पिछले दिनों दिल्ली के मायापुरी क्षेत्र की कबाड़ की मार्केट में एक अत्यंत भयानक हादसा हुआ । हुआ यूँ कि दिल्ली विश्वविद्यालय के केमिस्ट्री विभाग ने २५ साल से बेकार पड़ा कबाड़ नीलाम कर दिया । लेकिन दुर्भाग्यवश इसमें सक्रिय कोबाल्ट ६० जैसा अत्यधिक असरदार रेडियोएक्टिव पदार्थ होने की वज़ह से भयंकर हादसा हो गया ।
आपको भी जिज्ञासा होगी कि ये कोबाल्ट ६० और इस जैसे पदार्थों में आखिर ऐसा होता क्या है कि एक अदृश्य दुश्मन की तरह छुपकर वार कर जाते हैं और पता भी नहीं चलता । आइये आज न्यूक्लियर एनर्जी के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं।
रेडियोएक्टिविटी क्या होती है ?
पदार्थ ( ठोस, द्रव्य , गैस ) तत्वों और तत्वों के मिश्रण से बना है। तत्व में अणु (मोलिक्युल ) , अणुओं में परमाणु (एटम ) होते हैं . परमाणु पदार्थ का सबसे छोटा रूप है जिसमे पदार्थ के सभी गुण पाए जाते हैं। परमाणु में प्रोटोन , न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रोन होते हैं जिनकी एक निश्चित मात्रा होती है।
जिन एटम्स में प्रोटोन और न्यूट्रॉनों की संख्या बराबर या एक निश्चित अनुपात में होती है , उन्हें स्थिर एटम कहते हैं । यानि इनका स्वरुप कभी नहीं बदलता । लेकिन कुछ एटम्स ऐसे होते हैं जिनमे न्यूट्रॉंस की संख्या प्रोटोंस से कहीं ज्यादा होती है , इन्हें अनस्टेबल या अस्थिर परमाणु कहते हैं । ये स्थिरता प्राप्त करने के लिए कुछ पार्टिकल्स ( कण ) या इलेक्ट्रोमैग्नेटिक किरणें लगातार निकालते रहते हैं जब तक की वे स्थिर नहीं हो जाते । ऐसे एटम्स वाले तत्वों को रेडियोएक्टिव पदार्थ कहते हैं। और इन एमिशन्स को रेडियोएक्टिविटी कहते हैं।
इन कणों और किरणों में चार्ज या एनर्जी भी होती है । क्योंकि ये एटम के न्यूक्लियस से निकालते हैं , इसलिए इस एनेर्जी को न्यूक्लियर एनर्जी कहते हैं।
पार्टिकल्स -- एल्फा--- जो पॉजिटिवली चार्ज्ड होते हैं और बीटा जो पोजिटिव और नेगेटिव दोनों हो सकते हैं ।
रेज ---गामा रेज , एक्स -रेज
ये सभी अदृश्य होते हैं । लेकिन इनका प्रभाव हमारे शरीर के विभिन्न अंगों पर पड़ता है , यदि एक्सपोजर हो जाये। एक्सपोजर के दौरान बिलकुल पता नहीं चलता , लेकिन कुछ समय के बाद इसके प्रभाव दिखाई देने लगते हैं। जितना ज्यादा एक्सपोजर होगा , प्रभाव भी उन ज्यादा होगा।
न्यूक्लियर एनर्जी का क्या उपयोग होता है ?
चिकित्सा क्षेत्र : मेडिकल रेडियोग्राफी , रेडियेशन थेरापी , न्यूक्लियर मेडिसिन स्कैंस , मेडिकल उपकरणों का स्टर्लाइजेशन , रोगों का इलाज।
एक्स रेज : शरीर के विभिन्न भागों का एक्स- रे और सी टी स्कैन करने में उपयोग होती हैं।
गामा रेज : न्यूक्लियर मेडिसिन स्कैन में काम आती हैं ।
बीटा पार्टिकल्स : थायराइड स्कैन और थायराइड के उपचार में काम आते हैं ।
एल्फा पार्टिकल्स : ट्यूमर्स के इलाज में काम आते हैं।
कोबाल्ट ६० : यह कोबाल्ट का आर्टिफिसियल रेडियोएक्टिव रूप है। यह मूलत: रेडियोथेरपी में काम आता है।
शरीर के विभिन्न अंगों में कैंसर के इलाज के लिए प्रयोग होता है।
इसके अलावा नॉन मेडिकल इस्तेमाल भी होता है ।
न्यूक्लियर रिएक्टर्स
इंडस्ट्रियल रेडियोग्राफी
स्मोक डिटेक्टर
रेडियोएक्टिव ट्रेसर्स
इससे क्या हानि हो सकती है ?
कुछ विकिरण तो वायुमंडल में प्राकृतिक रूप में भी होता है जैसे कोस्मिक रेज, एक्स्ट्रा टेरेस्ट्रियल रेडिएशन , सोलर रेडिएशन और radon ।
मनुष्यों में इस की अधिकतम मात्रा १ mSv तक सुरक्षित है।
मनुष्यों में इससे अधिक एक्सपोजर मनुष्य द्वारा निर्मित यंत्रों द्वारा ही होता है।
एक्सपोजर दो तरह से हो सकता है --धीरे धीरे लम्बे समय तक जैसे किसी लैब या प्लांट में काम करने वाले कर्मचारियों में । या फिर अचानक अधिक मात्रा में जो किसी दुर्घटना की वज़ह से हो सकता है।
क्रोनिक एक्सपोजर :
विकिरण हमारे शरीर की कोशिकाओं पर प्रभाव डालता है । इसका सबसे ज्यादा असर डी एन ए पर पड़ता है जिससे उनमे म्यूटेशन हो जाता है । इसकी वज़ह से कैंसर , ल्यूकेमिया जैसी बीमारियाँ हो सकती हैं ।
आकस्मिक प्रभाव :
इसे रेडिएशन सिकनेस कहते हैं। और इसका प्रभाव विकिरण की मात्रा पर निर्भर करता है।
विकिरण दुर्घटना हो सकती है किसी न्यूक्लियर प्लांट में रिसाव या विस्फोट से , या फिर किसी रेडियो एक्टिव सोर्स के गायब होने से । क्योंकि आम तौर पर इन्हें लेड शील्ड्स में छुपाकर रखा जाता है , जिससे इनका प्रभाव वायु में न फ़ैल सके । लेकिन यदि शील्ड से बाहर निकाल दिया तो इससे निकलने वाली किरणे शरीर में प्रविष्ट होकर टिस्युज को हानि पहुंचा सकती हैं।
अचानक हुए एक्सपोजर से कुछ इस तरह प्रभाव पड़ता है :
कम मात्रा में एक्सपोजर : (२५-१५० cGy)
सबसे पहले त्वचा लाल हो जाती है । फिर बुखार , उल्टियाँ , कमजोरी । क्रैम्पस और दस्त लग जाते हैं । करीब ३ हफ्ते बाद पीलिया हो सकता है और बाल झड़ने लगते हैं । इतने एक्सपोजर से अक्सर पूर्णतया स्वस्थ होने की सम्भावना काफी ज्यादा होती है ।
१५०-४०० cGy
अधिक एक्सपोजर होने से उपरोक्त लक्षणों के अलावा खून पर असर पड़ने लगता है । जिससे खून की कमी , लाल निशान , मूंह में छाले , थकावट , हाई बी पी , बाल झड़ना और संक्रमण होने लगता है। ३५० से अधिक एक्सपोजर से खून बहने की वज़ह से मौत भी हो सकती है।
४००-८०० cGy
अत्यधिक एक्सपोजर से उपरोक्त बीमारियों के अलावा आंतें भी सड़ने लगती हैं , जिससे दस्त , डिहाइड्रेशन , भूख न लगना , और ब्लीडिंग हो सकती है। उलटी में भी खून आने लगती है।
१००० cGy
इतने ज्यादा एक्सपोजर से सीधे दिमाग पर असर पड़ता है जिससे कोमा , कन्वल्जंस और मौत भी हो सकती है।
सांस रुकने लगती है , बी पी कम हो जाता है और मरीज़ शॉक में चला जाता है । मृत्यु निश्चित है।
लेट इफेक्ट्स :
स्त्री पुरुष दोनों में प्रजनन की क्षमता ख़त्म हो सकती है ।
त्वचा में फाइब्रोसिस , सूखापन और दाग पड़ सकते हैं।
आँख में मोतिया।
न्युमोनिया और लंग फाइब्रोसिस --अक्सर ६ महीने बाद ।
गुर्दे --सूजन , हाई बी पी , --२-३ साल बाद ।
लीवर -- हेपेटाइटिस कई साल के बाद ।
थायराइड --हॉर्मोन की कमी।
इसके अलावा कैंसर , ल्यूकीमिया और जेनेटिक डेफेक्ट्स (त्रुटियाँ ) होने की सम्भावना बढ़ जाती है।
कुल मिलाकर विकिरण शरीर के हर एक अंग को प्रभावित करता है ।
बचने के उपाय क्या हैं ?
विकिरण संस्थान में काम करने वालों को विकिरण से बचाव के सभी नियमों का पालन करना चाहिए । रेडियेशन सोर्स को भली भांति लेड कंटेनर्स में रखना और ट्रांसपोर्ट करना चाहिए ।
डिस्पोज करने के लिए बताये गए तरीके से ही डिस्पोज करना चाहिए ।
यदि एक्सपोजर हो जाये तो क्या इलाज है ?
विकिरण का कोई प्रतिरोधक (एन्तिदोत) नहीं होता । इसलिए इसका कोई इलाज भी नहीं है । एक्सपोज्ड आदमी को तुरंत वहां से हटाकर अस्पताल में भर्ती कराना चाहिए ।
इलाज में सिम्टोमैतिक और सपोर्टिव दवा ही दी जाती है। आई वी फ्लुइड्स , उलटी बुखार की दवा , विटामिन्स , और ज़रुरत पड़ने पर ऑक्सीजन ।
बाकी तो भगवान भरोसे ही होता है ।
एक आम आदमी का क्या कर्तव्य है ?
जहाँ तक हो सके , विकिरण क्षेत्र से दूर रहें या यथोचित दूरी पर रहें ।
किसी भी अनजान वस्तु जिसे आप पहचान नहीं पा रहे , उसे न छुएँ ।
संदेह होने पर सम्बंधित अधिकारी को सूचित करें।
याद रखें --अनजान रस्ते पर चलते समय लापरवाही नहीं , सावधानी बरतने से आप सुरक्षित रह सकते हैं।
नोट : एक लेख में सभी कुछ लिखना संभव नहीं । इसलिए यदि आपका कोई सवाल हो तो आप बेझिझक पूछ सकते हैं । आपके सवाल का ज़वाब देने का भरपूर प्रयास किया जायेगा।
Thursday, May 6, 2010
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दराल सर,
ReplyDeleteपश्चिमी देशों में न्यूक्लियर वेस्ट को डिस्पोज़ ऑफ करने में बड़ी सावधानी बरती जाती है...लेकिन मैंने सुना है कि कई बार जहाज़ों में ये न्यूक्लियर कचरा भर कर भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में डम्प करने के लिए भी भेज दिया जाता है...क्या ये सही है...क्या हमारे देश में इसे डिस्पोज़ ऑफ करने का पश्चिम देशों से भी अच्छा प्रबंध है...नहीं तो फिर क्यों सरकार इस पर रोक नहीं लगाती...
ये सही है कि न्यूक्लियर एनर्जी का सही इस्तेमाल किया जाए तो ये हमारे देश में बिजली की समस्या हमेशा के लिए खत्म कर सकती है...लेकिन इसका गलत इस्तेमाल या चूक ऐसा भयंकर हादसा भी कर सकती है कि उसके दुष्परिणाम आने वाली पीढ़ियों को भी झेलने पड़ सकते हैं...हिरोशिमा, नागासाकी और चेरनोबिल जैसी घटनाओं का हश्र हम देख चुके हैं...अगर हम रेडियो एक्टिव पदार्थों जैसे कि कोबाल्ट ६० को कुछ पैसों के लालच में कबाड़ियों के हाथ बेच देते हैं तो क्या हम सही तरह से तैयार है न्यूक्लियर एनर्जी के देश में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल के लिए...
जय हिंद...
बढ़िया..जानकारी भरा आलेख...
ReplyDeleteखुशदीप जी द्वारा उठाए गए सवालों का जवाब जानने की उत्सुकता रहेगी
बहुत ही उम्दा पोस्ट। ऐसे लेखों से हिन्दी में विविधता आती है।
ReplyDeleteवर्तनी सुधार:
विश्वविध्यालय -विश्वविद्यालय
सक्रीय - सक्रिय
अत्याधिक - अत्यधिक
अद्रश्य - अदृश्य
न्युत्रोंन - न्यूट्रॉन
इलेक्ट्रोन - इलेक्ट्रॉन
न्युत्रों - न्यूट्रॉनों
न्युत्रोस - न्यूट्रॉंस, न्यूट्रॉनों
इलेक्त्रोमेग्नेतिक - इलेक्ट्रोमैग्नेटिक
रेज - किरणें
एनेर्जी - ऊर्जा, एनर्जी
पोजितिवली - पॉजिटिवली
शरीर पर विभिन्न अंगों पर - शरीर के विभिन्न अंगों पर
बिलकुल - बिल्कुल
इफेक्ट्स - प्रभाव
स्तेरिलाइजेशन - स्टर्लाइजेशन
उपयोग होती हैं - प्रयुक्त होती हैं।
मूलतय - मूलत:, मूलतया
विभन्न - विभिन्न
आलावा - अलावा
detectors - डिटेक्टर, संसूचक
रेदिअशन - रेडिएशन
aहै - है
पड़ता है --- पड़ता है :
क्रैम्पस - मरोड़, क्रैम्प्स
पूर्णतय - पूर्णतया
आतों भी - आतें भी
दिहाइद्रेशन - डिहाइड्रेशन
शौक - शॉक
म्रत्यु - मृत्यु
स्त्री पुरुषों - स्त्री पुरुष
हिपेताईतिस - हेपेटाइटिस
होरमोन - हॉर्मोन
दिफेक्ट्स - दोष
ओक्सिजन - ऑक्सीजन
बाकी तो भगवान भरोसे ही होता है । - वैज्ञानिक लेख में यह वाक्य किसी और तरीके से कहा जा सकता है।
रोमन से देवनागरी में लिखने पर व्यक्तिगत उच्चारण का प्रभाव आ जाता है। मैंने इधर प्रचलित उच्चारण के हिसाब से विकल्प दिए हैं।
खुशदीप भाई से सहमत हुँ
ReplyDeleteइस खतरनाक रेड़ियोएक्टिव को डिस्पोज ऑफ़ करने में सावधानी की आवश्यक्ता है।
आपने इसके खतरे बताकर जानकारी बढाई
आभार
उपयोगी पोस्ट!
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट डाक्टर साहब और बेहतरीन टिपण्णी गिरिजेश राव साहब ! वैसे, कुछ टंकण गलतियां जान-बूझकर इसलिए भी हो जाती है क्योंकि बरहा में हिंदी लिखते वक्त ये शब्द आसानी से नहीं बनते जबकि हम जानते है कि सही शब्द क्या है ! खैर, गिरिजेश जी का प्रयास सराहनीय !
ReplyDeleteगिरिजेश राव,
ReplyDeleteअम्मा आप तो वर्तनी को बहुत ही सीरियसली लेते हो भाई...लेकिन आप यहां एक बात पर गौर नहीं फरमा रहे...डॉक्टर दराल मेडिकल एक्सपर्ट हैं...और हमारे देश में मेडिकल की पढ़ाई पूरी तरह अंग्रेज़ी में होती है...इसके बावजूद डॉक्टर दराल हिंदी में इतना बढ़िया और धाराप्रवाह लिखते हैं...वो भी ऐसे ऐसे मुद्दों पर जिनकी जानकारी हम सभी को होना आवश्यक है...दराल सर का प्रोफेशन चिकित्सा है लेखन या साहित्य नहीं...लेखक, पत्रकार, साहित्यकार या हिंदी का कोई विद्वान वर्तनी की भूलें करें तो ज़रूर टोका जाना चाहिए....बाकी संवाद वही बढ़िया होता है जिसमें आपकी बात दूसरे को अच्छी तरह समझ आ जाए...और अगर आप क्लिष्ट और भारीभरकम शब्दावली का प्रयोग करते हैं और किसी के पल्ले कुछ नहीं पड़ता तो उसे संवाद नहीं कहा जा सकता...
जय हिंद...
डा. साहिब, धन्यवाद्! में विज्ञान का छात्र रहा हूँ इस लिए काफी कुछ पता था किन्तु आपके क्षेत्र के विषय में, विशेषकर 'वेस्ट डिस्पोज़ल' के बारे में, कुछ पता नहीं था, और खुशदीप जी ने भी वही शंका प्रस्तुत की,,,और, कोई भी जानकारी, कभी न कभी, तो काम आती ही है (द्वैतवाद के कारण, 'भले' या 'बुरे'), इसलिए मैं गिरिजेश राव जी के कार्य को भी पूरी तरह से व्यर्थ नहीं कहूँगा,,, संभव है डा. साहिब के कभी आम जनता के लिए पोस्टर आदि बनाते वक़्त काम आ जाये...धन्यवाद्!
ReplyDeleteExcellent write-up! Thanks for educating us about cobalt -menace!
ReplyDelete@खुशदीप सहगल
अम्मा नहीं अमा
डॉ दराल साहब या कोई भी इसलिए हिन्दी वर्तनी में त्रुटि के लिए क्षम्य नहीं हो सकता किवह किसी अन्य क्षेत्र का विद्वान् है .
विदेशों से लोग आये और भाषा सीखी ही नहीं हिन्दी के विद्वान् हो गए ...
आप यह नहीं देख रहे हैं की गिरिजेश जी ने कितना श्रम किया है -हाँ यह बात कही जा सकती कि धीरे धीरे सुधार कर लिया जायेगा .
बड़े दिन से कोबाल्ट ६० के बारे में जानना चाह रहा था आज एक नयूक्लेअर विशेषज्ञ से जानकार अच्छा लगा ! बहुत काम की दुर्लभ जानकारी के लिए धन्यवाद !
ReplyDeleteअहम जानकारी विस्तार से
ReplyDeleteडॉ टी एस दराल साहब, बहुत ही सटीक लेख लिखा आप ने, ओर खुश दीप जी ने भी बिलकुल सही बात कही है, भारत के टी वी ओर समाचार पत्रो मे तो कभी ऎसी खबरे नही पढी, क्योकि इन्हे दबा लिया जाता है, लेकिन ऎसा होता है सब से ज्यादा न्यूक्लियर वेस्ट अफ़्रिकन देशो मै फ़ेंकी जाती है, ओर के बाद भारत मै भी... ओर यह राज खोलते है यहां के ही लोग...
ReplyDeleteगिरिजेश राव जी , सर्वप्रथम मैं आपका हार्दिक धन्यवाद व्यक्त करता हूँ जो आपने अपना बहुमूल्य समय निकालकर इस लेख को बड़ी तन्मयता से पढ़ा । निसंदेह आपका कहना सर्वथा उचित है । मैं स्वयं हैरान हूँ कि इतने त्रुटियाँ कैसे हो गई। मैं आपके हिंदी ज्ञान को भी प्रणाम करता हूँ। मुझे पूर्ण विश्वास है कि मेरे साथ साथ इस लेख के पाठकों को भी आज हिंदी का अतुल्य ज्ञान प्राप्त हुआ होगा।
ReplyDeleteवैसे तो भाई खुशदीप जी ने अपनी टिपण्णी में काफी कुछ साफ़ कर ही दिया है । तथापि , मैं कुछ बातों पर प्रकाश अवश्य डालना चाहूँगा।
प्रथम तो यह कि यह लेख लिखने में मेरा उद्देश्य हिंदी को प्रोत्साहन देना बिल्कुल नहीं था। बल्कि एक ज्वलंत विषय पर अपने विचार प्रकट करना चाहता था , ताकि जो थोडा बहुत ज्ञान मैंने इस विषय पर अर्जित किया है , उसे मित्रों में बांटकर सार्थक लेखन कर सकूँ।
दूसरी बात यह कि राज भाषा होते हुए भी मेरा हिंदी ज्ञान सम्पूर्ण नहीं है । इसीलिए चिकित्सा महाविधालय में शिक्षा ग्रहण के अंतिम वर्ष में आयोजित निबंध प्रतियोगिता में मैं द्वितीय स्थान ही प्राप्त कर सका ।
तीसरी बात यह कि वह लेखन किस काम का जो किसी की समझ में ही न आये । इसलिए मैं हमेशा सरल भाषा का ही प्रयोग करता हूँ।
चौथी बात यह कि आधे से ज्यादा त्रुटियाँ ट्रांसलिट्रेशन की वज़ह से हैं , जिस पर अपना कोई बस नहीं चलता । कुछ गलतियाँ समय के अभाव में हो सकती हैं । आखिर एक डॉक्टर के पास कितना समय हो सकता है , यह आप अच्छी तरह समझ सकते हैं।
आखिरी बात यह कि मैं अरविन्द मिश्रा जी से भी सहमत हूँ कि हिंदी लेखन में सब बराबर हैं , इसलिए मांफी किसी को नहीं मिल सकती ।
तो भई , यदि इस बार क्षमा मिल जाये तो भविष्य में अवश्य प्रयास करेंगे कि इस तरह की और एक साथ इतनी सारी गलतियाँ फिर न दोहराई जाएँ ।
अंत में बस इतना की कहना चाहूँगा कि क्षणिक खेद भी हुआ यह जानकर कि इतने परिश्रम से लिखे गए एक महत्त्वपूर्ण लेख में आपको एक भी सकारात्मक बात नज़र नहीं आई।
खुशदीप भाई , आपने बड़ा अच्छा सवाल उठाया है। पश्चिमी (विकसित )देशों में न्यक्लियर वेस्ट को डिस्पोज ऑफ़ करने के लिए कानून बने हैं जिनका पालन भी किया जाता है । ज्यादातर वेस्ट मूल कंपनी ही उठा लेती है। ये अलग बात है कि बाद में हमारे जैसे देशों में भेज दिया जाता है। आखिर हम अभी विकासशील ही है न । यहाँ अभी तक कोई कानून नहीं बना प्रोपर डिस्पोजल का । आपने देखा होगा -घर का सारा सामान कबाड़ी खरीद कर ले जाता है । उसके बाद क्या होता है आप को पता ही है । छोटे छोटे बच्चे कितनी ही स्क्रैप की दुकानों में काम करते हैं , पूरे रिस्क के साथ ।
ReplyDeleteन्यूक्लियर एनर्जी का पीसफुल इस्तेमाल तो यहाँ भी हो रहा है । और न्यूक्लियर वार जैसी सम्भावना तो अब मुझे नज़र नहीं आती क्योंकि अब सब समझदार हो गए है ।
लेकिन असावधानी की वज़ह से दुर्घटना होने का चांस तो रहता ही है। इसलिए जागरूक रहना ज़रूरी है ।
मांफ कीजियेगा , कई अंग्रेजी शब्द प्रयोग कर दिए हैं ।
बहुत ही अच्छी जानकारी...इतने विस्तार से और इतने सरल शब्दों में समझाया कि एक layman भी समझ सके. बहुत बहुत शुक्रिया
ReplyDeleteडा. साहिब, जानकारी बहुत लाभदायक है...
ReplyDeleteभाषा के विषय में मैं केवल यह कहना चाहूँगा कि 'मेरा महान भारत' शायद ऐसे ही 'महान' नहीं कहलाया गया... इस देश की महानता की इसकी वैदिक काल में उपयोग की जाने वाली 'संस्कृत' भाषा से भी झलक मिलती है,,,यहाँ कहानियों में 'ब्रह्मा', 'ब्रह्मास्त्र' आदि शब्द शायद इशारा करते हैं सूर्य और उसमें प्रति क्षण फटने वाले अनंत हाइड्रोजन बम की ओर,,, जिसे, जीवन का लाभदायक अंश होते हुए भी, इस कारण अपनी पृथ्वी (अंतरिक्ष, धरती और पाताल, तीन लोक के राजा 'त्रिपुरारी', महेश) से करोड़ों मील शायद दूर जान कर रखा गया और इसके वातावरण में उबलब्ध ओज़ोन तल द्वारा केवल हानिकारक 'यूवी' किरणों का एक छोटा सा भाग ही आने दिया गया है - क्यूंकि जीवन को अस्थायी भी तो बनाना था!,,,
और 'ब्राह्मण' उसे पुकारा गया जो 'सत्य' को जानता था! और केवल तीन शब्द, "सत्यम शिवम् सुंदरम", द्वारा 'त्रिनेत्र-धारी' शिव को पृथ्वी की ओर सांकेतिक भाषा में परिभाषित किया 'ब्राह्मणों' ने क्यूंकि उन्होंने भौतिक प्रकृति की रचना में तीन मुख्य शक्तियों का हाथ जाना - जिन्हें उन्होंने ब्रह्मा, विष्णु और महेश नाम दिए और उन्हें सांकेतिक भाषा में सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी से जोड़ा (याद कीजिये, क्षीर-सागर मंथन के समय, सूर्य और चन्द्रमा ने ही शायद 'राहु', यानी 'यूवी' के साथ जुडी 'आई आर' किरणों, की पहचान की थी और उन्हें विष्णु ने काट के अलग कर सूर्य के साथ जोड़ा, जो मानव रूप में 'सूर्यवंशी राजाओं' के दो 'गुरु' द्वारा प्रतिबिंबित किये जाते हैं),,,
उन्होंने वर्तमान पृथ्वी के केंद्र को शक्ति (नादबिन्दू) का मूल जाना (शिव के हृदय में निवास करने वाली 'माँ काली' या अर्धनारीश्वर शिव की अर्धांगिनी, 'सती' :)
जय हिंद!
बहुत ही जानकारीपूर्ण आलेख रहा आपका. बहुत बहुत आभार.
ReplyDelete@ खुशदीप सहगल,
ReplyDeleteबिना पोस्ट पढ़े या आधा अधूरा पढ़ कर टिप्पणी करना तो सुना था लेकिन प्रतिटिप्पणी बिना ठीक से टिप्पणी पढ़े ! हद है!! ऐसी बातें भी निकाल लेना जो कही ही नहीं गईं,वाह !!
@ .डॉक्टर दराल मेडिकल एक्सपर्ट हैं...और हमारे देश में मेडिकल की पढ़ाई पूरी तरह अंग्रेज़ी में होती है...इसके बावजूद डॉक्टर दराल हिंदी में इतना बढ़िया और धाराप्रवाह लिखते हैं... - मैंने उनकी हिन्दी पर प्रश्न नहीं उठाए हैं, 'वर्तनी सुधार' सुझाए हैं। कटघरे में नहीं खड़ा किया है, बताया भर है। उनके विषयगत ज्ञान पर कोई सन्देह नहीं।
@ दराल सर का प्रोफेशन चिकित्सा है लेखन या साहित्य नहीं...लेखक, पत्रकार, साहित्यकार या हिंदी का कोई विद्वान वर्तनी की भूलें करें तो ज़रूर टोका जाना चाहिए - बेसिक भूलें टोकी जानी चाहिए। प्रोफेशन से मैं भी लेखक, पत्रकार, साहित्यकार या हिंदी का कोई विद्वान नही हूँ, इसलिए लिखते समय शुद्ध वर्तनी के प्रति अपनी जिम्मेदारी अधिक मानता हूँ।
@ संवाद वही बढ़िया होता है जिसमें आपकी बात दूसरे को अच्छी तरह समझ आ जाए...और अगर आप क्लिष्ट और भारीभरकम शब्दावली का प्रयोग करते हैं और किसी के पल्ले कुछ नहीं पड़ता तो उसे संवाद नहीं कहा जा सकता...
दराल जी ने जो शब्द लिखे हैं, मैंने बस उनमें ही त्रुटियों को बताया और सही सुझाया है। समझ के बारे में तो कुछ कहा ही नहीं। उनके संवाद, शब्दावली वगैरह पर तो कुछ नहीं कहा। यहाँ तक कि अंग्रेजी के शब्दों के नागरी विकल्प सुझाते समय भी उच्चारण की स्थानीयता के प्रभाव को भी बताया है।
.. ऐसे प्रयास करता रहूँगा। टिप्पणियों से ब्लॉगरों के बारे में बहुत कुछ जानने को मिलता है। :)धन्यवाद :)
@ JC
ReplyDelete@ मैं गिरिजेश राव जी के कार्य को भी पूरी तरह से व्यर्थ नहीं कहूँगा,- मेरी टिप्पणी को सार्थक मानने के लिए धन्यवाद, भले 'पूरी तरह से नहीं' :)
आप की दूसरी टिप्पणी में मिथकों में छिपे वैज्ञानिक संकेतों को समझने का जो प्रयास है, अद्भुत है। समुद्र मंथन को मैं भी खगोलीय घटना (ओं) से जुड़ा हुआ मानता रहा हूँ। राहु के बारे में आप ने जो कहा है, वह आँख खोलने वाला है। आभार। इस पर एक पूरा लेख लिखने का समय मिले तो लिख डालिए। उन्मुक्त जी के कुछ लेखों की आप ने याद दिला दी।
@ दराल सर,
ReplyDeleteमैं अब टिप्पणियाँ कम करता हूँ। मुझसे चलताऊ टिप्पणियाँ नहीं हो पातीं और उपर जैसी टिप्पणी वहीं करता हूँ, जहाँ बहुत सार्थकता पाता हूँ, उम्मीदें लगा बैठता हूँ और फिर ऐसी त्रुटियों को देखने पर क्षोभग्रस्त होता हूँ। खुशदीप के बहाव में आप भी बह गए ! आश्चर्य हुआ, दु:ख हुआ। आप की अंतिम बात का जवाब पहले -
@ "इतने परिश्रम से लिखे गए एक महत्त्वपूर्ण लेख में आपको एक भी सकारात्मक बात नज़र नहीं आई।" - शायद आप ने मेरी टिप्पणी का पहला वाक्य नहीं पढ़ा। दुहरा रहा हूँ "बहुत ही उम्दा पोस्ट। ऐसे लेखों से हिन्दी में विविधता आती है।" - इस वाक्य में आप को सकारात्मकता नहीं नज़र आई?
@ हिंदी का अतुल्य ज्ञान प्राप्त - मैंने ज्ञान नहीं बेसिक त्रुटियाँ बताईं, जो एक बच्चे के लेखन में भी नहीं सही जातीं।
@ भाई खुशदीप जी ने अपनी टिपण्णी - ऐसे भाई ! आगे अब क्या कहें ??
'टिपण्णी' नहीं 'टिप्पणी' होती है। :)
@ हिंदी को प्रोत्साहन देना और सार्थक लेखन - हिन्दी में सार्थक लेखन करना प्रोत्साहन देना ही है। यकीन मानिए आप के लेख की गुणवत्ता ने ही मुझे ऑफिस के लिए लेट (टिप्पणी समय 09:03) होते हुए भी टिप्पणी करने के लिए प्रेरित किया। बहुत बढ़िया चावल खाते अगर दाँतों तले किरकी या कंकड़ आएँ तो झुँझलाहट होती है। एक लेख से ही आप से आत्मीयता जोड़ बैठा और टोकने की छूट ले बैठा, बेवकूफ हूँ :)
@ राज भाषा - नहीं जनभाषा, हिन्दी जनभाषा है। ब्लॉगरी में तो इसी रूप में जानी जाती है - मराठी, तमिल, तेलुगू आदि की तरह।
@ निबंध प्रतियोगिता में मैं द्वितीय स्थान - गोल्ड मेडलिस्ट हर क्षेत्र में नहीं हुआ जा सकता। अगर आप किसी लेख में मेरी भूल पर ध्यान दिलाएँगे तो यह 'मेडलिस्ट' आभार मानेगा।
@ सरल भाषा का ही प्रयोग - आप की भाषा पर तो मैंने कुछ कहा ही नहीं, शायद आप किसी और के लिए कह रहे होंगे। हाँ, गम्भीर लेख पढ़ते पढ़ते अचानक 'ईश्वर प्रसंग' अटपटा सा ज़रूर लगा। एक प्रोफेशनल दूसरे प्रोफेशनल का लेख पढ़ रहा था, सह नहीं पाया।
@ ट्रांसलिट्रेशन, गलतियाँ ... मैं आप से सफाई थोड़े माँग रहा हूँ। अपना कर्तव्य समझा कि सही बताता चलूँ। कॉपी पेस्ट से सुधार लेंगे - इसलिए। आप ने अभी तक वैसे ही रखा है। लगता है मैंने दिल अधिक दुखा दिया या खुशदीप ने जोर अधिक लगा दिया ।
डाक्टर साहब ! जब संस्कृत ध्वनियों को इंटरनेशनल रोमन में लिखा जाता है तो कई तरह के नुक्ते लगाने पड़ते हैं। 'ऋ' के लिए r के नीचे बिन्दु लगाया जाता है। एक प्रोफेसर साहब को अपनी किताब के फाइनल ड्राफ्ट में 4 रातें लगा कर प्रेस की ग़लती सुधारते देखा है (बिन्दु नहीं लगा था) - आप से भी वैसी उम्मीद कर बैठा, ग़लती किया। क्षमाप्रार्थी हूँ ।.. लेकिन आप के लेख को आज से 20 - 25 साल बाद जब हिन्दी ब्लॉगरी में से कोबाल्ट 60 जैसे विषय पर इतने सरल, स्पष्ट और विद्वतापूर्ण निर्वाह के लिए कोई गिरिजेश चुनेगा तो आप की लापरवाही पर क्षुब्ध ज़रूर होगा। किसी दूसरे बहुभाषी को सीना तान कर दिखा नहीं पाएगा - घुटेगा । वह लुत्ती लगा कर तमाशा नहीं देखेगा, चुपचाप ठीक कर दिखाएगा, कहेगा अरे! हिन्दी ब्लॉगरी का शैशव काल था। कंटेंट देखो दोस्त कंटेंट !!
.. यह गिरिजेश भी 'ट्रांसलिटरेशन' का प्रयोग करता है। बारहवीं के बाद हिन्दी नहीं पढ़ा और आज मज़दूरों के लिए हिन्दी में सिविल इंजीनियरिंग के फंडे लिखता है। एक ब्लॉगर भी है और आज तक कभी थोथी या उथली टिप्पणी नहीं किया है। .. आप को पढ़ता रहेगा। ज़रूरत पड़ने पर टिपियाता भी रहेगा। ... शुभ रात्रि।
रात आयी सकूं से सोया जाय ..बहुत हो गयी बातें !
ReplyDeleteआया, बहुत मजा आया !
गिरिजेश जी , आप एक संवेदनशील व्यक्ति हैं। यह तो विदित है। आपका हिंदी ज्ञान एवम प्रेम अत्यंत सराहनीय है ।
ReplyDeleteशायद मुझसे ही समझने में भूल हुई। वास्तव में बहुत लोग त्रुटिपूर्ण हिंदी लिखते हैं , मैं भी ।
बस बात इतनी सी थी कि आज तक किसी ने संकेत करने की कोशिश ही नहीं की ।
खुशदीप जी एक अच्छे मित्र हैं और उनका उद्देश्य आपका निरादर करने का नहीं था । हाँ , लिखने में मित्र लोग थोडा अनौपचारिक ज़रूर हो जाते हैं ।
इस लेख को वैज्ञानिक लेख मान कर नहीं चलना चाहिए । यह तो जनसाधारण को अपने अनुभव से जानकारी प्रदान करने का एक छोटा सा प्रयास मात्र है।
लेख में भगवान का नाम --कहते हैं --वी ट्रीट , ही क्योर्स । अंत में सब उसी के हाथ में रह जाता है । यह हम डॉक्टरों का भी मानना है।
गूगल ट्रांसलिट्रेशन में सभी शब्दों के शुद्ध रूप कभी कभी नहीं मिलते ।
मैंने भी हिंदी आखरी बार नौवीं क्लास में पढ़ी थी।
और अब तो हिंदी का प्रयोग बस ब्लोगिंग में ही हो पाता है।
अंत में यही कहूँगा कि आपके विचारों में सच्चाई झलकती है । इसलिए कोई गिला शिकवा नहीं । सुधार अगली पोस्ट से निश्चित ही ।
शुभरात्रि।
बहुत इन्टेल्लीजेंट और इंटेलेक्चुअल पोस्ट....
ReplyDeleteदराल साहिब , आपकी जितनी तारीफ़ की जाय कम है पर अगर यह दोष भी
ReplyDeleteदूर होता चले तो क्या खूब ! आप हिन्दी ब्लॉग जगत को वैविध्य - पूर्ण बना रहे
है , यह स्वयं में सराहनीय है !
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बात सिर्फ दो पक्षों के संवाद के रूप में ली जाती और उदारता के साथ , तो कोई
बखेड़ा जैसी स्थिति ही न बनती ! पर कुछ बटखरा रखने वाले 'बिनु काज दाहिने
बाएं' आकर ऋजुरेखा को भी घुमावदार बना देते है ! 'साठे पर पाठे' हो रहे ऐसे लोग
ब्लॉग - क्षेत्र को प्रीतिकर वातावरण से युक्त करें तो ज्यादा सकारात्मक होगा !
.
@ गिरिजेश जी
आप बड़ा निर्दोष प्रयास कर रहे हैं , किसी समय यूँ ही कुछ कार्य आचार्य महावीर
प्रसाद द्विवेदी ने किया था , 'सरस्वती' नामक ख्यातनाम पत्रिका का सम्पादन करते
हुए .. द्विवेदी जी के शुभ-प्रभाव का स्मरण आज भी किया जाता है ! यह कार्य दुष्कर है
और सबके मान का नहीं ! आप धन्यवाद के पात्र हैं !
.
@ खुशदीप जी ,
आपने बहुत सही प्रश्न उठाया है , यह 'तीसरी दुनिया' की ओर से मैं भी बार बार सोचता
रहा हूँ ! आभार !
एक जानकारी पूर्ण आलेख के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया सर.. लेकिन देख कर दुःख हुआ कि इतनी अच्छी पोस्ट को भी लोगों ने अखाड़ा बना दिया..
ReplyDeleteसार्थक और गहन जानकारी ,मित्रवत वाद-विवाद ठीक है ।
ReplyDeleteगिरिजेश जी , त्रिपाठी जी दोष सुधार कर दिया है ।
ReplyDeleteवास्तव में इतनी त्रुटियाँ चावल में कंकड़ पत्थर की तरह चुभ रही थी ।
आप सब महानुभवों का दिल से आभार।
डा. साहिब, हमारा किसी भी भाषा में ज्ञानोपार्जन का उद्देश्य अधिकतर स्वार्थ पर आधारित होता है... इस बार जैसे यह दुर्घटना दिल्ली में तो हुई किन्तु 'मायापुरी' में हुई और इस बार इससे मैं या मेरा कोई प्रियजन प्रभावित नहीं हुआ,,, किन्तु भविष्य का क्या पता? इस कारण हर कोई जानना चाहेगा कि फिर यदि ऐसी दुर्घटना किसी के साथ हो तो उसे क्या करना होगा (सर दर्द होने पर दी जाने वाली गोली समान :)... अंग्रेजी में कहावत भी है, जिसका अर्थ है कि यदि पहले से पता हो तो आदमी भविष्य में सावधानी बरत सकता है,,,और बचाव बेहतर है इलाज से...और इस सम्बन्ध में जो, गहराई में जा, प्राचीन 'हिन्दू' उपाय बता गये वो मंत्र (नादबिन्दू विष्णु द्वारा ध्वनि के माध्यम से श्रृष्टि की रचना मान), यन्त्र (मानव शरीर को एक अद्भुत मशीन या यन्त्र जान जिसका सुधार रत्नादी से किय जाना), और तंत्र (सीधे आत्मा से सम्बन्ध स्थापित कर इलाज का प्रयास), इनमें से कोई अकेले या साथ- साथ किया जाना,,,किन्तु इनका सही ज्ञान और उनका हमारे शरीर पर क्या प्रभाव होता है समय के साथ घट गया है, या कहें कि उस पर विश्वास लगभग समाप्त हो गया है,,,यद्यपि फिर भी कई व्यक्ति परंपरागत तौर पर प्रयास किये जाते दीखते ही हैं (और 'पश्चिम' से उपलब्ध ज्ञान को चरम सीमा पर पहुंचा मान, 'सत्य' अथवा 'परम सत्य' को नहीं जान कर, आधुनिक भारतीय युवक जन इन्हें अपने पूर्वजों की मूर्खता का प्रतिबिम्ब समझते हैं :)...
ReplyDeleteवाह सर बहुत ही उम्दा पोस्ट और इस पर आई टिप्पणियों ने इसे एक संग्रहणीय पोस्ट बना दिया है । वर्ष की सर्वश्रेष्ठ पोस्टों के लिए इसे सहेज कर रख रहा हूं
ReplyDelete@ Dr. Daraal-
ReplyDeleteIts a wonderful post. Very useful and informative for all of us. You have given information on almost all the aspects. There is no question left in my mind. Thanks to you once again for such an informative post.
Learned professors of Delhi University failed to realize the hazards while disposing the radioactive substance Co-60. Now Banaras Hindu University is also worried in this regard.
@ क्योंकि आम तौर पर इन्हें लेड शील्ड्स में छुपाकर रखा जाता है , जिससे इनका प्रभाव वायु में न फ़ैल सके । लेकिन यदि शील्ड से बाहर निकाल दिया तो इससे निकलने वाली किरणे शरीर में प्रविष्ट होकर टिस्युज को हानि पहुंचा सकती हैं।
Above information is something new to me.
Once again, Thanks to you.
@ Girijesh ji-
ReplyDeleteI have read all your comments intently. I appreciate your efforts in enriching Hindi. Such efforts are indeed praiseworthy.
Respect for you has been doubled in my heart.
बहुत अच्छी पोस्ट इतने विस्तार से समझाई गयी एक एक बात.सच बहुत ही प्रशंसनीय सार्थक जानकारी पूर्ण पोस्ट रही ये
ReplyDeleteकोबाल्ट ६० की कुछ विशेषताएं :
ReplyDeleteयह प्राकृतिक रूप से नहीं पाया जाता । इसे न्यूक्लियर रिएक्टर में कोबाल्ट ५९ से न्यूट्रॉन एक्टिवेशन द्वारा व्यवसायिक उपयोग के लिए बनाया जाता है। इसकी हाफ लाइफ ५.२७ दिन होती है। यह नेगाट्रोंन ( नेगेटिव बीटा कण ) और गामा किरणों का एमिशन करते हुए नॉन रेडियोएक्टिव निकल ६० में परिवर्तित हो जाता है। बीटा कणों का पेनीट्रेशन बहुत कम होता है , इसलिए ये त्वचा में ही एब्जोर्ब हो जाते हैं। लेकिन गामा किरणों की ऊर्जा अत्यधिक होने के कारण , ये शरीर के आर पार हो जाती हैं । इससे विभिन्न अंगों की कोशिकाओं को हानि होती है। इसलिए गामा किरणों से बचाव के लिए कोबाल्ट ६० को लेड से बने मोटी परत वाले कंटेनर्स में रखा जाता है ।
आपने तो बहुत डीप जानकारी दे दी ... अब कोबाल्ट समझ आ गया ... पर जो हुवा वो हमारी व्यवस्था की पोल खोलता है ...
ReplyDeleteगलती सुधार --कृपया हाफ लाइफ को ५.२७ साल पढ़ें ।
ReplyDeleteबहुत महत्वपूर्ण जानकारी है यह ।
ReplyDeleteडा. साहिब, आपने लिखा, "...आपको भी जिज्ञासा होगी कि ये कोबाल्ट ६० और इस जैसे पदार्थों में आखिर ऐसा होता क्या है कि एक अदृश्य दुश्मन की तरह छुपकर वार कर जाते हैं और पता भी नहीं चलता..."
ReplyDeleteउपरोक्त से मुझको याद आता है कि कैसे हम बचपन से बंगालियों के साथ रहते सुनते आये हैं कि कैसे 'काले जादू' द्वारा लोग 'बाण' चलाते थे दूर से और अपने 'दुश्मन' को हानि पहुंचाते थे बिना किसी को पता चले,,,और बाद में खुद असम में भी देखा कैसे तांत्रिक उपलब्ध थे जिनकी सहायता कई व्यक्ति छोटी-छोटी बातों के लिए भी लेते थे... बहुत कहानियाँ देखी और सुनीं, जो कभी और...
रोज समाचार पत्रों में इसके बारे में पढते थे...पर ये कैसे नुक्सान पहुंचाता है नहीं पता था....आपकी पोस्ट से बहुत बढ़िया और विस्तृत जानकारी मिली...आभार
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया आलेख! अच्छी और महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हुई!
ReplyDeleteसच कहूँ तो आपकी पोस्ट पे खुशदीप जी और jc साहब की टिप्पणियों की तलाश रहती है ...पर आज की पोस्ट में उन्हें भी कुछ हास्यात्मक नहीं मिला शायद .....
ReplyDeleteऔर गिरिजेश राव जी की मेहनत प्रशंसा के योग्य है ...नि:संदेह कुछ तो आपने टंकण की गल्तियों को जानते हुए भी नज़रंदाज़ कर दिया होगा क्योंकि आपका मकसद विषय को समझाना था ....पर उनकी की ये पकड़ हम सब को भी शुद्ध -शुद्ध लिखने के लिए प्रेरित करती है .....!!
दराल जी आपका विषय जरा अपनी समझ से बाहर है ...इसलिए क्षमा प्रार्थी हूँ.....!!
बधाई इस आलेख के लिए
ReplyDeleteन्यूक्लियर मैडिसिन पर भी लिखिये
बहुत ही ज्ञानवर्द्धक पोस्ट,और जरुरी भी। वैज्ञानिक जानकारी सरल भाषा में देना बहुत कठिन कार्य है जो आपने पूरी निपुणता से कर दिखाया। साधुवाद।
ReplyDeleteगिरिजेश जी ने जिस सदाशय से श्रमपूर्वक वर्तनी सुधार की सलाह दी थी उसका सहर्ष सम्मान किया जाना चाहिए। लेकिन तात्कालिक प्रतिक्रिया सर्वोत्तम प्रकार की नहीं थी। आपने बाद में उनके प्रयास को सही रूप में पहचाना इसके लिए पुनः साधुवाद।
हिन्दी माध्यम से ब्लॉग लिखकर हम सभी इस भाषा को उन्नत बनाने का काम जाने-अनजाने कर रहे हैं। गिरिजेश जी जैसे सतर्क लोगों के प्रयास का समर्थन किया जाना चाहिए।
इतनी विस्तृत जानकारी के लिए आभार
ReplyDeleteबहुत ही जानकारीपूर्ण आलेख रहा आपका. बहुत बहुत आभार.
ReplyDeleteहरकीरत जी, थोडा माहौल गर्मा गया था नहीं तो भाषा के विषय में एक सुना-सुनाया जोक सुना देता जिसमें एक तमिलियन ने पंजाबी से पूछा, "तमिल तेरिमा?" (यानी आपको तमिल भाषा आती है?) तो पंजाबी तपाक से बोला, "पंजाबी तेरा बाप"! :)
ReplyDeleteऔर ऐसे ही एक सत्यकथा में मेरे एक आंध्र के सहकर्मी ने बताया कि कैसे वो पानी-पानी हो गये भाषा के ही कारण:
हुवा यूं कि वे दिल्ली में बस से सफ़र कर रहे थे कि अचानक एक स्टैंड से आंध्र की ही एक संभ्रांत महिला, जो उनके जान-पहचान की थी, बस में चढ़ी,,,तो उन्होंने उसे अपने बगल में जगह बनाते हुए पुकारा, "रंडी!" (यानी 'यहाँ आ जाइए', क्यूंकि तेलुगु भाषा में 'रा' का अर्थ 'आना' होता है और 'अंडी' जोड़ने से वो 'आइये' बन जाता है )
और उस बस के सारे सहयात्री मुड़ कर उन्हें घूरने लगे :)
हा हा हा ! जे सी जी , आप भी गज़ब का ह्यूमर रखते हैं ।
ReplyDeleteवैसे हरकीरत जी की फरमाइश पर आपने सही मूढ़ बदल दिया । हालाँकि ऐसी कोई बात नहीं थी । बस यूँ ही, आजकल ब्लोग्स पर माहौल ही कुछ ऐसा बना हुआ है कि हर किसी नए शक्श पर शंका सी होने लगती है । लेकिन आप बेफिक्र रहिये अब सब ठीक ठाक है ।
असली मुद्दों पर चर्चाएँ चलती रहनी चाहिए । आजकल खुशदीप सहगल ने अच्छा मुद्दा उठाया हुआ है ।
डा साहिब, यह तो मानव मष्तिस्क की रचना का या रचयिता का कमाल है जो आदमी को कुछ पुराना दृष्टान्त साठ साल से ऊपर होने के बाद भी ('सठियाने' के बाद) याद रह जाता है,,, जबकि कुछ चीजें जो पांच मिनट पहले याद थीं एक दम भूल जाती हैं कभी- कभी,,,विशेषकर व्यक्तियों के नाम जो कभी कभी परेशानी में डाल देते हैं,,,और शायद कभी उसके जाने के बाद जब आप दिमाग पर जोर नहीं डाल रहे होते तो याद आता है वो कौन था! गैस पर दूध रख टीवी के या कंप्यूटर के सामने बैठ गया तो समझ लो दूध की गंगा बह रही होगी रसोई में उस दिन,,,चाय का पानी तो उड़ पतीला भी लाल हो कर फिर सफ़ेद और अत्यंत गरम महसूस होता है जब वहां याद आने पर पहुँचो तो :)
ReplyDeleteमेरी छोटी लड़की को एक बार मैंने कहा कि वो इस उम्र में ही भूल जाती है तो बड़ी होकर उसका क्या होगा? आजकल के बच्चे अधिक पढ़े-लिखे हो गए हैं, जिस कारण उसने तपाक से उत्तर दिया कि आखिरकार ये जींस किसके हैं :)
आप श्री खुशदीप जी के किस ब्लॉग कि बात कर रहे हैं? 'ब्लॉग ओवर' पर तो कुछ पुरानी पोस्ट ही दिखाई पड़ी...
बहुत महत्वपूर्ण जानकारी...फ़िलहाल इसके खतरे तो पूरी दिल्ली में गूंज रहे हैं.
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'शब्द सृजन की ओर' पर आज '10 मई 1857 की याद में'. आप भी शामिल हों.
इस पोस्ट को पहले भी पढ़ा था...अब फिर से और ज्ञानवर्धन हुआ...शुक्रिया
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