मनुष्य संसार में अकेला आता है -- खाली हाथ, और एक दिन अकेला ही चला जाता है -- खाली हाथ . लेकिन इस आने जाने के बीच करीब ७० साल में ( वर्तमान औसत आयु ) जीवन में अनेक पड़ावों से गुजरता है . बचपन गुजरने के बाद यौवन आता है , फिर शादी -- एक से दो , दो से चार होते हुए सांसारिक उपलब्धियों की लाइन सी लग जाती है . हर इन्सान की कोशिश रहती है , जीवन में सभी भौतिक सुविधाओं का भोग करते हुए , जिंदगी चैन और ऐशो आराम में गुजारने की .
कुछ गरीब पैदा होते हैं और गरीब ही मर जाते हैं . कुछ अमीर घर में पैदा होकर सभी सुख सुविधाओं को बचपन से ही हासिल कर लेते हैं . लेकिन एक बड़ा वर्ग होता है मध्यम वर्ग का , जिनके पास आरम्भ में सीमित संसाधन होते हैं , लेकिन आर्थिक उन्नत्ति करते हुए एक दिन सर्व सम्पन्नता प्राप्त कर लेते हैं . ऐसे ही एक परिवार में गाँव में पैदा होकर ( लेकिन अभाव में नहीं ) , जब शहर में आए तो स्वयं को दूसरों से आर्थिक रूप में कम भाग्यशाली पाया . लेकिन फिर धीरे धीरे आर्थिक विकास की सीढ़ी चढ़ते हुए इस मुकाम तक पहुँच ही गए जहाँ इन्सान सुखी होने के भ्रम में भ्रमित रहकर अपने भाग्य और उपलब्धि पर इतराता है .
कॉलिज के दिनों में गाने का बड़ा शौक था . एक बार समूह गान को लीड करते हुए पुरुस्कार भी मिला . हालाँकि गाना कभी सीखा नहीं , इसलिए गाना कभी नहीं आया . लेकिन शौक इस कद्र हावी था -- कॉलेज पास करते ही इन्टरनशिप में गाने पर प्रयोग करते हुए लता मंगेशकर के साथ अपने युगल गानों की रिकोर्डिंग कर डाली . उन दिनों में डब्बे जैसे टेप प्लेयर / रिकॉर्डर होते थे जिसमे केसेट प्ले होते थे . १९८० के दशक में गुलशन कुमार ने टी सीरिज के सस्ते टेप बनाकर संगीत की दुनिया में अपनी धाक जमाकर टी सीरिज कंपनी को आसमान की उचाईयों पर पहुँचा दिया था . कहीं से दो टेप रिकॉर्डर का इंतजाम किया और ३-४ मित्रों की मंडली बैठ गई गानों की रिकॉर्डिंग करने के लिए . एक मित्र टेप चलाता, दूसरा रिकॉर्डिंग वाला टेप ओंन करता और रफ़ी की जगह हम अपना राग अलापते . कुल मिलाकर नतीजा ग़ज़ब का रहा .
जिस तरह चिकित्सा के क्षेत्र में नॉलेज बहुत जल्दी बदलती रहती है , उसी तरह इलेक्ट्रोनिक्स के क्षेत्र में भी तकनीक बहुत जल्दी बदल जाती है . १९८० के दशक में टेप आए तो टू इन वन मिलने लगे . फिर वीडियो प्लेयर , वी सी आर --- फिर वॉकमेन --- सी डी प्लेयर -- थ्री इन वन आदि तरह तरह के म्यूजिक सिस्टम मिलने लगे . एक समय था जब लोग हाई आउट पुट म्यूजिक सिस्टम को जोर जोर से बजाते थे जिससे सारी बिल्डिंग हिलने लगती थी . ऐसे ही समय हमने भी एक म्यूजिक सिस्टम खरीदा बड़े शौक से , लेकिन उसके बाद फिर तकनीक इतनी तेजी से बदली -- देखते ही देखते संगीत माइक्रो चिप्स में घुसकर कंप्यूटर और मोबाइल फोन्स में ही आने लगा . अब किसी म्यूजिक सिस्टम की ज़रुरत ही नहीं रही . और बेकार हो गया हजारों रूपये की कीमत का हजारों वाट का म्यूजिक सिस्टम जिस पर सभी तरह की सीडी , टेप , केसेट और ऍफ़ एम् रेडियो आदि सुने जा सकते थे .
पिछले दस बारह सालों में जो सांसारिक खज़ाना हाथ लगा था , अब श्रीमती जी को पुराना लगने लगा था . पुराने आइटम्स से उन्हें उकताहट होने लगी , हालाँकि हमें तो अभी भी कोई शिकायत नहीं थी . लेकिन गृह स्वामिनी ने फरमाइश की और हमने मान ली . वैसे भी समय के साथ जब घर बदल जाते हैं , घरवाले बदल जाते हैं तो भला इन निर्जीव सामान की क्या बिसात .
वैसे भी पिछले दस पंद्रह सालों में ड्राइंग रूम बदल गया लेकिन ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाते हुए ये साजो सामान अभी तक विराजमान थे . अब शुरू हुआ इन्हें बेचने का अभियान जो शुरू होने से पहले ही नाकाम हो गया क्योंकि पता चला -- आजकल पुराने सामान के कोई खरीदार ही नहीं मिलते . एक ज़माना था जब अक्सर विदेशी राजनयिक ट्रांफर होने पर घर का सारा सामान बेच कर जाते थे जिनकी बाकायदा सेल लगती थी . इम्पोर्टेड सामान के लालच में सारा सामान फटाफट बिक जाता था . एक दो बार हम भी इस तरह की सेल देखने तो गए लेकिन खरीद कुछ नहीं पाए .
लेकिन अभी भी म्यूजिक सिस्टम बचा था जिसे देने का हमारा मन बिल्कुल नहीं था . हमारे लिए यह हमारी संगीत साधना का यंत्र था जिसे हमें असीम प्रेम सा था . लेकिन काफी समय से इस्तेमाल नहीं हो पाया था , इसलिए डिस्युज होकर इसके सारे अस्थि पंजर जाम हो चुके थे . करीब एक महीना यूँ ही पड़ा रहा असमंजस की स्थिति में . सोचा इसे ठीक कराकर इस्तेमाल किया जाए . लेकिन अब तो सुनने की फुर्सत ही कहाँ होती है . खाली समय में टी वी और नेट पर ही समय गुजर जाता है . इस बीच इसकी भी खरीददार मिल गई -- हमारी कामवाली बाई की विवाहित बेटी . एक दिन चुपके से पत्नी ने बुला लिया , तभी हमें पता चला . लेकिन सोचा न था --कभी ऐसे भी मोल भाव करना पड़ेगा . उसे अगले दिन आने के लिए कहकर हमने अपने पुराने मेकेनिक को फोन किया जिसने एक दो बार टी और म्यूजिक सिस्टम की सर्विस की थी . उसने बताया -- सर अब इन्हें कोई नहीं खरीदता . मैंने स्वयं भी १४-१५ सेट कबाड़ी को बेचे हैं ३०० -३०० रूपये में . कोई एक हज़ार दे दे तो गनीमत समझना .
हमने भी अख़बार में आए सभी इस्तेहारों पर फोन कर बेचने की इच्छा ज़ाहिर की लेकिन एक भी जगह से एक भी ग्राहक नहीं आया . गोतिये की यह वॉल केबिनेट जो बड़ी खूबसूरत दिखती थी , अब किसी के काम की नहीं थी . लेकिन हमारा भी खून पसीने का पैसा लगा था , इसलिए हमने भी बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए इसके नट बोल्ट खोले और इसे वन इन टू बना दिया -- साइड के कॉलम्स को खोलकर अलग अलग किया , बीच के पैनल्स अलग किये और बन गए दो खूबसूरत कॉर्नर्स, जिन्हें सजा दिया दो बेडरूम्स में .
२९ इंच का टी वी दे दिया अपनी कामवाली बाई को , एक महीने की पगार के बदले . लगभग मुफ्त में पाकर बाई धन्य हो गई . उसके चेहरे पर झलकती ख़ुशी को देखकर दिल खुश हो गया . और समझ आया -- जो वस्तु आपके लिए बेकार हो चुकी है , वह किसी और की अपार ख़ुशी का माध्यम बन सकती है .
लेकिन अभी भी म्यूजिक सिस्टम बचा था जिसे देने का हमारा मन बिल्कुल नहीं था . हमारे लिए यह हमारी संगीत साधना का यंत्र था जिसे हमें असीम प्रेम सा था . लेकिन काफी समय से इस्तेमाल नहीं हो पाया था , इसलिए डिस्युज होकर इसके सारे अस्थि पंजर जाम हो चुके थे . करीब एक महीना यूँ ही पड़ा रहा असमंजस की स्थिति में . सोचा इसे ठीक कराकर इस्तेमाल किया जाए . लेकिन अब तो सुनने की फुर्सत ही कहाँ होती है . खाली समय में टी वी और नेट पर ही समय गुजर जाता है . इस बीच इसकी भी खरीददार मिल गई -- हमारी कामवाली बाई की विवाहित बेटी . एक दिन चुपके से पत्नी ने बुला लिया , तभी हमें पता चला . लेकिन सोचा न था --कभी ऐसे भी मोल भाव करना पड़ेगा . उसे अगले दिन आने के लिए कहकर हमने अपने पुराने मेकेनिक को फोन किया जिसने एक दो बार टी और म्यूजिक सिस्टम की सर्विस की थी . उसने बताया -- सर अब इन्हें कोई नहीं खरीदता . मैंने स्वयं भी १४-१५ सेट कबाड़ी को बेचे हैं ३०० -३०० रूपये में . कोई एक हज़ार दे दे तो गनीमत समझना .
अब तक हमारा विवेक जाग उठा था . दिल ने कहा -- क्यों मोह माया के जाल में उलझे हो मूर्ख . उठो , जागो -- देखो दुनिया में क्या क्या है , और क्या क्या नहीं है . क्या लेकर आये थे जो साथ लेकर जाओगे . इन बच्चों के चेहरों को देखो -- कितनी आस के साथ आए हैं , जेब में थोड़े से पैसे डालकर -- सिस्टम खरीदने . पैसे का लालच तो यूँ भी कभी नहीं रहा , लेकिन गाढ़ी कमाई के सामान को फेंकना भी मंज़ूर नहीं रहा .
लेकिन यह अवसर कुछ और था . हमारे लिए मृत पड़े सामान से किसी को अपार खुशियाँ मिल सकती थी . बस इसी विचार से हमने निर्णय लिया और बच्चों को बुलाकर सोंप दिया अपना प्यारा म्यूजिक सिस्टम जो कभी हमने बड़े अरमान से खरीदा था -- बिल्कुल मुफ्त . लेकिन देने से पहले उसकी आरती उतारी और यह फोटो खींच लिया यादगार के लिए .
आज खाली पड़ी खिड़की को देखकर एक अजीब सी संतुष्टि महसूस हो रही है . चलो फिर किसी के चेहरे पर मुस्कराहट तो देखने को मिली .
दराल जी अच्छा किया, जिसकी आवश्यकता नहीं उस सामान की भीड क्यों लगानी?
ReplyDeleteमुझे लगता है कि फ़्री में मिली वस्तु की लेने वाले बहुत ही कम ध्यान से रखते है,इसलिये किसी को ऐसी वस्तु निशुल्क देते समय थोडी हिदायत जरुर देनी चाहिए, उम्मीद है कि आपने भी अवश्य ही दी होगी।
इस पोस्ट का शीर्षक देखा तो मुझे लगा कि आज गीता का ज्ञान दिया जायेगा लेकिन यहाँ तो अन्दर का ज्ञान दिखाई दिया।
संदीप जी , पहले शीर्षक में आत्मज्ञान , आत्मदर्शन , आत्मबोध जैसे शब्द लिखने का मन था लेकिन फिर इसे पाठकों पर ही छोड़ दिया -- वे क्या समझते हैं .
Deleteइस वाकये को हमारी दरियादिली न समझा जाए - वास्तव में बहुत सोच समझ कर लिया फैसला था . एक हज़ार से हमें कोई फर्क नहीं पड़ना था लेकिन बेशक उनके लिए यह बहुत बड़ी बात थी .
बाकि तो -- नेकी कर कुए में डाल -- वाली बात ही लागु होती है . :)
नेकी कर कुयें में डाल नहीं भाई- नेकी कर ब्लॉग में डाल!
Deleteकुयें में डली चीजें तो फ़िर मिलती नहीं यहां तो जब मन चाहे लिंक निकाल! :)
गाँव/ कसबे आदि से दिल्ली में आये 'मध्यम वर्ग' की आर्थिक प्रगति का सही वर्णन!
ReplyDeleteसालेक भर पहले मैं भी इसी तरह के पुराने तकनीक की चीजों से ऐसे ही छुटकारा पाया था. परंतु अपग्रेड करने के लिए. तो आपको मैं मुफ़्त, बिनमांगी सलाह भी दूंगा.
ReplyDeleteआपका वर्तमान टीवी फ्लैट स्क्रीन होगा ही. तो यदि आपने एचडी डीटीएच लगवाया है तो ठीक, नहीं तो एचडी डीटीएच लगवाएं, और हो सके तो रेकार्डेबल. हालांकि अभी टाटास्काई एचडी+ में एचडी चैनल कम हैं, परंतु इसमें प्रोग्रामों को रेकॉर्ड कर देखने की सुविधा उन्नत है, तो उसे ही लगवाएं.
आपके एचडी डीटीएच का साउंड आउटपुट 5.1 चैनल होता है. तो इसके लिए आपको एचडीएमआई कैपेबल रिसीवर लेना होगा. इसके लिए मरांज या डेनन का 5.1 वीडियो/ऑडियो रिसीवर ले लें और अपने डीटीएच और फ्लैट पैनल टीवी से क्रमशः ऑप्टिकल केबल व एचडीएमआई केबल से जोड़ें.
और फिर लें टीवी पर गीत संगीत व फ़िल्मों का का अतिरिक्त+ आनंद. एकदम स्टूडियो क्वालिटी में!
पुनश्चः - आखिर क्या लेकर आए हैं और क्या लेकर जाएंगे, इसीलिए इन नवीन सिस्टम पर जरूर खर्च करें :), और अपना अनुभव हमें बताएं.
बहुत नेक सलाह दी है रवि जी . श्रीमती जी की जिद और आपकी सलाह की मदद से ऐसा ही होगा . अभी सेट टॉप बॉक्स DEN का है . लेकिन जल्दी ही टाटा स्काई लेने का विचार है .
Deleteवाह, वाह! तब तो एक कदम और आगे जाकर सलाह दूंगा कि आप जो भी रिसीवर सिस्टम व कम्पेटिबल स्पीकर्स लें उसे THX सर्टिफ़िकेशन वाला लें. असली थियेट्रिकल क्वालिटी का आनंद घर में!
Deleteजीवन में ऐसा ही घटता है . कल जो अति उपयोगी और परम प्रिय होता था आज वह निरुपयोगी और कभी कभी मुफ्त ही दान देने के भावना योग्य हो जाता है .मैंने यहाँ तक महानगरों में माँ बाप को भी इसी श्रेणी में पाया है
ReplyDeleteसही कहा . कन्ज्युमेरिज्म का ज़माना है . आउट डेटेड होने पर औलाद भी नहीं पूछती .
Deleteजब सब दे ही दिया तो पोस्ट पढ़ने का क्या लाभ? हम तो उत्सुकुता में पढ़े जा रहे थे कि दराल साहब कोई ऐसी चीज की घोषणा करने वाले हैं कि यह दुर्लभ वस्तु अभी किसी को नहीं दिया और हम तुरत अपना हाथ उठाते।:(
ReplyDeleteआम मध्यमवर्गीय कबाड़ जुटाने का आदती होता है। सभी चीजें वह पाई-पाई जोड़कर खरीदता है। खरीदते समय और उपयोग के समय की यादों से भी खुद को इतनी आत्मीयता से जोड़ लेता है के वे चीजें निर्जीव होते हुए भी निर्जीव नहीं रहती। उसमें उसका प्राण बसा होता है। धनी हो जाने, घर बड़ा हो जाने के बाद भी वह उन चीजों को सहजता से नहीं त्याग पाता। देता भी है तो वह कोई ऐसा पात्र चुनता है जो उन चीजों का उतने ही प्रेम से इस्तेमाल करे। उतना ही लगाव रखे। पैसा नहीं वस्तु के साथ व्यक्ति का स्नेह बड़ा हो जाता है। यही कारण है कि आपने काम वाली बाई को चुना। कबाड़ से आपको कुछ पैसा हासिल हो जाता मगर आप नहीं बेच पाये। यही वह प्रेम है जो 'यूज एण़्ड थ्रो' संस्कारी नहीं समझ पाते।
:)
Deleteयूज एंड थ्रो कल्चर हमारे देश के लिए नहीं बना पाण्डे जी . यहाँ तो jab तक aam के दाम के साथ गुठलियों , chhilke और डंठल के दम भी न वसूल कर len , तब तक पीछा नहीं छोड़ते .
उपयोगी वस्तुएं फेंकने की बजाय दूसरों के लिए दे देना बहुत बढ़िया है की कम से कम उन वस्तुओं की उपयोगिता तो बनी रहेगी साथ ही अपार आत्मिक प्रसन्नता का अनुभव तो होता ही है ..... आभार
ReplyDeleteऐसे ही किसी एक दिन हम भी पुराने हो जायंगे और मुफ्त में भी कोई लेने वाला न हो शायद ...
ReplyDeleteकम से कम बेजान चीजें किसी काम की तो होती हैं ...
मतलब ये है कि अब उन तमाम चीज़ों का मर्सिहा पढ़ दिया जाय.
ReplyDeleteतकनीक के चढ़ते ग्राफ को देखते हुए सभी इलेक्टोनिक वस्तुओं का यही हाल है. सबसे अच्छा उदहारण है मोबाइल फोन जिसकी उम्र अधिक से अधिक २-३ साल है.
रचनाजी , इसीलिए घर में पुराने मोबाइल्स का ढेर लग गया है . पुराना कोई लेता नहीं , कूड़े में फेंक नहीं सकते , बाई बैक का यहाँ कोई प्रयोजन नहीं है .
Deleteवही तो.............
ReplyDeleteहमारे यहाँ काम करने वाली के के पास भी फ़िज टी.वी.बेड,मेट्रेस,टू-इन वन,गैस चूल्हा,.............सब है(हमारी दुआ से )
वैसे सच्ची कोई चीज़ आज तक हमने बेचीं नहीं...
दिल से टिकी है हमारे पास...(नज़र न लगे बाबा ) can't live without eachother...
:-)
सादर
अनु
अनु जी , कब तक दिल से लगाकर रखें . आखिर एक दिन लगता है -- बहुत हो गया , अब निकल दो .
Deleteअरे सर हम तो "बाई" की बात कर रहे हैं...वो दिल से टिकी है हमारे पास :-)
Deleteओह ! बाई तो हमारी भी बहुत अच्छी है लेकिन यदि हमने ऐसा कहा तो बड़ा कन्फ्यूजन हो जायेगा . :)
Deleteवो रफ़ी को रिप्लेस करके जो गाने गाये थे ,सुनवा सकते हैं क्या ?
ReplyDeleteअली सा , म्यूजिक सिस्टम तो अब रहा नहीं . अब टेप्स के ढेर में से वो टेप ढूंढना है , जिस में हमारी रिकोर्डिंग थी . उम्मीद है , मिल जायेगा -- हमारी भी बड़ी तमन्ना है उसे फिर से सुनने की जो ३०-३२ साल पहले गाए थे . नहीं मिला तो अपने कनाडा वाले दोस्त से ही मंगवाएंगे जिन्हें भेजा था. :)
Deleteउसका इंतज़ार रहेगा :)
Deleteन पुराने दिनों का संगीत रहा,न वे साधन !शुरुआती संगीत का आनंद रेडियो पर ही मिला करता था जो बाद में टेप रिकॉर्डर या म्युज़िक सिस्टम में तब्दील हो गया.
ReplyDelete...अब सारा संगीत छोटे से चिप में समा गया है.
आपने अच्छा किया जो ऐसी अनमोल चीज़ को बिना मोल के ही दे दिया.
जी हाँ!
ReplyDeleteशरीर लेकर आये थे,
जाने पर वो भी यहीं छोड़ जायेंगे।
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~~♥ मित्रतादिवस की शुभकामनाएँ ! ♥~~
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हम भी अपना पुराना सामान बाँट देते हैं, विशेषकर स्थानान्तरण के समय।
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को पढ़कर अपने निर्णयों को बल मिला -स्थानान्तरण हो गया है -कामवाली को कुछ सौपने की लिस्ट आज ही बनाई है -यही हल्का कर जायेगें कुछ बोझ!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया .
Deleteनीरज जी ने कहा था ---
जितना कम सामान रहेगा
उतना सफ़र आसान रहेगा !
जितना भारी बक्सा होगा
उतना तू हैरान रहेगा !!
शुभकामनायें आपको . ट्रांसफर कहाँ हुआ ?
अंतिम पैराग्राफ़ पढकर मन प्रसन्न हुआ! आभार! :)
ReplyDeleteशुक्रिया शर्मा जी .
Deleteसमय के साथ बदलना भी चाहिए और पुरानी चीजों को मुफ्त में दे देना भी ठीक हैं आख़िर आप कुछ देने की हैसियत रखते हैं
ReplyDeleteजो चीज़ें खुद के काम की नहीं उससे यदि दूसरों को खुशी मिलती है तो यह नेक काम कर ही देना चाहिए ...
ReplyDeleteचलो फिर किसी के चेहरे पर मुस्कराहट तो देखने को मिली ,,,,
ReplyDeleteचलिए दूसरों की खुशी के लिए एक नेक काम कर लिया.,,,,
RECENT POST...: जिन्दगी,,,,.
आपने औसत आयु 70 वर्ष कर दी, हम तो 80 की गणना करके खुश थे। अब एकदम से 10 कम हो गए हैं तो सामान भी तेजी से निकालना पड़ेगा। वैसे ये सारी वस्तुएं मुफ्त में ही जाती हैं, आपने तो एक पगार के पैसे ले लिए बहुत बधाई।
ReplyDeleteअजित जी , यह तो बस औसत ही तो है .
Deleteम्यूजिक सिस्टम तो हमने भी फ्री में ही दिया है . :)
डाक्टर साहब,
ReplyDeleteआप अधिक दुखी न हों , यह श्रीमती कंड़पमाल चालीसा लगभग हर घर में इसी श्रद्धा से बांची जाती है !घर के श्रीमान जब अपनी मेहनत की कमाई और जवानी की ख्वाइशों, तमन्नाओं को घर के गेट पर खड़े कबाड़ी के रिक्शे में बेदर्दी से पटका खाते देखता है तो उदास मन से श्रीमती जी को निहारकर पूछ बैठता है ! हे भाग्यवान ! क्या मेरा भी एकदिन यही हश्र होगा , श्रीमती जी बस मंद-मंद मुस्कराकर आँखे तरेर मुह फेर लेती है मानो मन ही मन श्रीमान की दूरदर्शिता की तारीफ़ कर रही हो !
हा हा हा ! यह बात तो दोनों पर लागु होती है . :)
Deleteनेक कार्य किया आपने और दूसरों को सुझाया भी . पुराना टी वी और कंप्यूटर तो दे चुके मगर प्रिंटर , टू - इन -वन , कैसेट्स , फ्रिज स्कूटर ...कबाड़ इकठ्ठा हो गया है , ईमानदारी से कहूं तो मुफ्त देते दिल दुखता है , बहुत मेहनत से बसाया है घर :)
ReplyDeleteलेकिन वाणी जी , इससे पहले की उठाने के पैसे देने पड़ें , बेहतर है पहले ही निकाल दिया जाए . :)
Deleteसबकुछ यहीं रह जाता है ... पर जब तक हैं चलता है सहेजने का क्रम !
ReplyDeleteवैसे मैं भी दे देने की खुशियाँ सहेजती हूँ
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ReplyDeleteJCAugust 07, 2012 11:46 AM
Deleteकोई भी, एक या अनेक, माध्यम हों असली दाता तो यह साढ़े चार अरब वर्षीय वृद्धा, किन्तु अति सुन्दर, पृथ्वी ही है!!! जो हमारे, हरेक प्राणी/ मानव के छोटे से, नगण्य जीवन काल में विभिन्न वस्तु आदि समय समय पर प्रदान करती रहती है!!! और किसी माध्यम से नयी/ पुरानी ले भी लेती है!!!
मतलब तो इस में अंततोगत्वा मिलने से पहले हर हाल में खुश रहने से है!!!
और वर्तमान का सत्य यह भी है की द्वैतवाद के कारण अधिकाँश मानव सही/ गलत के चक्कर में रोते हुवे ही नज़र आते हैं...:(
जी , और अब यही मार्श पर भी तलाश रहे हैं . :)
Deleteदाता तो एक ही है - साकार ब्रह्माण्ड का सार, हमारी पृथ्वी! और, सूर्य से लेकर शनि तक, सोम, मंगल, बुद्ध, गुरु, शुक्र आदि, इसके सहायक...
Deleteकिन्तु ये सब अनुसंधान भी आवश्यक हैं मानव बुद्धि के क्षेत्र के विस्तार के लिए - परम सत्य को पाने हेतु!
ऐसा तो अक्सर होता है डॉ साहेब ..जब चीज़ पुरानी हो जाती है तो हम उसे फेक देते है ...और नयी चीज़ जीवन मैं नयी खुशियाँ लेकर आती है ....
ReplyDeleteदर्शन जी , कई पुरानी चीज़ें ऐसी होती हैं , जिनकी कीमत समय के साथ बढती जाती है . :)
DeleteJCAugust 09, 2012 6:41 AM
ReplyDeleteआपने कहा, " मनुष्य संसार में अकेला आता है -- खाली हाथ, और एक दिन अकेला ही चला जाता है -- खाली हाथ ..."
जब गीता पढ़ी तो दृष्टिकोण बदल गया! तो आभास हुवा कि हम यहाँ आये नहीं हैं - लाये गए हैं!
वो तो विभिन्न आत्माएं, एक ही परमात्मा के विभिन्न अंश है, शून्य से अनंत तक विभिन्न स्तर पर पहुंची हुईं शक्ति रूपा, जो प्रत्येक विभिन्न प्राणी रुपी शरीरों को इस ग्रह पर लेकर आई हैं!!!
और इन में से मानव रुपी शरीर अद्भुत रचना तो है, किसी भी काल विशेष में उच्च स्तर पर पहुंची हुई आत्माएं, किन्तु सर्वोच्च स्तर पर सदैव एक ही आत्मा, परमात्मा, बैठी हुई है अपने निकटतम अन्य आत्माओं के साथ, जैसे शिव के परिवार को कैलाश पर्वत पर बैठे दर्शाते आये हैं प्राचीन ज्ञानी ध्यानी 'हिन्दू', जो इंदु अर्थात चंद्रमा को सर्वोच्च स्थान दे शिव के मस्तक पर दर्शाते आये हैं !!!
जी हाँ , लाए गए हैं -- हमारे कर्मों द्वारा . मोक्ष की प्राप्ति होने के बाद इस आवागमन से छुटकारा मिल जाता है लेकिन उसके लिए बहुत बढ़िया कर्म करने पड़ेंगे .
Delete'महाभारत' की कथा संकेत करती है केवल पांडव बंधुओं में ज्येष्ठ भ्राता युधिस्ठिर, जुवारी किन्तु सत्यवादी, के ही केवल मोक्ष पाने के!!!
Deleteचीज़ नई हो कि पुरानी,देने का भाव महत्वपूर्ण है। थोड़े-बहुत पैसे मिल भी जाते तो उनका कोई हिसाब न रहता। मगर कृतज्ञता का जो भाव लेने वाले में होता है,उसकी तुलना पैसे से भला कैसे हो पाएगी!
ReplyDeleteकिसी के चेहरे पर ख़ुशी देखकर असली ख़ुशी मिलती है .
Deleteयदि वो 'दुश्मन' न हों, तभी...:)
Deleteजे सी जी , ध्यान से देखिएगा -- कोई भी इन्सान खाना खाते समय और सोते समय -- बहुत सीधा , सरल और पाक़ नज़र आता है . फिर दुश्मन किस को माने ?
DeleteJCAugust 10, 2012 12:42 PM
Deleteडॉक्टर साहिब इसी लिए मैंने 'दुश्मन' लिखा!!! एक कहावत कुछ ऐसी है, कि किसी भूखे, सूखे कुत्ते को सड़क से घर ला खाना खिला मोटा कर आप एक जीवन भर के लिए मित्र पा लेते हैं... किन्तु यदि ऐसे ही एक व्यक्ति को ले आ मोटा कर दें तो आपको जोवन भर के लिए एक शत्रु मिल जाता है!!!
अनमोल खुशी प्राप्त करने का सुंदर तरीका
ReplyDeleteदुनिया में आया है तो फूल खिलाये जा ,आंसू किसी के लेके खुशियाँ लुटाये जा ....इलेक्ट्रनिक कबाड़ की तरह हर घर में पहनने के कपडे भी बहुत ज्यादा हैं .यहाँ यू एस में टैग लगाके घर के बाहर रख देतें हैं ,लोग ले जातें हैं ,पुराने खिलौने साइकिलें ,कार सीटें वापस स्टोर पे चली जातीं हैं बिकने पर कुछ पैसा मिल जाता है यहाँ फ्ली मार्किट लगता है जिसमें कपडे लत्ते सब कुछ होता है गराज सेल भी लगती है लोग चाव से खरीदतें हैं सामन का सर्कुलेशन ज़रूरी है .न मालूम गंगा में लोग पैसा क्यों फैंकते हैं ?क्या मुद्रा प्रसार कम करतें हैं ? .कृपया यहाँ भी पधारें -
ReplyDeleteशनिवार, 11 अगस्त 2012
कंधों , बाजू और हाथों की तकलीफों के लिए भी है का -इरो -प्रेक्टिक
दुनिया में आया है तो फूल खिलाये जा ,आंसू किसी के लेके खुशियाँ लुटाये जा ....इलेक्ट्रनिक कबाड़ की तरह हर घर में पहनने के कपडे भी बहुत ज्यादा हैं .यहाँ यू एस में टैग लगाके घर के बाहर रख देतें हैं ,लोग ले जातें हैं ,पुराने खिलौने साइकिलें ,कार सीटें वापस स्टोर पे चली जातीं हैं बिकने पर कुछ पैसा मिल जाता है यहाँ फ्ली मार्किट लगता है जिसमें कपडे लत्ते सब कुछ होता है गराज सेल भी लगती है लोग चाव से खरीदतें हैं सामन का सर्कुलेशन ज़रूरी है .न मालूम गंगा में लोग पैसा क्यों फैंकते हैं ?क्या मुद्रा प्रसार कम करतें हैं ?इस बाबत सरोजनी नगर का सोम बाज़ार भी फेमस है सब कुछ पुराना नया रूप धर बिकता है ... .कृपया यहाँ भी पधारें -
ReplyDeleteशनिवार, 11 अगस्त 2012
कंधों , बाजू और हाथों की तकलीफों के लिए भी है का -इरो -प्रेक्टिक
संगीता आंटी की बात से सहमत हूँ। हालांकी मुझे तो हर पूरानी चीज़ से बेहद लगाव सा हो जाता है। मगर यदि वही पुरानी चीज़ अब मेरे काम नहीं आरही है और यदि दूसरों के काम आसकती है तो उसे दे देने में ही समझदारी है।
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