगाये जाते हैं
) टीकों पर होने वाले खर्च को कम करने के लिए आजकल इंट्राडरमल रूट का इस्तेमाल किया जा रहा है इसमें हर बार . एम् एल के दो इंजेक्शन लगाये जाते हैं ,, और २८ दिन पर इस तरह इस तरीके से करीब ७५-८० % की बचत हो जाती है

कुत्ता काटने पर क्या नहीं करना चाहिए ?

* जख्म पर हल्दी , मिर्च , नमक आदि लगाना
* जख्म पर पट्टी बंधना
* टाँके लगाना
* इलाज़ कराना
* टीके का कोर्स पूरा करना

एक बार कुत्ता काटने पर इलाज़ में कम से कम २०००-२५०० रूपये तक का खर्चा आता है लेकिन सरकारी अस्पतालों में यह इलाज़ मुफ्त उपलब्ध है
इसीलिए हमारे अस्पतालों में ऐसे मरीजों की संख्या दिन पर दिन बढती जा रही है


अंत में सभी का धन्यवाद करते हुए हमने एक बार फिर सबका ध्यान इस ओर दिलाया कि जब तक गली में घूमने वाले कुत्तों की आबादी कम नहीं होगी या कोई अन्य उपाय नहीं खोजा जाता , तब तक एंटी रेबीज़ उपचार पर यूँ ही पैसा बर्बाद होता रहेगा

लेकिन ये सब हमें देखकर हंस क्यों रहे हैं ?

भई देखकर नहीं हंस रहे , बल्कि सुनकर हंस रहे हैं
विषय का सारांश प्रस्तुत करते हुए हमने अपनी एक कविता की कुछ पंक्तियाँ सुनाकर अपना संदेश सब तक पहुँचाया :

जब कुछ पशु प्रेमियों ने परस्पर किया विचार
तब गली गली में कुत्तों की हो गई भरमार

अब नगर निगम के अधिकारी तो चैन की बंसी बजाते हैं
और कुत्ते काटे के इलाज़ पर , सरकार के करोड़ों खर्च हो जाते हैं

रेबीज़ कंट्रोल करने का ये वैसा ही सलीका है
जैसे गड्ढा खोदो -गड्ढा भरो , रोज़गार दिलाने का ये भी एक तरीका है

आशा करता हूँ कि इस लेख को पढने के बाद अब आप भी कुत्ता काटे के इलाज के एक्सपर्ट बन गए होंगे