वैसे तो हमारे देश में भी अब सभी आधुनिक चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध हैं। यहाँ तक कि अब विदेशों से भी रोगी यहाँ आते हैं इलाज़ कराने । यानि मेडिकल टूरिस्म बढ़ने लगा है। हो भी क्यों नहीं , भारत में इलाज़ अमेरिका या कनाडा जैसे देशों के मुकाबले बहुत सस्ता जो पड़ता है।
अब देखिये जितने रूपये में यहाँ हार्ट बाई पास सर्जरी हो जाती है , बाहर उतने डॉलर में होती है।
तो है न यहाँ इलाज़ काफी सस्ता ।
अब कोर्पोरेट होसपितल्स को देखें तो यहाँ काम करने वालों को भी सभी सुविधाएँ उपलब्ध हैं।
फिर ऐसा क्यों कि हमारे डॉक्टर देश छोड़ विदेश की ओर मूंह मोड़ लेते हैं।
सुनते आये हैं कि वहां जाकर बहुत संघर्ष करना पड़ता है , डॉक्टर के रूप में स्थापित होने के लिए । आरम्भ में तो क्वालिफिकेशन मिलने तक न जाने क्या क्या काम करने पड़ते हैं।
अब ज़रा इन महाशय को ही देखिये । ये भारतीय डॉक्टर भला क्या कर रहे हैं ?
डॉक्टर इण्डिया --क्यूबेक कनाडा के एक गैस स्टेशन ( पेट्रोल पम्प ) पर कार में गैस ( पेट्रोल ) भरते हुए ।
अब ज़रा सोचिये और बताइये कि :
सवाल :
इस डॉक्टर को पेट्रोल पम्प पर कार में पेट्रोल भरने का काम क्यों करना पड़ा ?
आपके ओपशंस :
१) क्या करते , मरते क्या न करते । डॉक्टर का काम नहीं मिला तो पापी पेट के लिए यही सही ।
२) डॉक्टरी धंधे में इतना पैसा नहीं मिलता कि घर का गुजारा हो सके । इसलिए पार्ट टाइम काम है भाई।
३) अरे कुछ नहीं , वहां पेट्रोल मुफ्त में मिलता है । इसलिए पेट्रोल भरो और भाग लो।
४) उपरोक्त में से कोई नहीं । मामला कुछ और ही है ।
तो भई , आपको बताना है , इस सवाल का सही ज़वाब।
सही ज़वाब देने वाले को हमारी तरफ से एक साल के लिए मुफ्त इलाज़/सलाह ।
नोट : यह सवाल अप्रवासी भारतियों के लिए नहीं है।
हमारे अनुसार तो विकल्प एक ही सही है। "मरता क्या ना करता"।
ReplyDeleteकम से कम समय में अधिक से अधिक आय कर लेने का लोभ ही भारतीय प्रतिभा को विदशों के प्रति आकृष्ट करती है।
बहां जाकर यू एस एम एल ई की परीक्षा पास नहीं हुई इनसे
ReplyDeleteमरता क्या न करता है
ReplyDeleteलौटते हुए भी तो डरता है
न सिर्फ विकल्प की कमी अपितु उचित माहौल, ग्लैमर (दौलत की चकाचौंध का आकर्षण) , गंदी राजनीति का हस्तक्षेप, कुछ हमारे डाक्टरों की हिन्दुस्तानी सोच इत्यादि बहुत से कारण है डा० साहब,
ReplyDeleteहां, रही पहेली की बात तो पहले तो यह कहूंगा कि वहाँ पर बिहारी और पहाडी ( मैं भी पहाडी ही हूँ ) नहीं मिलते :) एक आधा जो होगा भी वह सारे पम्पो को अन्दर बैठ एक कंप्यूटर से ही संचालित करता है !
दूसरी बात, आप पेट्रोल / गैस भरते वक्त काफी स्मार्ट लग रहे हैं ! :) :)
हो सकता है कि ब्लागपोस्ट बनाने के लिये ही पैट्रोल भरने का काम किया गया हो :-)
ReplyDeleteप्रणाम
कोई स्कीम है जी
ReplyDeleteपैट्रो प्वांईट सेविंग स्कीम (फ्यूल सेविंग रिवार्ड कार्ड) जीतने के लिये
खुद ही सर्विस कर रहे हैं जी
प्रणाम
हा हा हा ..ये बात गलत है..ये ब्लोगिंग सबके लिए है तो सवाल भी सबके लिए होना चाहिए
ReplyDeleteआदरणीय
ReplyDeleteब्लाग खुलने में बहुत देर लग रही है जी। कहीं कुछ गडबड है, कृप्या ध्यान दें। आपका ब्लाग खोलते वक्त नीचे स्टेट्स बार में waiting for www.amitjain.co.in दिखाई देता है जी। क्या यह केवल मेरे कम्प्यूटर पर ही दिखता है, कृप्या दूसरे पाठक भी बतायें।
प्रणाम
चित्र कनाडा का ही है
ReplyDeleteडॉक्टर कोई अन्य नहीं डॉ. टी. एस. दराल ही हैं
कनाडा में भी पेड़ों के पत्तों का रंग हरा ही होता है
अब विकल्प देखिए
पहले प्रश्न के उत्तर में * अगर पेट इतना पापी है तो पहले गाड़ी बेची जाती न कि उसकी टैंकपूर्ति के लिए पेट्रोल भरने का कार्य किया जाता। अगर पेट्रोल पंप पर कार्य किया जाता तो वर्दी होती, जो कि नहीं है, इसलिए पहला विकल्प निरस्त।
दूसरे प्रश्न का विकल्प * डॉक्टरी अगर धंधा है तो फिर इसमें कम पैसे आने का कोई गुंजायश नहीं है, जेब सदा हरी भरी मिलेगी, आप पेड़ के हरे पत्ते देख कर अंदाजा लगा सकते हैं
तीसरे प्रश्न का विकल्प * पेट्रोल तो मुफ्त में मिल सकता है परंतु आप तो कह रहे हैं कि गैस भर रहे हैं, इसलिए यह प्रश्न भी निरस्त।
और अंतिम प्रश्न का विकल्प * यही उचित जान पड़ रहा है। मामला कुछ और ही है, अनुमोदित किया जाता है।
लो जी ... आपने तो हमको काट दिया ....
ReplyDeleteकोई बात नही देखे हैं सही जवाब क्या है ...
हा हा हा
ReplyDeleteडॉक्टर साहब आज तो युवराज का रिकार्ड तोड़ दिया।
छ: छक्के मारने का।
बाकी कसर गोदियाल जी ने पुरी कर दी।
हा हा हा
रामनवमी की शुभकामनाएं
डा. साहिब, भारत वर्ष में हर आदमी को सोचने को कहा जाता था कि वो खुद को समझने का प्रयास करे:
ReplyDeleteवो कौन है? क्या उसे किसी ने यहाँ भेजा है? अगर हाँ, तो क्या करने, और यहाँ उससे उपेक्षित कार्य समाप्त होने पर क्या उसे कहीं और जाना है? आदि आदि,,,क्यूंकि यह तो सब जान ही लेते हैं कि उनकी 'अपनी मर्जी' अधिकतर कहीं भी नहीं चलती: उदाहरणतया, टीवी में कोई 'संयोग' से अच्छा कार्यक्रम देख रहे होते हैं तो बीवी लिस्ट पकड़ा कहती है, "बाज़ार जाओ आटा आदि ख़त्म हो गया है,,,नहीं तो खाना नहीं मिल पायेगा" (और मरता क्या न करता :?)...संक्षिप्त में, 'दाने दाने में खाने वाले का नाम लिखा होता है' कह गए ज्ञानी लोग,,,इसलिए 'जहां का दाना पानी भाग्य में लिखा है', हर व्यक्ति जन्म से अंत तक वहां पहुंचा दिया जाता है - राजा से रंक के घर तक जन्म ले,,,और, क्यूंकि कहानी सदियों से, अनादि काल से, चली आ रही है, जिस कारण एक छोटे से जीवन काल में अनेक प्रश्न उठना, और अज्ञानतावश उत्तर न मिलना, कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है - जैसे यदि कोई हॉल में इंटरवल के बाद पहुंचे तो फिल्म का आनंद खाक उठा सकेगा क्या ?...
यदि 'सेल्फ सर्विस' का प्रावधान हो तो गाड़ी में गैस रानी को भी स्वयं भरनी पड़ेगी :)
अंतर सोहिल, भाई आपकी बात सही है। खुलने में देरी से मैं खुद भी परेशान रहा हूँ। लेकिन लगता है , इसका समाधान अभी अभी ललित शर्मा जी ने निकाल दिया है। आशा है अब ठीक चलेगा।
ReplyDeleteटेम्पलेट में अभी और सुधार करने हैं।
हलके फुल्के अंदाज़ में लिखे गए इस बेहद गंभीर मसले पर बहुत ही दिलचस्प टिप्पणियां आ रही हैं। अभी तो सबको पढ़ते हैं , विश्लेषण बाद में करेंगे।
चिंता तो बहुत है पर ये पहेली सुलझाए कौन ? सरकार का रवैया एक बहुत बड़ी पहेली नहीं है?
ReplyDelete.......................
आज मैंने भी नानी-दादी की पहेलियों को याद किया............
......................
विलुप्त होती... नानी-दादी की बुझौअल, बुझौलिया, पहेलियाँ....बूझो तो जाने....
.........मेरे ब्लॉग पर.....
http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_23.html
लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से.
इस देश की राजनितिक व्यवस्था नें लोंगो को पलायन हेतु विवश कर दिया है.
ReplyDeleteसंभव है की तस्वीर खीचने के लिए ही पम्प पर तेल भर रहे हों?
तुसी ग्रेट हो सर जी.....
ReplyDeleteये भी कोई प्रायोजित कार्यक्रम तो नहीं :)
ReplyDeleteदूर दूर तक कोई और दिखाई नहीं दे रहा है
हा हा हा हा..
ReplyDeleteई का हुआ ???
हमको तो ई साहेब कुछ पहचाने से लग रहे हैं....रोज रोज लग रहा है, इनसे ही भरवाते हैं गैस (कनाडा में पेट्रोल को गैस कहते हैं भाई)...हाँ नहीं तो....
अरे कभी कोई पिरोब्लेम हो जाए हियाँ तो हमलोग डाक्टर से पहिले ...कोई टेक्सी ढूंढते हैं....काहे कि ज्यादातर टेक्सी ड्राइवर, डाक्टर ही होते हैं :)
हाय,
ReplyDeleteकहाँ गये वो दिन, जब भारत में ठाठ से कह देते थे कि टंकी फ़ुल कर दो...
यहाँ तो पहले पम्प खोजो, फ़िर नोजिल खोजो और तो और खुद ही टंकी भी भरो...बहुत नाइंसाफ़ी है।
Self Service Fuel Point
ReplyDeleteतो भई , आपको बताना है , इस सवाल का सही ज़वाब।
ReplyDeleteसही ज़वाब देने वाले को हमारी तरफ से एक साल के लिए मुफ्त इलाज़/सलाह ।
नोट : यह सवाल अप्रवासी भारतियों के लिए नहीं है। अजी क्यो नही?
क्या अप्रवासी भारतिया नही या आप को उन से प्यार नही??
वेसे यहां सब टंकी खुद ही भरते है जी... चित्र बहुत सुंदर लिया, अब इलाज करवाने तो भारत नही आ सकते आप को बिल भेज देगे यहां के डाकटर का जी
mere hisaab se to doctori yahaan kar rahe hain or mauj-masti, ghumaai--firaai u.s./canada main kar rahe hain.
ReplyDeletekyun hain naa sahi jawaab???
thanks,
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
डॉ. साहेब,
ReplyDeleteई एकदम गलत बात है...आपका ई भेद भाव ठीक नहीं है....
हाँ नहीं तो...
अभी तक तो आपको ठीक जवाब नहीं आया है....फिर का कीजियेगा ..कहिये तो ??
यह सच्चाई है कि अगर डॉ के पास अपना क्लिनिक खोलने के लिए मोटा पैसा न हो तो उसे बहुत कष्ट और ठोकरें खानी पड़ेंगी , आज मेडिकल एडुकेशन को अच्छा नहीं मन जा रहा है, ईमानदार डॉ के लिए पैसा कमाना बहुत मुश्किल काम है !
ReplyDeleteकनाडा में पेट्रोल भरते हुए डॉ पहचाने हुए लगे ...चश्मा लगाना पड़ा ..फिर एनलार्ज करके देखने पर हंसी छूट गयी ! वाह उस्ताद आज तो मान गए !
केवल 'डॉक्टर' ही 'पश्चिम' की ओर पलायन नहीं कर रहे हैं, अपितु अन्य विभिन्न क्षेत्रों से भी - (उनसे प्राप्त ज्ञान को उन्हीको लौटाने / बेहतर सिखाने,,,और यह भी सब जानते हैं कि किसी बर्तन में उसकी क्षमता से अधिक जल डालने से वो बह कर अन्य निकट अथवा दूर दूर के क्षेत्रों तक पहुँच जाता है, यद्यपि रहता इसी एक पृथ्वी पर ही है) - 'पापी पेट' की खातिर, जठराग्नि को शांत करने के लिए,,,और यह एक तरफ़ा नहीं है; 'पश्चिम' से भी 'पूर्व' की ओर आ रहे हैं, आधुनिक 'भारत' में भी (शायद कोई पुराना हिसाब चुकता करने, भले ही वो 'आतंकवादी' ही क्यूँ न कहलाये जाते हों :),,,
ReplyDeleteयूँ आवागमन चालू है निरंतर,,,यद्यपि बीच-बीच में - अज्ञानतावश - 'मूलनिवासी' इसे अपने 'पेट में लात' समझ 'विदेशियों'/ 'परदेसियों' को भगाने का प्रयास करते हैं...जिसमें वो कभी-कभी सफल भी होते दीखते हैं, जैसे १५/८/'४७ में हमने भी देखा,,,किन्तु जाना कि वो पुरानी कहानी जैसा नहीं था जिसमें 'विवाहोपरांत' पति-पत्नी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते दिखाये जाते थे :(
वाह बहुत ही शानदार और बढ़िया प्रस्तुती! बधाई !
ReplyDeleteकनाडा में उड़नतश्तरी मिलती है
ReplyDeleteआप क्यों कार ले के गये ?
सत्य तो यह है कि हमारी युवापीढ़ी दिग्भ्रमित है। वे अमेरिका को अपने सपनों का देश मानते हैं। लेकिन जब वहाँ जाते हैं तब नाक कटाने पर भगवान दिखते हैं कि परम्परा को निभाते हैं। इनके बारे में कुछ कहने का मन ही नहीं होता। जो पढ़-लिखकर भी वास्तविकता को नहीं पहचानते केवल चकाचौंध देखकर ही दुखों को आमंत्रित कर रहे हैं उनके बारे में क्या लिखें?
ReplyDeleteसर फूल वो चढ़ा जो चमन से निकल गया!
ReplyDeleteइज्जत उसे मिली जो वतन से निकल गया!!
रामनवमी की हार्दिक शुभकामनाएँ!
हो सकता है कि यह सेल्फ़-सर्विस पेट्रोल पंप हो. क्यूबेक कनाडा के लिए नासूर है जो autonomous region होने के कारण कनाडा से अलग बस राष्ट्रीयता का ही दावा खुले आम नहीं करता वर्ना हर तरह से अपने आप को ख़ुदमुख़्तार मान कर चलता है, (अंतर्राष्ट्रीय समझौते तक अपने आप ही करता है) ठीक कुछ-कुछ अलगाववादी कश्मीरियों की तरह जो कई भारतीय कानूनों के कश्मीर में लागू न होने की रट लगा कर अपने आप को अलग बताने से नहीं चूकते... ख़ैर
ReplyDeleteपर जहां तक बात डाक्टरों के विदेश भागने की है, एक बात तो तय है कि भारत में अगर बड़े शहरों को छोड़ दें तो सुविधाओं के नाम पर बस अंडा है और उस पर तुर्रा यह कि तर्क आम आदमी के पास ही कौन सुविधाएं हैं (!). बिना फ़र्क़ किये कि आम आदमी के पास सुविधाएं नहीं हैं तो उसके पास कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है, लेकिन प्रोफ़ेशनल्ज़ के पास कम से कम पलायन का रास्ता तो है ही.
मेडीकल टूरिज़्म के चलते कम से कम GDP का तो फ़ायदा होगा ही
हमारे लिए तो यह सवाल ही नहीं है तो चुप रह जाते हैं. :)
ReplyDeleteरामनवमीं की अनेक मंगलकामनाएँ.
-
हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!
लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.
अनेक शुभकामनाएँ.
डा. दराल साहिब ~ जब कोई भंवरा शहद (मधु) ले बाग़ के एक फूल से दूसरे फूलों पर उड़ता फिरता है,,,
ReplyDeleteऔर फिर अपने छत्ते की ओर तो वो शहद के बदले कीमत चुकता है (फूलों का भी भला कर जाता है) - फूलों के पराग के वितरण द्वारा...(मानव भी पहले पैसे की, स्वर्ण की या नोट आदि की जगह सामान का आदान-प्रदान करता था)...
सोचिये, क्या ऐसे ही क्या जीव भी मिटटी का वितरण तो नहीं कर रहे - यहाँ की मिटटी और उसमें बैठे सूक्ष्माणु को बिना टिकेट, मुफ्त में, वहाँ पहुंचाने में - जैसे जूते और चेहरे आदि पर चिपक कर?
मानव की तुलना में तुच्छ पंच्छी भी, थोड़े से दाने भर ही खा, हिमालय के ऊपर से उड़ प्रतिवर्ष आवागमन करते हैं,,,और जिस का नाम 'साईंबेरिया' पर पड़ा वो बच्चे देने 'भारत' में आती है और छः माह (?) यहाँ ही व्यतीत करती है,,,
अब बताइए वो 'भारतीय सारस' नहीं कहलाई जानी चाहिए क्या? :) (ऐसे ही कुछ 'टर्न' भी दक्षिणी और उत्तरी ध्रुव के बीच हजारों मील का सफ़र तय करती है - या कहिये, 'कराई जाती है' :)...
'ब्रेन ड्रेन' इज़ बैटर दैन 'ब्रेन इन ड्रेन'...
ReplyDeleteजय हिंद...
डा. साहिब ~ समीर जी ने 'रामनवमी' की शुभकामनाएं दे शायद 'नवग्रह' की ओर - सूर्य से सुर्यपुत्र शनि तक, जाने या अनजाने में - संकेत किया...क्यूंकि सदियों से ऐसा माना जाता है 'प्राचीन किन्तु ज्ञानी हिन्दुओं' द्वारा कि इन सबके विभिन्न मात्रा में सार से मानव शरीर की संरचना हुई,,,,,,जिसमें 'धमुर्धर राम' शक्ति शाली सूर्य (सोलर प्लेक्सस) के द्योतक हैं, चन्द्रमा समान ठंडी सीता उनकी अर्धांगिनी है जो उनके माथे (उच्चतम स्थान पर स्तिथ मष्तिष्क) को सदैव ठंडा रखती हैं, लक्षमण (यानी पृथ्वी, गुरु समान दृष्टाभाव रखते, तीसरी आँख समान, जो आम आदमी की साधारनतया बंद रहती है) उनके त्रेता युग में छोटे भाई हैं जो उन्हें उनके 'लक्ष्य' का सदैव ध्यान दिलाते रहते हैं, और हनुमान जी उनके परम शक्तिशाली - निराकार ब्रह्म के द्योतक - किन्तु फिर भी आज्ञाकारी सहायक, जिनके बिना कोई कार्य सफल नहीं हो सकता :)
ReplyDeleteजय राम जी की!
एक अप्रवासी भारतीय विदेश में समुद्र के किनारे रेत में लेटे थे और आसमान में उड़ते पंच्छी को निहार रहे थे...
तभी अचानक एक नया-नया पंजाबी अप्रवासी भारतीय वहां पहुँच खुश हो उनसे बोला "की गल है!"
उन्होंने उत्तर दिया, "सी गल है" :)
दोनों ध्रुवों के बीच यात्रा करते 'सी गल' भी शायद इशारा कर रहे हैं, "कुंडली जागृत करो / यदि परम सत्य जानना है तो" :)
नोट: मैंने आसाम में जाना कि वहाँ भी सिख हैं किन्तु वो पंजाबी नहीं बोलते,,,और यहाँ के सिखों से बर्ताव में भी भिन्न हैं...वो उधर सिखों को देख खुश हो 'साड्डा बन्दा' समझ पंजाबी में बोलना शुरू कर देते हैं,,,किन्तु, क्यूंकि 'सत्य कटु होता है' , सत्य जान निराश हो जाते हैं :(
सर अपने देश में बैठ कर तो अमेरिका या कोई भी अन्य देश स्वर्ग लगता है.हर किसी को स्वर्ग ही चाहिए पर ये तो वहां जा कर ही पता चलता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है फिर धोबी के कुत्ते वाली गति होती. वो भी क्या करें, क्या मुंह ले कर वापस आयें ?
ReplyDeleteजो रचना जी आपने कहा उस में भी काफी हद तक सत्य छिपा है...मैं, उत्तर प्रदेश के एक पहाड़ी परिवार में शिमला के पहाड़ में जन्म ले, अपने अनुभव से इतना ही कह सकता हूँ कि मैं ('७५ से '८०) केवल ५ वर्ष के लगभग, (पहाड़ी) भूटान में सरकारी कार्य के सम्बन्ध में, परिवार समेत रहा...और, जहां तक मेरे कार्य का सम्बन्ध है, मैंने जो अनुभव प्राप्त किया वो मेरे लिए भारत में २० वर्ष में भी पाना असंभव था,,,किन्तु दूसरी ओर ठंडा और वर्षा की बहुतायत वाला क्षेत्र (उसके बाद असम प्रदेश में स्थानांतरण के कारण भी) उसका मेरी पत्नी पर, विशेषकर असम में और उसके बाद दिल्ली लौट, '८४ से '९९ तक उत्तरोत्तर विपरीत प्रभाव पड़ा,,,और उसने बहुत शारीरिक कष्ट सहा और हमारे पूरे परिवार ने उनके साथ मानसिक कष्ट...
ReplyDeleteउसके पश्चात दिल्ली से '९७ में मेरी बड़ी लड़की-दामाद कोरिया चले गए. आरम्भ में अच्छा था,,,किन्तु मुख्यतः पुत्री प्राप्ति के तीन साल बाद उसकी पढ़ाई की चिंता के कारण, यह सोचकर कि छह माह में काम मिल जायेगा, वे कनाडा चले गए,,,जहां उन्हें कष्ट हुआ जब पता चला कि वहाँ केवल कनाडा में ही प्राप्त अनुभव के आधार पर काम मिलता है - भारत आदि का अनुभव नहीं माना जाता! फिर भी लगभग ४ वर्ष निकाल वे अमेरिका चले गए - जो मेरे दामाद का मूल लक्ष्य भी था - और अब लगभग ४ वर्ष से वो वहां 'खुश' हैं :) मेरे दामाद को, मेरे समान, 'भाग्य' पर विश्वास नहीं है, किन्तु वो भी कह रहे थे कि वो लगभग साढ़े-चार वर्ष पहले दिल्ली, फिर सोल, और फिर टोरोंटो में रहे हैं: न मालूम यह 'संयोग' था कि कोई 'काल-चक्र' की झलक हैं :)
@ JC
ReplyDeleteमेरे एक मित्र हैं जो भारत सरकार के उस विभाग को देखते हैं जो विदेशों में भारतीयों की समस्याओं को हल करने में सहायता करता है... उनका कहना है कि देश से बाहर गए ज्यादातर भारतीयों की व्यवहार ऐसा कि कोई पहले तो गीले पेंट (रंग) पर ग़लती से बैठ जाए फिर पता चलने पर, दूसरों को आगाह करने के बजाय पीछे हाथ रख कर भाग खड़ा हो... यह सोच कर कि कहीं किसी ने देखा तो नहीं.
अफ़सोस है कि केवल एक ही तरफ की गुलाबी तस्वीर पेश करते हैं वे, मानों बस वहां तो मज़ा ही मज़ा है.
काजल जी , धरती पर स्वर्ग तो कहीं नहीं है। लेकिन कुछ जगह जिंदगी आरामदायक है , कुछ जगह नहीं।
ReplyDeleteमेहनत के बिना कुछ नहीं मिलता । लेकिन मेहनत करके मिल जाये तो भी गनीमत है। बस यही फर्क है हमारे देश और विकसित देशों में । बेशक वहां की अपनी समस्याएँ हैं।
इस विषय पर मेरा अगला लेख पढना न भूलें।
@ काजल कुमार जी
ReplyDelete"दूर के ढोल सुहावने" कहावत तो पहले से ही है
,,,किन्तु सत्य यह भी है कि कोई सलाह दे भी तो अधिकतर लोग यह सोचते हैं कि 'ऐसा मेरे साथ नहीं होगा',,,और सब के साथ 'दुर्घटना' होती भी नहीं है...जैसा मैंने पहले भी कहीं अपने एम्स के डॉक्टर मित्र के माध्यम से जान कहा था, हार्ट ऑपरेशन की असफलता दर अप्पोल्लो और एम्स दोनों में एक समय १० % थी...इस कारण जो उस १० % में आगया वो तो रोयेगा ही - ९० % बेशक ख़ुशी-ख़ुशी घर जायें...
मेरी जेब 'भारत' में विभिन्न शहर घूमते नहीं कटी थी जिस कारण विश्वास हो गया था कि वो नहीं कटेगी कभी! किन्तु गौहाटी की बस में, '८१ में, जब कटी (हांलाकि मुझे आभास हो गया था एक साथ चढ़ आई भीड़ देख,,,और मैंने बटुए को खिसकते हुए महसूस भी किया था :) आश्चर्य तब हुआ जब मैंने, स्वेटर के ऊपर कोट पहने हुए भी, बस से नीचे उतर अपनी कमीज़ की उपरी जेब में रखे कुछ रुपयों को भी नदारद पाया (और हाथ की सफाई को दाद दी)!
('विदेशी' होने के कारण जनता ने भी कोई सहानुभूति नहीं जताई :) फिर पेंट की जेब में केवल एक रूपया ६५ पैसे छुट्टे पाए तो रिक्शे वाले को कहा कि जहां तक मेरे घर की दिशा में डेढ़ रूपया बनता है मुझे ले चले,,,वहां से लगभग ५ मिनट पैदल चल १५ पैसे घर के छोटे से मंदिर में भगवान् का १०% हिस्सा भी डाल दिया!...
मेरी दूसरी बेटी भी मेरे साथ थी और जो पैसा उसकी माँ ने उसे बाज़ार से सामान खरीदने दिया था, यह कहते हुए कि 'पापा को मत देना', वो मैंने सुन लिया और अपनी बेइज्जती समझ उससे ले अपने पर्स में दाल लिया था :)
उपरोक्त में से कोई नहीं । मामला कुछ और ही है...
ReplyDeleteदरअसल!...बाहर सेल्फ सर्विस का सिस्टम है...अपना काम स्वयं करो