दीवाली पर मच्छरों की भरमार पर प्रस्तुत है एक पूर्व प्रकाशित रचना :
एक दिन हमारी कामवाली बाई
सुबह सुबह घर आते ही बड़बड़ाई ।
बाबूजी, ये द्वार पर कौन मेहमान खड़े हैं ,
हैं तो लाखों करोड़ों, पर सब बेज़ान पड़े हैं ।
ये कहाँ से आते हैं, क्यों आते हैं,
हम तो समझ ही नहीं पाते हैं ।
और इनका नाज़ुक मिजाज़ देखिये ,
रोज रूपये की तरह लुढ़क जाते हैं ।
मैंने कहा बेटा, ये बिन बुलाये मेहमान जो बेज़ान हो गए हैं,
ये स्वतंत्र भारत के वो नागरिक हैं जो अपनी पहचान खो गए हैं ।
इनका तो जन्म लेना भी कुदरत की बड़ी माया है ।
क्योंकि इनके लघु जीवन पर प्रदूषण की पड़ी छाया है ।
प्रदुषण से परिवर्तित इनका अस्तित्त्व हो गया है ।
इसीलिए नेताओं की तरह इनका भी व्यक्तित्व खो गया है ।
उस दिन शाम रौशन होते ही वो फिर आ गए ।
दीवाने परवाने से हर विद्धुत शमा पर छा गए ।
मैंने पूछा -- आप कौन हैं
कहाँ से आए हैं, और क्यों आए हैं ?
उनमे से एक जो ज्यादा ख़बरदार था,
शायद उस झुण्ड का सरदार था ।
बोला --हम उत्तर भारत से आए हैं,
रोजी रोटी की तलाश में, दिल्ली के आसरे ।
हमने कहा आइये, आपका स्वागत है,
अरे हम नहीं हैं बेरहम बेशर्म बावरे ।
हम दिल्लीवाले दिल वाले हैं, मेहमान नवाज़ी के साये में पाले हैं ।
तभी तो दिल्ली के द्वार सभी के लिए खुले हैं ।
लेकिन यह तो बताईये, आप रोज रोज क्यों चले आते हैं ?
वो बोला हम तो इंसानी सभ्यता की चकाचौंध से खिंचे चले आते हैं ।
लेकिन इस रौशन दुनिया को
इतना असभ्य और मतलबपरस्त पाते हैं ।
कि जल कर राख ना हो जाये अपनी ही लौ में शमा ,
इसलिए हम तो पतंगा बन, खुद ही पस्त हो जाते हैं ।
देखिये ये जो हमारी खेप अभी उड़कर आई है ।
ये सही में मच्छर नहीं, देश में बढती महंगाई है ।
सामने वाली लाईट पर जो इनकी भरमार है ।
वह दरअसल देश में फैला हुआ भ्रष्टाचार है ।
और जो ज़मीं पर बिखरा इनका सामान है ।
वो असल में इंसान का गिरा हुआ ईमान है ।
अरे हमें मच्छर समझना आपका भ्रम है ।
क्योंकि हम मच्छर नहीं इंसान के बुरे कर्म हैं ।
जिस दिन इंसान में इंसानियत जाग जायेगी !
हमारी ये नस्ल लुप्त हो खुद ही भाग जायेगी !
वाकई , बधाई बेहतरीन अभिव्यक्ति को
ReplyDeleteअरे डॉक्टर होकर मच्छर को समाप्त करने की बात कर रहे हैं! रोजी-रोटी का खयाल नहीं आया क्या?
ReplyDeleteबढ़िया कविता है ....
ReplyDeleteइंसान की इंसानियत जागने का इंतज़ार है
ReplyDeleteजिस दिन इंसान की
ReplyDeleteइंसानियत जाग जायेगी !
हमारी ये नस्ल संसार से
लुप्त हो खुद ही भाग जायेगी !
दीपावली की हार्दिक बधाईयाँ एवं शुभकामनाएँ।।
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बेहतरीन कविता.
ReplyDeleteडंक मारना तो अब इंसान का काम है
मच्छर तो बेचारा ऐसे ही बदनाम है :).
बेहतरीन कविता...
ReplyDeleteभारत के इंतजामिया पर बेहतरीन सर्व कालिक रचना। दिवाली मुबारक।
ReplyDeleteसटीक और बहुत ही कसा हुआ व्यंग.
ReplyDeleteदीपावली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं.
रामराम.
बहुत खूब ...:))
ReplyDeleteशानदार सामयिक प्रस्तुति...दीपावली की शुभकामनायें...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@जब भी जली है बहू जली है
इन्सान की इंसानियत तो जागने से रही ... मतलब ये लुप्त होने वाले नहीं ...
ReplyDeleteलाजवाब हास्य ओर व्यंग भरी रचना ... मज़ा आ गया ...
दीपावली के पावन पर्व की बधाई ओर शुभकामनायें ...
बहुत खूब...
ReplyDeleteशुभदीपावली,गोवर्धन पूजन एवं यम व्दितीया श्री चित्रगुप्त जी की पूजन की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें स्वीकार करें
ReplyDeleteवाह वर्तमान स्थिति पर करारा व्यंग ...बेहतरीन रचना।
ReplyDeleteये तो घूमा के इंसान रूपी जानवर के मिक्सचर को मारा है। ये तो कभी परवाने हो ही नहीं सकते। ये तो शमा को भी जला कर खाक कर डालें, इतने भयानक होते हैं..
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