कभी कभी मैं सोचता हूँ कि अपनेपन की मिठास का अहसास आदमी को तभी होता है जब आदमी अपनों से दूर होता है। दिल्ली जैसे बड़े शहर में जहाँ पडोसी पडोसी से बात करने में दिलचस्पी नहीं रखता , वहीँ घर से बाहर निकलते ही मनुष्य का स्वरुप बदल जाता है । वही पडोसी जो घर के बाहर हेलो कहने में भी शर्माता है , यदि बाहर कहीं मिल जाये तो देख कर मुस्कराता अवश्य है । यदि किसी दूसरे शहर में मुलाकात हो जाये तो फिर प्रेम प्रदर्शन देखने लायक होता है ।
शायद यही हम हिन्दुस्तानियों की खूबी है । हम भले ही आपस में मन मुटाव रखें , जात पात , धर्म या प्रान्त के नाम पर लड़ते रहें , लेकिन देश से बाहर निकलकर सब एक हो जाते हैं ।
एक अपनेपन का अहसास निखर कर बाहर आ जाता है ।
कुछ इसी तरह का अनुभव हमें हुआ , अपनी गत वर्ष की कनाडा यात्रा में ।
हुआ यूँ कि हम एल्गोन्क़ुईन के जंगल में तीन दिनों की कैम्पिंग ख़त्म कर टोरोंटो लौट रहे थे । उन दिनों बारिस बार बार आ रही थी । कैम्प से निकलते ही फिर काले बादलों की घटा छा गई। लम्बी काली घुमावदार सड़क के दोनों ओर घने जंगल के बीच से निकलते हुए मौसम बड़ा रहस्यमयी लगने लगा था।
दो घंटे ड्राइव करने के बाद , रिम झिम होती बारिस और सुहाने मौसम में बड़ा मन हुआ कि कहीं चाय पी जाये । ऐसे में तो चाय पकौड़े अपने आप ख्यालों में समा जाते हैं । लेकिन वहां जंगल में भला कहाँ चाय मिल सकती थी । खैर तभी सड़क किनारे कुछ मकान दिखाई देने लगे । हम समझ गए कि अब जंगल से बाहर आने वाले हैं । शायद कोई तो ढाबा या रेस्ट्रां मिल जाये । तभी एक ढाबा मिल ही गया ।
हमारी छै में से तीन गाड़ियाँ पहले ही दूर निकल चुकी थी । शेष बची तीन गाड़ियाँ मुड ली ढाबे की ओर ।
अभी हम नीचे उतर ही रहे थे कि ढाबे का मालिक बाहर निकल आया । शायद उसने हमें अन्दर से देख लिया था ।
हमें देख कर वो समझ गया था कि हम हिन्दुस्तानी हो सकते हैं । और जब उतर कर हमने हिंदी में चपड़ चपड़ करनी शुरू की तो उसे यकीन ही हो गया ।
उसने हमसे पूछा कि क्या हम इण्डिया से हैं । हमने बताया कि हम दिल्ली से आये हैं , बाकि सभी यहीं टोरोंटो में रहते हैं । यह सुनकर वह बड़ा खुश हुआ , क्योंकि वह भी भारतीय ही था ।
हमने भी सोचा कि चलो किसी हिन्दुस्तानी ढाबे वाले का ही भला किया जाये , वहां खा पीकर ।
और ऑर्डर दे दिया ढेर सारा --कॉफ़ी , कोल्ड ड्रिंक्स और स्नैक्स आदि ।
रेस्ट्रां के अंदर का दृश्य
खा पीकर जब हम चलने लगे और बिल पूछा तो वो कहने लगा --अजी बिल केदा , तुसी साडे पिंड तों हो , साडे बराहा हो जी । असी तुहानू बिल देवांगे ? ना जी ना , सानु कुछ नहीं चाहिदा ।
हमने उससे बहुत कहा कि भाई ऐसा तो अच्छा नहीं लगता । आपने हमें इतने प्यार से खिलाया पिलाया , यही बहुत है , पैसे तो लेने ही चाहिए । लेकिन वो नहीं माना और चलते चलते सब बच्चों को चोकलेट भी दे दीं ।
अब ऐसे में शायद यही उपयुक्त रहता कि हम उसे कोई उपहार देते जाते । लेकिन जंगल से लौट रहे थे , ऐसे में भला हमारे पास क्या उपहार हो सकता था ।
इसलिए गर्म जोशी से हाथ मिलाकर ,सबने खूबसूरत मुस्कान देकर अपने अन्जान हिन्दुस्तानी दोस्त से विदा ली।
आज भी मैं जब सोचता हूँ , तो उस हिन्दुस्तानी का अपने देश और देशवासियों के प्रति प्यार देखकर नतमस्तक हो जाता हूँ ।
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बाकी सब सपने होते हैं,
ReplyDeleteअपने तो अपने होते हैं...
हम हिंदुस्तानियों को हिंदुस्तान की कद्र का असली अहसास वतन से बाहर जाकर ही होता है...
जय हिंद...
बिलकुल सही कहा आपने मैने भी यही महसूस किया यहाँ आ कर । पूरी बात मेरी पोस्ट पर देखें। आपकी बहुत सी पोस्ट मिस हो रही हैं जून मे ही सभी पढ पाऊँगी। धन्यवाद शुभकामनायें
ReplyDeleteअच्छा लगा जानकर. निश्चित ही देश से बाहर आकर देश के लोगों को पाकर बहुत अच्छा लगता है.
ReplyDeleteअपने अपने ही रहेंगे। डॉ. साहब उनका चित्र ही ले आते। हम भी वहां जाते तो उनसे मिल आते। खैर ... खूब अच्छा और संवेदनशून्य होते समाज में शून्य को अंकों की ओर बढ़ाता किस्सा।
ReplyDeleteयही हैं मानवता की के मिसालें जिन पर मानव जाति फख्र करती है
ReplyDeleteसही कहा आपने , इन चीजो की अहमियत भी तभी महसूस होती है जब घर से दूर हो, वरना तो घर की मुर्गी दाल बराबर ! बढ़िया और प्रेरक संस्मरण !
ReplyDeletesaahab videsh tha tabhi aisa hua..yahan to kab thag le apne hi kya pata :)
ReplyDeleteदिल्ली जैसे बड़े शहर में जहाँ पडोसी पडोसी से बात करने में दिलचस्पी नहीं रखता , वहीँ घर से बाहर निकलते ही मनुष्य का स्वरुप बदल जाता है ।
ReplyDelete--- --- आपसे सहमत।
...जज्बे को सलाम !!!!
ReplyDeleteबहुत सही कहा डा. साहिब, किन्तु क्यूंकि यह 'सत्य' है यानी सबके साथ होता है, इसे 'वैज्ञानिक दृष्टिकोण' से देखें तो शायद इससे निष्कर्ष निकलेगा जिसे हमारे पूर्वज कह गए कि सत्य को जानने के लिए दूरी आवश्यक है (जैसे 'योगी' यानि सत्यान्वेशी दूर हिमालय में जंगली जानवरों के रहते, खाने का कोई भरोसा नहीं रहते आदि भी चले जाते थे!), यानि अंग्रेजी में कि 'नजदीकी घृणा उत्पन्न करती है'...और भारत में तो झगड़ने के लिए मौके अनंत मिल जाते हैं, विभिन्न भाषा, धर्म, खान-पान, इत्यादि इत्यादि...और जनसँख्या दिन प्रतिदिन बढ़ने के कारण समस्या गहरी ही होती जा रही प्रतीत होती है,,,जिसकी झलक देखने को मिलती है जब एक ही पार्टी के नेता भी एकमत नहीं हो पा रहे किसी भी एक विषय पर और चैनल आग में घी का काम कर रहे हैं :)
ReplyDeleteबढ़िया संस्मरण लगा डाक्टर साहब। सही बात तो यह है कि जब हम अपने अपने कुओं से बाहर निकलते हैं, हमारी सोच का दायरा भी विस्तृत होता है।
ReplyDeleteआभार एक सुखद संस्मरण हमारे साथ शेयर करने के लिये।
हिंदुस्तानियों को हिंदुस्तान की कद्र का असली अहसास वतन से बाहर जाकर ही होता है...
ReplyDeleteअपनों को भी बिछड़ने के बाद ...!!
जी हाँ,
ReplyDeleteअपने तो अपने ही होते हैं!
आदमी अपनों से दूर चला जाता है पर बाद में जब दूरी का एहसास होता है तो बहुत दुख होता रहता है ऐसे में जब कभी पुराने पल सामने आते है तो बहुत खुशी होती है विदेशों में जब कही एक भारतीय दूसरे भारतीय से मिलता है तो निश्चित ही बड़ी खुशी होती है...बहुत बढ़िया संस्मरण डॉ. साहब बधाई
ReplyDeleteबहुत सुन्दर संस्मरण!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लगा सस्मरण डाक्टर साहब , इसी को तो कहते है दिलदार भारतीय ।
ReplyDeleteआपकी इस शानदार पोस्ट पर मैं "Very good" का कमेन्ट नहीं दे सकता ......संस्मरणात्मक रूप से यह पोस्ट बहुत अच्छी लगी... तारतम्यता बहुत खूबसूरती से मेनटेन है....
ReplyDeleteआजकल मैंने "वैरी गुड" का कमेन्ट देना शुरू कर दिया है...
यह तो हमारी पुरानी परम्परा रही है,यह कायम रहे तो समझिये मानवता कायम है.
ReplyDeleteअच्छी लगी पोस्ट.
बढ़िया संस्मरण.....दूर जा कर ही इंसान की अहमियत पता चलती है......दूसरे देश में जा कर अपने देश के सारे लोग अपने लगने लगते हैं....
ReplyDeleteबड़ी ख़ूबसूरत यादें संजोई हैं...यह तो सच है....
ReplyDeleteबाहर कोई जाना पहचाना चेहरा भी दिख जाए तो लगता है...कब का बिछड़ा हुआ था
कई बार मैं खुद से पूछता हूं कि अपने रोज के मिलने वालों और पडोसियों से तो मैं ऐसे अदब और प्यार से बात नहीं करता, जितना ब्लागिंग में बिना मिले लोगों से
ReplyDeleteकहीं ऐसा तो नहीं कि ज्यादा दूरी = ज्यादा प्यार
बहुत सुन्दर संस्मरण सर.. ये सच में कमाल की ही बात है की वो हिन्दुस्तानी तहज़ीब को देश से इतनी दूर रह कर निभा रहा था.. वर्ना आजकल कुछ लोगों को छोड़ दें तो अधिकांश देश से बाहर निकलते ही अंग्रेजों के भी पिताजी हो जाते हैं..
ReplyDeleteपरदेस में अपने लोगों से मिलना बहुत सुखद होता है.
ReplyDeleteज्यादातर लोग अकेलेपन का शिकार हैं और प्यार बांटने का मौका कोई चूकना नहीं चाहता. अच्छे लोगों की यही पहचान है.
मनुष्य के मनोविज्ञान को समझना नामुनकिन है , कब क्या सोच ले , क्या कर दे . पर एक बात तय है की आदमी दिल से नेक , भला और सहृदय पैदा होता है पर परिस्थितियाँ उसे बदल देती है ,
ReplyDeleteबहुत सुन्दर संस्मरण, कई बार ऐसी घटनाएं होती है जिससे लगता है प्यार ही सब कुछ है बाकी सब कुछ बेकार
http://madhavrai.blogspot.com/
http://qsba.blogspot.com/
सौ फीसदी सच बात है...खासकर ऐसे देश में जहाँ नौकरीपेशा परिवारों को ही वीज़ा मिलता हो...दोस्त ही करीबी रिश्तेदार जैसे लगने लगते हैं.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया किस्सा सुनाया जी आपने !!
ReplyDeleteबिलकुल सही बात कही आप ने, मै भी कभी कभी जवर्द्स्ती पकड के ले आता था अपने भारतिया मित्रो को जिने मै नही जानता था, फ़िर उन्हे खिलाना ओर बाते करना अच्छा लगता था, यहां सालो बीत जाते है किसी देसी को देखे, लेकिन यहां विदेशो मै भी कुछ भारतिया लोग टोपी पहनाने वाले मिल जाते है, उन से साबधान रहना चाहिये... मेरे गांव मै हमारे सिवा कोई भारतिया नही इस लिये मुझे कोई भारतिया दिखता है तो मुझे लगता है कि आज तो भगवान मिल गये, बहुत से किस्से है यहां के, आप का लेख पढ कर मजा आ गया
ReplyDeleteदिल को छू गयी जी आपकी ये पोस्ट!ये एहसास ही तो हमें मनुष्य होने का सबूत देते रहते है...
ReplyDeleteकुंवर जी,
आपकी पोस्ट पढ़ कर हमारे मन में भावुकता पैदा हो गई।
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रसतुति
You can take Indians, out of India......But you cannot take Indianness out from Indians.
ReplyDeleteआप सभी को यह पोस्ट अच्छी लगी , आभार । ज़ाहिर है , दिल में सभी के प्यार भरा है । बस उसे उजाला दिखाने की ज़रुरत है ।
ReplyDelete@ अंतर सोहिल
अक्सर हम अपने चारों ओर अहम् के औरा से घिरे रहते हैं । शायद बाहर जाकर यह औरा स्वयं टूट जाता है ।
@ दीपक
ऐसा होना स्वाभाविक है , इस व्यवसायिकता से भरे संसार में ।
@ राज भाटिया
बेशक राज जी , अच्छे बुरे लोग सभी जगह होते हैं । आँख बंद कर किसी पर विश्वास नहीं करना चाहिए ।
बहुत सही कहा Zeal.
हमारे अपने ही देश में ही इतनी विविधता है कि जैसा हमने, पांच सदस्यी परिवार ने, अनुभव किया, पूर्वोत्तर राज्यों में हम सत्तर-अस्सी के दशक में हिंदी भाषी क्षेत्रों से आये सब 'विदेशी' (विदेखी, मायांग, आदि) कहलाये जाते थे (भूटान में तो वो स्वभाविक ही था, और भूटानियों और नेपालियों से हमें बहुत आदर और प्रेम मिला),,, केवल कुछ क्षेत्रीय परिवार जो 'भारत' में अन्य स्थानों में कभी रह चुके थे पेशे के कारण, जैसे रेलवे या फौजी डॉक्टर आदि के परिवार, या जो भारत के अन्य क्षेत्रों में कभी काम या भ्रमण कर चुके थे और हमसे पडोसी या आवश्यकता होने के नाते आदि उनसे मिलना हुआ, उनको छोड़, वहां हमारी मित्रता और अधिक नजदीकी, हिंदी भाषियों से ही अधिक हुई... आज भी उनमें से कुछ क्षेत्रीय अथवा हिंदी-भाषी दिल्ली में मिल जायें तो उसी प्रेम के भाव से मिलते हैं, या कभी कभार फ़ोन से भी याद कर लेते हैं...
ReplyDeleteवाह!!!!!!!!!!! अपने देश से दूर, कोई भी किसी भी प्रान्त या भाषा का हिन्दुस्तानी मिल जाए उसमे खोजे गए नाते रिश्ते खुशियाँ कुछ अलग ही रंग जमाती हैं बहुत सुखद अनुभूति
ReplyDeleteसच है अपनो से डोर रह कर अपनेपन का एहसास होता है .... हम भी भारत से बाहर रहते हैं और सब का अपना पं देख कर लगता है की हम भारत वासी कितने सौभाग्यशाली हैं ... किसी न किसी धुरी से जुड़े हैं ....
ReplyDelete"बहुत दिनो के बाद वतन की मिट्टी आई है"
ReplyDeleteसुंदर
बहुत ही बढ़िया पोस्ट ...सच कहा आपने अपने बाहर जाकर ज्यादा अपने हो जाते हैं ..मुझे भी कुछ याद आ गया .जब हम शिकागो कि सड़क पर ठण्ड में बस का इंतज़ार कर रहे होते थे तो कई बार कोई टेक्सी वाला हमें फ्री में लिफ्ट दे देता था ..ये कह कर कि अपने बन्दे हो जी ..आप भी कभी किसी अपने के काम आ जाना हमारा किराया मिल जायेगा.
ReplyDeleteदूर होने पर रिश्तों की अहमियत बढ़ जाती है ।
ReplyDeletevidesh main aane ke baad bhi hindustaan ke rang...yahi hamari pahchaan hai.
ReplyDeleteसच है. बाहर सब कितने अपनेपन से मिलते हैं, कई बार देख चुकी हूं मैं भी. बहुत सुन्दर पोस्ट.
ReplyDeleteऊपर की तस्वीर इतनी ज़बरदस्त है कि आपके ब्यौरे पर ध्यान केंद्रित ही नहीं कर पाया।
ReplyDeleteडा. साहिब, एक सुना सुनाया चुटकुला इस विषय पर भी:
ReplyDeleteदो सिख न्यू यॉर्क के एक बार में एक ही मेज पर बैठे थे तो उनकी बात पर सबका ध्यान चला गया जब पहले ने पूछा, "आप भारत में कहाँ से आये हैं ?" और उसके उत्तर में दूसरा बोला, "नयी दिल्ली से."
जिसे सुन पहला बोला "अरे! मैं भी नयी दिल्ली से ही आया हूँ!"
और फिर बोला, "दिल्ली में आप कौनसी कालोनी में रहते हैं ?"
दूसरे ने उत्तर दिया, "डब्ल्यू ई ए करोल बाग़ में."
पहला बोला "कैसा संयोग है! मैं भी डब्ल्यू ई ए करोल बाग़ में ही रहता हूं!"
फिर उसने पूछा, "आपका मकान नंबर क्या है?"
सब हैरान रह गए जब उसके नंबर बताने पर दोनों उठकर साथ चल दिए क्यूंकि पहले का जवाब था कि "उसी घर में वो भी रहता था!"
उनके चले जाने के बाद वेटर ने साफ़ किया कि दोनों बाप-बेटे थे और रोज वहाँ दारू पी घर जाने से पहले यही डायलोग दोहराते थे :)
हा हा हा ! दारू चीज़ ही ऐसी है ।
ReplyDeleteमजेदार लतीफा।
बडे पते की बात कही आपने, जो चीज हमारे पास नहीं होती, उसकी अहमियत हमें तभी पता चलती है।
ReplyDelete--------
क्या हमें ब्लॉग संरक्षक की ज़रूरत है?
नारीवाद के विरोध में खाप पंचायतों का वैज्ञानिक अस्त्र।
मैं आपकी बात से पूर्णतया सहमत हूँ.
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा आपका वृत्तांत (कनाडा दौरा) जानकर.
दराल जी,
मुझे विदेशी सिक्को और नोट्स का शौक हैं.
क्या आप इस सम्बन्ध में मेरी मदद कर सकते हैं???
धन्यवाद.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
सही लिखा आपने..कई बार हम अंडमान तक में यही बात महसूस करते हैं.
ReplyDelete___________
'शब्द सृजन की ओर' पर आपका स्वागत है !!
अवश्य, सोनी जी । आप अपना इ-मेल पता दीजिये , मैं कोशिश करूँगा । :)
ReplyDeleteअपनों के बीच अपनों की कद्र नहीं होती...बाहर जा कर ही उनकी ...या दूर रह कर ही उनकी अहमियत पता चलती है
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