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Monday, November 18, 2024

जिंदा होने का प्रमाण...


नवंबर का महीना है, 

बदन फिर भी पसीना पसीना है। 

फुर्सत थी तो सोचा, चलो बैंक चला जाए,

लगे हाथों अपने 

जिंदा होने का प्रमाण दे दिया जाए। 

आखिर पेंशन को ओवरड्यू हुए 

कई दिन हो गए,

यही सोच हम बैंक में

प्रत्यक्ष रूप से व्यू हो गए। 

और मैनेजर से कहा,

देरी के लिए हम शर्मिंदा हैं,

भई रोज रोज सबूत मांगते हो,

लो देख लो हम जिंदा हैं। 

अब तो मिल जाएगी पेंशन। 

मैनेजर को भी जाने क्या थी टेंशन। 


जाने किस चक्कर में ऐंठा था।

लगता है वो भी भरा बैठा था,

बहुत झुंझलाया था,

शायद बीवी से लड़ कर आया था।

बोला, अज़ी ऐसे कैसे मान लें,

ये प्राइवेट नहीं सरकारी धंधा है,

लिख कर दीजिए कि आप जिंदा हैं।

हमें सरकारी बुद्धि पर गुस्सा तो बहुत आया,

पर हारकर हमने खुद अपने हाथों 

अपने जिंदा होने का सर्टिफिकेट बनाया,

तब जाकर मैनेजर को यकीन आया।

कि ये जो सामने खड़ा बंदा है,

ये कोई चलता फिरता भूत नहीं, 

वाकई जिंदा हैं। 


बैंक मुझसे मेरे होने का सबूत जाने,

मैं जिंदा हूं ये कहने पर भी ना माने। 

कागज पर है इंसान से ज्यादा भरोसा,

इंसान की फितरत को सही पहचाने। 


Monday, November 4, 2024

दीवाली, नए रूप में ...

 दीवाली पर्व था मिलने मिलाने का,

खाने पीने, उपहार देने और पाने का। 

किंतु दीवाली अब डिजिटल हो ली है,

उपहार की जगह अब बधाईयों ने ले ली है,

जो प्रत्यक्ष नहीं अब आभासी हो गई हैं। 

व्यक्तिगत नहीं, वो सामूहिक हो गई हैं। 


ना कार्ड ना ई मेल ना एस एम एस करके 

बस वॉट्सएप ग्रुप्स में आती हैं भर भर के।

ग्रुप में पांच दस हों या मेंबर हों सौ पचास कहीं,

बधाई देते हैं सब, पर लेता कोई एक भी नहीं। 

जब कोई नहीं इसको लेता है,

फिर जाने क्यों कौन किसको देता है।


ऐसा हो गया है हाल, 

मानो चरितार्थ हो गई ये कहावत,

कि नेकी कर कुएं में डाल। 

कौन देखता है किसने दी किसने नहीं दी,

किसने देखा और किसने अनदेखी की। 

यह न कोई देखता है, न देखने की जरूरत है,

इस डिजिटल युग में इंसान की यही असली सूरत है। 

Sunday, October 13, 2024

रावण: एक पैरोड़ी....

 रावण को जलाता हूं, रावण ही नहीं जलता,

रावण ही नही जलता। 

कोशिशे तो बहुत की हैं, परिणाम नहीं मिलता,

रावण ही नहीं जलता। 


कलियुग के ज़माने में, दिल में हैं कई पापी,

खुद से लड़े खुद ही, जीत पाए ना कदापि।

ये पापी मिटाने का, अवसर ही नहीं मिलता,

रावण ही नहीं जलता।


पल भर के लिए इसको, कोई तो समझाओ,

दम भर को ही सही, सही रस्ता दिखलाओ,

ये दिल का दुष्ट महमां, दिल से नहीं हिलता।

रावण ही नहीं जलता। 


हर साल जलाता हूं, रावण ही नहीं जलता,

रावण ही नहीं जलता। 

Monday, September 30, 2024

हाय रे बुढ़ापा...

 वज़न घटा, पके आम से पिचके गाल, 

देख आइने में खुद का हाल घबराने लगे हैं,

और पत्नी कहती है, अब आप ज्यादा इतराने लगे हैं। 


रफ्ता रफ्ता सर के बाल हुए हलाल,

बचे खुचे सूरजमुखी से बिखरने लगे हैं,

और पत्नी कहती है, अब आप ज्यादा निखरने लगे हैं। 


सूखी फसल बालों की, बची खरपतवार,

उसे भी खिज़ाब से काला कर बंदर लगने लगे हैं,

और पत्नी कहती है, अब आप ज्यादा सुंदर लगने लगे हैं। 


मुंह में बचे दांत नहीं, ओरिजिनल आंख नहीं, 

खामख्वाह हरदम जवां होने का दम भरने लगे हैं,

पर पत्नी कहती है,अब आप ज्यादा हैंडसम लगने लगे हैं। 


दिल्ली को छोड़, बने हरियाणा के हरियाणवी,

अक्ल से और शक्ल से हरियाणवी जाट दिखने लगे हैं,

और पत्नी कहती है, अब आप ज्यादा स्मार्ट लगने लगे हैं। 


ना काम ना धाम, करते बस आराम ही आराम,

अपनी मर्ज़ी से खाते पीते और सोते जगने लगे हैं,

पत्नी कुछ भी कहे, हम फ़ाक़ामस्ती में मस्त रहने लगे हैं। 


बिना रोज लड़े पत्नी से अब तो भूख भी नहीं लगती,

पर जो पहले नहीं किया उसका इजहार करने लगे हैं, 

जीवन के पतझड़ में पत्नी से ज्यादा प्यार करने लगे है। 






Monday, September 16, 2024

ग़ज़ल...

 गांव छोड़कर शहर में गुमनाम हो गए,

सच बोलकर जग में बदनाम हो गए। 


काम बहुत था जब करते थे काम,

सेवा निवृत हुए तो नाकाम हो गए। 


तकनीकि दौर मे दिखता है विकास,

मोबाइल संग बच्चे बे लगाम हो गए। 


गुरुओं और बाबाओं के आश्रम में,

चोर उचक्के सारे सतनाम हो गए।


भ्रष्टाचार का यूं बोलबाला है यारा,

ज़मीर बेच अमीर जन तमाम हो गए। 


भेड़िए भले ही लुप्त होने को हैं पर,

इंसानी भेड़ियों के हमले आम हो गए। 


द्रोपदी की अस्मत बचाने को क्यों,

कलयुग में जुदा घनश्याम हो गए। 


जालिम अब बच नहीं पाएं सजा से,

उनके गुनाह के चर्चे सरेआम हो गए। 


बुजुर्गों का साया गर सर पर हो ' तारीफ',

समझो शुभ दर्शन चारों धाम हो गए। 



Monday, September 9, 2024

एक ग़ज़ल...

 पसीने की गंध जिनके गात नहीं आती,

नींद उनको सारी सारी रात नहीं आती। 


वो काम करते नहीं जब तलक,

काम के बदले सौगात नहीं आती। 


सड़कें टूटी, नालियां बंद, तो क्या,

इस शहर में कभी बरसात नहीं आती। 


बेटियां घर दफ्तर में महफूज हों,

देश में ऐसी कोई रात नहीं आती। 


जज़्बा बहुत है लड़ने का किंतु,

शैतान को देनी मात नही आती। 


क्या बतलाएं तुमको हम जात अपनी,

सिवा इंसानियत कोई जात नहीं आती। 


नेता हम भी बन जाते ' तारीफ', पर,

सच को छोड़ कोई बात नहीं आती। 

Monday, September 2, 2024

सेवानिवृत बुजुर्ग ...

 बुजुर्ग ना खाते हैं ना पीते है,

फिर भी चैन से मस्त जीते हैं।

ना कपड़ों का खर्च रहा ना कहीं आना जाना,

अब तो मुफ्त में गुजरता है सारा दिन सुहाना। 


ना किराए की चिंता ना बच्चों की फीस,

ना कोई कर्ज़ ना लोन चुकाने की टीस

ना सब्जीवाले, रिक्शावाले, रेहडीवाले से चकचक,

जिसने जो मांगा दे दिया ना मोल भाव की बकबक। 


खाली हाथ लटकाए बाजार जाते हैं,

बिन पैसे थैला भर सामान ले आते हैं। 

नोटों को अब तो हाथ तक नहीं लगाते हैं,

मोबाइल पर एक उंगली से काम चलाते हैं। 


सरकार भी इनकम टैक्स में देती है भारी छूट,

पेंशन कम नहीं, ये तो है ईमानदारी की सरकारी लूट।