पुष्प पथ पर चलना सीखो , तभी काटों भरी राह पर चल पाओगे
शहीदों को नमन करना सीखो , तभी अरुणांचल को बचा पाओगे !
एक समय था जब हमारे गाँव में लगभग हर घर से एक लड़का फ़ौज में भर्ती होता था . हमारे ही घर में एक दादा जी , ताऊ जी और कई चाचा आर्मी में रहे . सेना में रहते हमारे ताऊ जी ने बहुत से लड़कों को सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित किया था . स्वयं ताऊ जी ने द्वितीय विश्व युद्ध से लेकर १९७१ पाक युद्ध में हिस्सा लिया था जिस की कहानियां सुनकर हम हमेशा रोमांचित महसूस करते थे .
आज जहाँ एक ओर सरहदों पर एक बार फिर खतरा मंडरा रहा है, वहीँ दूसरी ओर देश के अन्दर भी भ्रष्टाचार रुपी दुश्मन घात लगाये बैठा है जिससे लड़ने के लिए कहीं अन्ना तो कहीं बाबा रामदेव अपने अपने हथियार इस्तेमाल तो कर रहे हैं लेकिन कामयाब नहीं हो रहे हैं . ऐसे में हमारी युवा पीढ़ी की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है . लेकिन यह देखकर अफ़सोस होता है , आजकल की युवा पीढ़ी को सेना में भर्ती होकर देश की सेवा करने में कोई रूचि नहीं दिखाई देती . ऐसे में एक सवाल उठता है -- क्या हमें भी अमेरिका की तरह नौज़वानों के लिए सेना सेवा अनिवार्य कर देनी चाहिए ?
उधर इस बार अन्ना के साथ भी युवा वर्ग कम ही नज़र आया .
क्या भ्रष्टाचार से लड़ने का ज़ज्बा ख़त्म हो गया ?
आज भले ही हमें स्वतंत्र हुए ६५ वर्ष हो गए लेकिन अभी भी देश आंतरिक गुलामियों में जकड़ा पड़ा है . आतंकवाद , भ्रष्टाचार , रिश्वतखोरी , भाई भतीजावाद , बढ़ते अपराध , घटते प्राकृतिक संसाधन , और मानवीय मूल्यों की अवमानना -- ऐसे अनेक दैत्य मूंह बाये खड़े हैं जिनसे निपटना अभी बाकि है .
लेकिन देखने में यही आता है , नई पीढ़ी के युवाओं की सोच इस कद्र स्वकेंद्रित हो चुकी है की उन्हें अपने स्वार्थ के आगे समाज और देश का भला कहीं नज़र ही नहीं आता . सड़कों पर बढ़ते अपराध और लॉलेसनेस इस बात का प्रमाण है . विशेषकर रोड रेज़ हमारी धन सम्पन्नता और असहिष्णुता का मिला जुला परिणाम है . हालाँकि इसमें कानून का ढीलापन भी सहायक सिद्ध होता है .
यदि हमें सचमुच अपने देश से प्रेम है और हम अपनी स्वतंत्रता को बनाये रखना चाहते हैं तो हमारे युवा वर्ग को सोचना होगा , अनुशासित होना होगा और निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर अलगाववादी, आतंकवादी, अवसरवादी और भ्रष्ट ताकतों से जूझना होगा . तभी आन्तरिक व्यवस्था को सुधारा जा सकता है .
वर्ना अपने अपने घरों में बैठे हम सब ६५ वर्ष पूर्व हमारे पूर्वजों के खून से सींच कर उपलब्ध हुई स्वतंत्रता का आनंद तो ले ही रहे हैं .
लेकिन कब तक ?
स्वतंत्रता दिवस की ६५ वीं वर्षगांठ पर सभी मित्रों को बधाई और शुभकामनायें .
संदेश बिल्कुल साफ़ है, आखिर हम कब तक इस स्वतंत्रता को ढ़ो पायेंगे ।
ReplyDeleteस्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ ।
65 वें स्वतंत्रता दिवस की बधाई-शुभकामनायें.
ReplyDeleteआपकी चिंताएं वाजिब हैं .
इस यौमे आज़ादी पर हमने हिंदी पाठकों को फिर से ध्यान दिलाया है.
देखिये-
http://hbfint.blogspot.com/2012/08/65-swtantrta-diwas.html
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं। आपने ठीक ही लिखा है आज का युवा स्वकेंद्रित हो चुका है सही मायनों में खोखला भी कुछ तो इस तरह की बातों का मजाक बनातें है ।
ReplyDeleteआज नहीं तो कल....निकलेगा ही हल !
ReplyDeleteआशावादी होने के साथ कर्म करना भी आवश्यक है .
Deleteअब युवाओं के लिए,सेना में भर्ती भी नौकरी का एक विकल्प बनकर ही रह गया है। देश की रक्षा केवल सेना का दायित्व नहीं है। स्वतंत्रता बेशक़ीमती है। इसे बचाने के लिए हमें अपने भीतर के अन्ना को जगाना होगा। न चेते,तो असली ख़ामियाज़ा ख़ुद को ही भुगतेंगे।
ReplyDeleteसत्य वचन .
Deleteसचमुच ..स्वतंत्रता के लिए त्याग का जज्बा जाता रहा तो यह स्वाधीनता भी हमारी गिरवी हो जायेगी .....
ReplyDeleteJCAugust 15, 2012 10:35 AM
ReplyDeleteबन्दे मातरम!
जो आपने वर्तमान 'भारत' का, विशेषकर युवा वर्ग का, नक्शा खींचा है उसको यदि प्राचीन भारतीयों की दृष्टि से देखा जाए तो 'पश्चिम' (जिसका राजा शनि है) की नक़ल कर और भौतिक विकास शीग्रातिशीघ्र, येन केन प्रकारेण, किसी भी कीमत पर, पाने के इच्छा ही मूल कारण बन गया है हमारे नैतिक पतन का (ये बात दूसरी है कि ज्ञानी लोग, "प्यार किया नहीं जाता/ हो जाता है!", कि तर्ज पर यह भी कह गए कि यह तो काल का, कलियुग का प्रभाव ही है, काल-चक्र की उलटी चाल के कारण नैतिक पतन निश्चित है, और शनै शनै यूँ शनी देवता की कृपा से युगांत होना भी... )... मिटटी के पुतले लाचार हैं...:(
कहावत है, 'खाली हाथ आये हैं और खाली हाथ जाना है' ...
ReplyDeleteकिन्तु इन्ही खाली हाथों में कुछ लकीरें अवश्य ले कर आये हैं सभी - मुख्यतः तीन रेखाएं (ब्रह्मा, विष्णु, और महेश के प्रतिबिम्बों को दर्शाती - सृष्टिकर्ता ब्रह्मा को दर्शाती 'ह्रदय रेखा', पालनहार विष्णु को दर्शाती 'मस्तक रेखा', और संहारकर्ता महेश को दर्शाती 'जीवन रेखा')!!! जो हरेक के धरा रुपी स्टेज ' पर आने और उसके निर्धारित रोल को केवल प्राचीन सिद्ध पुरुष/ हस्त-रेखा शास्त्री ही भली भांति समझते थे... और समय की रेत में ज्ञान लुप्त हो जाए पर भी आज भी कुछेक कुछ हद तक अवश्य समझ सकते हैं...
किन्तु, जैसे आज सभी सरकारें, और वर्तमान बुद्धिजीवी भी निरंतर बढ़ती समस्याओं से जूझने में लाचार प्रतीत हो रहे हैं, उन पर भी विश्वास नहीं किया जा रहा...
एकतरफ वे युवा हैं जो देश हित में कुछ करना नहीं चाहते क्योंकि खुद के हित आड़े आते हैं, वहीँ दुसरी तरफ वे युवा हैं जो जोश में होश खो देते हैं... संयमित और संगठित युवा शक्ति का अभाव और भी अधिक परेशानी का सबब है...
ReplyDeleteआपको भी स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
जय हिंद!
सटीक संदेश देती प्रस्तुति…………स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं !
ReplyDeleteआलेख में बहुत सुंदर सन्देश और सुझाव . विचार करने वालों को यहाँ तक पहुँचाने का अवसर ही नहीं मिलेगा. युवा पीढ़ी भटक रही है - कहीं अपराध, कहीं राजनीति और कहीं कुठित मानसिकता में. इससे और क्या चाह सकते हें हम?
ReplyDeleteरेखा जी , युवाओं के साथ बड़ों को भी सोचना होगा . बड़े भी कम नहीं .
Deleteबलिदानों और खून की होली की पृष्ठभूमि में जो आजादी हमें आज से ६५ साल पहले दिलाई गई थी, उसके लिए मैंने आज २ मिनट का मौन रखा ! और उस मौन के दौरान मैं सोचता रहा कि प्रत्यक्ष गुलाम परोक्ष गुलाम से कहीं बेहतर होता है ! कम से कम वह इस मुगालते में तो नहीं जीता कि वह आजाद है और एक गुलाम की तरह रहकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करता है! मगर एक परोक्ष गुलाम ( एक ऐसा गुलाम जो कहने को तो आजाद है मगर रगों में जिसके गुलामी का ही खून दौड़ता है, मासिकता जिसकी गुलाम है , अपनी स्वार्थ पूर्ति कर्म जिसके सिर्फ चाटुकारिता और तलवे चाटना है) खुद के लिए भी और देश-समाज के लिए भी बहुत घातक होता है ! अपने तुच्छ कर्मों से यह दुषकर्मी क्षणभंगुरता का सुख भले ही भोग ले, लेकिन अपनी आने वाली पीढ़ियों और देश के लिए पूर्ण गुलामी के बीज फिर से बो देता है !
ReplyDeleteआज हम जिस आजादी की बात करते है, उस आजादी की सही मायने में कीमत उसी भारतवासी के लिए थी जिसने प्रत्यक्ष गुलामी देखी थी, जिसने कदम-कदम पर अपनी आँखों से गोरे-काले का भेद देखा था, जिसने तख्तियों पर यह लिखा देखा था कि 'इंडियनस एंड डॉग्स आर नोट एलाउड ' ....... अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि आजादी के बाद पैदा हुए ज्यादातर परोक्ष गुलामों और यहाँ तक कि आजादी के वक्त जो अवयस्क लोग थे , उन्होंने इस आजादी का सिर्फ और सिर्फ दुरुपयोग ही किया ! १५ अगस्त और २६ जनवरी को ये तथाकथित स्वतंत्र परोक्ष गुलाम भले ही बच्चों और युवा पीढी को इस आजादी की लड़ाई के बारे में कसीदे पढ़कर सुनाते हो, इसे हर हाल में बचाए रखने का भय दिखाते हों, मगर सच्चाई यह है कि आज अपने देश में कदम-कदम पर जो गंद हम पाते है, ये इन्ही महानुभाओ द्वारा फैलाई गई गंद है ! ये आज की पीढी को दोष देने में ज़रा भी कोताही नहीं बरतते मगर खुद भूल जाते है कि आजादी मिलने के बाद जो नीवे इन्होने रखी थी, उसी पर तो आज की पीढी देश रूपी नए भवनों का निर्माण कर रही है ! नारायणदत जी इसके ताजा उदाहरण है ! ये आज जो भ्रष्टता और घूसखोरी हमारे बीच मौजूद है, ये इन्ही के बोये बीजों की तो फसल है ! रिटायरमेंट के बाद पार्क में तो अथवा गली नुक्कड़ पर आज भेल ही बड़ी-बड़ी फेंके मगर जब खुद सरकारी कुर्सी पर थे तो एक फ़ाइल पर पेज नत्थी करने में ही महीनो लगा देते थे वह भी सेवा सुसुर्वा के बाद ! और मैं तो कहूंगा कि आज का बचपन और युवा वर्ग तो इनसे लाख समझदार है, अपनी भी सोचता है, और देश की भी ! मेरे दादाजी अंग्रेज फ़ौज में थे, प्रथम विश्व युद्ध उन्होंने ईराक में बसरा के मोर्चे पर लड़ा था, वे जब अपनी पुरानी यादे ताजा करते थे तो बताते थे कि अंग्रेज फ़ौज में जो घोड़े होते थे उन्हें वे एक उम्र के बाद लाइन में खडा करके गोली मार देते थे ! कभी- कभार सोचता हूँ कि मैं भी कोई डिसीजन मेकर होता तो इन तमाम खूसटों जिन्होंने इस देश का आज इस गर्त में पहुचाया और एक परोक्ष गुलामी देशवासियों के गले में डाल दी इनको भी ...............!
खैर, जो मुख्य बात मैं यहाँ आज कहना चाह रहा हूँ वह यह कि आजादी के सही मायने क्या है आज की युवा पीढी हमारे और हमारे इन बुजुर्ग महानुभाव से बेहतर समझती है और सम्हालना जानती है ! अत: मैं समझता हूँ कि उनके समक्ष हर साल यह आजादी के नुक्कड़ नाटक खेलना और उन्हें यह अहसास दिलाना कि उनकी रगों में एक गुलाम का खून दौड़ रहा है, समझदारी नहीं है! अत: वक्त के हिसाब से इसे मनाने का स्वरुप बदला जाना चाहिए !
सही कह रहे हैं गोदियाल जी . जिसने जंग नहीं देखा , उसे उसकी अहमियत पता नहीं हो सकती . आजकल के नेता तो बस दुरूपयोग कर रहे हैं . लेकिन युवा पीढ़ी को भी मार्गदर्शन की आवश्यकता है वर्ना भटकने में देर नहीं लगती . शुभकामनायें आपको .
DeleteJCAugust 15, 2012 7:48 PM
Deleteजो दिख रहा है उसका सही वर्णन गोदियाल जी ने किया - आनंद आया पढ़ कर!!! किन्तु, प्रश्न यह है कि क्या हमारे पूर्वज नहीं कह गए कि कलियुग की प्रकृति क्या होती है??? वो कैसे जान पाए कि मानव का नैतिक पतन निश्चित है??? गीता में कृष्ण को यह कहते भी दिखा गए कि हम शरीर नहीं हैं! हम वास्तव में आत्माएं हैं!!!... आदि आदि...
...हमारे यहां एक दिक़्कत ये भी है कि रिश्वत देना तो कोई नहीं चाहता पर जब मौक़ा मिले रिश्वत लेने में कोई हर्ज नज़र नहीं आता. अलावा इसके, टैक्स कोई नहीं देना चाहता चाहे वह सेल्स टैक्स हो, इन्कम टैक्स हो या कोई दूसरा टैक्स. हमारे यहां ईमानदारी का मतबल है कि केवल दूसरे ही ईमानदार हों...
ReplyDeleteचूंकि आप फौज के लोग अपने खान दान मे देखे हैं इसलिए आज़ादी के महत्व को समझ रहे हैं बाकी लोगों के लिए आज़ादी का मतलब अपने स्वार्थ के लिए देश को लूटना है। जो आज़ादी के आंदोलन के खिलाफ थे वे आज राष्ट्र भक्ति के सर्टिफिकेट बांटने वाले बने बैठे हैं। अन्ना/रामदेव ऐसे लोगों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं लेकिन भेड़- चाल मे पढे लिखे मूर्ख उनके पीछे चल रहे हैं। जब तक घर-परिवार से देश हित की शिक्षा बच्चों को नहीं दी जाएगी सारे प्रवचन व्यर्थ जाएँगे।
ReplyDeleteआपको सपरिवार स्वाधीनता दिवस की मंगलकामनाएं।
आज हमने अपनी सोसायटी में १५ अगस्त को धूम धाम से मनाया . इसमें बच्चों और बड़ों को यही बातें फिर से याद दिलाई गई .
Deleteदादा ताऊ को नमन, चाचाओं परनाम |
ReplyDeleteहै दराल उपनाम प्रति, श्रद्धा भरी तमाम |
श्रद्धा भरी तमाम, आज का युवा भुलक्कड़ |
ताक झाँक में मस्त, खड़ा दिनभर उस नुक्कड़ |
सेना की नौकरी, मात्र नौकरी नहीं है |
पूजा है यह दोस्त, भारती देख रही है |
रविकर जी , आपकी इंस्टेंट कविता रचना एक ग़ज़ब की क़ाबलियत है . आभार .
Deleteकाजल जी , हम तो बस अपनी ही कह सकते हैं -- हम न लेते हैं , न देते हैं , बस सेवा करते हैं . टैक्स भी पूरा भरते हैं . जब हम जैसे गरीब यह कर सकते हैं तो दूसरे क्यों नहीं . :)
ReplyDelete.
ReplyDeleteअपनी आजादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं,
सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं।
भारत माता की जय
वन्देमातरम !
.
सोचने के लिए विवश करती पोस्ट।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteस्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
क्या कहूँ आपकी पोस्ट पढ़कर ....?
ReplyDeleteयही सवाल इस बार मेरे मन में भी कौंधते रहे ..
जब देश आज़ाद हुआ कितना उत्साह था कितना जोश एक आदर्श राष्ट्र की कामना का ...
हर तरफ देश भक्ति के गीत बजते हर घर में झंडा फहराया जाता .बधाइयां दी जाती ....
अब तो आज़ादी का दिन एक औपचारिकता भर है ....
हीर जी , बेशक हालात अच्छे नहीं हैं . लेकिन इस औपचारिकता तो सार्थक बनाना भी हमारे ही हाथ में है .
DeleteJCAugust 16, 2012 10:03 AM
ReplyDeleteडॉक्टर साहिब, सत्य जानना है तो जड़ में जाना होगा, (हरयाणवी अंदाज़ में!) कवि की तरह बाहरी ऊंचाई नापने का प्रयास नहीं ... और इसके लिए आप से मानव शरीर के बारे में आम आदमी की तुलना में सबसे अधिक जानने वाला कौन हो सकता है भला!!!???
आम आदमी भी जानता है की कैसे आप अपने सर दर्द की बात अभी पूरी भी न कर पाओ, दूसरा यह कह कि तेरे सर दर्द से मेरा सर दर्द अधिक है, अपनी राम कहानी सुनाने लगता है!
'स्वतन्त्रता दिवस' भी वर्तमान में आम आदमी की मजबूरी की झलक ही प्रतिबिंबित करता है - क्या सोचा था और क्या पाया...:(
संक्षिप्त में कहें तो, जानने की आवश्यकता है कि हरेक व्यक्ति के मन में विचार आते कहाँ से हैं (जैसे स्वप्न??? क्या ये मस्तिष्क में पहले से ही लिखे हो सकते हैं???...
रिसाव बढ़ता ही जा रहा है।
ReplyDeleteआज के युवा की सोच में बदलाव के लिए उसकी परवरिश पर ध्यान देना होगा, जिसके लिए सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा अत्यंत आवश्यक है...
ReplyDeleteहम 'वर्तमान' भारतीय सभी महसूस करते हैं कि समय के साथ साथ सभी मानवीय व्यवस्थाएं इस प्राचीनतम सभ्यता वाले, पहुंची हुई आत्माएं, योगी-सिद्ध के देश में तुलनात्मक रूप से निरंतर बिगड़ती चली जा रही हैं... किन्तु सभी वर्तमान बुद्धिजीवी चाहते तो हैं कि हम पहले की तरह 'अच्छे' बने रहे, किन्तु अपने को असमर्थ पाते हैं सुझाव देने में कि इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है...:( तभी शायद एक कवि ने कहा, "आदमी चाहे तो क्या होता है/ वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है"!...
ReplyDeleteक्या हमें भी अमेरिका की तरह नौज़वानों के लिए सेना सेवा अनिवार्य कर देनी चाहिए ?
ReplyDeleteदेशप्रेम का जज़्बा जगाने के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण कदम हो सकता है...
हृदय स्पर्शी चिंतन और आलेख के लिए सादर साधुवाद स्वीकारें सर...
सादर बधाइयाँ/आभार।
मिश्र जी , आपने पोस्ट में सबसे महत्त्वपूर्ण पंक्ति को पकड़ा है . बधाई और आभार .
Deleteबेशक ऐसा ही किया जाना चाहिए ...
ReplyDeleteबल्कि चुनावी टिकट मांगने वाले नेताओं के लिए कम से कम पाच वर्ष ग्रामसभा के सदस्य के रूप में कार्य करना था परिवार से कम से कम एक सदस्य को सेना में भरती होना अनिवार्य होना चाहिए !
संयमित और संगठित युवा शक्ति का अभाव और भी अधिक परेशानी का सबब है...
ReplyDeleteआपको भी स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
विचारणीय आलेख जय हिंद!
I read this paragraph completely regarding the comparison of
ReplyDeletelatest and earlier technologies, it's amazing article.
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