उन दिनों मनोरंजन के नाम पर भजनी बुलाये जाते थे । भजनी यानि संगीत मंडली जिसमे सब पुरुष होते थे जो क्षेत्रीय भाषा में क्षेत्रीय लोक गीत और कहानी किस्से सुनाते । इनमे प्रमुख होते थे राजा हरीश चन्द्र का किस्सा , नल दमयंती का किस्सा आदि आदि ।
उस दिन गाँव के दो मोहल्लों में एक ही दिन दो शादियाँ थी । उस दिन भी दोनों परिवारों ने भजनी बुला रखे थे । दोनों खेमे करीब १०० मीटर के फासले पर जम गए और शुरू हो गया गानों का दौर । सारी रात निकल गई , लेकिन दोनों मंडलियों ने बंद करने का नाम नहीं लिया । जिद यही थी कि कौन पहले हार मान ले ।
गाँव के भोले भालेअनपढ़ लोग इस प्रतिस्पर्धा का भरपूर आनंद लेते रहे । हालाँकि एक पार्टी में हम भी शामिल थे । आखिर पौ फटनेके साथ ही दोनों का शोरगुल बंद हुआ । लेकिन किसी को कोई शिकायत नहीं थी ।
शहर में :
स्कूल के दिनों में घर के पास एक गुरुद्वारा था । जहाँ रोज सुबह लाउड स्पीकर पर गुरबाणी सुनने को मिलती। बोले सो निहाल का नारा पहली बार तभी सुना था । लेकिन नींद में विघ्न पड़ता था ।
इसलिए लोगों की शिकायत पर लाउड स्पीकर को बंद कर दिया गया । दिल्ली में हर कॉलोनी में एक मस्जिद भी होती है जहाँ रोज अज़ान की जाती है । यहाँ भी लाउड स्पीकर का प्रयोग प्रतिबंधित है ।
गिरजाघर में तो वैसे ही परम शांति का वास रहता है ।
१ अप्रैल २०१२ :
कल से हमारी सोसायटी के दायीं ओर से एक अखंड पाठ की आवाज़ आ रही थी । आज रामनवमी को बायीं ओर से संगीत की आवाज़ आने लगी ।
पहले धुन शुरू हुई --तुम अगर साथ देने का वादा करो -- हमने सोचा सुबह सुबह किस का मूड रोमांटिक हो गया । लेकिन फिर जाना कि यह तो फ़िल्मी धुन पर भजन गाया जा रहा है । पहले तो सारी रात पाठ ने नींद ख़राब की , फिर सुबह से ऐसा आलम पैदा हुआ कि हमें वही गाँव का दृश्य नज़र आने लगा । ऐसा लग रहा था जैसे कोई कॉम्पिटिशन हो रहा हो । सबसे ख़राब बात तो यह रही कि एक छोटा सा शामियाना लगाकर एक नौकर गानों के टेप बदलता जा रहा था और कोई सुनने वाला भी नहीं था ।
दोनों कानों से अलग अलग संगीत सुनते सुनते कान पक चुके हैं -- दोपहर होने को आई लेकिन कोई थकने का नाम ही नहीं ले रहा । सारे खिड़की दरवाज़े बंद कर देता हूँ -- शोर कुछ कम लगता है -- श्रीमती जी ने रामनवमी के अवसर पर विशेष भोजन की व्यवस्था की है -- देसी घी का हलवा , पूरी भाजी और काले चने ।
शुद्ध सात्विक भोजन देखकर मन प्रसन्न हो गया --एक पल के लिए आँखें बंद कर ईश्वर का धन्यवाद किया --फिर सभी प्रतिबन्ध भूलकर डटकर खाया --जल्दी ही उसका असर आने लगता है और मैं सो जाता हूँ , वहीँ कार्पेट पर , टी वी के सामने ।
दो घंटे बाद नींद खुलती है -- बायीं ओर का शोर अब बंद हो चुका है -- दायीं ओर से आती हुई आवाज़ अब थक चुकी है -- फटी फटी सी बेसुरी आवाज़ -- गाँव का वो किस्सा याद आने लगता है । अखंड पाठ में घर के लोग बारी बारी बैठते हैं -- गायक मंडली भी बारी बांध लेती है -- लेकिन वाद्य यंत्र कभी नहीं थकते -- इन्सान नहीं हैं ना -- अब बस हौर्मोनियम की आवाज़ आ रही है --- पुराने हिंदी फिल्म के एक रोमांटिक गाने की धुन -- इक परदेसी मेरा दिल ले गया -- अब कोई नहीं पहचान सकता , भजन है या फ़िल्मी गीत - - वाद्य यंत्र संगीत के साथ छेड़ छाड़ नहीं करते -- इन्सान नहीं हैं ना।
डॉ साहब लिखना तो कोई आपसे सीखे ...:))
ReplyDeleteकिस-किस किस्से को कहाँ कहाँ जोड़ देते हैं .....
एक लाउड स्पीकर ने आपको बचपन की याद दिला दी और पोस्ट का मैटर भी दे दिया भला अब मौलिक अधिकार क्या करना ...?
वो 'भजनी' ....मुझे तो नाम भी याद नहीं थे ...पंजाब बहुत कम गयी हूँ ...मेरा तो जन्म ही असाम का है ...बचपन में एक दो बार माता - पिता के साथ गई होऊंगी तब की हलकी हलकी याद है शादी में कुछ इस तरह के लोग आते थे ....क्या कहते हैं भूल गई थी .....
हरकीरत जी , मिसाल देकर बात कहना हरियाणवी स्टाइल है । पंजाब में हीर राँझा , सोहनी महिवाल आदि किस्से ज्यादा गाए जाते थे । वहां भजनियों को क्या कहते थे , यह तो हमें भी नहीं मालूम ।
ReplyDeleteलेकिन यह सच है कि आजकल धर्म के नाम पर बहुत दिखावा और ढकोसलेबाज़ी हो रही है । हम भी पूर्ण रूप से आस्तिक और धार्मिक हैं लेकिन इस तरह का दिखावा नहीं करते ।
लेकिन अफ़सोस , ऐसा लगता है कि अधिकांश लोग इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते ।
या फिर धर्मभीरु हैं !
डॉक्टर साहिब, हरकीरत जी, अंग्रेजों ने बाइबल, मुस्लिम ने कु'रान मैं लिख कर क्या करना है क्या नहीं करना है लिख कर रख दिया किसी काल में तब की चालू भाषा में... हिन्दुओं के पुराण, कथा कहानी आदि चलते आये थे और काल की प्रकृति के कारण काल के साथ साथ उनको न समझने के कारण समाज में बुराई आ जाने के कारण, सिख पंथ का उत्पन्न होना आवश्यक हो गया उन जात पांत आदि को मिटाने के लिए, "एक नूर तों सब जग उपज्या / कौन भले को मंदे", द्वारा फिर से हिन्दू, सनातन धर्म के सार को पुनर्प्रकाशित करते ("शिवोहम / तत त्वम् असी", अर्थात 'मैं' अनंत हूँ और आप भी अजन्मी और अनंत आत्मा हो) , "सत्यम शिवम् सुन्दरम", और "सत्यमेव जयते", और इस मान्यता के साथ कि साकार अनंत ब्रहमां नादबिन्दू द्वारा ब्रह्मनाद ॐ से उत्पन्न हुआ, जिसके विभिन्न रूप संगीत के तीन सप्तकों के सुरों द्वारा प्रतिबिंबित होते हैं प्रकृति में जिसके आधार पर शास्त्रीय संगीत कि रचना योगियों ने की!... असम में आश्चर्य हुवा था जानकार कि सिख ही जमादार का काम करते / कर सकते हैं, जबकि दिल्ली में मैंने तो नहीं देखा किसी सिख को इस काम को करते... शिलोंग की अज्ञानी जनता ज्ञानी ज़ैल सिंह के वहाँ आने पर भारत की महानता को मान गए कि यहाँ 'मैटर' भी राष्ट्रपति बन सकता है...!
ReplyDeleteजी हां ऐसी धार्मिकता सरदर्द के सिवा कुछ नहीं. इसी का एक सुंदर उदाहरण भंडारे का है. भंडारे में चाहे जितने पैसे खर्चा हो जायज़, पर सारी बचत उसके बाद हुए कचरे की सफाई में ही होती है. जय हो...
ReplyDeleteयह समाज में रहने की कीमत है !
ReplyDeleteयहाँ मैनपुरी मे तो अक्सर ही यह सब होता ही रहता है ... हाँ नवरात्रि मे कुछ ज्यादा जोश से होता है यह सब ... बाकी साल भर मे तो किसी न किसी के घर भगवत या सुंदर कांड या कुछ न कुछ चलता ही रहता है ... जैसे जैसे लोगो की मनोकामना पूरी होती जाती है भगवान का आभार प्रगट करना भी बड़ जाता है ! धर्म एक निजी मामला नहीं रह गया है अब ... टोटल सोशल मामला है !
ReplyDeleteमनोकामना पूरी होना भी एक मिथ है .
Deleteहम सांसारिक व्यक्ति बस इच्छाओं में उलझे रहते हैं .
धर्म अब एक दिखावा बन गया है .
सहमत हूँ आपसे डाक्टर साहब !
Deleteइस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - कब तक अस्तिनो में सांप पालते रहेंगे ?? - ब्लॉग बुलेटिन
वाह बहुत उम्दा प्रस्तुति!
ReplyDeleteअब शायद 3-4 दिन किसी भी ब्लॉग पर आना न हो पाये!
उत्तराखण्ड सरकार में दायित्व पाने के लिए भाग-दौड़ में लगा हूँ!
बृहस्पतिवार-शुक्रवार को दिल्ली में ही रहूँगा!
सम्पर्क-09368499921
सही है.....गाँव बड़े प्यारे थे.....सच्चे-सीधे...
ReplyDeleteशहरों में मंदिरों में बड़ा शोर गुल है...खास तौर पर नवरात्रों में....मूड ऑफ हो जाता है....
फिर डॉक्टर्स पार्टी.......मूड ऑन
:-)
रोचक पोस्ट सर!!!!
और हाँ आपने मेरे स्ट्रोबेरी शेक को केक बना दिया :-)
कोई नहीं....वो भी चलेगा.
सादर.
सर हमारा कमेंट स्पाम से खोज लाइए प्लीईईईस.
ReplyDeleteएक आद बार ऐसा हो भी जाये, तो किसी न किसी तरह झेल भी लिया जाता है। किन्तु जो बात आपने लिखी केसेट बदलने वाली वो सच में मुझे भी बहुत खराब लगी। साल में यदि एक बार ऐसा कोई प्रोग्राम घर में रखा जाता है तो निश्चित ही बाहर का कोई आकर सुने न सुने घर के सभी सदस्यों को तो मंडली के साथ मिलकर बारी-बारी पाठ करना ही चाहिए ना की नौकर से कहकर केसेट बदलवाते रहना चाहिए।
ReplyDeleteआम आदमी को शांति के साथ सोने का अधिकार होना चाहिए। मगर आदमी क्या करे? नींद खुलते ही शांति शोर के साथ भाग जाती है।:)
ReplyDeleteआज कल फिल्मी गानों पर जो भजन बनाए जाते हैं और ज़बरदस्ती सुनाये जाते हैं ... सच ही बहुत कष्टकारी होता है ... रोचक प्रस्तुति
ReplyDeleteहम वर्तमान हिन्दुओं की गलती केवल यह है कि हम अपने पूर्वजों के ज्ञान का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं.. उन्होंने कहा था कि जो बाहरी संसार में दिख रहा है वो ही हमारे शरीर के अन्दर सार के रूप में है, क्यूंकि मानव शरीर ब्रह्माण्ड का मॉडेल, प्रतिमूर्ति, है!
ReplyDeleteहिन्दू कृष्णलीला आदी देखता तो है, और गीता में वो ही कृष्ण मानव को हर हालत में स्थितप्रग्य रहने का उपदेश दे गए... और यही नहीं, क्यूंकि कृष्ण सबके भीतर हैं, शेक्सपियर के माध्यम से भी कह गए कि हर व्यक्ति नाटक का पात्र है... आदि आदि...
अब न तो कोई पूर्व के ज्ञान का सार न पश्चिम का ही माने तो त्रिशंकु न कहा जाएगा उसे क्या??? 'धर्म' तथाकथित स्वर्ग/ 'हैवन'/ 'जन्नत', आदि पाने के लिए हैं, और वो पैसे के बल पर स्वर्ग जाना चाहता था, और सरकारी कर्मचारी होने के कारण, राजगुरु विश्वामित्र ने प्रयास किया रॉकेट में बिठा भेजने का तो 'धोबी के कुत्ते समान' (जो 'घर का है न घाट का') अधर में ही अटक गया...:(
पुनश्च - 'धोबी' का काम कपड़ों से मैल छुडाना होता है, (गीता में शरीर को आत्मा का वस्त्र कहा गया है), और कृष्ण भक्त मीरा बाई कृष्ण को अपनी चुनरिया पक्के काले रंग में रंगने का आग्रह करती है, ऐसा पक्का कि जिसे धोबी सारी उम्र न छुडा सके...:) धोबी के साथ कुत्ते के अतिरिक्त एक और पशु जुड़ा रहता है, और वो है गधा , जो बेचारा घर से घाट तक मैले कपडे, और घाट से घर तक धुले कपडे चुपचाप ढोता है (अफसर के पीछे फाइलें ढोते बाबू समान),,,:( न कुत्ते का भोंकना न गदहे का रेंकना किसी अन्य को सुहाता... किन्तु, धोबी कि सिक्युरिटी का काम निकल जाता है... अब आप सोचिये जब गदहा घाट के निकट हरी भरी धास चार रहा होता है और धोबी व्यस्त होता है कपडे पटकने में तो उस का रेंकना उस कि आत्मा को शान्ति पहुंचाता होगा, कि वो खोया नहीं है...:)
Deleteहर कीरत और डॉक्टर साहिब, असम प्रदेश में जब काला जादू चलता था तो एक धोबन अकेले ही काफी थी पूरे प्रदेश की सेक्युरिटी के लिए, जब तक वो हार न गयी गुरु तेग बहादुर से, और उन की देख रेख में औरंगजेब की सिखों की सेना आराम से नवगांव तक बिना किसी रुकावट के न पहुँच गयी! आज भी किन्तु उस स्थान को 'धुबड़ी' कहा जाता है... ("वाहे गुरु दा खालसा...")...
..हमारी धार्मिक-स्वतंत्रता भी यही कहती है कि अगर ऐसा कोई काम जिससे दूसरे प्रभावित हों,परेशां हों,धर्म का नहीं हो सकता ! कानून इसकी इज़ाज़त नहीं देता पर इसकी फ़िक्र किसे है ?
ReplyDeleteयही होता है जी, धर्म के नाम पर। वैसे भी लाउडस्पीकर प्रतिबंधित हैं। लेकिन कौन माने और मनाए।
ReplyDeleteवैसे भी अभी परीक्षाओं का दौर है ....ध्यान रखना ही चाहिए लोगों को कि आस पास का वातावरण प्रभावित ना हो !
ReplyDelete:)
ReplyDeleteडॉक्टर साहिब, गीता के ज्ञाता स्मिता जी को मुस्कुराते देख, कुछ और गीता का ज्ञान झाड दिया था...:) किन्तु स्पैम में चला गया और सेव भी नहीं किया था उसे.....:(
ReplyDeleteसार्थक सृजन, आभार.
ReplyDeleteघर के पास ही एक शिव मंदिर है ! जहां मिथिला समाज की एक भजन मंडली को लगातार सुनना पहले खटकता था ! बाद में पता चला कि वे लोग इसी से अपनी रोजी रोटी कमाते हैं सो उनके लिए दिल में कोई मलाल ना रहा और उन भक्तों के लिए तो मलाल का सवाल ही नहीं उठता जो इन्हें कांट्रेक्ट पर रामधुन गायन के लिए पैसे / रोजी देते हैं :)
ReplyDeleteइधर बांग्ला भाषियों के नए घरों के उदघाटन के समय एक नया ट्रेंड देखा , कोई एक बंदा , रामचरित मानस और दूसरे भजनों का गायन करते हुए मन्ना डे के अंदाज में आलाप भी लेता है यानि कि रामधुन विथ क्लासिकल टच :)
सही कहा , सब रोजी रोटी का मामला है .
Deleteलेकिन लाउड स्पीकर न लगाकर दूसरों को भी जीने दें तो बेहतर है .
यानि जिओ और जीने दो :)
शायद वे लाउडस्पीकर के इस्तेमाल से उन भक्तों को भी तार देते है जो मंदिर तक नहीं आ पाये / आ पाते :)
DeleteJCApr 4, 2012 03:53 AM
Deleteअब टेक्नोलोजी है तो, बिजली है, बिजली है तो लाउड स्पीकर और डिस्क/ रिकोर्ड प्लेयर/ कंप्यूटर आदि आदि है... और घर में घी चीनी, सूजी है तो हलवा भी है - जिसे खाकर आप सो गये...:) "न नौ मन तेल होता/ न राधा नाचती", "न कोई चिकनी चमेली पव्वा लगाती"...:)... फिर आप जैसा कोई कहता, 'यह जीना भी कोई जीना है लल्लू'...:) नाद बिंदु है तो नाद है, शोर है जो बढ़ता जा रहा है, नौईस पोलुशन बढ़ता जा रहा है... " एक शायर को गाते सूना था, 'घर के बाहर भी कोलाहल/ घर के भीतर भी कोलाहल है..."...
ओह आज तो आपने दुखती रग पर हाथ रख दिया. सच इंडिया जाकर १ दिन भी शांति से सोने को नहीं मिलता .
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 05-04-2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete.... आज की नयी पुरानी हलचल में ......सुनो मत छेड़ो सुख तान .
vakt men badlav aaya hae ise sahajta se lena hoga.par badlav ke sath bahut kuchh hae jo peechhe rah gya hae use sahejana hoga. sarthak post bdhai.
ReplyDeleteआपकी यह पोस्ट भी मेरी पोस्ट की ही तरह गूगल ने कल शाम तक गूगल रीडर पर अपडेट नहीं की थी, इसलिए शाम तक फोलोअर्स की पहुँच से बहार थी....
ReplyDeleteजी हाँ , शायद गूगल अपडेट न करने का बदला ले रहा था । हमें भी ६ घंटे बाद दिखी ।
Deleteबहार = बाहर
ReplyDelete:-)
डॉ साहब यह रोजी-रोटी का नहीं शोषण-उत्पीड़न का मामला है और यह पूरा का पूरा 'अधर्म' है। जनता को मूर्ख बना कर उल्टे उस्तरे से मूढ्ने की यह प्रक्रिया आलोकतांत्रिक और खुली लूट है।
ReplyDeleteअफ़सोस तो यही है कि यहाँ लुटने और लूटने वाले , समाज के सभ्य कहलाए जाने वाले लोग ही हैं ।
Deleteडॉ साहब यहाँ बंगलुरु में भी यही आलम है .स्थान है -विद्या अरण्य पुरा,भेल ले आउट ,144फिफ्थ क्रोस,अम्बा भवानी रोड ,बंगलुरु ९७ .
ReplyDeleteज़नाब पड़ोस में एक मंदिर निर्माणाधीन है 'चौदेश्वरी देवी मंदिर '.वही सुबह से शाम कन्नड़ गीतों का सिलसिला .कई मर्तबा पुलिस स्टेशन फोन किया गया है वही ढ़ाक के तीन पात .गायत्री मन्त्र का लय ताल के साथ सांगीतिक वाचन अच्छा लगता है लेकिन गौ -धूलि में 24X7 नहीं .यहाँ हर प्रहार लाउड डेसीबेल की मार झेलो .जबकी 'शोर धार्मिक 'शोर मशीनी ,....आज ब्लड प्रेशर से लेकर धमनी अवरोध ,श्रवण ह्रास की भी वजह बन रहा है .सुने कौन .यहाँ सरकार ही नियम का पालन करवा ना भूल चुकी है .खुद नियम च्युत है .तिहाड़ मंडित है .
धन्यवाद वीरू भाई जी, माता पार्वती के कर्णाटक में (उत्तर और दक्षिण 'भारत' के भौगोलिक और सांस्कृतिक मिलन स्थल) पर बने मंदिर के बारे में ज्ञानवर्धन हेतु... लिंक http://en.wikipedia.org/wiki/Chowdeshwari_Temple
Deleteसंस्मरण विश्लेषण प्रधान ज़ोरदार रहा .
ReplyDeleteजो लूट रहा है वो भी अज्ञानी है और जो लुट रहा है वो भी अज्ञानी... ऐसा कह गए ज्ञानी-ध्यानी :) ऊँट समान, काल किस करवट लोटेगा यह किसी को पता नहीं आज - सतयुग आयेगा कि ब्रह्मा की रात???...???...???
ReplyDeleteइंसान होगा तो थकेगा लेकिन यहाँ तो टेप चलता है, कैसे थकेगा? दुनिया में एक पागलपन सवार हो गया है, क्या कीजिएगा।
ReplyDeleteएक दम सही! किन्तु, यह पागलपन भी अद्भुत है!...
Deleteहर व्यक्ति पागल है, किन्तु उसे दूसरे में ही पागलपन दिखाई पड़ता चला आ रहा है सदियों से...:)
'पश्चिम' में कहावत भी है कि 'कोयला कोलतार को काला कहता है'! और 'पूर्व' में, 'भारत' में, तो काले हमारे भगवान् ही हैं - कृष्ण/ शक्ति रुपी माँ काली जिसकी पूजा हम नौ दिन ही कर मुक्ति पा लेते हैं और 'बाहरी' शक्तियों को प्रणाम करते फिरते हैं उम्र भर...:)
जय माता की!
JCApr 4, 2012 11:27 PM
Deleteडॉक्टर साहिब, डॉक्टर की अधिकतर पहचान होती है सफ़ेद कोट और गर्दन में (शिव के गले में लपटे सांप समान) पड़े आले से, जिस के माध्यम से वो बीमार के दिल का शोर सुन सकते हैं और उसी 'लब-डब' से दिल का हाल जानने का प्रयास कर सकते हैं... नाडी पकड़ उसकी चाल से भी... इसके अतिरिक्त, मानव द्वारा संगीत अथवा चित्र भरी टेप तो सभी को दिखाई पड़ जाती है, किन्तु उस टेप का अनुमान नहीं लगा पाते जिसके माध्यम से सारी उम्र 'हम' और 'निम्न श्रेणी के पशु' भी स्वप्न देखते रहते हैं - निद्रावस्था में... और जागृत अवस्था में विभिन्न विचारों को पढ़ भी लेते हैं, किन्तु दिमाग चाहिए होता है उनको 'सही' कार्यान्वित करने में ...:)
जियो और जीने दो .. ये समस्या पूरे भारत वर्ष की है ... हर किसी को बुरा लगता है लोड स्पीकर सिवाए जिसके घर हो रहा होता है ... इसके लिए कुछ आचार संहिता जरूर होनी चाइये ...
ReplyDeleteआजादी और धर्म का दुरपयोग हर जगह किया जा रहा है.
ReplyDeleteकाश! हम आजादी का और धर्म का सही अर्थ समझ पाते.
main to bas ise aadambar se jyada aur kuch nahin kah sakti...ya fir log samajte hai ki bhagwan ji bahare hai....welcome to माँ मुझे मत मार
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