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Monday, September 16, 2024

ग़ज़ल...

 गांव छोड़कर शहर में गुमनाम हो गए,

सच बोलकर जग में बदनाम हो गए। 


काम बहुत था जब करते थे काम,

सेवा निवृत हुए तो नाकाम हो गए। 


तकनीकि दौर मे दिखता है विकास,

मोबाइल संग बच्चे बे लगाम हो गए। 


गुरुओं और बाबाओं के आश्रम में,

चोर उचक्के सारे सतनाम हो गए।


भ्रष्टाचार का यूं बोलबाला है यारा,

ज़मीर बेच अमीर जन तमाम हो गए। 


भेड़िए भले ही लुप्त होने को हैं पर,

इंसानी भेड़ियों के हमले आम हो गए। 


द्रोपदी की अस्मत बचाने को क्यों,

कलयुग में जुदा घनश्याम हो गए। 


जालिम अब बच नहीं पाएं सजा से,

उनके गुनाह के चर्चे सरेआम हो गए। 


बुजुर्गों का साया गर सर पर हो ' तारीफ',

समझो शुभ दर्शन चारों धाम हो गए। 



Monday, September 9, 2024

एक ग़ज़ल...

 पसीने की गंध जिनके गात नहीं आती,

नींद उनको सारी सारी रात नहीं आती। 


वो काम करते नहीं जब तलक,

काम के बदले सौगात नहीं आती। 


सड़कें टूटी, नालियां बंद, तो क्या,

इस शहर में कभी बरसात नहीं आती। 


बेटियां घर दफ्तर में महफूज हों,

देश में ऐसी कोई रात नहीं आती। 


जज़्बा बहुत है लड़ने का किंतु,

शैतान को देनी मात नही आती। 


क्या बतलाएं तुमको हम जात अपनी,

सिवा इंसानियत कोई जात नहीं आती। 


नेता हम भी बन जाते ' तारीफ', पर,

सच को छोड़ कोई बात नहीं आती। 

Monday, September 2, 2024

सेवानिवृत बुजुर्ग ...

 बुजुर्ग ना खाते हैं ना पीते है,

फिर भी चैन से मस्त जीते हैं।

ना कपड़ों का खर्च रहा ना कहीं आना जाना,

अब तो मुफ्त में गुजरता है सारा दिन सुहाना। 


ना किराए की चिंता ना बच्चों की फीस,

ना कोई कर्ज़ ना लोन चुकाने की टीस

ना सब्जीवाले, रिक्शावाले, रेहडीवाले से चकचक,

जिसने जो मांगा दे दिया ना मोल भाव की बकबक। 


खाली हाथ लटकाए बाजार जाते हैं,

बिन पैसे थैला भर सामान ले आते हैं। 

नोटों को अब तो हाथ तक नहीं लगाते हैं,

मोबाइल पर एक उंगली से काम चलाते हैं। 


सरकार भी इनकम टैक्स में देती है भारी छूट,

पेंशन कम नहीं, ये तो है ईमानदारी की सरकारी लूट।