समय , साधन और शौक के साथ स्वास्थ्य भी :
पहाड़ों पर जाने से पहले अपना शारीरिक मुआयना ज़रूर कर लेना चाहिए . यदि आप हृदय रोग से पीड़ित हैं , या बी पी हाई रहता है , या दमा है, या फिर मोटापे से ग्रस्त हैं तो आपको सावधान रहना पड़ेगा .
क्योंकि भले ही आप गाड़ी से जाएँ लेकिन पहाड़ों के ऊंचे नीचे रास्तों पर तो पैदल ही चलना पड़ेगा . और यदि आप स्टर्लिंग रिजौर्ट्स जैसे किसी बड़े होटल / रिजॉर्ट में ठहरे तो समझिये आ गई शामत .
यहाँ ठहरने वाले सभी मेहमानों को कम से कम १०० सीढ़ियों से रोजाना बार बार ऊपर नीचे होना पड़ेगा . ज़ाहिर है , यहाँ सभी की साँस फूलती नज़र आती है . कूदते फांदते यदि कोई नज़र आते हैं तो वो यहाँ के कर्मचारी ही हैं जो बिना किसी दिक्कत के सीढियां
चढ़ते उतरते नज़र आयें
गे .
ऐसे में सलाह यही दी जाती है की पहाड़ों पर जाने से पहले कम से कम १५ दिन पहले से सुबह सैर पर जाना शुरू कर दें . तभी स्टेमिना बन सकता है और आप पहाड़ों पर पैदल चलने का आनंद ले सकते हैं .
रिजॉर्ट के गेट से निकलते ही बायीं ओर जाती यह सड़क करीब दो किलोमीटर तक जाती है जिसके एक तरफ पहाड़ है , दूसरी ओर घाटी है जिसमे कई बोर्डिंग स्कूल बने हैं . जब बाकि लोग रात की मदिरा की खुमारी में बेहोश खर्राटे भरते, हम सुबह उठकर यहाँ पैदल सैर को निकल जाते . कहीं धूप , कहीं छाँव की आँख मिचौली में वादियों को निहारते हुए विचरने में स्वर्गिक आनंद का अनुभव होता . गेट के दायीं ओर से आने वाली सड़क लाइब्रेरी चौक से आती है . इस सड़क पर शाम के समय एक डेढ़ किलोमीटर टहलना भी बड़ा आनंददायक रहता है .
अंजान से जान पहचान :
रिजॉर्ट के सामने जो पहाड़ है , उस की चोटी पर बना है राधा भवन जो इस इस्टेट के मालिक का खँडहर हुआ आलिशान बंगला है . रिजॉर्ट से यहाँ तक ट्रेकिंग का इंतजाम किया जाता है . लेकिन हमें तो वैसे भी घुमक्कड़ी का शौक है , इसलिए एक सुबह स्वयं ही निकल पड़े अनजानी राहों पर . रास्ते में एक वृद्ध कुर्ता पायजामा पहने खड़े होकर कसरत कर रहे थे. जब उनसे रास्ता पूछा तो बोले --मैं भी बाहर से ही हूँ . परिचय का आदान प्रदान होने पर उन्होंने पूछा -आप क्या करते हैं ? मैंने कहा --बस यूँ ही छोटा सा जॉब करता हूँ . इस पर वो बोले --लगता तो नहीं है .
अब इसके बाद जो विचारों का आदान प्रदान हुआ तो उनके घर जाकर चाय बिस्कुट आदि के साथ ही समाप्त हुआ. घर भी रिजॉर्ट के बिल्कुल साथ ही था जो उन्होंने ग्रीष्म निवास के रूप में हाल ही में खरीदा था . पता चला वो देहरादून में चकराता रोड पर एक बोर्डिंग स्कूल चलाते हैं , जिसके वे चेयरमेन हैं . उन्हें देखकर हमें भी यही लगा --लगता तो नहीं है .
ट्रेक करते हुए रास्ते में एक और मुसाफिर नज़र आया तो हमने उसका फायदा उठाते हुए एक फोटो खिंचवा लिया .
कहते हैं चालीस की उम्र के बाद पति पत्नी --भाई बहन जैसे नज़र आने लगते हैं .
हम तो यही कहेंगे --नज़र जो भी आयें , व्यवहार तो पति पत्नी जैसा ही होना चाहिए .
राधा भवन :
एक पहाड़ की चोटी पर समतल स्थान पर बना यह विशाल बंगला अब खँडहर बन चुका है . लेकिन यहाँ से मसूरी और आस पास के क्षेत्रों का ३६० डिग्री बड़ा मनोरम दृश्य नज़र आता है . इस बंगले में आगे की ओर दो बड़े हॉल हैं जो बैठक यानि ड्राइंग रूम रहे होंगे . पीछे एक लॉबी और कई बेडरूम थे जो अब टूट चुके हैं . नीचे की मंजिल में अनेक छोटे कमरे हैं जो शायद नौकरों के लिए रहे होंगे .
यहाँ के केयरटेकर ने बताया --इसे कभी एक काबुल के सेठ ने बनवाया था . अंग्रेजों ने इस पर कब्ज़ा कर लिया . फिर किसी सेठ ने इसे खरीद लिया .उसकी संतानें निकम्मी निकली . इसलिए अब इसकी कोई देख रेख नहीं हो पा रही . करीब ९० एकड़ में फैला यह एस्टेट आज २०० करोड़ रूपये का है .
तिब्बती बाज़ार :
२८ साल पहले भी यहाँ तिब्बतियों की अनेक दुकानें सजती थी जिन पर इम्पोर्टेड सामान मिलता था . दुकानों पर अक्सर १८-२० साल की युवा लड़कियां ही बैठती थी , मां के साथ. मर्द लोग बहुदा नदारद रहते.
अब भी इन दुकानों पर वैसा ही नज़ारा था . अब भी वहां वैसी ही युवा लड़कियां बैठी थीं . फर्क बस इतना था -- पहले जो युवा लड़की थी , अब वो मां थी और अब जो लड़की है वो उस लड़की की बेटी है .
हालाँकि , मर्द अब भी बहुत कम ही नज़र आये . लेकिन अब इन दुकानों पर स्थानीय लोग भी दुकानदारी में शामिल थे .
पर्यावरण :
समर्थता और सम्पन्नता के साथ साथ अब मिडिल क्लास आदमी भी पर्यटन पर पैसा खर्च करने की स्थिति में आ गया है . लेकिन इस बढ़ते ट्रैफिक का खामियाज़ा निश्चित ही पर्वतों और वातावरण को भुगतना पड़ रहा है . नंगे होते पहाड़ अब शीतल वायु की लहर प्रदान नहीं करते . यही वज़ह है की अब यहाँ भी कमरों में पंखे चलने लगे हैं . एक अपार्टमेन्ट की छत पर रखे दो ऐ सी देख कर दिल धक् से रह गया .
इस तस्वीर को देख कर लगता है --पर्यावरण विभाग तो अपना काम बखूबी कर रहा है . भूस्खलन से नंगे हुए पहाड़ पर फिर से पेड़ लगाकर हरियाली लाने का प्रयत्न सफल होता नज़र आ रहा है .
लेकिन क्या हम सभ्य, सुशिक्षित आधुनिक मानव अपना काम सही से कर रहे हैं ?
जगह जगह कूड़े के ढेर देखकर ऐसा तो नहीं लगता . बिना सोचे , बेदर्दी से हम पानी की बोतल , चिप्स के पेकेट , प्लास्टिक की थैलियाँ ऐसे फैंक देते हैं जैसे हमें पर्यावरण से हमें कोई लेना देना नहीं . यदि ऐसे ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब ताज़ा ठंडी हवा खाने के लिए पहाड़ों पर नहीं, घर में ही अपने कमरे में कैद रहकर ऐ सी की बासी हवा खाते रहना पड़ेगा .
प्रकृति का आनंद लेना है तो उसके साथ जुड़ कर पर्यावरण को बचाना होगा। अन्यथा सारी दुनिया सेठ की उस हवेली की तरह नजर आएगी जिसकी संतानों के निकम्मेपन के कारण आज वह उजड़ कर खंडहर में तब्दील हो चुकी है।
ReplyDeleteबहुत सही हिसाब लगाया ललित भाई . हर एक को विचार करने की ज़रुरत है .
Deleteएक समय था जब देहारादून में भी गर्मी नहीं पड़ती थी लेकिन अब तो वहाँ की गर्मी भी बस यहाँ से 19 ही होगी ....
ReplyDeleteमंसूरी की बढ़िया सैर आभार
प्रस्तुति बेहद रोचक थी डा० साहब , और चित्रकथा के चित्र मनमोहक, आप एक अच्छे फोटोग्राफर भी है , किन्तु यहाँ तस्वीर में आपकी पोज पसंद नहीं आई! खुद ही कहा आपने कि व्यवहार पति-पत्नी जैसा ही करना चाहिए तो डाक्टर साहब ये बताइये कि यदि आप भाभीजी को अपनी बाई तरफ रखते और जो हाथ आपने जींस की जेब में डाला है उसे भाभी जी के कंधे पर रखते तो क्या वह शख्स आपकी फोटो लेने से मना कर देता ? :) :)
ReplyDeleteवो वाली फोटू भी होगी.. :)
Deleteअरे गोदियाल जी , ये विचार तो आया ही नहीं . यानि हम भी अनाड़ी ही निकले .
Deleteपाण्डे जी , बस यही वाली है . :)
बहुत बढ़िया यात्रा विवरण साथ ही पहाड़ों पर चढ़ाई करने के पहले आवश्यक सावधानियों के बारे में अग्रिम बढ़िया जानकारी दी है ... फोटो बर्हद अच्छे लगे...आभार
ReplyDeletesundar aur manmohak yatra vratant !
ReplyDeleteपहाड़ हमसे नाराज रहते होंगे(:
ReplyDeleteफर्क बस इतना था -- पहले जो युवा लड़की थी , अब वो मां थी और अब जो लड़की है वो उस लड़की की बेटी है..
ReplyDelete....कमाल की याददाश्त! कमाल की नज़र!! मान गये आपको।:)
पाण्डे जी , वे सभी एक जैसे ही दिखते हैं . यकीन ने आता हो तो एक बार हो कर आइये . :)
Delete:) एक जैसे दिखते हैं यह तो हम भी जानते हैं। आपके दावे से हैरान थे।:)
Deleteप्रकृति का आनद और स्वस्थ का स्वस्थ ...
ReplyDeleteऔर ४० साल वाली बात ... शक्ल तो नहीं मिल रही मुझे किसी भी एंगल से ...
शुक्र है !
Deleteनासवा जी , एंगल तो एक ही दिखाया है . :)
मैदान की इस बेहद गर्मी में बस आपकी इन पोस्ट का ही सहारा है !:)
ReplyDeleteअरविन्द जी , आपसे पर्यावरण पर टीका टिपण्णी की उम्मीद थी . :)
Deleteबहुत बढ़िया वर्णन..........आनंद आया पढ़ने में.....
ReplyDeleteऔर http://tdaral.blogspot.in/2012/06/blog-post_20.html और http://tdaral.blogspot.in/2012/06/blog-post_15.html
जाकर बाकी तस्वीरे भी देख लीं....
:-)
सादर
जिस दिन हमें पर्यावरण को बचाने का सिविक सेन्स आ जायेगा उस दिन भारत से अच्छा और कोई पर्यटक आकर्षण नहीं होगा.
ReplyDeleteरोचक विवरण दिया आपने वाकई किसी किसी को देखकर ऐसा ही लगता है कि "लगता तो नहीं" :)
सही कहा शिखा जी .
Deleteडॉक्टर साहिब, आपका पहाड़ों आदि का सचित्र वर्णन आनंद प्रदान करता है... और साथ साथ हमको बचपन के स्कूल के दिनों में अन्य मित्रों के विचार याद कर हंसी भी आ जाती है, जैसे एक दोस्त ने, जिसने पहाड़ नहीं देखे थे किन्तु भूगोल के मानचित्रों में त्रिकोण नुमा पहाड़ अवश्य बनाए थे, एक बारी शंका प्रगट की कि हम रात को चारपाई पर कैसे सो सकते थे क्यूंकि वे तो फिसल कर नीचे पहुँच जाती होंगीं!!!???
ReplyDeleteऔर यह भी सत्य है कि वो दिन शायद अधिक दूर नहीं है जब बिगड़ता, अथवा मानव द्वारा स्वयं बिगाड़ा जाता, पर्यावरण मानव जाती को ही अचानक लुप्त ही न करदे जैसे एक दिन डायनासौर भी लुप्त हो गए थे!!!???
JCJune 21, 2012 5:37 PM
ReplyDeleteडॉक्टर साहिब, आपका पहाड़ों आदि का सचित्र वर्णन आनंद प्रदान करता है... और साथ साथ हमको बचपन के स्कूल के दिनों में अन्य मित्रों के विचार याद कर हंसी भी आ जाती है, जैसे एक दोस्त ने, जिसने पहाड़ नहीं देखे थे किन्तु भूगोल के मानचित्रों में त्रिकोण नुमा पहाड़ अवश्य बनाए थे, एक बारी शंका प्रगट की कि हम रात को चारपाई पर कैसे सो सकते थे क्यूंकि वे तो फिसल कर नीचे पहुँच जाती होंगीं!!!???
और यह भी सत्य है कि वो दिन शायद अधिक दूर नहीं है जब बिगड़ता, अथवा मानव द्वारा स्वयं बिगाड़ा जाता, पर्यावरण मानव जाती को ही अचानक लुप्त ही न करदे जैसे एक दिन डायनासौर भी लुप्त हो गए थे!!!???
जे सी जी , हमें भी स्कूल में पहाड़ों के चित्र बनाना बड़ा दिलचस्प और आसान लगता था. शायद तभी से पहाड़ अच्छे लगने लगे .
Deleteहमारे दोनों बच्चे पर्यावरण के प्रति बहुत जागरूक हैं .उनकी वज़ह से हमें भी आदत पड़ गई है लिट्रिंग न करने की . यह उनके स्कूल की शिक्षा का कमाल है .
आज कुछ नयी बात जानने को मिली जिसका इन्तेज़ार था कि कुछ नयी बात ढूंढ कर जरूर लायेंगे आप. पर्यावरण के प्रति चिंता जायज है जिसके लिये ज्यादातर हम ही जिम्मेदार हैं. तापमान पहाड़ों पर भी बढ़ रहा है परन्तु ऐ सी वाली बात से ऐसा जरुर लगता है कि कहीं पहाड़ों पर पर्यटन गर्मी के दिनों में अपना अस्तित्व ही ना खो दे. आप घुमक्कड़ी जारी रखें और हम सब से शेयर करते रहें. आभार..
ReplyDeleteरचना जी , मौसम तो फिर खुशगवार ही रहता है पहाड़ों में . बदलाव को रोकना शायद संभव नहीं . फिर भी कोशिश तो जारी रहनी चाहिए जैसे सरकारी विभाग ने पेड़ लगाकर की .
Deleteनई बातें अभी और भी हैं . :)
पहाड़ हरे होते काश..
ReplyDelete@ चालीस की उम्र के बाद पति पत्नी --भाई बहन जैसे नज़र आने लगते हैं ...
ReplyDeleteआज ध्यान से देखा तो हंसी आ गयी ...
आभार हंसाने के लिए भाई जी !
:)
Delete...अब यह भी आफत है.....पहाड़ों पर जाने से पहले पंद्रह दिन तक टहलना भी पड़ेगा :-)
ReplyDelete'उस' आदमी से मुलाक़ात बढ़िया रही !
सुंदर चित्रों के साथ जानकारी आभार
ReplyDeleteतस्वीरे कब की है बताया ही नहीं ? कुछ अलग सा जरुर है
ReplyDeleteतस्वीरें तो अभी की हैं , दो सप्ताह पहले की .
Deleteइस बार तो ऐसी मजबूरी रही कि पहाड़ों की तरफ जाने का कार्यक्रम धरा का धरा ही रह गया है..। अब बारिश का समय शुरु हो रहा है सो जाना होगा नहीं....हां ठंड में ठिठुरने जरुरन जाएंगे बस भगवान ऐसी मजबूरी वाली मशरुफियत में न फंसा दे....।
ReplyDeleteअधिकतर छोटे धार्मिक स्थलों पर पहले ही से गंदगी फैली है। देश में शायद ही अब कोई नदी हो,जिसके पानी पर हमारे आडम्बरों का असर न पड़ा हो। पर्यटन-स्थल ही काफी हद तक बचे थे। धीरे-धीरे वे भी अपना आकर्षण खो देंगे। यह पूरे प्रकरण से हम समझ सकते हैं कि भविष्य के प्रति हमारी दृष्टि कितनी क्षीण है और यह भी कि हमारी आध्यात्मिक परम्परा किस क़दर छीज रही है।
ReplyDeleteराधारमण जी , आकर्षण तो बना रहेगा लेकिन यहाँ और वहां में अंतर कम होता जा रहा है .
DeleteJCJune 22, 2012 11:11 AM
Deleteअपनी ही एक अन्य स्थान पर दी गयी टिप्पणी यहाँ भी दी जा सकती है, दर्शाने हेतु कि हमारे ज्ञानी-ध्यानी पूर्वज अपने मस्तिष्क का सही उपयोग कर कैसे इस बोझ प्रतीत होते मानव जीवन का आनंद अनुभव कर पाए हो सकते हैं तपस्या/ साधना आदि द्वारा:-
सबसे हल्का बोझ तो मांस का बना मस्तिष्क रुपी सुपर कंप्यूटर है जो हर व्यक्ति अपने सर पर लिए जन्म भर घूमता है - 'हिन्दू' (शिव के माथे पर इंदु)
हो तो 'कपाल-क्रिया' हो जाने तक!!!
किन्तु अफ़सोस यह है कि प्रभु ने इस के साथ डिलीवरी के समय कोई पुस्तिका नहीं दी, जैसी मानव द्वारा निर्मित हर मशीन के साथ मिलती है! नहीं तो हर व्यक्ति बिन खाए-पिए जीवन व्यतीत करता; एक स्थान से दूसरे स्थान पलक झपकते ही बिना किसी वाहन के पहुँच जाता; पानी पर चलता,' इत्यादि इत्यादि...:)
और दूसरी ओर "हरी अनंत/ हरी कथा अनंता..." के कारण गुरु लोग इतने पुराण, कथा कहानियां छोड़ गए कि समस्त जीवन पढ़ते पढ़ते ही बीत जाता है और समय आ जाता है प्रस्थान का - और परिक्षा में फेल हो गए विद्यार्थी समान अनंत काल-चक्र में पुनर्जन्म, अर्थात उसी कक्षा में वापसी :(
ख़ूबसूरत चित्रों के साथ ..बहुत सुन्दर सैर करवाई...
ReplyDeleteचालीस की उम्र के बाद पति पत्नी-भाई बहन जैसे नज़र आने लगते हैं ...तो साठ के बाद पत्नी,,,,,,ये तो आपने बताया ही नही,,,
ReplyDeleteMY RECENT POST:...काव्यान्जलि ...: यह स्वर्ण पंछी था कभी...
साथ के बाद आप सठिया और पत्नी -- सेठानी ! :)
Deleteआपके इस खूबसूरत पोस्ट का एक कतरा हमने सहेज लिया है आज के ब्लॉग बुलेटिन के लिए , आप देखना चाहें तो इस लिंक को क्लिक कर सकते हैं
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सूचनार्थ
सैलानी की कलम से
पर्यटन पर उम्दा ब्लॉग को फ़ालो करें एवं पाएं नयी जानकारी
♥ आपके ब्लॉग़ की चर्चा ब्लॉग4वार्ता पर ! ♥
♥ पेसल वार्ता - सहरा को समंदर कहना ♥
♥रथयात्रा की शुभकामनाएं♥
ब्लॉ.ललित शर्मा
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जनसंक्या की मार है,
ReplyDeleteगर्मी अपार है...
"कहते हैं चालीस की उम्र के बाद पति पत्नी --भाई बहन जैसे नज़र आने लगते हैं ." हा हा हा हा हा.. डॉ. साहेब यह तो 101 % सही है पर क्या करे ? अब वो हनीमून वाला साहस कहाँ से लाए????
ReplyDeleteजब हम 32 साल पहले (1980 ) हनीमून पर शिमला गए थे ..(वह मेरी पहली पहाड़ी यात्रा थी) तो कपडे सुखाने के लिए जैसे ही मेरा हाथ स्विच बोर्ड पर गया तो मुझे आश्चर्य हुआ था की वहां पंखा था ही नहीं .?.मैने मिस्टर से पूछा ---अरे यहाँ तो पंखा है ही नहीं ? तब उन्होंने कहा था की पहाड़ो पर कोई क्यों पंखा लगवाएगा यहाँ ठंडी कितनी है ? पर जब मैं दोबारा (1996 ) शिमला गई तो मैने वहा पंखें देखे ? अब आप कह रहे है की AC लगे है तो आश्चर्य होता है की और कितनी गर्मी पहाड़ो पर होगी की हमारा मन पहाड़ो पर जाने का होगा ही नहीं ?
दर्शन जी , उम्मीद तो रखनी चाहिए . आखिर पर्वत ( हिमालय ) देश का मस्तक हैं . आगे जिम्मेदारी हमारी है .
Deleteबढ़िया यात्रा विवरण....
ReplyDeleteजाने कब आयेगा हम भारतवासियों को यह पर्यावरण बचाने का सिविक सेंस...सच ही कह रहे हैं आप यदि हाल रहा तो घर और बाहर मेन कोई फेर्क ही कहाँ रह जाएगा सभी जगह एक नकली पैन एक बनावट ही आनी है फिर चाहे वो हवा पानी ही क्यूँ न हो।
ReplyDeleteहाँ उनके बीच से हिंसा भी पूरी तरह चुक जाती है .एक दूसरे की तमाम सीमाओं और संभावनाओं का बोध हो जाता है .समझ हो जाती है परस्पर केमिस्ट्री की .
ReplyDeleteकहते हैं चालीस की उम्र के बाद पति पत्नी --भाई बहन जैसे नज़र आने लगते हैं .
ReplyDeleteहम तो यही कहेंगे --नज़र जो भी आयें , व्यवहार तो पति पत्नी जैसा ही होना चाहिए .
हाँ उनके बीच से हिंसा भी पूरी तरह चुक जाती है .एक दूसरे की तमाम सीमाओं और संभावनाओं का बोध हो जाता है .समझ हो जाती है परस्पर केमिस्ट्री की .
प्लास्टिक और मिटटी का तेल तो हमने गो -मुख तक पहुंचा दिया है .मसूरी भी रोयेगी एक दिन पानी की कमी से जूझेगी शिमला की तरह .
चालीस की उम्र के बाद पति पत्नी --भाई बहन जैसे नज़र आने लगते हैं .
ReplyDeleteऔर फिर तुर्रा ये कि कपड़े भी आप दोनों ने एक जैसे पहन रखे हैं.
बहुत सुन्दर पोस्ट पर्यावरणीय चिंता के साथ
पर्यावरण के प्रदूषण ने पहाड़ों की सुन्दरता को बहुत अघात पहुँचाया है ...जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की नहीं , सहमत !
ReplyDeleteअच्छी तस्वीर !
JCJune 23, 2012 7:15 AM
ReplyDeleteहमारे माता-पिता के टाइम (१९२० के दशक) में मान्यता थी कि नदी में गंद जाए तो नदी का जल उसे स्वयं साफ़ कर लेता है (और पर्यावरण बदल भी जाए, किन्तु धारणाएं पत्थर कि लकीर समान अमित रहती हैं)... और जनसंख्या के बारे में कहा जाता था, "जितने अधिक, उतना आनंद"!
स्वतंत्र भारत में, '६० के दशक तक कहावत हो गयी 'दो या तीन, बस"! किन्तु, '७० के ही दशक तक, "हम दो हमारे दो" हो गया! आदि, आदि...
कुछ 'पढ़े-लिखों' ने अपनाया, और कुछ अनपढ़ों ने किन्तु बिलकुल नहीं... नतीजा सबके सामने है कि जन संख्या छः दशक में ही चार गुनी से अधिक हो गयी और दूसरी ओर उपलब्ध भूमि बढ़ी नहीं, अपितु 'भौतिक विकास' की उत्तरोत्तर बढ़ती मांग के कारण तुलनात्मक रूप से भूमि का क्षेत्रफल सिकुड़ सा गया है... काका हाथरसी को भी सुना था साठ के दशक में एक कविता में अनुमान लगाते कि आदमी, आदमी पर सोयेगा! जो सारे देश की वर्तमान में समस्या है, और दिल्ली एन सी आर में बहु मंजिली इमारतों के जाल के रूप में सामने है! भले ही पीने का पानी सब को मिले या न मिले!... यमुना तो सबको पता है कैसे गंदे नाले समान हो गयी है और तो और 'राम की गंगा तक मैली हो ही गयी'... और कहावत भी है, "बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी?"... "जब रोम जल रहा था तो नेरो वायोलिन बजा रहा था"... कहावत आज 'भारत' पर भी लागू समझी जा सकती है???!!! शीघ्र कैलाश पर्वत पर शिव जी का परिवार भी एसी की मांग करेगा शायद...:)
पता नहीं क्या समाधान है इस समस्या का !
DeleteJCJune 23, 2012 5:41 PM
Deleteयदि हम अपने पूर्वजों की बातें लाइन के बीच पढ़ समझने का प्रयास करें तो, सोचने वाली बात यह है कि हमारा, अर्थात पशु जगत के शीर्ष पर उत्पत्ति कर पहुंचे ब्रह्माण्ड (अनंत शून्य)/ साकार पृथ्वी (गंगाधर शिव) के मॉडल, मानव शरीर को नौ ग्रहों (सूर्य से शनि तक) के सार से बना माना जाता आया है... जिनमें से शनि ग्रह का सार, (जो शक्ति को मस्तिष्क से ह्रदय और नीचे मूलाधार तक और वापिस मस्तिष्क तक ले जाता है), नर्वस सिस्टम बनाने में उपयोग लाया गया है... अर्थात यह दस में से दो दिशाओं से संबंधित है... जबकि धरा पर किसी एक बिंदु पर आठ दिशाओं में से हरेक का नियंत्रण एक एक ग्रह (सूर्य से बृहस्पति तक) के सार के पास है... जिसमें से सूर्य के सार को पेट पर (सोलर प्लेक्सस पर), मंगल के सार का मूलाधार पर और चन्द्र के सार को मस्तिष्क पर, उसे सर्वोच्च स्थान देते हुवे माना गया (और जिसे शिव के माथे पर दिखाया जाता आ रहा है... इसी प्रकार हर आठ ग्रहों के सार को स्पाइनल कॉलम, मेरुदंड पर अलग अलग स्तर पर आठ बिन्दुओं, 'चक्र' पर (किसी एक चक्र समान दिखाई देती गैलेक्सी के केंद्र में संचित सुपर गुरुत्वाकर्षण शक्ति समान संचित) दिखाया जाता आ राह है आदि काल से...
समस्या का हल इस प्रकार अमृत शिव/ बहुरुपिया कृष्ण के पास है, किन्तु आप ही सोचिये वो क्यों कुछ करें जब मानव उन्हें पूछता ही नहीं - सभी अपने को उन से अधिक ज्ञानी मानते हैं ??? ...
पुनश्च - यद्यपि सिद्धों ने आम आदमी के लिए सांकेतिक भाषा का प्रयोग किया गया, हमारी सूचना के लिए प्राचीन कहानी में 'चतुर्मुखी ब्रह्मा का, 'पांचवा और कटा' सर, अर्थात आकाश में सूर्य, की उत्पत्ति विष्णु, अर्थात नादबिन्दू, आरम्भ में पृथ्वी के केंद्र में संचित गुरुत्वाकर्षण शक्ति से हुई माना जाता है और इसे संशोधित पृथ्वी में पिघली हुई चट्टान आदि द्वारा बने लावा समझा जा सकता है, और उन को विष्णु की नाभि से उपजे कमल के फूल पर बैठे दर्शाया जाता.आता है... (हमारे प्राचीन, किन्तु अधिक ज्ञानी, खगोलशास्त्रियों/ सिद्धों द्वारा.पृथ्वी को ब्रह्माण्ड का केंद्र अनादि काल से माना जाता आया है) किन्तु अन्य ग्रहों को जो सूर्य की विभिन्न कक्षा में परिक्रमा करते दीखते हैं, किन्तु विष्णु के कान से उत्पन्न होते राक्षस दर्शाया!... और, सौर-मंडल में ब्रह्मा-विष्णु-महेश (साकार सूर्य और पृथ्वी अर्थात गंगाधर शिव) को परम ब्रह्मा, ॐ द्वारा प्रदर्शित ध्वनि ऊर्जा को, ३-डी साकार सृष्टि का सार माना जाता आया है)...
Deleteआपके हर पोस्ट का एक अलग ही आनंद है ,जहाँ ज्ञान संग एक सन्देश सदा बहता मिलता है मैं तो दुबकी लगा ही लेता हूँ ...
ReplyDeleteपहाड़ की सैर कराते-कराते आप बहुत बढ़िया सन्देश भी दे गये। दोनो बातों से मन प्रसन्न हो गया।
ReplyDeleteकाश वहाँ की ट्रैफिक बढ़ाने वाला मध्यम वर्ग पर्यावरण के प्रति रचनात्मक दृष्टिकोण लेकर पहुँचता।
सही कहा त्रिपाठी जी . पर्यावरण को ख़राब करने वाले हम ही हैं जो मज़े तो उड़ाना चाहते हैं लेकिन अपनी जिम्मेदारी निभाना नहीं .
Deleteबेहतरीन...इस बार एक दो माह मॆं सैन फ्रांसिस्को चले आईये...आनन्द आ जायेगा...
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