नवंबर का महीना है,
बदन फिर भी पसीना पसीना है।
फुर्सत थी तो सोचा, चलो बैंक चला जाए,
लगे हाथों अपने
जिंदा होने का प्रमाण दे दिया जाए।
आखिर पेंशन को ओवरड्यू हुए
कई दिन हो गए,
यही सोच हम बैंक में
प्रत्यक्ष रूप से व्यू हो गए।
और मैनेजर से कहा,
देरी के लिए हम शर्मिंदा हैं,
भई रोज रोज सबूत मांगते हो,
लो देख लो हम जिंदा हैं।
अब तो मिल जाएगी पेंशन।
मैनेजर को भी जाने क्या थी टेंशन।
जाने किस चक्कर में ऐंठा था।
लगता है वो भी भरा बैठा था,
बहुत झुंझलाया था,
शायद बीवी से लड़ कर आया था।
बोला, अज़ी ऐसे कैसे मान लें,
ये प्राइवेट नहीं सरकारी धंधा है,
लिख कर दीजिए कि आप जिंदा हैं।
हमें सरकारी बुद्धि पर गुस्सा तो बहुत आया,
पर हारकर हमने खुद अपने हाथों
अपने जिंदा होने का सर्टिफिकेट बनाया,
तब जाकर मैनेजर को यकीन आया।
कि ये जो सामने खड़ा बंदा है,
ये कोई चलता फिरता भूत नहीं,
वाकई जिंदा हैं।
बैंक मुझसे मेरे होने का सबूत जाने,
मैं जिंदा हूं ये कहने पर भी ना माने।
कागज पर है इंसान से ज्यादा भरोसा,
इंसान की फितरत को सही पहचाने।
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