पिछली पोस्ट में मैंने एक बेहद गंभीर मुद्दे को एक पहेली के रूप में उठाया था । इस पर कुछ बड़ी दिलचस्प टिप्पणियां पढने को मिली। श्री जी के अवधिया जी , मिहिरभोज जी , ऍम वर्मा जी , अंतर सोहिल , ललित शर्मा जी , डॉ मनोज मिस्र जी , डॉ महेश सिन्हा जी , चंदर सोनी, और श्री सतीश सक्सेना जी की टिप्पणियां पढ़कर स्वत्त : चेहरे पर मुस्कराहट आ गई।
हमारे अप्रवासी मित्रों ने शिकायत की कि उन्हें क्यों दूर रखा गया इस पहेली से । आदरणीय अदा जी , राज भाटिया जी , नीरज रोहिला जी, दिगंबर नासवा जी, और शिखा वार्ष्णे जी और समीर लाल जी को तो पता ही है कि असलियत क्या है।
श्री अविनाश जी, गोदियाल जी और जे सी जी का ज़वाब तो एकदम सटीक था और दिलचस्प भी।
मैं श्री संजय भास्कर , कृष्ण मुरारी प्रसादजी , बबली जी, डॉ अजित गुप्ता जी, और डॉ रूप चाँद शास्त्री जी, काज़ल कुमार जी , खुशदीप सहगल और रचना दीक्षित जी का भी आभारी हूँ जिन्होंने अपने विचार प्रकट किये इस मुद्दे पर।
एक आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता हुई डॉ अनुराग की टिपण्णी प्राप्त कर। पहली बार उनको अपने ब्लॉग पर पाकर हम तो धन्य हो गए।
अब जानिए पहेली का ज़वाब :
आपने सही पहचाना , फोटो में हम ही हैं। ये फोटो कनाडा के क्यूबेक शहर में लिए गया था । कार हमारे मित्र डॉ वर्मा की है । पेट्रोल भी उन्होंने ही भरा । हम तो खाली फोटो खिंचवा रहे हैं।
जी हाँ, जैसा आप में कई मित्रों ने कहा , वहां गैस स्टेशन पर कोई अटेंडेंट नहीं होता । बस क्रेडिट कार्ड डालो , राशी पंच करो , गैस (पेट्रोल) भरो और चल दो।
अब यह नहीं पता कि किसी के पास कार्ड न हो तो ?
अब ज़रा सोचिये यदि ये सिस्टम यहाँ भी आ जाये तो क्या होगा। यहाँ तो लोग ए टी ऍम मशीन को ही उठा ले जाते हैं।
आइये अब बात करते हैं असली मुद्दे की। विषय था -डॉक्टरों द्वारा विदेश पलायन।
पलायन : बेहतर विकल्प के लिए प्रस्थान।
अब यह भले ही गाँव से शहर की ओर हो या गरीब प्रदेश से महानगर की ओर या फिर विकासशील देश से विकसित देश की ओर।
पलायन मजदूर का हो या डॉक्टर , इंजिनियर का --मकसद सबका एक ही है । बेहतर विकल्प।
और इसमें बुराई भी क्या है । भाई अगर पलायन न हुआ होता तो क्या आज यह विकास हुआ होता । मनुष्य आज भी स्टोन एज की तरह गुफाओं में रह रहा होता।
लेकिन डॉक्टरों के पलायन की बात में थोडा फर्क है । प्रस्तुत हैं कुछ तथ्य मेडिकल प्रोफेशन के बारे में :
डॉक्टरों को क्रीम ऑफ़ सोसाइटी कहा जाता है । हो भी क्यों नहीं --सबसे कठिन परीक्षा पास करके दाखिला मिलता है , मेडिकल कॉलिज में ।
शिक्षा अवधि भी ५ साल । फिर एक साल इंटर्नशिप । तीन साल पोस्ट ग्रेजुएशन । तीन साल सीनियर रेजीडेंसी । तब कहीं जाकर स्पेस्लिस्ट बनते हैं। सुपर स्पेस्लिस्ट बनने के लिए और दो साल की पढ़ाई।
यानि एक जेनेरल फिजिशियन २५ में , स्पेस्लिस्ट ३० में और सुपर स्पेस्लिस्ट ३५ साल की आयु में जाकर बनता है। उसके बाद भी पढ़ाई कभी ख़त्म नहीं होती क्योंकि सबसे ज्यादा जल्दी बदलाव मेडिकल नोलेज में ही आता है।
रिटर्नस : डॉक्टर बनकर सरकारी नौकरी १० % से भी कम को मिलती है । बाकी को प्राइवेट प्रैक्टिस ही करनी पड़ती है । लेकिन उसके लिए २०-३० लाख कहाँ से आयेंगे ।
छोटे मोटे नर्सिंग होम आर ऍम ओ का काम तो देते हैं लेकिन सैलरी बस १०-१५०००।
अपनी क्लिनिक खोलो तो मुकाबला होता है आर ऍम पी से या नीम हकीमों से ।
कुछ ही डॉक्टर हैं जो अच्छा खासा कमा पाते हैं।
हालात : एक डिस्पेंसरी में एक या दो डॉक्टर --मरीज़ ३००-४०० प्रतिदिन। अस्पताल में भी ६०००-८००० मरीज़ ओ पी डी में प्रतिदिन। एक रोगी को देखने के लिए समय सिर्फ १.५-२ मिनट।
प्रोफ़ेसर को भी वे सुविधाएँ नहीं जो एक मल्टी नॅशनल कंपनी में आम कार्यकर्ता को मिलती हैं।
आबादी : भले ही हर साल ३५००० डॉक्टर बनते हैं लेकिन ११७ करोड़ आबादी वाले देश में प्रति एक लाख आबादी पर बस ५०-६० डॉक्टर की रेशो। जबकि विकसित देशों में यही अनुपात है २५०-३०० डॉक्टर प्रति एक लाख आबादी।
९० % डॉक्टर शहरों में जहाँ सिर्फ ३० % आबादी रहती है।
गाँव में जाये भी तो कैसे --जहाँ कोई सुविधा नहीं , उसके अपने लिए , परिवार के लिए , बच्चों की शिक्षा के लिए ।
ऐसे में यदि हमारे डॉक्टर बाहर की हरियाली की ओर न देखें तो क्या करें ।
वहां : एक एक इंसान की कीमत। एक जेनेरल फिजिसियन की क्लिनिक में सभी आधुनिक सुविधाएँ। २०-३० रोगी प्रतिदिन --नियुक्त समय पर --मोटी कमाई ---एथिकल प्रैक्टिस --प्रोफेशनल संतुष्टि।
उस पर विकास की सभी आधुनिक सुविधाओं का उपभोग। सब को एक समान। कोई भीड़ भाड़ नहीं --नियमों का पालन करता यातायात --ओन लाइन सारे काम --कोई नटवर लाल नहीं।
कुछ पारिवारिक और सामाजिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, लेकिन वे सभी के लिए बराबर हैं।
जी हाँ , कुछ ऐसा ही द्रश्य होता है विकसित देशों में ।
फिर क्यों न जो सामर्थ्य रखते हैं , वे पलायन न करें।
लेकिन जिम्मेदार कौन ? हमारी व्यवस्था ? मेडिकल प्रोफेशन की ओर सरकार की उदासीनता ? या फिर बढती हुई उपभोगता ?
कुछ भी हो , हम बेहतरीन डॉक्टर बनाकर विदेशों को सौंप रहे हैं। मलाई वो खा रहे हैं। हम तो खाली उंगलियाँ चाट रहे हैं।
इस बारे में अप्रवासी भारतीय मित्रों कि राय जानना चाहूँगा। आपका स्वागत है।
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तो क्या इस बार अप्रवासी भारतीय ही टिप्पणी कर सकते हैं जी :-)
ReplyDeleteमुझे लगता है कि सभी विकासशील देशों में यही (भारत जैसे) हालात है और हर क्षेत्र में भी ना केवल डाक्टरी के पेशे में
प्रणाम स्वीकार करें
सही कहा आपने, हम तो सिर्फ उंगली ही चाट रहे है ! ठीक उसी तरह से जिस तरह खून पसीने से हम लोग अपना वेतन कमाते है, एक मोटी रकम सरकार हम से टैक्स के रूप में ले लेती है और फिर उस टैक्स के पैसे से जोर सर से कॉमन वेल्थ खेल खेला जाता है , जितने में दो स्टेडियम नए बन जाते उतनी लागत में सिर्फ रिनोवेशन किया जाता है ! और फिर हमारे ये सरकारी नुमैन्दे उस धन को उठा कर स्विस बैंक में रख देते है , ब्याज स्विट्जर्लेन्द वाले खाते है और हम उंगलियाँ ....
ReplyDeleteP.C GODIYAN JI SE SEHMAT HOON
ReplyDeleteउँगलियाँ भी सही रहे तब न चाटूं.?
ReplyDeleteमेरा जवाब सही और सटीक
ReplyDeleteसाल भर फ्री सलाह मिलेगी
इस लालच में रहें न ठीक।
बहुत ही सही मुद्दा उठाया है,आपने.....इतनी आलोचना करने से पहले ,अपने गिरेबां में झांककर देखना चाहिए कि इतने परिश्रम के बाद ,हम उन्हें कैसी ज़िन्दगी और कितनी सुविधा मुहैया करवा पा रहें हैं
ReplyDelete....बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति .... जिस तरह अपोजिट सेक्स का आकर्षण होता है ठीक उसी तरह एक देश के लोग दूसरे देश में, दूसरे देश के तीसरे देश की ओर, ....पलायन चलते रहता है बहुत ज्यादा चिंतनीय मुद्दा नहीं है!!!!
ReplyDelete"मेडिकल प्रोफेशन की ओर सरकार की उदासीनता ?"
ReplyDeleteबहुत बढ़िया आकलन किया है आपने इस समस्या का मगर निदान किसी को नहीं पता डॉ दराल !
कुछ डॉक्टर ऐसे भी हैं जो गांव मे काम कर रहे हैं,
ReplyDeleteलेकिन अच्छा भविष्य, खुब पैसा, भौतिक सुख,
बच्चों के लिए उत्तम शिक्षा इत्यादि के सामने
देश में रह कर काम करना मुस्किल हो जाता है।
निज उन्नति का अधिकार सबको है।
अच्छी पोस्ट डॉ साहेब
शु्भकामनाएं
Bahut sahi mudda uthaya hai aapane aur vichar bhi bahut acche rakhe hai kintu yahan to sabhi pakshya ki jawabdari banati hai ab ye baat alag hai ki jawabdari uthana koi nahi chahta ....behatar zindgi kise nahi lalchati!!
ReplyDeleteसरकार कि उदासीनता और बढाती हुई उपभोगता दोनों ही इस समस्या के कारण प्रतीत होते हैं
ReplyDeleteआपने बहुत ही बढ़िया सुझाव दिया और आपके कहने के अनुसार मैंने ज़िन्दगी के बदले जीवन कर दिया है और अब बिल्कुल सही लग रहा है! धन्यवाद!
ReplyDeleteसही मुद्दे को लेकर आपने बखूबी प्रस्तुत किया है! इस उम्दा पोस्ट के लिए बधाई!
डॉ. साहेब,
ReplyDeleteआपकी बात सोलह आने सही...हाँ एक बात ज़रूर बताना चाहूंगी...कि भारत से जो भी डाक्टर आते हैं कम से कम कनाडा और अमेरिका में उन्हें और दो परीक्षाएं पास करनी पड़ती है...खैर ये तो बात है education कि या फिर डिग्री की समकक्षता की...
यहाँ बहुत कम प्राइवेट प्रक्टिस होती है ...सभी डाक्टर हेल्थ क्लिनिक में registered होते हैं...एक ही डाक्टर कई हेल्थ क्लिनिक से जुड़े होते हैं...आज कल तो कोई डाक्टर ही नहीं मिलता जिसे आप अपना फॅमिली डाक्टर बना लें ....अगर आपका अपना फॅमिली सक्टर है तो आप बहुत किस्मत वाले हैं.......डाक्टर्स कभी भी किसी को घर में नहीं देखते......डाक्टर्स के फ़ोन नंबर लिस्टेड नहीं होते.......
आप जब भी किसी क्लिनिक में जाते हैं ...और आपको कोई डाक्टर देखता है...कनाडियन गवर्नमेंट उस डाक्टर को आपको देखने की फीस देती है....वो फीस है ..$५२ .....अब इस फीस का कुछ हिस्सा वो क्लिनिक वाला रखता है...जिसने वो क्लिनिक खोला है....और हर दिन एक डाक्टर कम से कम १०० मरीज देख ही लेता है.......
बिलकुल नए डाक्टर्स की तनखा कमतर $१,६०.००० वार्षिक से होती ही है...और यह general practitioners की बात कर रही हूँ...specialists की तनखा की बात करना ही बेकार है...उनकी salary $४,००००० वार्षिक से शुरू ही होती है, और ऊपर कुछ भी हो सकती है...
इन देशों में सबसे ज्यादा पैसा डाक्टर और वकील ही कमाते बनाते हैं... इसमें कोई शक नहीं कि अब यहाँ भी डाक्टर की कमी महसूस हो रही है....रोज नए immigrants आ ही रहे हैं जिससे आबादी बढ़ रही है...और क्यूंकि मेडिकल कनाडा में फ्री है इसलिए लोग इस सुविधा का भरपूर फायदा भी उठाते हैं....
डाक्टर्स की जीवन शैली बहुत ही ऊँची है..तो फिर लोग क्यूँ नहीं आयेंगे भारत से...जो कुछ यहाँ डाक्टर बन कर उन्हें मिलता है उसकी वो कल्पना भी नहीं कर सकते हैं ...भारत में...
एक डाक्टर का जीवन स्तर बहुत ही ऊँचा होता है यहाँ , इसलिए भारत को कुछ तो करना ही पड़ेगा ...इन डाक्टर्स को रोक कर रखने के लिए....
और कुछ याद आएगा तो फिर आउंगी...फिलहाल इतना ही...
डॉ साहेब बहुत ही उम्दा ढंग से बेबाक पक्ष रखा है आपनें डाक्टर्स का .
ReplyDeleteलेकिन जिम्मेदार कौन ? हमारी व्यवस्था ? मेडिकल प्रोफेशन की ओर सरकार की उदासीनता ? या फिर बढती हुई उपभोगता ? ..
सारा उत्तर तो इसी में है,सभी कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं और मेरी नजर में इसके पीछे सबसे बड़ा कारन है - यहाँ की अज्ञानता और निरक्षरता.
अदा जी , आपने बहुत सही और विस्तृत जानकारी दी है। मुझे आपसे यही अपेक्षा थी। यह सही है की वहां डॉक्टर्स का रुतबा और ओहदा काफी ऊंचा है। यहाँ भी है लेकिन खाली नाम के लिए । यानि लोग डॉक्टर को भगवान तो मानते हैं लेकिन इंसान नहीं मानते। ये नहीं मानते की डॉक्टरों की भी मानवी ज़रूरतें होती हैं।
ReplyDeleteयहाँ मैं यह भी कहना चाहूँगा की भारतीय डॉक्टर विश्व भर में अच्छे डॉक्टरों में जाने जाते हैं। अमेरिका में भी इन्डियन , चाइनीज और फिलिस्तीनी डॉक्टर बेहतर माने जाते हैं। क्योंकि मेहनत करके वे खुद को श्रेष्ठतम साबित कर ही देते हैं।
लेकिन हिंदुस्तान में रहकर हम डॉक्टर भी हिन्दुस्तानी ही बन जाते हैं :)
दराल साहेब,
ReplyDeleteसंतोष जी के अपने बड़े भाई U .K . लन्दन रोयाल हॉस्पिटल में nephrologist हैं ..जब तक वो भारत में थे ...दुखी थे, अस्पताल के सिस्टम से ही लड़ते रहते थे....और अब खुश हैं...कुछ बातें ज़रूर सालती हैं...लेकिन काम करने में संतुष्टि पाते हैं...भारत में डाक्टर्स माल-प्रक्टिस बहुत करते हैं जिसकी वजह से भी अच्छे डाक्टर्स खुद को...आउट ऑफ़ प्लेस पाते हैं...
डाक्टरों को ऊँचा ओहदा यहाँ भी है ...अब मेरा बेटा तो अभी स्टुडेंट ही है लेकिन जैसे ही वो ये बताता है कि वो मेड-स्टुडेंट है लोगों का नजरिया ही बदल जाता है....
आपने ये बात बिलकुल सही कही कि हिन्दुस्तानी डाक्टर्स बहुत काबिल होते हैं...जब भी कि यह एक दुःख की बात है ...फिर भी यह कारण भारत के डाक्टर्स के हित में काम करता है.....इसका सबसे बड़ा कारण है... अनुभव.....भिन्न-भिन्न तरह की बीमारियों से दो-चार होना....यहाँकनाडा-अमेरिका का सामाजिक परिवेश और कंट्रोल बहुत सारी बीमारियों को वैसे भी फटकने नहीं देता है....मैंने अपने रेडियो प्रोग्राम में भारतीय डाक्टर्स के पक्ष में इस मुद्दे पर बहुत शोर मचाया था....
आप ये बिलकुल सही कहते हैं...हम भारतीय किसी को भी भगवान् बनाने में देर नहीं करते हैं.....डाक्टर्स भी इसी मानसिकता के मारे हुए हैं....हम भूल जाते हैं कि उनके भी बच्चे हैं..उनको भी मानवीय सुविधाओं की आवश्यकता होती होगी....
बहरहाल आपने बहुत ही अच्छा मुद्दा उठाया है...इसपर और बहस होने चाहिए...साथ ही सरकार का ध्यान इस बात की ओर ज़रूर आकृष्ट करना चाहिए कि ताकि मलाई घर में ही रहे...
डा. साहिब ~ आपने सही लिखा है कि कैसे भारतीय डॉक्टरों का और मरीजों का भी हाल पश्चिम की तुलना में एक दम गया गुजरा है, और काल के साथ बदतर होता जा रहा है, यद्यपि पश्चिम में भी अभी बहुत शेष है इस दिशा में करने को...किन्तु श्रृष्टि की समाप्ति का भय भी दूसरी ओर परेशान कर रहा है :(
ReplyDeleteयदि थोडा रुक के सोचें कि ऐसा क्यूँ है और इसका विकल्प क्या है तो शायद प्राचीन काल के तथाकथित 'पहुंचे हुए', जीसस क्राइस्ट जैसे, लोग या योगियों के विचार ढून्ढ कर निकालने होंगे...मैंने अपने कुछ विचार पिछली पोस्ट में भी लिखे हैं जो मैंने इस आधुनिक युग में अपनी कंक्रीट की गुफा के भीतर कुछ वर्षों की 'तपस्या' के बाद जाने हैं, किन्तु अन्य पश्चिमी वैज्ञानिकों की भांति अभी बहुत जानने को शेष है :)...और, क्यूंकि एक लाइन में उन्हें व्यक्त नहीं किया जा सकता, ज्यादा न कहते हुए मैं इतना ही कहूँगा कि मानव मष्तिष्क को आज एक कंप्यूटर समान जाना गया है, जिसकी सहायता से कमजोर डिजीटल कंप्यूटर तो बन पाए हैं, किन्तु ऐनालोजिक होने के कारण इसका सही उपयोग आज मानव को इसलिए नहीं आता क्यूंकि, जो भी इसका कारण रहा हो, प्राकृतिक तौर पर ऐसा लगता है कि 'विघ्न' या 'बाधा' बहुत तगड़ी है, जैसे सारे आठ तालों में जंग लग गया हो और उस पर चाभियाँ भी गुम हो गयी हो,,,(प्राचीन ज्ञानियों ने उन्हें भगवान् विष्णु के पास उपलब्ध बताया है, और जो 'विघ्नहर्ता गणेश' या 'संकटमोचन हनुमान', यानि मंगल ग्रह के सार की सहायता से भी खोले जा सकते हैं, जिसके लिए कुंडलिनी जागृत करनी आवश्यक है :),,,जिस कारण यह भी जाना गया है कि मानव मष्तिष्क में उपलब्ध सेल में से 'आधुनिक मानव' केवल नगण्य प्रतिशत का ही उपयोग कर सकता है...('कृष्ण' ने इस कारण सुझाव दिया है आत्मसमर्पण कर, बच्चे समान, उनकी ऊँगली पकड़ना जिससे वो परम सत्य तक स्वयं ले जा सकें,,,जो कठिन है आधुनिक मानव के लिए :(
आपकी पिछली पोस्ट को भी मैने सरसरी निगाह से देखा था .. समयाभाव के कारण टिप्पणी नहीं कर सकी थी .. भारतवर्ष में बेईमानों और कामचारों के लिए जितनी सुविधाएं दिखाई देती हैं .. ईमानदारों और कर्मठों के लिए नहीं होती .. उन्हें जीवनभर संघर्ष कना होता है .. व्यवस्था की यह सबसे बडी खामी है .. और इसे दूर किए बिना प्रतिभाओं का विदेशों में होते पलायन को नहीं रोका जा सकता !!
ReplyDeleteडॉक्टर साहब,
ReplyDeleteडॉक्टरी पेशे का भारत में सबसे ज़्यादा बेड़ागर्क किया है रिज़र्वेशन ने...ये लोगों की जान से जुड़ा पेशा है...इसलिए यहां योग्यता और सिर्फ योग्यता के अलावा किसी और चीज़ से समझौता नहीं किया जाना चाहिए...मेडिकल कॉलेज में रिजर्वेशन, पीजी में रिजर्वेशन, नौकरियों में रिज़र्वेशन...ऐसे में टेलेंट के लिए मौके ही कितने रह जाते हैं...वो विदेश की राह पकड़ लेती है...(ब्रेन ड्रेन इज़ बैटर दैन ब्रेन इन ड्रेन)...हंसी तो तब आती है जब रिज़र्वेशन की वकालत करने वाले बड़े बड़े नेता खुद बीमार पड़ते हैं...वो कभी कोटे वाले डॉक्टर के पास नहीं जाएंगे बल्कि बड़े से बड़े सुपरस्पेशलिस्ट के पास ही जाएंगे...या फिर सरकारी खर्चे पर विदेश जाकर इलाज कराएंगे...जब तक भारत में योग्यता की कद्र शुरू नहीं होगी, हालात नहीं सुधरेंगे..
जय हिंद...
व्यवस्था के मारे देश छुड़ाया ...!!
ReplyDeleteअदा जी तो सब बता ही गई..रोज रोज की जिन्दगी में तो आराम बहुत है. कोई टेंशन किसी प्रकार की नहीं होती सिवाय इसके की अपनो से दूर हैं. वही तराजू बराबर किये रहता है.
ReplyDeleteअदा जी ने बिलकुल सही कहा है । यहाँ रहकर अच्छे डॉक्टर भी मजबूर महसूस करते हैं। उन्हें पूरी सामर्थ्य से काम करने को नहीं मिलता । उस पर हमारा भ्रष्ट सिस्टम । इसलिए डॉक्टर भी प्रभावित होने से नहीं बचते । लेकिन यही डॉक्टर विदेश की सुव्यवस्था में रहकर ऊंचाइयां प्राप्त करते हैं।
ReplyDeleteसंगीता जी की बात से पूरी तरह सहमत।
खुशदीप , इस मुद्दे को मैंने जान बूझ कर नहीं उठाया । लेकिन यह सच है की यही सच है । इसके साथ मैं जोड़ता हूँ , प्राइवेट मेडिकल कौलिजिज , विदेश से प्राप्त डिग्री जैसे रशिया , उक्रेन, बुल्गारिया आदि। और सबसे खतरनाक नकली डॉक्टर।
समीर लाल जी की बात सोला आने सच। मैंने भी यही लिखा है की पारिवारिक और सामाजिक समस्याएँ होती हैं , लेकिन ये सब के लिए समान हैं , यानि डॉक्टर्स और नॉन डॉक्टर्स के लिए । अब कुछ तो कीमत चुकानी ही पड़ती है , कुछ पाने के लिए ।
डा. साहिब ~ मुझे मालूम है कि क्यूंकि मैं 'प्राचीन योगियों' समान यह मानने लगा हूँ कि सबके भीतर भगवान् का उपस्तिथ होना सही है, मेरी बात से 'आधुनिक हिन्दू' हिल जाता है और कुछेक 'ब्लॉगर' तो घबडा के अपने ब्लॉग में 'ताला' लगा देते हैं ('०५ से अभी तक सौ. कविता कल्याण को छोड़, रविशजी और डा. साहिब को भी - अभी तक :)...
ReplyDeleteडा. सा., आपसे तो मैंने पहले भी पूछा था कि जीज़स ने क्या किसी मेडिकल कॉलेज की डिग्री प्राप्त की थी? अब यही मैं खुशदीप सहगल जी और अन्य 'बुद्धजीवियों' से भी पूछना चाहूँगा कि कैसे कोई किसी अन्य मार्ग से भी 'दुःख' / दुःख का शायद मुख्य कारण 'बीमारी' दूर कर सकता है - मात्र छूने भर से?!!! यदि यह 'भूत' में संभव था तो क्यूं कोई आगे नहीं आता,,,यद्यपि 'बाबा राम देव' आज एक उदाहरण हैं कठिन 'योग की व्यायाम' द्वारा जो हर 'व्यस्त आम आदमी' के लिए अभी नक़ल कर पाना संभव नहीं है, और हमारे जैसे 'अवकाश प्राप्त' व्यक्तियों के लिए तो लगभग असंभव है :)
मैंने डा. साहिब के ब्लॉग में पहले भी कहा था कि कैसे (इस जन्म में) एक 'इंजीनियरिंग' का विद्यार्थी होते हुए भी मैंने 'मनोवैज्ञानिक' समान तब, '७४ में, ३ वर्ष की अपनी तीसरी लड़की को ही 'दिल्ली' में नहीं चलाया अपितु हाल ही में, ३३ -३४ वर्ष पश्चात, उसके २ वर्ष के बेटे को मुंबई में भी चलना सिखाया - केवल उनका शब्दों से भय दूर कर! और बचपन से ही 'हस्तरेखा शास्त्र' में भी हस्तक्षेप रखने के कारण (और इस 'हिन्दू मान्यता' की पृष्ठभूमि से कि मानव 'अनंत शून्य रुपी ब्रह्माण्ड' का प्रतिरूप है) यह भी जाना कि जिन 'उँगलियों' की डा' साहिब ने चर्चा किया अपने पिछले पोस्ट में, वे ब्रह्माण्ड के सार, हमारे 'नवग्रहों' के (सूर्य से उसके पुत्र शनि तक) द्योतक हैं,,,और इस ज्ञान के माध्यम से केवल एक 'सुच्चे मोती' के उपयोग से एक डिग्री प्राप्त डॉक्टर का पेट का दर्द (जी आई) ठीक कर दिया :) (मैं 'झोला छाप' होने के कारण अपने रिसर्च का और अधिक खुलासा यहाँ नहीं करूँगा :)
sahmat hun aapse docter saab.
ReplyDeleteएक डाक्टर को तैयार करने में सरकार के भी लाखों खर्च होते है यह शपथ लेकर कि "I swear by Apollo the physician, by Fsculapius, Hygeia, and Panacea, and I take to witness all the gods, all the goddesses, to keep according to my ability and my judgement, the following Oath अपने एशोआराम के लिये अस्सी प्रतिशत ग्रामीण ,दुखी और बीमार जनता को भगवान् भरोसे छोड़ कर विदेश में जा बसना उचित है ?उचित हो भी सकता है क्योंकि अब चिकित्सा परोपकार नहीं है व्यवसाय है ।
ReplyDeleteडाक्टर ही नही मेरे अनुभव के आधार पर हर प्रोफ़ेशन का यही हाल है .... भारत में प्रतिभा का आंकलन भी राजनीति के चश्मे से होता है ... पर ये मेर मानना है की भारत सरकार को हर विदेश जाने वाले भारतीय से उसकी पढ़ाई की सब्सिडी का खर्च किसी न किसी टेक्स के रूप में ले लेना चाहिए ... I will pay that tax to Govt of India, if any proposal is made in Tax laws.
ReplyDeleteजे सी जी , बेशक चिकित्सा में आधा योगदान तो मनोविज्ञान का ही होता है। इसीलिए रोगी की इच्छा शक्ति मज़बूत हो तो जल्दी फायदा होता है। डॉक्टरों को भी इसका ध्यान रखना पड़ता है।
ReplyDeleteब्रिजमोहन जी, आपकी बात सही है । लेकिन हिप्पोक्रेटिक ओथ में श्रधा , निष्ठां और एथिक्स की बात आती है। यहाँ बात एशो आराम की नहीं है। बल्कि एक इंसान के रूप में अपने अधिकारों की है। जो डॉक्टरों को भी मिलना चाहिए । अब सवाल यही आता है की इसके लिए जिम्मेदार कौन ? हम क्यों नहीं रोक पा रहे इस पलायन को ?
एक गंभीर विचारणीय मुद्दा है.
ReplyDeleteअंतर तो उपरोक्त टिप्पणियों से स्पष्ट है. यह मुद्दा सरकारी है और प्रबंधन के दायरे में आता है. आम जनमानस से सीधा सम्बन्ध तो डाक्टर का पेशा है. भारतीय जन मानस ही गरीब और दुखी है तो डाक्टर को तकलीफ झेलना ही है. हम किसी भी मोर्चे पर विकसित देशो से प्रबंधन में पीछे चल रहे हैं.... कारण है "भ्रष्टाचार"
दुःख हमें बहुत है की हमारे महंगे संस्थानों से काबिल डाक्टर निकलते हैं - वे गाँव की और रुख नहीं कर पाते उत्तम विकल्प या तो महानगर या विदेश.
बजट की कमी नहीं है. विकास कार्यों पर खर्च नहीं हो पाता. देश की 80% पूंजी 10 % भ्रष्ट लोगों(सरकारी और अर्धसरकारी प्रतिष्ठानों के मालिकों) के हाथ में हैं और शेष 20% से पूरा हिन्दुस्तान की करोडो आबादी जैसे तैसे जीवन यापन कर रहा है.
जब तक आम जन का जीवन स्तर नहीं सुधरेगा. डाक्टर इंजीनियर्स बेहतर विकल्प के लिए पलायन करते रहेंगे.
फिलहाल डाक्टर के दुःख में अपना दुःख भूल चूका हूँ - सुलभ
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एक और बात, अपने देश में अच्छे रिसर्च वर्क बहुत कम होते हैं. कहीं आधारभूत संरचना की कमी है कहीं लाल-फीताशाही है.
ReplyDeleteकहीं कहीं मनोवृति में भी दोष है, देशभक्ति के जज्बे में भी कमी है. एक बार विदेश का चस्का लगता है तो प्रोफेशनल्स भी वही आराम पसंद घर का सपना देखने लगते हैं. कुछ खुदगर्ज किस्म के प्रोफेशनल्स को पैसा कमाने के बाद लौटना भी चाहिए की वे अपना अनुभव यहाँ बेहतर तंत्र स्थापित करने में दे सके. उच्च गुणवत्ता के रिसर्च एंड डेवलेपमेंट सेंटर खोले जाएँ. यदि सरकार फंड नहीं दे सकती है तो चंदे लेकर निर्माण करें. व्यापक स्तर पर जन जागरण की जरुरत है.
अन्य दुसरे सेक्टर्स भी गाँव समेत हाईटेक होने उतने ही जरुरी हैं जितने मेडिकल प्रोफेशन. सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य करने वालों डाक्टरों को विशेष पॅकेज और सुरक्षा देना चाहिए.
दुःख हमें बहुत है की हमारे महंगे संस्थानों से काबिल डाक्टर निकलते हैं - वे गाँव की और रुख नहीं कर पाते उत्तम विकल्प या तो महानगर या विदेश.
ReplyDeleteसरकार को ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य करने वालों डाक्टरों को विशेष पॅकेज और सुरक्षा देना चाहिए.
आपकी बात में दम है सुलभ ।
और मुझे ख़ुशी है की देर से ही सही सरकार सोच रही है इस बारे में । पता चला है कि सरकार रुरल हैल्थ डॉक्टर्स की एक स्कीम लेकर आ रही है , जिसके अंतर्गत गाँव से ही चुनकर छात्रों को चिकित्सा में शिक्षा दी जाएगी । इस कोर्स की अवधि एक साल कम होगी और ये डॉक्टर्स गाँव में ही प्रैक्टिस करेंगे ।
लेकिन इस योजना का भी विरोध हो रहा है , अफ़सोस कि अपने ही प्रोफेशन के लोगों से । यानि खुद जायेंगे नहीं , औरों को करने नहीं देंगे । यह बात दुर्भाग्यपूर्ण लगती है।
dono post padhi...dono damdaar ...ek jvalant samsya par dhyanakarshan..tippaniyan bhi damdar hain..darasal itna samay aur paisa kharch karne ke baad jahir hai sabhi apna bhavishy pahle banana chahega ..isme burai bhii nahin hai..jb hm khud ko behtar nahin bana sakte to desh ko kya banayenge..! haan yah jaroori hai ki khud ko majboot karne ke baad..is yogy hone ke baad ki desh ke liye kuchh kar saken hamara dayitva hai ki hm is disha me bhii pahal karen.
ReplyDeleteaapka yah post usi disha me agrasar hota dikhta hai..
...aabhar.
Sirf Doctors hee nahi, taqreeban har kshetr me log Hindustan se bahar janeka mauqa miltehi chal dete hain....ye bhi dekha ki, inmese chand log bharat me rahte to unka jeevanmaan kahin behtar hota....baat gharse mile sanskaron pe aake rukti hai..ham bachhonko Hindustani banate hain,ya doc,engineer adi,adi..kamse kam achhe insaan to banayen!
ReplyDeleteडा. साहिब, आप कवि भी हैं और कहावत है, "जहां न पहुंचे रवि / वहाँ पहुंचे कवि.",,,और यदि हम विश्लेषण करते हैं तो हर समस्या के मूल में पाते हैं की प्रश्न बढती जन संख्या और हरेक स्तर पर 'प्रबंधन' का सही न हो पाना है, यद्यपि प्रयास जारी दीखते हैं:
ReplyDeleteपहले आता है ('पी' से) प्लानिंग - देश भर में विभिन्न सूत्रों से सूचना (सही या गलत) प्राप्त कर विभिन्न क्षेत्र (सेक्टर) की समस्या के समाधान के लिए प्लान यानि योजनाएं बनती हैं,,,जिस काम में ही बहुत समय निकल जाता है और जिस कारण जब तक वो कार्यान्वित ('आई' से इम्प्लेमेंत) होता है अनंत कारणों से वांछित लक्ष्य प्राप्त नहीं होता,,,क्यूंकि हरेक वर्ष और अंततोगत्वा पांच वर्ष के बाद जब लक्ष्य और धरा पर असल प्राप्ति के अंतर का ('ई' से) ईवलुएशन यानि मूल्याकन करते हैं, तो जैसा कहा जाता है, यह खाई बढती ही गयी दीखती है हमारे देश में, जिस कारण कहते हैं कि 'जो अमीर था वो और अमीर होता जा रहा है / और जो गरीब था वो और गरीब'!
जिस पायी (पी आइ ई), यानि केक की उम्मीद या आशा लगाये बैठे थे वो खोयी बन पेश हो जाती है कालांतर पर (और प्राचीन ज्ञानी सब दोष दे गए 'काल' को :)
कहना भूल गया कि जब मुझे 'पाई' खानी होती है या कुछ और आवश्यक वस्तु चाहिए होती है, तो मैं दूकान में जा नज़र दौडाता हूँ दुकानदार के पास उपलब्ध वस्तुओं पर और अपनी मन पसंद की कीमत पूछ उसे खरीद लेता हूँ - यदि मेरे बटुए में पैसे होते हैं और उसकी कीमत को मैं सही पाता हूँ...किन्तु यही प्रक्रिया 'सरकार' के लिए जटिल बन जाती है जब 'खाने वालों' की संख्या बढ़ती जाती है,,,क्यूंकि हर प्रणाली में 'पी' 'आई' 'ई' समान '३' तरह के व्यक्तियों का पाया जाना भी शायद प्राकृतिक ही हो: रेल के उदाहारण से नंबर एक, इंजिन समान ('लीडर'); दूसरे नंबर पर, इंजन के साथ जुड़े डब्बों समान (अलग अलग स्तर के व्यक्तियों के लिए), और तीसरे ब्रेक समान - जिन तीनों के बिना प्राणी और सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान पर, अलग अलग स्टेशन पर रुक कर, विशाल भारत भूमि पर संभव हो पाया है एक विस्तृत प्रणाली द्वारा (जो अंग्रेज़ आरंभ कर गए, और 'उनके राज्य में सूर्यास्त ही नहीं होता था' एक समय,,,(किन्तु प्रणाली में कमियों के कारण टक्कर भी लगती है, डब्बे पटरी से उतर जाते हैं, आदि आदि...)
ReplyDelete"आवश्यकता आविष्कार की जननी है", जिस कारण पानी के जहाज और हवाई जहाज के द्वारा मानव का तीनों लोक पर राज्य या नियंत्रण हो गया,,,और इतना ही नहीं, चाँद पर पहुँच आज हम लोक-परलोक की यात्रा के स्वप्न भी देख रहे है, इस पृष्ठभूमि के कारण कि शायद शीघ्र ही अपनी धरती अब रहने योग्य ही नहीं रह जाएगी बढ़ते 'विष' के कारण जिस पर आदमी का नियंत्रण शायद नहीं है :) ...
भारत, दो लोगों का भारत है. एक उनका जो शिक्षा व सुविधाएं ख़रीद सकते हैं दूसरे, जो नहीं ख़रीद सकते. पहली श्रेणी के लोग भले ही कहीं कम हों पर vocal हैं, असरदार हैं. दूसरी भीड़ तो गूंगों की है जिससे राजनितिज्ञ अपनी गेम खेल रहे हैं.
ReplyDeleteसही कहा है, पहले केवल प्राईवेट शिक्षा थी अब प्राईवेट सुविधाएं भी आ गई हैं. दोनों बस उन मुट्ठी भर के लिए हैं जो इन्हें ख़रीद सकते हैं. ग़रीब का क्या है उसके लिए तो ओझे और नेते हैं ही.
पैसा व मेहनत झोंकी है तो वसूली तो होनी ही चाहिये. यहां नहीं तो कहीं भी सही. मानो इंजीनियरिंग व मेडीकल वेश्यावृत्ति हों..खूबसूरती की बसूली चाहिये. इतने ही तीस मारखां हैं तो भारतीय पैसे से क्यों पढ़ते हैं, क्यों नहीं बचपन में ही विदेश चले जाते, किसी ने रोका है? पर अम्मा दाने भुनाएगी कहां से.
हालात को देखते हुए पूरा भरोसा करूं कि एक दिन भारत की दशा सुधारने के लिए विदेश से लोग आएंगे ! भारत जैसा भी है अच्छा या बुरा, इसके लिए अगर दोषी हम हैं, तो यह भी तय समझिये कि इसे सुधारना भी हमें ही है. बाहर से गोरे नहीं बुलाएंगे इसके लिए.
यहां का खाकर विदेश का गाने वालों के बारे में क्या कहा जा सकता है. जब इन्हें गोरे, चमड़ी के रंग के चलते स्वीकार नहीं करते तो खुद को भारतीय-भारतीय चिल्लाने लगते हैं otherwise यूं नाक भौं सिकोड़ते हैं मानों ग़लती से भारत में पैदा हो गए थे.
बड़ा अच्छा लगता है यह तर्क कि रिज़र्वेशन ने बेड़ा गर्क कर दिया. सही बात है, have nots कहां सुहाएंगे. लिख तो यूं दिया मानों रिजर्वेशन की वजह से डिग्रियां गेटों पर टंगी मिलती हैं. रिजर्वेशन से आने वाले भी न्यूनतम अंको से ज्यदा से ही पास होते हैं, वही न्यूनतम अंक जनरल के लिए भी होते हैं. क्या इलाज से पहले, हस्पताल में जाकर किसी ने पूछा है कि जनरल वाले डाक्टर बबुआ कौन जगह से कितनी परसेंट से डाक्टरी पास किये हो ? समाज को यह बात समझ आने में अभी समय लगेगा कि अधिकतम नंबर से पास होने का मतलब बेस्ट नहीं होता, अधिकतम नंबर डिमांड और सप्लाई के बीच के अंतर का दर्शाते हैं.
डा. साहिब, राम लाल जी ने भी सही मूल्यांकन किया है 'सत्य' का, जैसा आज दिखाई पड़ रहा है जमीनी सच,,,किन्तु यह भी सच है कि 'गोरों' ने चमड़ी के रंग के कारण राज्य नहीं किया - उन्होंने दिमाग से और शक्ति यानि बल के सही उपयोग से किया,,,और उसके अतिरिक्त अनुशाशन में रह मूल और मूक भारतीयों को डंडे के दम पर एक कर दर्शाया कि राज कैसे किया जाना चाहिए,,,इतिहास दर्शाता है कि उस समय हम छोटे छोटे राज्यों में बटे थे और आपस में ही लड़ते रहते थे (किन्तु ज्ञानी कह गए कि जो सदैव बदलते समय से परे है सत्य वो ही है, जिस कारण मनुष्य का प्राकृतिक स्वभाव है आपस में ही लड़ना, नहीं तो 'महाभारत' की कहानी कैसे आज भी हमें आकर्षित करती?)...
ReplyDeleteभारत में राजा राज्य (मतलब 'जो 'रा' से उत्पन्न हुआ") करते थे तो रूस में राजा को (उसका उलट) ज़ार कहते थे जो नीतिशास्त्र में पारंगत थे. उनकी एक 'योजना' पर कहानी सुनी थी, जो आज भी नक़ल लगाने कि प्रवर्ती के कारण 'सच' है - ('समय कि गुलामी' कह लीजिये) - पेश है:
पोलैंड से दूत मॉस्को तत्कालीन ज़ार का प्रबंधन देखने आया और, राज्य में सब जगह घूम-घाम, जाते समय भी ज़ार से मिलने आया...ज़ार ने पूछा उसे कैसा लगा तो उसने कहा बाकि सब तो अति उत्तम लगा, किन्तु एक बीरान स्थान पर कुछ सिपाहियों को देख आश्चर्य हुआ! वो क्यूँ वहाँ पर तैनात हैं, उसका क्या रहस्य है ??? ज़ार ने अपने दरबारियों से पूछा,,,और यूं एक बूढी, उसकी दादी, तत्कालीन ज़ारीना की दासी को पेश किया गया...उसने खुलासा किया कि कैसे एक शाम ज़ार और ज़ारीना घूमने निकले तो उन्होंने उस स्थान पर उगे कुछ पौधों में बहुत सुंदर फूल देखे,,,वो पहले तो खुश हो निहारती रही उनको, किन्तु फिर रोने लगी! आश्चर्यचकित हो ज़ार ने रोने का कारण पूछा तो उसने कहा कि यहाँ बीराने में कोई जानवर या आदमी इनको नुक्सान पहुंचा सकता है,,,इस पर ज़ार ने तुरंत सिपाहियों कि व्यवस्था करदी थी :)...
यूं तभी से वो वहाँ पर ३ शिफ्ट में चले आ रहे थे जबकि बहुत पहले से वो झाड़ियाँ सूख-साख विलुप्त भी हो गयी थीं :)
ऐसी ही सत्य-कथा ब्रिटेन में भी कोस्ट गार्ड से सम्बंधित हुई जो कभी स्पेन से समुद्र मार्ग से आ हमला करते शत्रु के कारण वहां तैनात किये गए थे और चलते रहे थे यद्यपि अब उनकी तैनाती का कोई औचित्य नहीं रह गया था :)
बहुत ही ज्वलंत समस्या पर विचार-विमर्श
ReplyDeleteपढ़ कर संतोष हुआ
आपकी चिंता व्यर्थ ही नहीं है
आपने सही कहा कि यहाँ लोग
डॉक्टर्स की मानवीय आवश्यकताओं को
जानने का प्रयास ही नहीं करते
पिछली बार पहेली में भाग नहीं ले पाया
अफ़सोस है
एक साल का इलाज (मुफ्त वाला) चूक गया ना....!!
श्री मुफलिस के समान, "...आपने सही कहा कि यहाँ लोग डॉक्टर्स की मानवीय आवश्यकताओं को जानने का प्रयास ही नहीं करते..." ऐसे अनंत विचार / प्रश्न हरेक करता है - एक 'दलित' भी (जो अज्ञानतावश दोष देता है 'ब्राह्मणों' को),,,किन्तु उत्तर - इस भागम-भाग में - समय की कमी के कारण नहीं पाता है कोई, भले ही उसने 'ब्राह्मण परिवार' में ही जन्म क्यूँ न लिया हो ...यदि उत्तर चाहिए तो देखना आवश्यक है कि इस विषय में क्या हमारे पूर्वजों ने कोई प्रयास नहीं किये? क्यूंकि कहते हैं कि मनुष्य अपने अनुभवों से तो सीखता ही है (भले ही अपनाये नहीं) किन्तु ज्ञानी वो है जो दूसरों के अनुभव से भी शिक्षा ग्रहण कर पाता है और उसे काम में लाता भी है...
ReplyDeleteसंक्षिप्त में कहें तो ऊन्होने 'ग्रहों' के माध्यम से प्राणी जीवन, विशेषकर मानव जीवन और उसमें घटित होने वाली घटनाओं को समझा है अनेकों पथों से: जैसे हस्तरेखा-शास्त्र, एस्ट्रोलोजी, समुद्र शास्त्र (माथा या ललाट पर लिखे को पढने), सांख्यिकी आदि, आदि द्वारा...और उन्होंने जाना कि मानव शरीर दुर्लभ है,,,किन्तु 'आम आदमी' - अज्ञानतावश - काल के प्रवाह में बहते तिनके समान मौका गँवा देता है प्रभु को यानि 'परम सत्य' को जान पाने में और अनंत सत्य में ही उलझ के रह जाता है...उन्होंने आदमी को पिरामिड के शिखर में, एक अनंत ऊँचाई पर स्तिथ बिन्दू पर पहुँचने का प्रयास करने को कहा (क्यूंकि, जीवन नादबिन्दू यानि 'शून्य' से आरंभ हुआ जाना - जिसका लक्ष्य अनंत को पाना था :)...
मेरे घर मलाई बहुत हैं, कहो तो भेज दूँ????
ReplyDeleteहै........आप डॉक्टर होकर ऊँगली चाट रहे है???
ये तो बहुत बुरी आदत हैं, ऊँगली चाटना (चूसना) बहुत ही नुक्सान देह HAIN........
ये तो आप जानते ही हैं.....
हा हाहा हाहा हा
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चन्द्र सोनी , ये सब क्या है ?
ReplyDeleteमेरे ख्याल से अगर हमारी सरकार अपने उदासीन रवैये को बदल ले और देश के सभी इलाकों को सुविधाओं से युक्त करे तो कोई वजह नहीं बचेगी बाहरले देशों की और पलायन की
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