2७ फ़रवरी २०१२ को हरकीरत 'हीर' जी के काव्य संग्रह 'दर्द की महक' का विमोचन और लोकार्पण दिल्ली के प्रगति मैदान में संपन्न हुआ । इत्तेफाक से इस समारोह में जाना संभव नहीं हो पाया । लेकिन बड़ी तमन्ना थी कि इस पुस्तक की समीक्षा मैं लिखूं । हालाँकि हमारे लिए तो यह काम बिल्कुल नया था । एक तो समीक्षा कभी लिखी नहीं । फिर वो भी हीर जी जैसी शायरा ,जिन्हें हम पढ़ते तो रहते हैं लेकिन समझने के लिए बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है ।
लेकिन खुद से वायदा तो कर दिया था । इसलिए पीछे हटने का सवाल भी नहीं था । वैसे भी रोज एक नया काम करने की आदत सी पड़ गई है । पुस्तक प्राप्त होते ही एक साँस में पढ़ गया ।
हालाँकि पढ़ते समय साँस चल रही थी या नहीं , यह भी पता नहीं चला ।
हालाँकि पढ़ते समय साँस चल रही थी या नहीं , यह भी पता नहीं चला ।
असम में जन्मी , पली , बढ़ी , हीर जी अमृता प्रीतम से बहुत प्रभावित रही । उनकी लेखनी में कहीं अमृता जी तो कहीं गुलज़ार की झलक साफ दिखाई देती है । अमृता जी के जाने के बाद हीर जी का संपर्क इमरोज़ जी से बना रहा जिन्होंने ही उनको हकीर से हीर बना दिया ।
हीर का यह काव्य संग्रह , मोहब्बत की अदीम मिसाल--इमरोज़ और अमृता को समर्पित है ।
इस संग्रह में हीर जी की ६१ नज़्में संग्रहित हैं । और अंत में एक नज़्म इमरोज़ की हीर के लिए ।
यह मानव जीवन की विडंबना ही है कि एक औरत का नसीब हमेशा एक पुरुष के साथ जुड़ा रहता है । हीर जी ने अपनी नज़्मों में एक प्रेयसी के रूप में औरत के दर्द , पीड़ा , प्रताड़ना और उपेक्षा को ऐसे दर्द भरे लफ़्ज़ों में उतारा है कि पढने वाले को खुद दर्द का अहसास भूलकर दर्द में मिठास की अनुभूति होने लगती है ।
उनकी नज़्मों में मौत , कब्र , लाशें , कफ़न , नश्तर ,छाले आदि अनेकों ऐसे लफ़्ज़ों का इस्तेमाल किया गया है जिन्हें पढ़कर अन्दर तक एक टीस का अहसास होता है ।
मौत की मुस्कराहट
रात वह फिर आई ख्वाबों में
चुपके से रख गई, कुछ लफ्ज़ झोली में
मैंने देखा , मौत की मुस्कराहट कितनी हसीं थी ।
जीते जी , मौत के ख्वाब कोई यूँ ही नहीं देखता ।
ज़ुल्म जब हद से गुजर जाएँ तो लफ्ज़ बनकर कुछ ऐसे उतर आते हैं --
वहशी बादल जमकर बरसे फिर कल रात
सुई जुबाँ से लहू कुरेदती रही
सबा तो खामोश रही दोनों के बीच
बस तेरा चेहरा तलाक मांगता रहा ...
पति पत्नी के रिश्ते में यदि कड़वाहट आ जाये तो एक अजीब सी स्थिति उत्पन्न हो जाती है जहाँ रिश्ते सिर्फ रस्म का जामा पहन लेते हैं । हीर ने करवा चौथ पर लिखा है --
वह फिर जलाती है
दिल के फासलों के दरम्याँ
उसकी लम्बी उम्र का दिया ।
यह भी औरत की कैसी मज़बूरी है कि जो दर्द देता है , मन से उसी के लिए दुआ निकलती है ।
जब दर्द पास आ मुस्कराने लगता है --मोहब्बत जैसे कुछ पल के लिए ही सही , साँस लेने लगती है दर्द के आगोश में ।
हीर जी , अपना जन्मदिन अमृता के जन्मदिन ३१ अगस्त को ही मनाती हैं । एक नज़्म अमृता जी को भेंट करते हुए लिखती हैं--
उसने कहा है अगले जन्म में
तू फिर आएगी मोहब्बत का फूल लिए
ज़रूर आना अमृता
इमरोज़ जैसा दीवाना , कोई हुआ है भला ।
आशा का दामन कभी साथ नहीं छोड़ता । तमाम दुखों , अपमान , क्षोभ और हार के अहसासों के बीच लिखती हैं --
अक्सर सोचती हूँ ,
खुद को बहलाती हूँ
कि शायद छूटे हुए कुछ पल
दोबारा जन्म ले लें ।
लेकिन दर्द है कि साथ छोड़ता ही नहीं । दर्द दीवाना है हीर का । हीर दीवानी है दर्द की । एक अजीब सी कशमकश रहती है, कभी एक बुत बनाती हैं , लम्हे दर लम्हे उसे सजाती हैं और फिर तोड़ देती हैं । कभी सांसे उम्मीद के धागे बुनने लगती हैं , उस लाल दुप्पटे को देखकर । लेकिन दर्द जब जब अंगडाई लेता है , इक बांसुरी की तान सी सुनाई देती है--- और हीर की सांसें राँझा राँझा पुकारने लगती हैं -- रब्बा , क्या दर्द का कोई मौसम नहीं होता ! दिल से इक बेबस सी आह निकलती है -- जब समंदर की इक भटकती हुई लहर तपती रेत में घरोंदे तलाशती है।
हीर की नज़्मों में अक्सर रातों की उदास सी चुप्पियों का ज़िक्र रहता है ।
रात आसमाँ ने आँगन में अर्थी सजाई
तारे रात भर खोदते रहे कब्र
हवाओं ने भी छाती पीटी
पर मेरे जख्मों की मौत न हुई ।
जख्म , जिन पर कभी मरहम न लग सकी । जख्म , जो सूखते सूखते ज़िस्म को पत्थर कर गए ।
तुम गढ़ते रहे
देह की मिट्टी पर
अपने नाम के अक्षर
हथोड़ों की चोट से
ज़िस्म मेरा पत्थर होता रहा ...
इंसान से ज्यादा बर्बर कोई नहीं । लेकिन मौत भी मांगने से कहाँ आती है -- फिर भले ही आप सितारों जड़ा , सुनहरा कफ़न लिए बैठे रहें-- चाहे मौत को जिंदगी के सुनहरे टुकड़े देकर अपनी चिता के गीत गाते रहें ।
पुरुष औरत पर कितने ही ज़ुल्म क्यों न ढाये , जब कमज़ोर पड़ता है तो उसी के कंधे का सहारा लेता है --
अब न रखा कर कंधे पे हाथ ,
दर्द की आँखों में नमी होती है ।
फिर एक दिन ऐसा भी आता है जब सब अहसास सुन्न हो जाते हैं --
मेरे इश्क के कतरे
पत्थरों पे गिरते रहे
और रफ्ता रफ्ता
दिल के छाले ,
पत्थर होते गए ।
जिंदगी भी अक्सर आशा निराशा की आँख मिचौली में झूलती रहती है ---
मोहब्बत खिलखिलाकर हंसने ही वाली थी
कि गुजर गई फिर कुछ अर्थियां करीब से ।
हीर जी ऱब से पूछती हैं इक सवाल --सिर्फ अपने लिए ही नहीं -- उन तमाम औरतों के लिए , जिन्हें जिंदगी में वो नहीं मिला जिनकी वो हकदार थी, जो जिंदगी में पीड़ित , उत्पीड़ित , प्रताड़ित और शोषित रहीं हैं।
--तेरी दुनिया की किसी कोख में ज़वाब नहीं उगते क्या ?
ज़वाब नहीं है , न ऱब के पास , न ऱब के बंदों के पास । जिंदगी अपनी तमाम मुश्किलें बाँटती हुई जिंदा रखेंगी हीर को -- हीर को भी फ़र्ज़ की वेदी पर जिंदगी का कर चुकाते रहना पड़ेगा , इन्ही दर्द , ज़ख्म और उत्पीड़न के साथ । लेकिन इस दर्द की महक आती रहेगी -- सदा सदा ही इस गुलशन में , जहाँ हम और आप खुश हैं , अपनी अपनी जिंदगी में ।
हीर के काव्य संग्रह पर अंत में यही कह सकते हैं जो इमरोज़ ने हीर को लिखा था -
न कभी हीर ने -
न कभी रांझे ने
अपने वक्त के कागज़ पर
अपना नाम लिखा था
फिर भी लोग आज तक
न हीर का नाम भूले
न रांझे का ।
(हीर तुम्हारी नज़्में खुद बोलती हैं , उन्हें किसी तम्हीद की ज़रुरत नहीं । )
पुस्तक के फ्लैप पर प्रसिद्द समीक्षक श्री जितेन्द्र जौहर जी का समीक्षक अभिमत प्रकाशित है ।
पुस्तक में साथी ब्लोगर्स की टिप्पणियों को भी जगह दी गई है जिनमे प्रमुख हैं --
पुस्तक में साथी ब्लोगर्स की टिप्पणियों को भी जगह दी गई है जिनमे प्रमुख हैं --
सर्वश्री मुफलिस जी , शाहिद मिर्ज़ा शाहिद , सुशील कुमार छोंकर , डॉ अनुराग , अपूर्व , अलबेला खत्री , गौतम राजरिशी , समीर लाल जी , मीनू खरे , तेजेंद्र शर्मा , नीरज गोस्वामी, दिगंबर नासवा , वाणी जी , मनु , निर्मला कपिला जी , तथा अन्य कई मित्र ।
नोट : हमेशा हंसी मजाक के मूड में रहने वाले एक हास्य कवि के लिए दर्द की महक की समीक्षा करना कितना मुश्किल रहा होगा , इसका अंदाज़ा आप लगा सकते हैं । पुस्तक की गहराई तो आपको पढ़कर ही पता चलेगी ।
समीक्षक : डॉ टी एस दराल
नयी दिल्ली
समीक्षक : डॉ टी एस दराल
नयी दिल्ली
दर्द की महक
मूल्य : २२५ /-रु
प्रकाशक :
हिंदी युग्म
१ , जिया सराय, हौज़ खास
नई दिल्ली -११००१६
मो : 9873734046 , 9968755908
हरकिरत हीर जी को जब भी पढ़ा है बहुत गहराई में उतरा है मन ... पुस्तक की समीक्षा पर आपकी लेखनी ने कमाल कर दिया है ....
ReplyDeleteदर्द की भी महक होती है
जो दूसरे के दिल तक पहुँचती है ... आभार
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ये क्या डाक्टर साहब आप तो किताबों के समीक्षकों की रोजी रोटी पे काल बन कर उतरे हैं ! आप इस तरह से लिखियेगा तो फिर उन गरीबों को कौन घास डालने वाला है :)
Deleteबहरहाल यह मानने को दिल नहीं करता कि समीक्षा का काम आपने पहली दफा किया है , मुमकिन है कि लिखा पहली मर्तबा हो पर ख्यालाती तौर पर आप इस फन के कच्चे खिलाड़ी नहीं लगते :)
इससे पहले दर्द की कसक महसूस तो की थी पर महक का इस्तेमाल नया लगा और पसंद भी आया !
हमारी तरफ से शानदार समीक्षक को जानदार बधाई और आपकी मार्फत हरकीरत जी को शुभकामनायें !
उई बाबा रे !
Deleteये तो हम को पता ही नहीं था कि इस तरह भी रोजी रोटी चल सकती है । :)
आभार ।
डॉ.साहब ! कमाल की समीक्षा ....
ReplyDeleteदर्द की महक सब को महसूस होगी!
शुभकामनाएँ!
कमाल की समीक्षा पुस्तक की..........शुभकामनाएँ!
ReplyDeleteहमने अमृता जी को पढ़ा नहीं है लेकिन हीर जी को पढ़ के लगता है की अमृता भी हीर की तरह होगी . आपके नज्मो में इह लोक में उपस्थित सारे दर्द एकसाथ ही हिलोरे लेते है . चलिए नहीं कहता समुन्दर लेकिन हम इन नज्मो की गहराई में डूबते जाते है . ना जाने कितना दर्द को जज्ब कर रखा है मोहतरमा ने उफ़ . अब इस दर्द की महक साहित्यिक जगत में कस्तूरी की तरह खुशबू बिखेरेगी . एक संवेदनशील लेखिका की आत्मा इस पुस्तक की काया है . सुँदर सुरुचिपूर्ण समीक्षा . आभार
ReplyDeletebehad umda samiksha ..........heer to heer hain
ReplyDeleteइन्साफ किया मुहब्बत की ताबीर तासीर तक़दीर के साथ
ReplyDeleteवैसे (हीर तुम्हारी नज़्में खुद बोलती हैं , उन्हें किसी तम्हीद की ज़रुरत नहीं । )
हरकीरत जी, मेरे पूछे गए प्रश्न का उत्तर डॉक्टर साहिब के माध्यम से आज मिल गया!
ReplyDeleteसबसे पहले आपको बहुत बहुत बधाई आपकी पुस्तक प्रकाशित होने पर...
अस्सी के दशक में असम से लौट, गीता पढने के बाद, प्रश्न मन में उठा था कि यदि यह जीवन ही मिथ्या है, माया अर्थात एक स्वप्न है जिसमें विभिन्न अनुभूतियाँ होती हैं, वैसे ही जैसे हाथ पर हाथ धर, अँधेरे हौल में बैठे सभी दर्शकगण किसी फिल्म को देख महसूस करते हैं (जिसमें दर्द की महक भी हो सकti है), तो इस सत्य को क्या कोई व्यक्ति समझ सकता है??? और अन्य व्यक्ति को भी समझा क्या उस का दर्द कम कर सकता है???... खोज जारी है!!!
जे सी जी आज इमरोज़ जी पर एक पोस्ट डाली है
ReplyDeleteइल्तजा है आप जरुर पढ़ें उसे ......
डॉ साहब अभी -अभी 'पूर्वोत्तर हिंदी साहित्य अकादमी; शिलोंग से फोन आया है वे इस पुस्तक के लिए मुझे सम्मानित करना चाहते हैं ...ये आप सब का स्नेह ही है जो मैं ये पुस्तक निकाल पाई .....
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई . बेशक आप इस सम्मान के लायक हैं . हम सब के लिए भी गर्व की बात है .
Deleteहमारी भी बधाई है जी।
Deleteबहुत बहुत बधाई ! हीर जी आप इसके हकदार है. (और हमारे जैसे ब्लोगर तो आपको पहले से जान रहे हैं)
Deleteबहुत बढ़िया समीक्षा डॉक्टर साहब...
ReplyDeleteहीर जी के बारे में लिखा यूँ तो मुझे सब कुछ भाता है...मगर आपने तो जादू कर दिया....
सादर
अनु
हरकीरत जी को हमेशा से पढती रही हूँ ...सौभाग्य रहा उनसे मिल भी सकी थी |शांति की प्रतिमूर्ति लगतीं हैं |बहुत गहरा समुंदर जैसा व्यक्तित्व और वैसी ही लेखनी .डॉ.साहब आपने समीक्षा भी बहुत अच्छी की है ...!!आपका प्रयास प्रशंसनीय है ..!...!!
ReplyDeleteलेखिका एवं समीक्षक को बधाई एवं शुभकामनायें ...!!
शांति की प्रतिमूर्ति .....बहुत गहरा समुन्दर जैसा व्यक्तित्व
Deleteहाँ यह तो हमें भी लगा। संगीता स्वरूप जी की टिप्पणी पर उनकी प्रतिटिप्पणी देखिये ज़रा, कुछ इस तरह -
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हीर जी की ऐसी ही कुछ ई.चिट्ठियाँ मेरे भी ख़ज़ाने में हैं। बिना शब्दों के सम्वाद की गहराई में डूबने का मज़ा ही कुछ और है।
हीर जी से मिलने का सौभाग्य हमें नहीं मिल पाया ।
Deleteमुझे मिल चुका है ...कई बार। पर ज़रा संभल के जाइयेगा मिलने उनसे। उनके रॉकी और शेरू को डॉक्टर्स से पता नहीं क्यों इतनी दुश्मनी है। उनसे पूछता हूँ तो बस मात्र दो-तीन नैनो मीटर की मुस्कान से ज़वाब दे देती हैं ...फिर वही प्रशांत समुन्दर ....ख़ामोश।
Deleteभई हम तो दिल्ली की बात कर रहे थे । यहाँ तो उनका ख़तरा नहीं था ।
Deleteहालाँकि ख़ामोशी की भी कद्र की जा सकती है ।
वाह ! ! ! ! ! बहुत खूब दराल साहब,...बधाई,..
ReplyDeleteबेहतरीन समीक्षा की आपने,मुझे आपकी ये विधा पसंद आई,...पोस्ट पर आइये स्वागत है,...
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: तुम्हारा चेहरा,
भई , आज की सारी बधाइयाँ हीर जी के नाम हैं । हमने तो वही लिखा है , जो हीर जी ने लिखा ।
Deleteउनको शत शत बधाई -- पुस्तक प्रकाशन और सम्मान के लिए ।
डॉक्टर साहब! पहले तो आपको दो बार साधुवाद ...पहला, दर्द में डूबते उतराते हुये ऐसी समीक्षा के लिये और फिर दूसरा, दर्द की महक को सारी फ़िज़ां में फैलाने के लिये।
ReplyDeleteशिलॉंग साहित्य परिषद की ओर से हीर के दर्द को स्पर्श करने, और ब्लॉगिंग को साहित्य के रूप में रिकग्नाइज़ करने के लिये शिलॉंग साहित्य परिषद को साधुवाद। हिन्द युग्म को भी साधुवाद। सम्मानित करने वाली सूचना अभी-अभी मिल रही है। हीर जी को बधाई उन्हीं की स्टाइल में, यानी कुछ यूँ-
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कौशलेन्द्र जी , इस तरह की उपलब्धियां सारे ब्लॉगजगत के लिए गर्व और ख़ुशी की बात है । आभार ।
Deleteहरकीरत जी हमारे समय की एक महत्वपूर्ण साहित्यिक हस्ती है। पुस्तक का नाम हतोत्साहित करता है,मगर समीक्षा से ऐसा प्रतीत होता है कि हरकीरत जी की यह क़िताब कई अनुभवों का दस्तावेज़ है। बसंत के झूठ-मूठ के वर्णन से तो अच्छा है कि ज़िंदगी की सच्चाई को ही बयां किया जाए।
ReplyDeleteराधारमण जी , दर्द पर नहीं महक पर ध्यान देंगे तो हतोत्साहित नहीं होंगे ।
Deleteज़िंदगी की ऐसी कड़वी सच्चाइयों को ऐसे अल्फाज़ देना किसी बेहतरीन शायरा की कृति ही हो सकती है ।
बेहतरीन समीक्षा ...
ReplyDeleteहरकीरत जी की रचनाएँ दर्द की लेखनी से लिखी होती हैं ...
डॉक्टर साहब,
ReplyDeleteआप ने पुस्तक का अच्छा परिचय दिया है। पर यह समीक्षा नहीं। समीक्षकों की रोजी रोटी जाने से बच गई।
आप सही कह रहे हैं द्विवेदी जी । यह पुस्तक का परिचय ही है । बस कुछ शब्द / पंक्तियाँ अपनी ओर से जोड़ दी हैं । लेकिन पुस्तक पढना चाहेंगे या नहीं ? :)
Deleteडाक्टर साहब ,
Deleteदिनेश राय द्विवेदी जी , वकील हैं जब तक आप उन्हें कोर्ट के माध्यम से किताब की सर्टीफाइड कापी नहीं देंगे तब तक आधिकारिक रूप से पढ़ना मुश्किल लगता है :)
अली जी , कहते हैं --डॉक्टर और वकील से भगवान बचाए । अब लोगों की तो भगवान सुन सकता है । लेकिन डॉक्टर को वकील से तो भगवान भी नहीं बचा पता । अब देखिये , हमारे पास आते हैं अपनी मर्ज़ी से , और हमें बुलाते हैं समन भेजकर । और यदि न जाएँ तो अगली बार वारंट आ जाता है । :)
Deleteदर्द दीवाना है हीर का... हीर दीवानी है दर्द की...
ReplyDelete
दर्द वालों की ये बातें, दर्द वाले जानते हैं...
जय हिंद...
इस अकल्पनीय संयोग पर मैं स्तंभित हूँ ? आप ऐसे तो न थे!
ReplyDeleteअमृता इमरोज के प्यार के फलसफे सुनते हुए चेहरे पर रेख से मूछें निकली ..
मगर न जाने क्यों लगता है प्रेम का इतना आत्यंतिक आसक्ति भाव विरक्ति सा ला देता है ...
और उनको खुदाई तक का दर्ज़ा देकर रचनाओं का संबल बना देना मुझे कभी रास नहीं आया ...
प्रेम की अभिव्यक्ति कुदरत के कई बिम्बों या खुद अपनी अनुभूतियों से भी सहजता से संभव है .
इसके लिए किसी लौकिक वजूद का आसरा लेना ,सच कहूं डॉ साहब मुझे कभी न भाया ....
एक प्रकृति प्रदत्त नैसर्गिक क्षमता का यह दुरुपयोग है -लौकिक लोगों /प्रसंगों को काव्य विषय बनाना...रंजू भाटिया जी का भी यही अवलंबन है !
हरकीरत जी को मैंने शुरू में पढ़ा था -इतना गहरा सघन दर्द की अभिव्यक्ति मुझे अति यथार्थ के करीब लगी ...
अतः मैंने उन्हें पढना छोड़ ही दिया ..मगर आज आप द्वारा यहाँ अनुशंसित करने पर आश्चर्यमिश्रित भाव से हैं -
कहीं यह अप्रैल फूल का कोई प्रैंक तो नहीं ? :)
अच्छा हो ये दर्द जिसके नसीब में हो अप्रैल फूल सा ही हो .....
Deleteइस अकल्पनीय संयोग पर मैं स्तंभित हूँ ? आप ऐसे तो न थे!
Deleteसही कहा , मिश्र जी । लेकिन गौर फरमाएं , हमने अभी तक एक भी शब्द प्रेम की परिभाषा पर नहीं लिखा है ।
हालाँकि लिखने का मन बहुत करता है ।
लेकिन औरत जाति के दर्द को समझा तो जा सकता है । कवि / कवयित्री की रचना में अक्सर कल्पना का सहारा लिया जाता है , लेकिन सत्य पर भी आधारित होता है ।
अप्रैल फूल न समझा जाए , इसीलिए एक दिन पहले पोस्ट कर दी । :)
हरकीरत जी का अभिनन्दन
Deleteऔर आपकी प्रतिभा को सलाम ...
कहना केवल यह भर था कि
लौकिक पात्रों को काव्य विषय बनाने से कहीं कहीं
काव्य प्रतिभा की तौहीन सी लगती है ...
हरकीरत जी निश्चय ही अप्रतिम काव्य प्रतिभा की धनी हैं ..
और संकलन का रिव्यू कर आप धन्य हुए हैं !
शुक्रिया मिश्र जी . कला और कलाकार का सम्मान करना अच्छी बात है .
Deleteदर्द की महक आपकी इस समीक्षा से भी काफी दूर तक जायेगी. हीर जो को इस पुस्तक के रूप में अपने खयालात पेश करने के लिये बहुत बधाई. मैं तो वैसे भी हीर जी की प्रशंशक हूँ. बधाई 'पूर्वोत्तर हिंदी साहित्य अकादमी" द्वारा सम्मानित किये जाने के लिये भी.
ReplyDeleteवैसे यह बात भी सच है कि समीक्षकों पर यह कुठाराघात काफी भारी पड़ने वाला है. बहुत सशक्त रूप से प्रभावित करती है आपके समीक्षा.
डॉक्टर साहिब, मैं आठवीं पास कर इतिहास और भूगोल से छुटकारा पा बहुत खुश हुआ था!... विज्ञान और इंजिनियर का स्नातक बन 'क्रीम' बन गया... यह तो पता था कि अपने विषय पर ही सब कुछ एक जीवन काल में जानना असंभव है, फिर भी अपनी अज्ञानता का आभास तब हुवा जब धर्म-पत्नी, (अपने तीन बच्चों की माँ), जो सन '६४ में राजपथ पर परेड में अपने प्रदेश की 'एन सी सी' की एक प्रतिनिधि के रूप में भाग ले चुकी थी, अचानक बीमार पड़ गयी... जो पता चला कि आरएच. आर्थ्रातिस है... और शारीरिक दर्द से हैरान परेशान हो काल-चक्र, यानी डॉक्टरों के चक्कर में फंस गयी जब 'इन्द्रप्रस्थ' को छोड़, (जहा देवताओं के राजा इंद्र वर्षा के भी स्रोत माने जाते हैं, अर्थात वो ही 'सूर्य देवता' भी हैं!), हम उत्तर-पूर्वी दिशा में रह रहे थे (जिसका राजा मंगल ग्रह है) जिस क्षेत्र में हमारे देश में सर्वाधिक वर्षा होती है, और जो जन्म-स्थली है हरकीरत जी की... और मेरी उन से जान पहचान आपके ब्लॉग में ही हुई... और आपके ब्लॉग पर टिप्पणी मैंने रविश कुमार के ब्लॉग में मुलाक़ात के बाद आरम्भ की...
ReplyDeleteइतिहास के पन्ने इंद्रजाल के माध्यम से पलटे तो रहस्योद्घाटन हुआ कैसे आप और हरकीरत जी की जडें गुरु तेग बहादुर से जुडी हैं...: और पता नहीं, हो सकता है, कि में हिमालय-पुत्र तो हूँ ही, मेरा जन्म पांच (५) सितम्बर (९) को हिमाचल में शिमला में हुआ था जब हिमाचल और हरियाणा भी पंजाब का ही हिस्सा थे ... इत्यादि, इत्यादि...:)
यह तो दिलचस्प संयोग रहा जे सी जी । :)
ReplyDeleteसंयोग से उस दिन मैं वहीँ था,पर हरकीरत जी से जान-पहचान न होने के कारण बात नहीं हो पाई.इमरोज जी को देखा,उनका वक्तव्य भी सुना.
ReplyDelete...आपने उनकी कविताओं की जिस तरह पेशगी की है,काबिल-ए-तारीफ है.हिंद-युग्म से प्रकाशित इस पुस्तक के लिए हीर जी को बधाई !
संतोष जी मैं भी सबसे मिलना चाहती थी ...शैलेश जी ने बताया चांदनी चौक से मेट्रो में १५ मिनट लगेंगे ....मैं ३ बजे निकली पर ५ बजे पहुंची ठीक विमोचन के वक़्त .....सोचा कार्यक्रम खत्म होने पर सब मिल कर बैठेंगे कहीं ....पर तब तक सभी जा चुके थे ....
Deleteहरकीरत जी, इमरोज़ जी पर लिखी आपकी पोस्ट पढ़ी और टिप्पणी भी अपनी अल्प बुद्धि से डाल दी...
ReplyDeleteधन्यवाद!
कहते हैं दर्द शेयर करने से कम होता है... शायद उसकी महक फिर भी जीवन पर्यंत रह ही जाती है, और सोचने पर फिर ताज़ा हो जाती है... मैं ही अपनी पत्नी की बीमारी और उस के दर्द की बात सभी मित्रों- शुभचिंतकों को बताता था तो वही मुझे बाद में कहती थी कि कोई कुछ नहीं कर सकता फिर मैं क्यूँ सबको बताता था... अंत के दो वर्ष विशेषकर कष्टदायी रहे 'स्तैरोयद' द्वारा जनित कम्प्लिकेशन के कारण, किन्तु वो भी काल की ही मजबूरी थी शायद... शायद किसी दिन ऐसी बीमारियों का इलाज संभव हो जाए... और सत्य की अनुभूति हरेक को हो पाए... कहते हैं कलियुग की विशेषता है की वो सतयुग को वापिस लाता है....
शुक्रिया जे सी साहब ...पोस्ट पढने के लिए ....
Deleteये दराल जी ने ही सिखाया है छोटी-छोटी खुशियों को भी इंजॉय करना चाहिए ..
इसलिए सोचा अपनी खुशी में आप सब को भी शामिल करूँ ..
इमरोज़ जी से मिलने की दिली ख्वाहिश थी ...
मैं इसलिए उन्हें महान समझती हूँ कि यह जानते हुए भी कि अमृता उन्हें नहीं चाहती
साहिर लुधियानवी को चाहती है उन्होंने अपने प्यार से अमृता का दिल जीत लिया ..
आज भी अमृता की एक एक चीज को यूँ संजो कर रखा है मानों न जाने कितनी कीमती चीज हो ...
ये सारी बातें तो उनसे मिलने के बाद ही महसूस की जा सकती हैं ..
बिलकुल जैसे कोई बच्चा अपनी प्यारी चीजें निकाल निकाल कर दिखाता है
इमरोज़ जी यूँ अमृता की हर चीज मुझे दिखा रहे थे ....
क्या वो किसी रांझे की दीवानगी से कम हैं ....?
हाँ आपकी पत्नी के बारे कई बार पढ़ चुकी हूँ ...
Deleteकौशलेन्द्र जी ने भी बताया था ..
मैं आपका दर्द समझ सकती हूँ ....
JCApr 1, 2012 07:06 PM
Deleteहरकीरत जी, धन्यवाद!
मुझे मीरा बाई ने बहुत प्रभावित किया है (अधिकतर 'कोकिल कंठी' लता मंगेशकर के माध्यम से) जैसा उन्होंने एक कविता में कहा, "रोगी अन्दर बैद बसत है / बैद ही औषध जाने..." ऐसा प्रतीत विशेषकर सत्तर के दशक में हुवा कि मेरे अन्दर कोई 'बैद' रहता है जब मेरी तीसरे नंबर की बेटी 'तीन वर्ष' ('३', ॐ :) तक खड़ी नहीं हुई और बैठे बैठे आगे बढाती थी... और चिकित्सकों ने बस इतना दिलासा दिया की कई बच्चे तीन साल की उम्र तक भी चलते हैं! पत्नी ने मुझे दोष दिया की मैं कुछ चिंता नहीं कर रहा था! मनोचिकित्सक समान, मुझे लगा उस की जड़ में भय था, गिरने का, एक रविवार (या शनिवार?) मैंने उस को चला दिया!...
मैंने पत्नी के माध्यम से बहुत कुछ सीखा... जैसे, यदि कोई उन्हें बताता था कि वो फलां फलां शहर जा रहा है तो वो तपाक से उससे कोई साडी विशेष ले आने को बोलती थी...:)(... इस प्रकार मेरा ज्ञान-वर्धन हुआ - मुझे यूँ साड़ियों के कई नाम पता चले...:) आदि आदि...
उनकी बीमारी के कारण मैं कई डॉक्टर से मिला, अथवा मेरा पत्रादि द्वारा सपर्क बना... और मेरा ज्ञान वर्धन हुवा ... गीता पढ़ मुझे निजी तौर पर आभास हुवा तथाकथित पर्दे के पीछे छुपे हुवे बहुरुपिया की उपस्थिति का... जिस कारण मैं 'माया' का, ज्ञान वर्धन कर, अर्थ समझने का प्रयास कर रहा हूँ...
हम्म...। आपकी पोस्ट पढ़ते-पढ़ते सो गया। स्वप्न में शैलेश से झगड़ता रहा... जल्दी से मेरी किताब छपवाइये और भेजिए डाक्टर साहब के पास समीक्षा के लिए। आपको मालूम है कि उन्होने हीर के पुस्तक 'दर्द की महक' की ऐसी समीक्षा लिखी है कि सारे ब्लॉगर टूट पड़े..पुस्तक खरीदने के लिए। नहीं...नहीं..किसी साहित्यकार से नहीं...मेरी पुस्तक छपेगी तो उसकी समीक्षा डाक्टर साहब से ही लिखानी है। क्या कमाल लिखते हैं यार!
ReplyDeleteओह ! सपने में आए भी तो शैलेश जी ।
Deleteसब ठीक तो हैं ना । :)
ओह ! तो आपने भी शैलेश जी को दी है छपने के लिए ...?
Deleteअग्रिम बधाई .....:))
अब न रखा कर कंधे पे हाथ ,
ReplyDeleteदर्द की आँखों में नमी होती है ।
कमाल है आपने पुस्तक पढके और पूरी पुस्तक पढके समीक्षा की .दर्द को सांझाकिया रचनाकार के .
हीर जी की नज्मों के दर्द से ... अमृता जी का दर्द भी स्वत: दिखाई देने लगता है ...
ReplyDeleteआपने बहुत ही दर्द भरते लम्हों को निकाल के समीक्षा के लिए संजोया है ... बहुत ही लाजवाब समीक्षा है ...
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ReplyDeleteदराल साहब,
नमस्कारम्!
अच्छी समीक्षा... के लिए आपको बधाई...!
उसमें एक नाम इस बंदे का भी था भाई...!
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ReplyDelete:)
‘ब्लॉग’ की कसम... सच्ची कहता हूँ!
यक़ीन न हो, तो हरकीरत जी से पूछ लेना...आप!
:)
वाकई , यह भूल हमसे कैसे हो गई , यही सोच रहा हूँ । आपसे प्रथम परिचय इसी के माध्यम से हुआ था । पहले पन्ने से अंत तक सब देख और पढ़ लिया था । खैर , भूल सुधार कर दी गई है , क्षमा याचना के साथ ।
DeleteHeer kee nazmo ke to ham bhi kayal hain .ab aapki sameeksha ke bhi ho gaye .
ReplyDeleteउनकी हर रचना में दर्द का अहसास साफ़ झलकता है ! उच्च कोटि की इस लेखिका के लिए, मेरे मन में बड़ा सम्मान है ! वे अपनी अभिव्य्क्तिओं को साकार रूप देने में सक्षम रही हैं और प्रभावित करती हैं !
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
आज आपका यह रूप देख बहुत अच्छा लगा ...
शुभकामनायें !
रात आसमाँ ने आँगन में अर्थी सजाई
ReplyDeleteतारे रात भर खोदते रहे कब्र
हवाओं ने भी छाती पीटी
पर मेरे जख्मों की मौत न हुई ।
बारहा पढने लायक नज्में ,समीक्षा .द्रुत टिपण्णी के लिए ,शुक्रिया .मोर्फिंग ,फटोशॉप एम् एम् एस तकनीक के गंभीर विनाशक स्तेमाल का मामला है .अभिवयक्ति के आज सबसे बड़े माध्यम नेट को प्रदूधित करना है अपनी लिजलिजी बीमार विकृत मानसिकता से .सोच का दिवालियापन है .जो अपने आप को अभिव्यक्त नहीं कर पाता वही करता है मोर्फिंग .वही थूकता है आसमान पर .
JCApr 2, 2012 08:18 PM
ReplyDelete'दिल्ली' अर्थात 'इन्द्रप्रस्थ' का इतिहास ही दर्शाता है इसका 'शक्ति-पीठ' होना, द्वापर से कलियुग अर्थात भूत से वर्तमान तक - जिसे विलियम डेलरिम्पल ने 'सिटी ऑफ जिन्न' कहा - एक शहर जिसकी प्रकृति ही बस के बार बार उजड़ने की है ... पता नहीं कितनी आत्माओं का दर्द इसकी आत्मा अपने दिल में छुपाये बैठी हैं...
वर्तमान दिल्ली वालों से यदि आप अपना दर्द बयान करने का प्रयास करें तो दूसरा तपाक से कहेगा, "आपका दर्द क्या है / आपसे अधिक तो मेरा दर्द है"! और वो अपने दर्द का बयान आरंभ कर देगा :) ..."करेला और उस पर नीम चढ़ा" कहावत को चरितार्थ करते जब पत्नी की टांग (फीमर हैड) भी टूट गयी, रेल यात्रा के दौरान, तो मुंबई से लौट दिल्ली में ओपरेशन करा छह सप्ताह बिस्तर पर भी लेटना पडा उसे... और जितने शुभ-चिन्तक आये उन्होंने इतनी कहानियां सुनाईं कि उसे डर लग गया कि कहीं उसकी भी ऐसी दुर्दशा न हो जाए...किन्तु 'भगवान्' ने कम से कम इतना तो ख्याल रखा... :)...
जे सी जी , दिल्ली वाले दिखावा ज्यादा करते हैं .
Deleteपृथ्वी-चंद्रमा, सांकेतिक भाषा में 'शिव-पार्वती', अर्थात गंगाधर शिव और जगदम्बा दर्शाए गये चले आते हैं हमारी प्राचीन कथा-कहानियों में... जबकि पहले, आरम्भ में, शिव को अर्धनारीश्वर और उनका निवास स्थान काशी / वाराणसी में बताया जाता है - शून्य काल और स्थान के द्योतक, (भूगोल में जा, ८२.५ डिग्री पूर्व लोंगित्युड) जिस पर वर्तमान में भारतीय समय (आई एस टी) निर्धारित किया जाता आ रहा है कुछ सदियों से, जो उत्तर में तिब्बत स्थित कैलाश पर्वत से भी गुजरता है, और दक्षिण में अमरकंटक से भी, जो शिव से सम्बंधित भी हैं...
Deleteइस प्रकार केन्द्रीय राजनैतिक शक्ति-पीठ दिल्ली/ इन्द्रप्रस्थ संसार के शून्य के पश्चिम दिशा में स्थित है... और यूँ वो इन्द्र अर्थात सूर्य का वर्तमान निवास-स्थान कहा जा सकता है, यद्यपि सूर्यवंशी राजा 'धनुर्धर राम' की जन्मस्थली, वाराणसी के निकट ही, अयोध्या नगरी को माना जाता है, उसी प्रकार जैसे पश्चिम दिशा के राजा, शैतान/ सूर्यपुत्र शनि देवता के प्रतिनिधि गुरु बृहस्पति 'नटखट नंदलाल कृष्ण' का जन्म-स्थान मथुरा है, किन्तु वे उत्पत्ति के पश्चात पश्चिम में स्थित द्वारकाधीश माने जाते हैं, किन्तु द्वापर में वे इन्द्रप्रस्थ/ हस्तिनापुर के पात्र पांडवों/ धनुर्धर अर्जुन के निकटतम मित्र दर्शाए जाते आ रहे हैं ...:) ... आदि, आदि संकेत हैं दिल्ली वालों के 'माया' अर्थात दिखावे के...:)
उफ्फ.....
Deleteहरकीरत जी, मेरी माँ का नाम हरिप्रिया, और पिता का नाम हरिकृष्ण था, जहां हरि विष्णु को कहते हैं... और आप का नाम हर अर्थात शिव से सम्बंधित है... हिन्दू मान्यता है कि हरि और हर, शिव और विष्णु दोनों एक ही हैं...जब '८१ में गौहाटी में, मेरी माँ की तीसरे वार्षिक श्राद्ध के दिन, तब मेरी दस वर्षीय तीसरी बेटी ने बता दिया की मेरी फ्लाईट कैंसल हो गयी तो उसके बाद दिमाग पर बहुत बहुत जोर डाल समझ आया कि कोई शक्ति रुपी माँ, जो मुझे उत्तरपूर्व दिशा में सत्तर के दशक में ले गयी और मुझसे आँख मिचौली सी खेल रही है, 'मुझे' उसे ढूंढ निकालने को कह रही है...:)... इसी लिए जब मैं पीछे मुड़ देखता हूँ जो मेरे मस्तिष्क में सोच गुजरे हैं तो मैं भी उफ्फ कर बैठता हूँ...:)
ReplyDeleteक्या कहें डॉ साहब आज तो कमाल ही कर दिया आपने, दिल छु गई आपकी यह समीक्षा...आभार
ReplyDeletebahut hi badhiya post, badhai heer ji ko dr. sahab ko , aur comments ke madhyam se shamil aur bhi logo ko ......
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