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Friday, May 28, 2010

कभी कभी प्रकृति भी पक्षपात कर जाती है ---

हमारा देश एक विशाल देश है। यहाँ जितनी विविधताएँ और अनेकतायें देखने को मिलती हैं , उतनी शायद कहीं और नहीं मिलेंगी। उत्तर में हिमालय पर्वत श्रंखला , दक्षिण में कन्याकुमारी में मिलते तीन तीन सागर , पश्चिम में सूखा रेगिस्तान और पूर्व में सबसे अधिक बारिस वाला क्षेत्र

इसीलिए हमारा देश पर्यटकों के लिए स्वर्ग समान है

लेकिन यही हाल आम जिंदगी में भी देखने को मिलता है ।
फर्क बस इतना है कि इस विविधता से स्वर्ग के साथ नर्क के भी यहाँ होने का अहसास होता है

कहीं जगमगाते शहर हैं , तो कहीं अँधेरे में डूबे झोंपड़ पट्टी वाले सूखे से गाँव ।
शहरों में भी ऊंची ऊंची आलीशान कोठियों की छाया में बसी झोंपड़ियाँ ।
कुछ इतने अमीर कि पूरा शहर खरीद लें , कुछ इतने गरीब कि एक रोटी भी नसीब नहीं ।
कहीं डिस्को पर थिरकते नौजवान , तो कहीं ३५ की उम्र में बूढ़े लगने वाले खों खों करते बीमार ।
कहीं मंदिर, मस्जिद , गुरूद्वारे और गिरिजाघर में भक्तजन तो कहीं छोटी छोटी कोठरियों में देह व्यापार करती बालाएं।
कोई मदर टेरेसा , महात्मा गाँधी , या विनोबा भावे सा सच्चा समाज सेवक , तो कोई देश को घुन और दीमक की तरह चट कर जाने वाला भृष्ट देशद्रोही ।

ये सब यहाँ एक साथ नज़र आते हैं ।

इनमे से ज्यादातर मानव निर्मित कुंठाएं हैं । हालाँकि , कुछ प्रकृति की भी देन हैं । यह जानकर आश्चर्य होता है कि कभी कभी प्रकृति भी पक्षपात कर जाती है

अब इस नीचे वाले चित्र को ही देखिये । एक ही पेड़ का आधा भाग हरा , और आधा सूखा । यह तो ऐसा हो गया जैसे दो भाइयों में एक अमीर और दूसरा गरीब । यानि प्रकृति में भी दोहरे मांप दंड !


यह चित्र मैंने १९९४ में लिया था । इसमें दूर क्षितिज के पास समुद्र का पानी नज़र आ रहा है । बीच में घनी हरियाली । और यह पेड़ एक पहाड़ी पर था । यहाँ देश विदेश से रोज सैंकड़ों पर्यटक घूमने आते हैं । यह स्थान समुद्र के बीच में है ।

क्या आप बता सकते हैं इस जगह का नाम ? और इस वृक्ष की ऐसी दशा क्यों है ?

48 comments:

  1. निश्चित ही हरा भाग दबंग टाईप का होगा जो अपने भाग के लिये जड़ों द्वारा आपूर्तित भोज्य पदार्थ के साथ-साथ सूखे भाग के लिये निर्धारित भोज्य पदार्थ पर भी कब्जा कर लेता होगा.

    बेहतरीन पोस्ट

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  2. तुलना सच्‍ची है।
    जगह का नाम तो पूरी पृथ्‍वी है।

    लकवा मार गया होगा इंसानी बीमारी ने वृक्ष को भी परेशान कर दिया। पेड़ों का कैंसर भी कह सकते हैं।
    और भाई कैसे, भाई तो इतने गहरे तक जुड़े नहीं होते। इतने भीतर तक तो मित्र ही जुड़ते हैं या जुड़ते हैं आजकल हिन्‍दी ब्‍लॉगर।

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  3. जीवन की विडंबनाओं को ही दिखाता है यह वृक्ष -वैसे मैं समझता हूँ की पर्यटकों ने इस हिस्से के नीचे कुछ जलाया होगा !

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  4. डा. साहिब, आपकी आँखों ने एक दम सही काम किया, एक अच्छे कैमरे के समान, जिसकी सहायता भी आपने ली और एक विचित्र वृक्ष की तस्वीर प्रस्तुत की! और अपने ही शाखा रुपी स्कंध और भुजा के माध्यम से उसका सही वर्णन भी हम तक पहुंचा दिया :) धन्यवाद्!

    यद्यपि इस 'माया' को समझना बहुत गहन अनुसंधान का विषय है, फिर भी गीता में आप संक्षिप्त में पढेंगे की कैसे मानव को एक वृक्ष समान ही समझा गया प्राचीन योगियों द्वारा, किन्तु उसके विपरीत, यानि उल्टा, क्यूंकि उसकी जड़ धरा में नहीं हैं - वे आकाश में बताई गयी हैं!

    जोगियों ने, विविधता को दर्शाने हेतु, पृथ्वी पर सर्वश्रेष्ठ कृति अर्थात मानव शरीर की संरचना में नौ ग्रहों के सार को किसी अदृश्य शक्ति द्वारा उपयोग में लाया गया जाना: किसी नौग्रह (नवग्रह) मंदिर में जायें तो आप पाएंगे हिन्दुओं को नौ ग्रहों को सांकेतिक रूप से जीवन-दायी पानी आदि चढाते, सदियों से, अंग्रेजों की दृष्टि में अंध-विश्वास को दर्शाते, जबकि हम गर्व से कहते हैं की जेरो ('०') हमने दिया जगत को (० से ९ को किन्तु माया के कारण अरेबिक संख्या कहा जाता है!),,, और पानी को चन्द्रमा से धरती पर आया जाना गया, जबकि विभिन्न प्राणियों को पेय-जल प्रदान करने हेतु, सूर्य को अग्नि का माध्यम जान पंचभूतों को निरंतर काम में लगा पाया!...

    जय माता की!

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  5. अद्भुत चित्र ..मैने ऐसा कभी सुना था पर आज आपने दिखा भी दिया...पेड़ के आधे हरे और आधे सूखे होने का कारण शायद सूरज की किरणों का सही ढंग से पेड़ पे नही पड़ना..पर यह जवाब पक्का नही हैं..आप बताएँ क्या कहते हैं इस बारे में?.....बढ़िया अनोखे प्रस्तुति के लिए धन्यवाद

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  6. डा० साहब , एलिफेंटा का इलाका लग रहा है पहाडी के पिछली तरफ से. हाँ, उम्रदराज पेड़ को लकवा मार गया है! और दुनिया का यही तो दस्तूर है ! सब अपने-अपने कर्मों और किस्मत के हिसाब से ! बाकी को छोडिये , ज़रा सोचिये कि सचिन तेंदुलकर ऐसा क्या था जो आज उसे दुनिया जानती है, अरबपति है , सिर्फ एक बल्ला घुमाने से ? नहीं किस्मत और पिछले जन्मो का हिसाब-किताब !

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  7. जितनी विविधताएँ भारत में दिखाई देती हैं उतनी शायद ही कहीं हो..प्रकृति तो प्रकृति आदमियों में भी गहरा सामाजिक, आर्थिक भेदभाव है.
    वृक्ष की तश्वीर अच्छी खींची है आपने. ये दो भाई नहीं हैं . यह तो सीधे-सीधे किसी दम्पति की तश्वीर है ..एक खा-पी कर हरा भरा, दूजा चिंता से सूख कर काँटा हुआ. कौन पुरुष है कौन स्त्री यह नहीं बता सकता ..और भी लोग इस पर विचार करें.

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  8. Joys and woes are woven fine !

    Sukh dukh dono rehte jisme, jeevan hai wo gaon,
    Kabhi dhoop , kabhi chhaon...

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  9. प्रकृति भी पक्षपात करती है ..वास्तव में आजकल ज्यादा ही कर रही है ...
    जीवन के दोनों पहलुओं को साकार करता चित्र ...!!

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  10. चित्र पूरी कथा बयान कर रहा है.

    है शायद एलिफेन्टा का ही!

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  11. गोदियाल जी और समीर जी ने सही पहचाना । यह वृक्ष एलिफेंटा केव्ज के ठीक सामने दीवार के बिल्कुल साथ उगा हुआ था । दिसंबर का समय था । इसलिए पतझड़ भी नहीं था । धूप की कोई कमी नहीं थी । कोई छाया भी नहीं पड़ रही थी इस पर । फिर भी ---
    ऐसा लगता है यह वृक्ष इस बात का संकेत देता है कि जीवन में सुख दुःख , धूप छाँव, मान अपमान , अच्छा बुरा , अपना पराया --सब एक साथ मिलते हैं । जो मनुष्य इनसे परे निकल जाता है , वही सात्विक कहलाता है ।

    वैसे आपको बता दूँ कि अगली बार १९९८ और २००१ में वहां फिर जाना हुआ , लेकिन इस पेड़ के कोई नामो निशान नज़र नहीं आए। जैसे सात्विक पुरुष नज़र नहीं आते ।

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  12. बढ़िया प्रस्तुति ... धन्यवाद

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  13. सचमुच दुर्लभ चित्र है!

    मुझे नहीं लगता दराल साहब कि प्रकृति कभी पक्षपात करती है। पेड़ पौधों को भी बीमारियाँ लगती हैं और शायद यह किसी प्रकार की बीमारी ही हो सकती है।

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  14. डा. साहिब, प्रकृति पक्षपात नहीं करती, वो तो बेचारी गूंगी है और सांकेतिक भाषा में ही बोल पाती है,,, और मानव बहते पानी समान बहता ही चला जाता है (काल के प्रभाव से), या कहीं अटका हुआ जैसे नदी में किसी बाँध के पीछे या नाली/ फव्वारे के मुख में, किसी कूड़े के कारण, जिसको पहले हटाना आवश्यक हो जाता है यदि उसे बहने देना/ ऊंचे जाते देखना हो :)

    ' प्राचीन भारत' में स्थित 'सप्त-द्वीप' (जिसे अंग्रेजों ने मिटटी डाल एक प्रदेश 'बम्बई' परिवर्तित कर दिया और अब हमने इसका नाम बदल माँ दुर्गा के एक स्वरुप मुम्बा देवी के नाम पर 'मुम्बई' में) यानि अरब सागर से लगे दक्षिण-पश्चिम तट पर, सदियों से स्थित गुफा का नाम एलीफैन्ट यानि हाथी पर पड़ा जब वहां अंग्रेजों ने पहले एक हाथी की मूर्ती को रखा पाया {क्यूंकि हिन्दू मान्यतानुसार, या सांकेतिक भाषा में, हर दिशा के राजा को एक हाथी ('दिग्गज') द्वारा दर्शाया जाता रहा था भूतकाल में अनादि काल से, यानी सत्य युग (सतयुग) से, वर्तमान तक यानि कलियुग तक}... इस प्राचीन गुफा में 'सत्यम शिवम् सुंदरम' वाले सतयुग के राजा 'शिव' (अमृत यानी 'विष' का उल्टा) की विभिन्न मूर्तियाँ हैं,,, और मजा यह है कि जोगियों ने इसी अमृत शिव को हर प्राणी के भीतर भी बताया और बाहरी मायावी अस्थायी शरीर को मिटटी!

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  15. बेहद विचारणीय और प्रभावशाली

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  16. IS DHARTI PAR TO ASSA HI HOTA HE

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  17. पूरी जानकारी अच्छी लगी....प्रकृति क्या पक्षपात करेगी?...उसे मानव प्राकृतिक तो रहने दे...

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  18. एक बेहद उम्दा और विचारणीय पोस्ट !
    जीवन का सत्य प्रदर्शित करती पोस्ट !!
    बधाई और आभार !!

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  19. This comment has been removed by the author.

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  20. प्रकृति भी पक्षपात करती है , ऐसे चित्र तो हम देख लेते है पर सोचते नहीं है , आप इसके तह तक गए , वाह
    तस्वीर १९९४ के है पर बिलकुल digital quality की ही लग रही है , digital camere से खीची गई थी या manual से

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  21. पापा ने ऊपर सब कुछ कह दिया है

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  22. This comment has been removed by the author.

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  23. बड़ा अजीब लगा देख कर सर...

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  24. मुझे लगता है आधा हिस्से वाला पेड भी इस का हिस्सा खा गया हो गा, ओर यह उसी चिंता मै दुबला ओर फ़िर सुख गया होगा, जेसे हमारे नेता गरीब का खुन चुस कर लाल टमाटर से होते है, ओर गरीब इस पेड की तरह से...

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  25. आपने समाज में व्याप्त विसंगतियों को बखूबी उभारा है....प्रकृति क्या पक्षपात करेगी...हम उसे कारण दे देते हैं...

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  26. हमारे पूर्वज पहले हमें चेतावनी दे गए जानने को कि 'हम' आखिर हैं कौन? यद्यपि वो यह भी बता गए कि हम अनंत शून्य का प्रतिरूप हैं (जिसे सरल करने के लिए 'दशानन' अथवा 'दशरथ' द्वारा सांकेतिक भाषा में नवग्रह और १० दिशा द्वारा निर्धारित जाना गया)!

    हाथी की मूर्ती को धरातल पर स्थापित कर, आठ में से एक, 'दक्षिण-पश्चिम दिशा' को सांकेतिक भाषा में पेयजल के स्रोत के रूप में एलिफेंटा गुफा द्वारा दर्शाया गया है,,, जहाँ से खारा समुद्री जल भाप बन कर, बादल के रूप में, प्रति वर्ष मॉनसून काल में प्रस्थान करता है उत्तरी-पूर्व के हिमालयी क्षेत्र की ओर...और इसी जल-चक्र की स्थापना के कारण प्राचीन भारत को 'सोने की चिड़िया' कहा गया इसकी विस्तृत गंगा-यमुनी घाटी में उपजी सुनहरी फसल, और हरे-भरे हिमालयी जंगल (शिव की जटा-जूट!) में व्याप्त मीठे फलों से लदे वृक्षों के कारण...किन्तु कुछ फल खट्टे और विषैले भी हो सकते हैं!

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  27. जे सी जी , बहुत अच्छा ज्ञानवर्धन किया है आपने । आभार ।
    मृतुन्जय कुमार जी , ये तस्वीर मैनुअल कैमरे से ली गई है । पेंटेक्स का इम्पोर्टेड कैमरा था । आजकल इम्पोर्टेड कुछ नहीं होता ।
    यह सही है मानव ही प्रकृति को बर्बाद करने पर तुला है ।
    लेकिन आधा हिस्सा ही क्यों ?

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  28. छवि तो आपने बड़ी ही कलात्मकता से खिंचा है, उम्दा फोटोग्राफी कही जा सकती है...

    पर मेरे विचार में प्रकृति कभी भी पक्षपात नहीं कर सकती, प्रकृति सभी को सब कुछ सामान रूप से ही देती है... हाँ कभी-कभी हमें लगता है कि पक्षपात हुआ है लेकिन वो हमारी अज्ञानता ही हो सकती है...

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  29. आपके दोनों सवालों का जवाब तो मेरे पास नहीं हैं.
    इसके लिए तो मुझे कोई समझदार, अनुभवी वृक्ष-विज्ञानी और भूगोल-शास्त्री को ढूंढना पडेगा.
    धन्यवाद.
    WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM

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  30. स्पिलिट पर्सनेल्टी की मिसाल है ये पेड़ महाराज...

    हिंदी ब्लॉगिंग का यही हाल रहा तो यहां भी सात्विक लोग चराग लेकर ढूंढने से भी नहीं मिलेंगे...

    जय हिंद...

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  31. डा. साहिब, हमारे पूर्वज कह गए कि जिनको खाने-पीने को मिल रहा हो, और जिनके पास कुछ करने को नहीं है, वे 'सत्य' को जानने का प्रयास करें, यानी 'संन्यास-आश्रम' में प्रवेश कर अपना निर्धारित कर्त्तव्य निभाएं,,, 'बहती गंगा में हाथ धोलें', और औरों के भी धुला दें - जो यदि इच्छुक हों...जैसे कोई प्यासे को तपती धूप में निस्वार्थ भाव से पानी पिला 'पुण्य' कमाता है ("नेकी कर कुएं में डाल" :)

    जहां तक पेड़ का आधा भाग ही सूखा था, या कभी-कभी दिखाई देता है कहीं और, तो वैसे ही संभव है आपको किसी पोलियो-ग्रस्त व्यक्ति के केवल पैर ही कमज़ोर या सूखे नज़र आये...(मैं जब सेंट स्टीफेंस में बैठा होता था तो वहाँ ऐसे कई व्यक्ति दिखाई पड़ते थे)...

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  32. शायद पूर्व जन्म में इसका आधा हिस्सा स्त्री का रहा हो .....

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  33. @ हरकीरत जी
    इसका भी उत्तर 'शिव पुराण' में शिव के आरंभ में अर्धनारीश्वर रूप धारण करने से,,, तदुपरांत उनकी अर्धांगिनी सती का 'हवन कुण्ड' में कूद आत्महत्या करना,,, और कालांतर में हिमालय पुत्री पार्वती के रूप में पुनर्जन्म ले शिव से ही विवाह करने द्वारा दर्शाया जाता है! शायद ऐसे ही जैसे एक, लगभग इस प्रक्रिया के प्रतिबिम्ब समान, शूक्ष्माणु विभाजित हो दो रूपों में उपस्थित हो और यूं अनंत रूपों में बढ़ सकता है यदि स्तिथि सामान्य हो तो...इसको डा. साहिब शायद और अच्छी तरह समझा सकें...

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  34. वाहवा.... पोस्ट के साथ साथ टिप्पणियां भी बेहतरीन... बधाई मान्यवर..

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  35. डाक्टर साहब .. आपके कैमरे ने और आपकी पैनी नज़र ने अध्बुध द्रश्य कैंच किया है ... जगह तो पता नही .. कारण भी पता नही .. पर आज के समाज की असलियत ... कुछ कड़वे सत्य ... कुछ बदलते नियमों का एहसास ज़रूर करता है ये चित्र ...

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  36. पेड़ का तो पता नहीं पर सभी विकसित देश इसी दौर से गुजरें हैं जहां आज हम हैं...कल सुबह ज़रूर होगी.

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  37. बहुत ही बढ़िया और विचारणीय आलेख! शानदार एवं जानकारीपूर्ण पोस्ट!

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  38. Dr. Sahib,
    Zindge ke sachaee ko khoob beyaan kia hai.
    शहरों में भी ऊंची ऊंची आलीशान कोठियों की छाया में बसी झोंपड़ियाँ ।
    कुछ इतने अमीर कि पूरा शहर खरीद लें , कुछ इतने गरीब कि एक रोटी भी नसीब नहीं ।
    Aap ne theek kaha hai.......
    Yeh hee Zindagee sachaee hai.
    Par.....
    Batve ( wallet) ka khalee hona hee garribee nahee hai.....
    asal mein dil ka khalee hone bhee garribee kha ja sakta hai.
    bahut paise valon ka dil khalee hee hota hai.
    Hardeep

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  39. @ डा. हरदीप जी
    क्षमा प्रार्थी हूँ कहते कि यदि मानव जीवन के 'सत्य' को उसके आरंभ से अंत तक देखा जाये तो शायद कोई भी देख सकता है कि कैसे मूक-बघिर सी प्रकृति की विविधता और इसको उनकी दिनचर्या द्वारा प्रतिबिंबित करते सभी प्राणियों के कर्म के पीछे काल यानी समय का प्रभाव, यानी आठ हाथ या आठ दिशा के राजा हैं (जिसे प्राचीन भारतीयों ने सांकेतिक भाषा में 'अष्टभुजा धारी दुर्गा' या 'विष्णु के आठवें अवतार कृष्ण' की मनोरंजक कहानियों द्वारा दर्शाया, किन्तु आम आदमी गहराई में नहीं जा पाया :),,, सब जानते हैं कि हर व्यक्ति औसतन हर दिन आठ (८) घंटे सोता है; ८ घंटे खेत में, घर में, या फैक्ट्री आदि में काम करता है; और शेष ८ घंटे भूत में किये कर्मों का विश्लेषण और भविष्य पर विचार करता है, या कम से कम उसके पास समय तो होता ही है (भले ही वो कहे को उसके पास टाइम नहीं है :),,, और यही चक्र हर एक नित्य प्रति दोहराता है...

    प्रत्यक्ष रूप में कोई भी देख सकता है कि कैसे मानव (स्त्री अथवा पुरुष) एक बीज (और अंडे) से आरंभ कर वर्तमान में १०० वर्ष (+/-) तक उसके अस्थायी शरीर, अथवा प्राचीन भारत निवासियों के शब्दों में अपनी उधारे कि मिटटी, को उठाये यहाँ से वहां घूमता फिरता है और कुछ कार्य- कलाप में व्यस्त दीखता है,,, कुछ 'उपयोगी' और कुछ 'बेकार' - जबतक उसकी सांस चलती रहती है! किसी ज्ञानी ने जीवन का सार निकाल कहा कि बचपन खेल-कूद में जाता है / जवानी मूर्खता में / बुढ़ापा हाथ मलते :)

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  40. डा. साहिब, कलियुग में 'पूर्व' (यानि जो पहले आया) की अपेक्षा 'पश्चिम' हर क्षेत्र में आगे दिखता है,,, इसे प्राचीन भारतियों ने 'पूर्व' में 'माया' के कारण प्रतीत होता बताया, क्यूंकि निराकार शक्ति शून्य ('०') काल और आकार से सम्बंधित है,,, जिस कारण प्रकृति की रचना और उसका ध्वंस भी शून्य काल में ही होना जाना गया! और अब यदि वो दिख रहा प्रतीत होता है तो शायद हम कह सकते हैं कि यह वैसा ही जैसे हम 'माया जगत' की फिल्म देखते ऐसे खो जाते हैं जैसे वो वर्तमान में ही उसी क्षण हो रहा हो!

    उपरोक्त को हम ऐसे समझ सकते हैं कि आपके द्वारा प्रस्तुत एक वृक्ष का भूत हमने देखा, क्यूंकि ऐसा वो '९४ में था,,, और आपके ही १६ वर्ष पश्चात किये वर्णन से जाना कि वो आपको फिर नहीं दिखाई पड़ा, '९८ और '२०००१ में भी यानी तब से ४ और ७ वर्ष बाद भी!
    'कॉसमॉस' में कार्ल सेगान के माध्यम से जाना कि कैसे वृक्ष हमारे चचेरे भाई समान हैं,,, क्यूंकि दो समान क्रोमोसोम से एक कालांतर में मानव बन गया और एक वृक्ष - एक दूसरे के पूरक - एक वातावरण से ओक्सिजन ग्रहण करता है और उसको परिवर्तित कर देता है कार्बन डाई ऑक़साइड में, जबकि वृक्ष के लिए वो भोजन का काम करता है जिसे वो ग्रहण करने के बाद फिर से ओक्सिजन को उस से अलग कर वातावरण में छोड़ देता है!

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  41. jc

    आप भी अपना ब्लॉग बनाइये. कई जगह आपका कमेन्ट पढ़ कर यह इच्छा हुई कि आपसे अनुरोध किया जाय.

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  42. @ बेचैन आत्मा जी
    धन्यवाद्! मुझसे अन्य कुछेक ब्लॉगर्स ने भी कहा मेरे लगभग ५ वर्ष से (अंग्रेजी में अधिकतर) टिप्पणी करने के कारण,,, मेरे विचार पढ़ कुछेक ने पहले भी लिखा कि वे 'हिन्दू विचारों' को और भली प्रकार जान पाए हैं... किन्तु अब ७० (+) वर्ष की आयु होने के कारण संसार से जुड़े रहना मजबूरी ही है कहलो, और अपने पूर्वजों के अनुसार आवश्यकता है विरक्त भाव से सत्य के खोज की, मस्तिष्क को व्यस्त रखने की...

    मुझे यह विचार आया कि यदि मैं अपना निजी ब्लॉग चालू करूँ तो उसमें कुछ न कुछ लिखना, कहीं से फोटो आदि ले कर आना आदि, मेरी एक मजबूरी हो जाएगी... अभी तो जब तक मैं दिल्ली में अपनी कंक्रीट की गुफा में अकेले होता हूँ और कम्प्यूटर मेरी बेटियों ने मेरे ऊपर नज़र रखने के लिए मुझे दिया ही है, मैं कुछ विचार, जो मेरे मस्तिष्क में प्रतिक्रिया के रूप में उभरते हैं, लिख डालता हूं...

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  43. बेहतरीन पोस्ट, प्रकृति तो अत्याचार सहती है, ना तो ये अत्याचार करती है न ही पक्षपात करती है. ये तो सिर्फ सहने के लिए ही बनी है और मूक सब कुछ सहती है आभार

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  44. हे!...भगवान...फिर पहेली? ...:-(
    निकल लेता हूँ पतली गली से :-)

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