पिछली पोस्ट पर एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण सामाजिक विषय पर आप सभी मित्रों के विस्तृत और निष्पक्ष विचार पढ़कर पोस्ट के सफल होने का आभास हुआ। इसके लिए आप सभी बधाई के पात्र हैं । यूँ तो किसी भी बात पर सभी का एकमत होना संभव नहीं , तथापि, काफी हद तक सहमति नज़र आई। इसका निष्कर्ष पोस्ट की टिप्पणियों के अंत में देख सकते हैं ।
लेकिन यह देखकर मन बड़ा दुखी हो रहा है कि हिंदी ब्लोगिंग आज किस दिशा में जा रही है । कुछ ब्लोगर बंधु काम की बातें छोड़ अवांछित और वाहियात किस्म की बातों में उलझे हुए हैं । ऐसे में अनेक सवाल उठते हैं जेहन में ।
क्या एक दूसरे पर छींटाकशी करना ही ब्लोगिंग रह गया है ?
क्या ब्लोगर्स के पास लिखने को कुछ नहीं रह गया है ?
क्या हिंदी ब्लोगिंग का पतन शुरू हो गया है ?
आप सुशिक्षित हैं ।
आपके पास कंप्यूटर है , उसपर काम करना भी आता है । ज़ाहिर है आप गरीब तो नहीं हैं । देश में ३८ % लोग गरीबी की रेखा से नीचे हैं , जिनके पास न तो पर्याप्त मात्र में खाने को है , न ही शिक्षित हैं , और न स्वास्थ्य सुविधाएँ हैं ।
आप तो कुछ ही भाग्यशाली लोगों में से हैं , जिन्हें ये सब सुख सुविधाएँ नसीब हुई है ।
फिर अच्छा अच्छा क्यों नहीं लिखते ?
आप कवि हैं , कवितायेँ लिखिए ।
आप लेखक हैं , पत्रकार हैं , मुद्दों पर बात कीजिये ।
आप डॉक्टर , इंजीनियर या वकील हैं , जानकारी दीजिये ।
आप सेवा -निवृत हैं , अपने अनुभवों से सबको परिचित कराइये ।
हंसिये , हंसाइये , अपनी संवेदनशीलता से रुलाइये ।
मगर , इस तरह एक दूसरे को रुसवा कर दिलों में ज़हर तो मत फैलाइए ।
हिंदी ब्लोगिंग अभी शैशवकाल में है , इसे समय से पहले ही अंतिम सांस लेने से बचाइये ।
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...बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति !!!
ReplyDeleteसार्थक बात
ReplyDeleteनिराशा की बात फिर भी नहीं है क्योकि उत्श्रृंखलता तो हिस्सा रहा है हमारे परिवेश का.
अब आप भी ऐसा बोलेंगे सर तो हमलोग तो अनाथ महसूस करने लगेंगे ना.. :(
ReplyDeleteबहुत अच्छी सलाह दे दीं आपने छोटी सी पोस्ट में.. आभार सर..
कड़वी सच्चाई ,सारगर्भित पोस्ट।
ReplyDeleteनहीं डॉ साहब ,अभी उत्थान काल ही नहीं आया !
ReplyDeleteहिन्दी ब्लागीरी विकसित हो रही है और होगी। पतन का प्रश्न नहीं है। ये सब घटनाएँ-परिघटनाएँ विकास के दौरान भी घटती हैं। हर घटना के बाद लोग कुछ सीखते हैं और आगे बढ़ जाते हैं।
ReplyDeleteवैसे आप की सलाह पर अमल हो ही रहा है।
सही कह रहे हैं आप!! निश्चिंत रहिये, विस्तार रुकेगा नहीं.
ReplyDeleteहम कुछ ब्लॉगर्स के आपसी मतभेदों के कारण
ReplyDeleteहिंदी ब्लोगिंग का पतन शुरू हो गया है, नहीं कह सकते हैं.... बुराई में से कुछ निकल जाता है ... हमें यह नहीं भूलना होगा कि यदि समुद्र मंथन में जहाँ एक और अमृत निकला तो वहीँ दूसरी और बिष भी निकला ...
सार्थक परिचर्चा चिंतन के लिए बहुत धन्यवाद.....
उम्दा विचारणीय अभिव्यक्ति, ब्लॉग ऐसे ही सोच से आगे बढेगा /
ReplyDeleteडॉक्टर साहब,
ReplyDeleteआपकी चिंता जायज है,
अच्छी पोस्ट-आभार
sahi baat.............
ReplyDelete...ओह!, तो क्या उत्थान हो गया था? कब? :)
ReplyDeleteविचारणीय पोस्ट
ReplyDeleteअरे डा.साहब, अभी तो ये अंगड़ाई है। आगे और चढ़ाई है। यह सब तो होगा ही। बेहतर आयेगा और बदतर भी। चुनाव की नजर हमेशा ही जागरूक रखनी होगी।
ReplyDeleteअसल में तो सर ब्लोग्गिंग के चरित्र के अनुरूप ही है ये मगर दिक्कत सिर्फ़ ये है कि हम सब एक दूसरे से किसी न किसी रूप में परिचित हैं इसलिए टांगी खिंचाई हो या पीठ खुजाई सब दिख दिखा जाता है । ब्लोग्गिंग मतलब ही है बेबाक और बिंदास , हां उद्देश्य वही होने चाहिए जो आपने बताए हैं , मगर देखते हैं कि इसे कब तक सब समझ पाते हैं
ReplyDeleteThis comment has been removed by a blog administrator.
ReplyDeleteजरूरत है,समय रहते ऐसे लोगों को पहचान कर अलग थलग करने की ।
ReplyDeleteमैनें तो हिन्दी वालों से और पढे-लिखों से बहुत कुछ सीख लिया जी। अब मैं भी ब्लागर बन जांऊगां।
ReplyDeleteप्रणाम
डा. दराल साहिब, मुझे यदि मेरे स्टाफ के एक सदस्य ने 'भागवद गीता' की एक प्रति मेरे स्थानांतरण पर नहीं दी होती, और वो मोटी नहीं होती तो उसे शायद दिल्ली में ही छोड़ के न जाता,,, उसे फिर नौ साल बाद लौटने पर ही न पढता - और शायद अपने पूर्वजों की दृष्टि में 'महा मूर्ख' रह जाता (मूर्ख तो फिर भी हूँ :)...
ReplyDeleteक्यूंकि मैंने तब पहली बार जाना था कि उनकी दृष्टि में मानव का लक्ष्य, या उद्देश्य, केवल निराकार ब्रह्म और उसके स्वरूपों को जानना है! और इस कार्य को जान कर परमात्मा द्वारा कठिन बनाया गया है,,, जिस कारण आम आदमी यानि साधारण व्यक्ति (आत्मा) भटक जाता है, भूल भुलैय्या में जैसे, जब तक उसका ध्यान और विश्वास सदैव परम सत्य पर बना नहीं रहता ...
इस कारण शायद मैंने, जब भी मौका लगा, गहराई में जाने का प्रयास किया है, और अपने विचार ब्लोगों में प्रस्तुत किये हैं भले ही वे किसी की समझ में आज आयें या नहीं :) क्यूंकि 'भारत' एक कृषि प्रधान देश है, और मेरे एक टीचर कहते थे कि गुरु एक किसान समान होता है जो बीज बोता है बंजर भूमि में भी - इस आशा से कि वो कभी न कभी तो अंकुरित होगा ही!
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteदराल सर,
ReplyDeleteकुछ नहीं होने जा रहा...सच पूछो तो यही ब्लॉगिंग का असली मज़ा है...अगर ये सब तड़के साथ में न हो बस अकादमिक मुद्दों की सादी दाल खाई जाती रहे तो ब्लॉगिंग का ज़ायका कहां से आएगा...वक्त वक्त पर ये सुनामी आती रहती हैं, फिर सब शांत होकर अपने ढर्रे पर चलने लगता है...वैसे मैं समझता हूं कि मेरी तरह आपको भी अमिताभ बच्चन और शत्रुघ्न सिन्हा दोनों ही पसंद होंगे...अब क्या करें...दोनों लाख कोशिश करने के बावजूद किसी फिल्म में साथ नहीं आते...चलिए उम्मीद पर दुनिया कायम है...
जय हिंद...
बिलकुल सार्थक चिंतन...लाज़मी है ऐसे ख़याल आना....पर ऐसे बवंडर तो आते ही रहेंगे...ब्लॉग जगत अपनी रफ़्तार से चलता रहेगा...मुझे तो छः महीने हुए हैं ब्लॉगजगत ज्वाइन किए ..पर सुना है....यह सब नया नहीं है...ऐसा होता आया है...आशा है बवंडर जल्दी ही थम जाएंगे..
ReplyDeleteउत्थान ही कब हुआ था डा० साहब ?
ReplyDeleteare gondiyal sahab bilkul yahi comment post ka shirshak padhke hi mere man me aya tha.
ReplyDeletekya likhu....... do shetan ek si soch rakhte hain.
हिंदी ब्लॉगिंग के पतन की शुरुआत का सवाल ही नहीं है।
ReplyDeleteअभी तो यह किशोरावस्था में भी नहीं पहुंचा है, क्योंकि नारद के जमाने से आज तक बहुत से विवाद हुए और होते रहेंगे। यहां तक कि एक ब्लॉगर को कमेंट में मां-बहन की गालियां भी लिख दी गई, जिसके नाम से गालियां लिखी गई उसने इंकार किया। ऐसे कई विवाद हो चुके हैं। जहां वैचारिक भिन्नता रहेगी वहां विवाद भी होंगे ही। तब भी यह पतन की बात उठी थी। लेकिन देखिए उस समय महज चार-पांच सौ ब्लॉग थे और आज देखिए 20 हजार या उससे भी ज्यादा।
एकरुपता जो पुराने-नए विवादों में नजर आई है वो यह कि जिनके बीच विवाद हो वे तो खामोश रहें बाकी अन्य कई लोग विवादित मुद्दे पर ब्लॉग पोस्टें लिखकर विवाद को और बढ़ाते रहे, मुद्दे को लंबा खींचते रहे अपने ब्लॉग के ट्रैफिक के लिए, बस यही बात है जो तब के विवाद हो या अब के, समान है।
जब-जब ऐसे विवाद होंगे यही पतन की बात उठेगी बस।
पहले उत्थान तो हो जाए फिर पतन की बात आएगी सर।
डाक्टर साहब , बहुत ही सार्थक पोस्ट है आपकी पर आज कल के माहौल में बढ़िया पोस्टो पर ध्यान कहाँ जाता है हम लोगो का ........... हम लोग खुद खोजते है मसालेदार पोस्टें जहाँ हम अपने अन्दर का गुबार निकाल पाए ........... चाहे इस सिस्टम के प्रति हो या किसी व्यक्ति के प्रति !! अगर हम अपनी इस सोच को बदल ले तो कोई दिक्कत ही ना रहे !!
ReplyDeleteवैसे आपने आज बहुत बढ़िया मार्ग दर्शन किया सब का !!
क्या बात कही है साहब मजा आ गया ....... पर ये भारत देश है.........यहं के इसी तरह के कदम को देखते हुए कहा जाता है कि भारत से निर्यात होने वाले केकड़ों के डिब्बों में ढक्कन नहीं लगाया जाता....सभी एक दूसरे को खीन्चाहते रहते हैं और कोई भी केकड़ा बाहर नहीं निकल पाता.....
ReplyDeleteजय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
आदरणीय दराल साहब
ReplyDeleteसादर अभिवादन
आपके शीर्षक से सहमत नहीं हूँ ...उत्थान और पतन और निर्माण और विध्वंस की प्रक्रिया का सिद्धांत हर जगह लागू होता है ...ब्लागिंग का पतन तो नहीं होगा ....पर बुरे समय के बाद अच्छा समय जरुर आयेगा . ऐसा मैं सोचता हूँ .
महेंद्र मिश्र
जबलपुर
अरविन्द मिश्रा जी , रवि रतलामी जी , अनूप शुक्ल जी , गोदियाल जी , विचार शून्य जी --हिंदी ब्लोगिंग का उत्थान नहीं हुआ है , इसी बात का तो दुःख है । क्या ये शिशु हमेशा शिशु ही रहेगा ?
ReplyDeleteआखिर इसे बुलंदियों पर पहुँचाने के लिए प्रयास तो करना ही होगा।
कुमार ज़लज़ला जी , इस पोस्ट का उद्देश्य किसी व्यक्ति विशेष को अच्छा या बुरा बताना नहीं है ।
मैं तो बस यही कहना चाहता हूँ कि पारस्परिक सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाये रखकर भी ब्लोगिंग हो सकती है ।
वर्ना जैसा कि खुशदीप ने कहा , स्वाद लेने के लिए दाल ( ब्लोगिंग ) में तड़का ( छींटा कसी ) होना भी ज़रूरी है।
एक तड़का तो यहाँ भी लग चुका --नापसंदगी का ।
कमाल है , कोई तो है जो हमें भी नापसंद करता है।
वैसे ये ब्लोगवाणी वालों से अनुरोध है कि लेखक को भी नापसंद करने वाले पाठक की पहचान दिखनी चाहिए ताकि उनके व्यक्तित्व के बारे में कुछ तो ज्ञानवर्धन हो सके ।
जब लोग ब्लागिंग धर्म को भूलकर "मित्रधर्म" तथा "चाटूकार धर्म" ही निभाते रहेंगें तो ऎसा होना तो निश्चित ही है :(
ReplyDeleteआपकी चिन्ता बिलकुल सही है...दाल में तड़का है तो ठीक है लेकिन बिना दाल के तड़का खाने को कहा जाये तो मुश्किल होगी.....
ReplyDeleteवैसे ऐसी पोस्ट पर प्रतिक्रिया ना हो तो वो स्वयं ही खत्म हो जाएँगी...जितना उस पर चर्चा करेंगे उतना ही ऐसे लोगों को बढ़ावा देने का कार्य होगा....बाकी तो जैसे जिंदगी चलती रहती है वैसे ही ब्लोगिंग भी चलती ही रहेगी....खत्म कुछ नहीं होता...उत्थान के बाद पतन होता है और पतन के बाद उत्थान .....इसी उम्मीद में शुभकामनाओं के साथ .
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ReplyDeleteउठा पटक आदमी की जिंदादिली की निशानी होती है। नॉट फिकर सरजी।
ReplyDeleteकैसे लिखेगें प्रेमपत्र 72 साल के भूखे प्रहलाद जानी।
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ReplyDeleteउत्तम प्रस्तुति।
ReplyDeleteअजी एक भारतीया की पहचान यही तो है टांग खिंचो, ओर दुसरे के फ़टे मै पंगा लो, ना हम शांति से बेठे गे ना किसी को बेठने देगे.... हे राम दराल साहब बहुत अच्छी बात कही आप ने,
ReplyDeleteग़ज़ल
ReplyDeleteआदमी आदमी को क्या देगा
जो भी देगा ख़ुदा देगा ।
मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिफ़ है
क्या मेरे हक़ में फ़ैसला देगा ।
ज़िन्दगी को क़रीब से देखो
इसका चेहरा तुम्हें रूला देगा ।
हमसे पूछो दोस्त क्या सिला देगा
दुश्मनों का भी दिल हिला देगा ।
इश्क़ का ज़हर पी लिया ‘फ़ाक़िर‘
अब मसीहा भी क्या दवा देगा ।
http://vedquran.blogspot.com/2010/05/hell-n-heaven-in-holy-scriptures.html
आपकी चिन्ता जायज है!
ReplyDeletemuhhe lagta hai charcha main aane ke liye log aiysa ker rahe hain...
ReplyDeleteDr. Daral,
ReplyDeleteDo not worry. Ego clashes are everywhere. Lets hope for the best.
Divya
वाकई यह सब दुखद है,आपकी चिंता जायज है.
ReplyDeleteबजा फ़रमाया डॉ. साहब आपने।
ReplyDelete.
ReplyDeleteडॉ. दराल, मैं नहीं मानता कि शैशवकाल जैसी कोई स्थितिइतनी चिरस्थायी हो सकती है ।
उत्थान और पतन की बातें, ऎग्रीगेटर के आँकड़ों से ज़ेहन में आती हैं ।
एक ने बवाल किया, भीड़ इकट्ठी हो गयी ।
दूसरे को लगने लगा कि यह तो बहुत अच्छा ज़रिया है, मज़मा बटोरने का.. और इस तरह वह परिपाटी चल पड़ी, जिनसे हम आप दो चार हो रहे हैं ।
किन्तु ऎसा नहीं हैं, बहुत से लोग उद्देश्यपूर्ण, अच्छा और एक स्पष्ट दृष्टि के साथ आज भी लिख रहे हैं, बस वह ऎग्रीगेटर पर कम ही दिखते हैं । यदि आप चाहेंगे तो उन्हें खोज ही निकालेंगे ।
स्थितियाँ इतनी निराशाजनक भी नहीं है ।
डा. दराल साहिब, प्राचीन हिन्दू मान्यतानुसार अनंत ब्रह्माण्ड की रचना शून्य काल में हुई क्यूंकि इसका एक मात्र रचयिता शून्य यानी निराकार है, इस कारण रचना शून्यकाल में ही ध्वंस भी हो गयी होगी!
ReplyDeleteसोचने वाली बात यह है कि फिर यह उत्थान-पतन, अच्छा-बुरा, खट्टा-मीठा आदि, आदि, उल्टा-पुल्टा कैसे दिख रहा है?,,, और इस नाटक का असली दृष्टा कौन है?
हम सब तो अस्थायी हैं, थोडा सा अंश ही इस कारण हमारे लिए देख पाना संभव है अपने १०० वर्ष के लघु जीवन काल में,,, जबकि पृथ्वी चार अरब वर्ष से चल रही लगती है और मानव को इस 'स्टेज' पर आये अभी केवल लगभग ४० लाख वर्ष ही हुए हैं!
आपने सही कहा डॉ अमर कुमार जी । कोई भी स्थिति चिरस्थायी नहीं हो सकती। इसलिए आशा तो है।
ReplyDeleteयहाँ बहुत से अच्छा लिखने वाले भी हैं। लेकिन कहते हैं न एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है।
वैसे ऐसा लगता है कि ये ब्लोगिंग अच्छा माध्यम है भड़ास निकलने का ।
जिस वक़्त हमने ब्लोगिंग शुरू की थी, उस वक़्त माहौल बहुत अच्छा था...
ReplyDeleteलेकिन, अफ़सोस है कि 'कुछ लोगों' ने ब्लॉग जगत रूपी पावन गंगा में 'गंदगी' घोल दी है...और यह दिनोदिन बढ़ रही है...
लोग ज़बरदस्ती अपने 'मज़हब' को दूसरों पर थोप देना चाहते हैं...
गाली-गलौच करते हैं... असभ्य और अश्लील भाषा का इस्तेमाल करते हैं...
किसी विशेष ब्लोगर कि निशाना बनाकर पोस्टें लिखी जाती हैं...
फ़र्ज़ी कमेंट्स किए जाते हैं...
दरअसल, 'इन लोगों' का लेखन से दूर-दूर तक का कोई रिश्ता नहीं है... जब ब्लॉग लेखन का पता चला तो सीख लिया और फिर उतर आए अपनी 'नीचता' पर... और करने लगे व्यक्तिगत 'छींटाकशी'...
'इन लोगों' की तरह हम 'असभ्य' लेखन नहीं कर सकते... क्योंकि यह हमारी फ़ितरत में शामिल नहीं है और हमारे संस्कार भी इसकी इजाज़त नहीं देते... एक बार समीर लाल जी ने कहा था... अगर सड़क पर गंदगी पड़ी हो तो उससे बचकर निकलना ही बेहतर होता है...
आज ब्लॉग जगत में जो हो रहा है, हमने सिर्फ़ वही कहा है...
@ फिरदौस खान जी
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा आपके विचार पढ़, और आपकी उपलब्ध 'सीवी' पढ़... इस कारण मुझे आशा है आपने यह भी जाना या पढ़ा होगा कि हमारे संसार में 'प्राचीन ज्ञानी व्यक्ति' यह भी कह गए कि काल / समय के साथ मानव शरीर की कार्य क्षमता भी घटती जाती है, जो जवानी से बुढ़ापे तक पहुँचने तक सबके साथ होता दिखाई देता है ही, और शायद इसे इस कारण 'प्राकृतिक' ही कहा जा सकता है...
शायद यह भी सभी के समक्ष है कि लोहे में जंग लग उसकी उम्र कम कर देता है,,, और यदि उसकी उम्र और कार्य शक्ति बढ़ानी हो तो कुछ उपाय करने होंगे: जैसे उस पर पेंट चढ़ा दिया जाये अथवा उसको स्टील में परिवर्तित कर दिया जाये, इत्यादि इत्यादि... काश! ऐसे ही मानव का व्यवहार, या प्रकृति. भी पेंट चढ़ा सही हो जाता - (होली के बाद??)!!
फिरदौस जी , आपके लिखे एक एक लफ्ज़ में सच्चाई है । समर लाल जी ने सही कहा है और हम भी ऐसा ही करने में विश्वास रखते हैं । आपने एक गलती भी सुधार दी --शुक्रिया ।
ReplyDeleteजे सी जी ने भी सही बात कही है ।
सही कहा आपने , पर कोई अमल करे तभी तो . माधव पर कमेन्ट और सही सलाह के लिए शुक्रिया
ReplyDeleteSab kuch seekha hamne na seekhi hoshiyari....
ReplyDeleteटी. वी. के शोज देखते-देखते हर कोई आजकल सबसे बड़ा कौन वाला गेम खेल रहा है. ब्लॉग में भी राजनीति घुस आई है....इसे बचाएं !!
ReplyDelete_______________
'पाखी की दुनिया' में आज मेरी ड्राइंग देखें...
स्रजन की शुरुआत, पतन के बाद ही तो होती है ...
ReplyDeleteआशावादी रहें ... ये सब तो चलता ही रहता है ,.....
पता नहीं मानव जीवन में 'विभिन्न धर्म' का कब प्रवेश हुआ, एक 'प्राचीन भारतीय' सोच यह भी है कि पृथ्वी पर जीवन असल में भूतकाल में एक परीक्षा थी, काल-चक्र में प्रवेश पाई आत्माओं की - कलियुग से सत्य युग तक (समुद्र-मंथन की कथा में जैसे चार स्टेज में, या चार युगों में)...
ReplyDeleteयद्यपि हर आत्मा परमात्मा का ही स्वरुप थी...किन्तु किसी पूर्व- निर्धारित क्रम से, ८४ लाख योनियों से गुजर, किसी भी आत्मा विशेष के लिए केवल मानव रूप में ही इस परीक्षा में उत्तीर्ण होना संभव था... यदि सांकेतिक भाषा में वर्णित 'विष्णु के अष्टम अवतार कृष्ण' के प्रिय मित्र अर्जुन समान कोई मानव 'अपने चंचल मन को साध', यानि साधना कर, निराकार परमेश्वर के अस्तित्व को जान सके, यानी 'पक्षी की केवल आँख ही देखे', या 'प्याले में घूमती मछली की, केवल उसका प्रतिबिम्ब देख, आँख भेद सके' (अमावस्या के बाद सूर्य की किरणों के चाँद द्वारा परावर्तित होने के पश्चात पृथ्वी से चाँद मछली समान दिखाई देता है :)...
और अनुत्तीर्ण होने पर आत्मा फिर जन्म-मृत्यु-जन्म के चक्र में डल जाती थी,,, और यह चक्र इस प्रकार चलता ही रहता था, जब तक अंततोगत्वा हर आत्मा उत्तीर्ण नहीं हो गयी और भूतनाथ शिव या 'महाकाल' में, यानि परमात्मा में, समां नहीं गयी...
जिस आत्मा ने सत्य जान लिया उसने 'शिव' यानि विष का उल्टा 'अमृत' को / 'आत्मा' या खुद को पा लिया :)
और 'हिन्दू मान्यतानुसार' भूतनाथ शिव (योगेश्वर विष्णु, अथवा नादबिन्दू) और उसी की अनंत आत्माओं द्वारा 'भूतकाल' में खेला गया नाटक, माया के प्रभाव से किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान में खेला जा रहा है - किन्तु उल्टे क्रम में,,, यानि परम ज्ञान की स्तिथि, सतयुग, से आरम्भ कर (जब कुछ भी कर पाना संभव हो पाया था केवल परमात्मा के सर्वगुण-संपन्न होने पर) घोर अज्ञान की स्तिथि, कलियुग, तक बार बार...(जिस ओर 'मायावी फिल्म जगत' में बनी अनंत फिल्में भी संकेत करती प्रतीत होती हैं, और आत्मा की उत्पत्ति की ओर संकेत भी मिलता है, उदाहरणतया 'अमिताभ बच्चन' नामक पात्र के द्वारा)...
meri koshish shuru se hi isi dishaa main hi rahi hain,
ReplyDeleteaaj aapne jo baat kahi hain, usi baat ko lekar maine blogging shuru ki thi or abhi bhi usi par safaltaa-purvak, dridtaa-purvak kaayam bhi hoon.
thanks.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
बहुत नहीं कहूँगा ....बस इतना की ..आपकी बात से १००% सहमत हूँ .....आपकी चिंता जायज है
ReplyDeleteआपकी बात सही है...कुछ लोगों के पास विषय नहीं है लिखने के लिए लेकिन किसी ना किसी बहाने चर्चा में बने रहना चाहते हैं...इसलिए कोई ना कोई विवाद खड़ा करके सुर्ख़ियों में बने रहना चाहते हैं|
ReplyDelete