शनिवार को एक बजे अस्पताल से निकला ही था कि एक फोन आया -- डॉ साहब , मैं आपके अस्पताल से ही बोल रहा हूँ। आप निकल गए क्या ? मैंने पूछा -- आप कौन बोल रहे हैं? वो बोले -- मैं आपके पिताजी का दोस्त बोल रहा हूँ। आपसे मिलना था। मैंने पूछा -- कोई काम था क्या ? बोले -- नहीं , बस आपसे मिलना था , क्या पांच मिनट के लिए आ सकते हैं ? मैं अस्पताल से करीब एक किलोमीटर दूर जा चुका था और ट्रैफिक भी बहुत था। इसलिए थोड़ी असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो गई। मैंने पूछा -- आप कहाँ रहते हैं ? उन्होंने बताया -- मैं आगरा में रहता हूँ। आपके पिताजी के निधन के बारे में पता चला तो आपसे मिलना चाहता हूँ। आप बस पांच मिनट के लिए आ सकें तो ! अब तक उनकी आवाज़ रुंध चुकी थी।
मैंने फ़ौरन गाड़ी मोड़ी और वापस आ गया। दुआ सलाम के बाद चाय पानी के साथ उन्होंने अपना परिचय देते हुए बताया कि वो पिताजी के साथ उनके दफ्तर में काम करते थे। दोनों ने एक साथ आई सी एम् आर ज्वाइन किया , और एक साथ रिटायर हुए। बाद में एक साथ दोनों को मलेरिया रिसर्च सेंटर में काम करने का अवसर मिला। पिताजी से उनके विचार बहुत मिलते थे और दोनों गहरे दोस्त थे।
परिचय के बाद असली मुद्ददे पर आते हुए उन्होंने कहा -- मैं दफ्तर आया था अपने जीवित होने का प्रमाण पत्र देने। वहां पता चला कि दराल साहब नहीं रहे। वहां से मालूम कर आपके पुराने अस्पताल गया। किसी ने आपके पुराने ऑफिस का पता बताया और वहां पहुंचा तो आपकी जगह बैठे डॉक्टर ने बताया कि आप यहाँ मिलेंगे। दराल साहब जैसे आदमी नहीं रहे , यह सुनकर विश्वास नहीं हुआ। मैंने बताया कि विश्वास तो हमें भी नहीं होता कि ऐसे व्यक्तित्त्व वाला व्यक्ति भी संसार छोड़ कर जा सकता है। लेकिन क्या करें , दुनिया की रीति है , कोई अमर नहीं रह सकता।
फिर काफी देर तक घर परिवार की बातें चलती रही। 82 वर्ष की आयु में भी वे दिल्ली एक शादी में आये थे। आगरा में पति पत्नी अकेले रहते हैं। बेटे बेटी सब अपनी गृहस्थी में व्यस्त अलग अलग शहरों में रहते हैं। उनका स्टेमिना देखकर लगा कि पुराने लोगों का स्वास्थ्य नई पीढ़ी के मुकाबले कितना बेहतर होता है। सभी प्रकार के व्यसनों से दूर रहते हुए सादा जीवन व्यतीत करना ही स्वस्थ जीवन की कुंजी है।
अंत में विदा लेते हुए उन्होंने कहा -- आप से मिल लिया , ऐसा लगा जैसे मैं दराल साहब से ही मिल लिया। उनके मित्र प्रेम के आगे मैं तो नतमस्तक था। और पिताजी की मृत्यु के दो साल बाद उनके करीबी दोस्त से मिलकर मुझे लगा जैसे साक्षात पिताजी ही भेष बदलकर सामने आ खड़े हुए हों , मुझे गर्व से एम् एस की कुर्सी पर बैठे हुए देखने के लिए। यदि जीवित होते तो वे भी आज 82 वर्ष के होते।
डॉ साहब जितने अच्छे ढंग से आपने पिताजी के जन्मदिन पर उनका स्मरण उनके अनन्य मित्र के दर्शन करने के दृष्टांत से किया है वह अविस्मरणीय है। उनको हार्दिक श्रद्धांजली।
ReplyDeleteशुक्रिया माथुर जी।
Deleteदोस्ती और आदमी का व्यवहार ऐसा होता है की उसे जीवन पर्यंत आदमी भूल नही पता है...देखिए आपके पिता जी के दोस्त का एक दोस्त के प्रति प्रेम कहाँ खींच लाया...आपने बहुत सादगी के साथ एक मुलाकात का विवरण प्रस्तुत किया...मैं आपके पिता जी और उनके ऐसे व्यावहारिक दोस्त दोनों को प्रणाम करना चाहता हूँ...साथ ही साथ आप को भी जिन्होने उस वृद्ध व्यक्ति के भावनाओं का इतना सम्मान किया...सुंदर आलेख..प्रणाम डॉक्टर साहब..
ReplyDeleteसुन्दर विचार । आभार।
Deleteदोस्ती ऐसी होती है। वैसे सभी MS अच्छे ही क्यों होते है? मुझे तो आज तक चार MS से मिलने का मौका मिला चारों बहुत अच्छे इन्सान निकले|
ReplyDeleteभावुक कर देने वाला संस्मरण ....
ReplyDeleteमित्रता का ज़ज्बा यूँ ही रहा , मित्र ना रहा तो क्या !
ReplyDeleteआत्मीय संस्मरण में पिताजी को पुण्य स्मरण !
बाबू जी को शत शत नमन !
ReplyDeleteपहले के लोगों की तो बात ही अलग थी जिनके लिये हर रिश्ता सांसों संग जुडा होता था।
ReplyDeleteसचमुच पुराने ज़माने में दिलों में आदर सम्मान होता था जो अब कम ही देखने को मिलता है।
Delete:-(
ReplyDeleteअच्छा लगता है बड़े बुजुर्गों का प्यार और आशीष पाकर..
और कुछ कहना मुनासिब नहीं...
सादर
अनु
भावुक कर देने वाला संस्मरण .... साथ ही आशीष कितना जरूरी है .. इसका भी आभास हुआ ..
ReplyDeleteअच्छे लोग मरते नहीं ... शायद इसी लिए कहा गया होगा ...
ReplyDeleteमन में उतर जाती हैं ऐसी बातें ... सुकून देती हैं भागम-दौड़ की इस जिंदगी में ...
बेहतर लेखन !!
ReplyDeleteदम ख़म जीवन,
ReplyDeleteहम तो ठन ठन।
कोर भिगो गया आपके पिताजी को याद करने का अंदाज. सच ही अपने मित्र की दृष्टि से आपके पिताजी ने ही देखा होगा आपको गर्व से.
ReplyDeleteशिखा जी , उन बुजुर्ग के ज़ज्बे को देखकर मैं भी बहुत प्रभावित हुआ था। आजकल तो दोस्ती भी मिलावटी हो गई है।
Deleteबहुत सुंदर दृष्टांत और भावुक प्रसंग. बुजुर्गों का आशीर्वाद किसी भी रूप में मिले हमेशा एक अलग अहसास देता है. बाबूजी को मेरा भी नमन.
ReplyDeleteविन्रम श्रद्धांजलि!
ReplyDelete....भावुक करता संस्मरण :-(
ReplyDeleteVery touching and nostalgic! My respectful tributes!
ReplyDeleteआपने अच्छा किया जो लौटकर वापस गए।
ReplyDeleteइतने आत्मीय लोग... अब भगवान ने शायद बनाना ही बंद कर दिया है :(
ReplyDeleteसही कहा। अब ज़माना बहुत व्यवसायिक हो गया है। मानवीय मूल्यों की कद्र खोती जा रही है।
Deleteपिताजी के जन्मदिन पर उनका अविस्मरणीय,बहुत उम्दा सृजन,,,, बधाई।
ReplyDeleterecent post हमको रखवालो ने लूटा
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति...सुंदर संस्मरण।।।
ReplyDeleteडॉक्टर साहब हम दोनों के सिर से एक महीने के अंतराल में ही पिता का साया उठा था...मैं जानता हूं कि वो जहां भी होंगे, हमारे अच्छे के लिए दुआ ही कर रहे होंगे...
ReplyDeleteजय हिंद...
सही कहा।
Deleteइस उम्र में भी, वे आप को देख अपने मित्र को महसूस कर पा रहे होंगे ! वे अनुकरणीय हैं !
ReplyDeleteबुजुगों के प्रति आदर से आप्लावित पोस्ट .पहली मर्तबा पता चला आप अब मेडिकल सुपरिनटेनडेंट की महत्वपूर्ण पोस्ट पर हैं आपका यह मानवीय चेहरा दिनानुदिन पल्लवित हो आप ऐसे ही लोगों का
ReplyDeleteआदर करते रहें और असली मनमोहना बने रहें (अपने मनमोहन सिंह जी से क्षमा याचना सहित ).आपकी टिपण्णी हमारे लेखन की धार बनती है आप न आयें ,सब कुंद हो जाए .
समादर और स्नेह का ऐसा दो -तरफ़ा प्रवाह बड़ा विरल है ,बिरलों को ही नसीब है .बधाई .
ReplyDeleteशुक्रिया वीरुभाई जी।
Deleteजन्मदिन पर बाबूजी को प्रणाम . अच्छे मित्र और पिता खुशनसीबी की निशानी है .
ReplyDeleteआपकी पोस्ट पढ़कर अभी अर्चना चाव जी के ब्लॉग 'मेरे मन की' में पढ़ी एक पोस्ट ...पुराने रिश्ते पुराने लोग की याद आ गई। उन्होने भी पुराने लोगों द्वारा रिश्तों की कद्र कैसे की जाती है, इसका खूब एहसास कराया है। आपने यादगार बन गये उन पलों को खूब जतन से संभाला है। साझा किया, इसके लिए आभार।
ReplyDeleteलिंक..http://archanachaoji.blogspot.in/2012/12/blog-post_9.html
Deleteजिसके पास जो है वह वाही बांटता है सांझा करता है आप और आप के बुजुर्गों के पास नेहा है जो बांटने से बढ़ता है आभार .आपकी सद्य टिपण्णी उत्साह बढ़ाती है .
ReplyDeleteसर आपने भी उनका मान रखा। वरना आजकल माता-पिता की चिंता लोग नहीं करते..फिर उनके मित्रों की कौन कहे....पिताजी के जाने के बाद साल भर तक लोगो आते रहे..कोई अखबार के बने लिफाफे में खबर पढ़कर..कोई नेट से जानकर तो कोई महीनों बाद सुनकर...। ऐसे में पता चलता है कि तमाम व्यस्तता के बाद भी लोग पुराने समय में अपनों के लिए समय निकाल ही लेते थे।
ReplyDeleteaise sansmaran preraneey hai .
ReplyDeleteaabhar
ये तस्वीर उन्हीं मित्र की है या आपके पिताजी की ....?
ReplyDeleteकौन सी ? बाएं वाली या दायें वाली ! :)
Deleteबहुत ही भावुक संस्मरण...
ReplyDeleteआत्मीय संस्मरण!
ReplyDeleteमुझे अपने पिताजी के दोस्त की याद आ गयी।