जीवन के ३६ वर्ष गुजर जाने पर जब अपने अतीत की याद आई तो लगा कि बच्चों को भी इसका अहसास होना चाहिए कि हम किस दौर से निकल कर इस मुकाम तक पहुंचे हैं जहाँ वो संसार की सभी सुख सुविधाओं का लाभ उठा पा रहे हैं । लेकिन बच्चे अब बच्चे नहीं रहे , बड़े हो चुके हैं , अपने पैरों पर खड़े होने के संघर्ष में जुटे हैं । अत: पत्नी को ही मनाया अपने पुराने घर के दर्शन करने के लिए । वो घर जहाँ रहते हुए हमने प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करते हुए , मेडिकल कॉलेज में प्रवेश प्राप्त किया । और इस तरह हमारे भावी जीवन की सुदृढ़ नींव रखी गई ।
पहली किस्त में आपने पढ़ा कि बच्चे हमें कमरे में बिठाकर पापा को बुलाने चले गए । करीब ५ मिनट के इस इंतजार में हमने ३६ साल पहले की पूरी जिंदगी फास्ट फॉरवर्ड में जी ली । हम श्रीमती जी को बताते जा रहे थे घर की एक एक दीवार के बारे में , और उन लम्हों के बारे में जिसे आप दूसरी किस्त में पढ़ चुके हैं । और श्रीमती जी अत्यंत भावुक होकर अश्रु धारा बहाए जा रही थी । अतीत की यादों से जिनसे उनका पहली बार सामना हुआ था , वातावरण अत्यंत भावुक हो गया था । हमारी भी पलकों के किसी कोने में अश्क का एक कतरा फंसा स्वतंत्र होने को छटपटा रहा था जिसे बड़ी मुश्किल से हम कैद किए हुए थे ।
समय के साथ काफी सुधार हुआ था । फर्श पर अब ग्लेज्ड टाइल्स लगी थीं । आँगन भी पक्का बना हुआ था । लेकिन वह खिड़की अभी भी वैसी की वैसी थी । इसी खिड़की से बाहर झांकते हुए पूरी जिंदगी रिवाइंड हो रही थी कि तभी ध्यान भंग हुआ --- मकान मालिक के प्रवेश के साथ ।
जी नमस्कार ।
नमस्कार जी , आइये आइये । क्या शुभ नाम जी आपका ?
जी गोपाल । थोडा आश्चर्यचकित होकर उन्होंने बताया ।
कहाँ काम करते हैं ?
जी डी आर डी ओ में ।
यहाँ कब से रह रहे हैं ?
जी यही कोई ३-४ साल से । अब उनकी उत्सुकता और हैरानी काफी बढ़ गई थी ।
हमें पहचानते हैं ? नहीं पहचानते होंगे । कभी मिले ही नहीं । फिर हमने अपना परिचय देते हुए बताया कि हम दोनों डॉक्टर हैं , ये हमारा नाम है और यहाँ काम करते हैं । अब तक गोपाल जी की उत्सुकता चरम सीमा पर पहुँच चकी थी ।
हमने भी अब रहस्य से पर्दा उठाते हुए कहा --गोपाल जी , ३६ साल पहले हम इसी मकान में रहते थे । आज यही हम अपनी श्रीमती जी को दिखाने के लिए लेकर आए हैं ।
यह सुनकर उनके चेहरे पर जो भाव आए उन्हें देख कर हमें वो दिन याद आ गया जब एक दिन सवेरे सवेरे दिल्ली के भूतपूर्व मुख्य मंत्री स्वर्गीय साहब सिंह वर्मा जी का फोन आया और उन्होंने कहा -मैं साहब सिंह वर्मा बोल रहा हूँ । उस समय जो थ्रिल हमें महसूस हुई थी , ठीक वैसी ही गोपाल जी के चेहरे पर देखकर हमें भी अति प्रसन्नता हुई ।
बहुत देर तक हम सब मिलकर ठहाका लगाते रहे । कभी आसूं पोंछते , कभी सर्दी में भी आया पसीना जो उत्तेजनावश आ गया था । इस बीच बच्चों ने चाय बना ली । ३६ साल बाद उस कमरे में मेहमान की तरह बैठकर चाय पीना एक अद्भुत अनुभव था जिसका शब्दों में वर्णन करना शायद संभव नहीं ।
हमने सरकारी स्कूल में पढ़कर यहीं से अपनी जिंदगी की एक अच्छी शुरुआत की थी । बच्चों से पूछा तो पता चला कि वो एक एडेड स्कूल में पढ़ते थे । ज़ाहिर है , अब सरकारी कॉलोनी में रहने वाले बच्चे भी सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ते । हमें हमेशा अपने बड़ों से आशीर्वाद मिलता था , जिंदगी में सफल होने के लिए । जाने क्यों , दिल भर आया और हमने भी एक बुजुर्ग की भूमिका निभाते हुए दोनों बच्चों को दिल से आशीर्वाद दिया ।
दिल ने फिर एक तमन्ना की कि फिर कोई बच्चा इस घर से डॉक्टर या इंजीनियर बनकर निकले ।
अंत में हमने अपनी सांस्कृतिक परम्परा का निर्वाह करते हुए बच्ची के सर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया और १०१ रूपये भेंट कर अपना कर्तव्य निभाया । गोपला जी ने भी भाव विभोर होते हुए अपने ऑफिस की एक सुन्दर डायरी उपहार स्वरुप हमें भेंट की ।
और इस तरह पूर्ण हुआ हमारा सामयिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण एक ऐतिहासिक मिलन , मकान नंबर ३४५ से ।
हम भी साझीदार हुए आपके इस यादों के लाईव कमेंट्री से ...
ReplyDelete:) बहुत सुन्दर रही गाथा # 347!
ReplyDeleteपता नहीं क्यूँ मगर इमारतों से भी लगाव होता ही है................
ReplyDeleteप्यारी सी पोस्ट...........
its good to see a man so emotional....
:-)
regards
anu
अनु जी , पहले नहीं थे . लेकिन अब थोड़े हो गए हैं . शायद कविताई का असर है . :)
Deleteवह घर हमेशा आपकी यादों में रहेगा....
ReplyDeleteअच्छा किया कि आप वहाँ हो आये,एक कवि के दिल से पूँछे तो आप से अधिक खुशी उस घर को मिली होगी !यह संवेदनशीलता ही हमें अच्छा आदमी बनाती है !
शुभकामनायें आपको !
सही कहा सतीश जी . हमसे ज्यादा ख़ुशी उन महाशय को हुई हमें वहां पाकर .
Deleteभावभीनी मुलाकात के साथ आपकी यादें और खुशनुमा हुई होंगी !
ReplyDeleteसुन्दर संस्मरण संख्या ३४५ के!
ReplyDeleteभले ही वो ईंट-पत्थर से बना हो, हर इमारत की आत्मा/ आत्माएं होती है, जो अधिकतर अच्छी/ परोपकारी ही होती हैं... किन्तु फिर भी कुछेक इमारतें बुरे अनुभव/ अनुभूति के आधार पर भुतहा कहलाई जाती हैं (दिल्ली में भी कुछेक सरकारी हैं जिनमें 'नेता' रहना पसंद नहीं करते) ...
पश्चिम में, कभी एक प्राचीन कालीन उन्नत सभ्यता वाले देश, मिश्र में हजारों साल से कई एक अद्भुत इमारत, 'पिरामिड', आज भी सैलानियों और वैज्ञानिकों को आकर्षित करती है... जिसके नाम से ही पता चल सकता है कि उस के भीतर (amid) 'अग्नि' (pyre) अर्थात ऊर्जा का होना प्राकृतिक है... और प्राचीनतम भारतीय सभ्यता के उन्नत काल में भी चलन था मंदिर के उपरी भाग में अधिकतर नगाड़े के आकार के 'विमान' बनाए जाने का, जिसके नाम से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि शायद इसका मानव शरीर में विभिन्न स्तर पर विद्यमान आत्माओं को और ऊपर, संभव हो तो शीर्ष तक, उठाने का उद्देश्य था...
...जब रहने गए थे तब तो वह था मकान नंबर ३४५ पर अब उसकी पहचान एक घर के रूप में हो गई जिसमें रहने वाली की आत्मा बस्ती है.बहुत याद आते हैं ऐसे ठिकाने,जहाँ हमारे कई सपने हकीकत बने.
ReplyDelete....गोपालजी को जो सुखद अनुव्भव हुआ होगा,वह अवर्णनीय है.
....साहिब सिंह वर्मा जी भले आदमी थे.मैं भी उनसे मिल चुका हूँ,फोटो भी याद के रूप में है !
मैं अपने चेहरे के भावों को लिख नहीं सकती ... बस अपने उस घर को याद कर रही हूँ , जहाँ हम सुबह सुबह पापा के कमरे में होते ... आज भी उस घर की खुशबू आँखों से फैलती है ...
ReplyDeleteरश्मि जी , समय दीवारों को भी मिटा देता है . लेकिन यदि यही दीवारें मौजूद रहें तो वहां जाकर पुराने पलों को महसूस किया जा सकता है . बस कुछ ऐसा ही हुआ हमारे साथ .
Deleteदिल से दिया आशीर्वाद बच्ची को लग जाए,,, और डॉक्टर या इंजीनियर बनकर आपकी तमन्ना पूरी हो जाए,,,,सुखद अवर्णनीय यादे ,,,
ReplyDeleteMY RESENT POST,,,,,काव्यान्जलि ...: स्वागत गीत,,,,,
आप को ,उस घर को और उसमे रहने वालों को हमारी भी
ReplyDeleteशुभकामनाएँ!
यादों के झरोखे से मकान नंबर ३४५ एक बेहतरीन भाव चित्र बन चुका है .
ReplyDeleteडा० साहब, कन्क्लूजन में यही कहूंगा कि सम्पूर्ण प्रस्तुति रोचक थी !
ReplyDeleteआपसे पुन: मिलकर उस घर को भी कुछ गुमां हो आया होगा. बहुत सुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा लगा आपकी यादों का यह सफर नामा...आपको महसूस हुई एक-अनुभूति पढ़ने में ऐसी लग रही थी मानो आँखों के सामने कोई चलचित्र सा चल रहा हो। बहुत सुंदर वर्णन...
ReplyDeleteस्मृतियों का सुन्दर निर्झर झरर झरर बहता जाये।
ReplyDeleteवो घर वो गली वो चौबारा ... सभी कुछ यादों के झरोखे में सबसे आगे रहता है जहां जीवन के सबसे मधुर क्षण बीते होते हैं ...
ReplyDeleteआपका ये सफरनामा बहुत ही कमाल का रहा ... दस्तावेज़ हैं ये आपकी आने वाली पीढ़ी के लिए ...
नासवा जी , बच्चे शायद इसकी अहमियत न समझ पायें . लेकिन हमारे लिए ये पल बड़े उत्तेजक थे .
Deleteसंयोग से??? ३+४+५ = १२ = ३ (ॐ)... नमः शिवाय! पंचाक्षरी मन्त्र कहलाता है जो दर्शाता है किसी भी, भले ही अस्थायी ही क्यूँ न हों, हर साकार रूप के लिए जो पञ्च तत्व, अथवा पञ्च भूत आवश्यक हैं और जिनका योग आत्मा से विभिन्न काल अर्थात समय के लिए हुवा माना जाता आया है 'भारत' में - सम्पूर्ण अनंत ब्रह्माण्ड में कहीं भी...:)
ReplyDeleteइस संयोग के लिए शुक्रिया जे सी जी .
Deleteकुछ बातें समझ से बाहर ही रहें तो भी अच्छा लगता है .
डॉक्टर दराल जी, यह भी मानव जीवन का सत्य है कि जब आनंद दायक घटनाएं होती हैं, और सब लगभग ठीक ही चल रहा होता है, 'उंच-नीच' अधिक नहीं होती है, तो अज्ञान ही सही लगता है... किन्तु जब दुखदायी घटनाएं किसी के साथ होने लगाती हैं/ देर तक होती रहती हैं, तब ही आदमी परेशान हो उन से छुटकारा पाने के लिए उपाय खोजता है (और कभी कभी 'झोला छाप', बाबा आदि, आदि द्वारा भी ठगा जाता है) / जीवन की विविधता के सार अर्थात सत्व/ सत्य को जानने का प्रयास करता है...
Deleteतीनो किश्त पढकर अच्छा लगा .. पुरानी यादों की बाते ही निराली .. उससे भेंट हो जाए तो क्या कहना ?
ReplyDeleteJCJune 07, 2012 7:29 AM
ReplyDeleteअब यदि उदाहरण के लिए वर्तमान भारत की विभिन्न व्यवस्था आदि पर ही दृष्टिपात करें, अर्थात नज़र डालें, तो पायेंगे कि टीवी पर ('महाभारत' के एक अंधे पात्र, कुरुराज, धृतराष्ट्र के पुत्र समान) १०० चैनल होते हुए भी आज चारों और प्रश्न ही प्रश्न हैं उत्तर किसी के पास नहीं... मानव विबिन्न 'धर्म' आदि में बुरी तरह उलझ गया लगता है, और दूसरी ओर राजनीतिज्ञं 'सेकुलर'/ 'सर्व धर्म सम भाव' कह किसी तरह गाडी चला रहे हैं... जो किन्तु समय के साथ रसातल की ओर ही जाती प्रतीत हो रही है... गीता में योगिराज कृष्ण के माध्यम से अज्ञान को ही सब गलतियों का मूल कारण बताया गया है... ओर 'प्राचीन हिन्दू' मानव को पुतला दर्शा गए, जो नवग्रह के सार से बना है!!! सीट अर्थात 'मूलाधार' में जिसके मंगल ग्रह का सार ओर मस्तक अर्थात सहस्रार पर चंद्रमा का सार दर्शाया जाता है... ओर इनके बीच अन्य छह ग्रहों का भी...
आज शोर है योजना भवन में ३५ लाख रुपये के मूत्रालय बनाने पर, जो किसी ज्ञानी योगी की (योगेश्वर विष्णु / शिव/ 'कृष्ण की?) दृष्टि से देखें तो संकेत हैं मंगल ग्रह, अर्थात सत युग के विघ्नहर्ता गणेश की या त्रेतायुग के संकट मोचन हनुमान की ओर ध्यानाकर्षित करने के प्रयास की ओर... ओर गणपति / हनुमान के मंदिर में भीड़ बढ़ती जा रही है (अभी मोदी की यात्रा भी जहां से शक्तिपीठ दिल्ली में आरम्भ होने की तैय्यारी हो रही है) - किन्तु शायद केवल परम्परा को निभाते अज्ञानी हिन्दुओं की, जो शिव के माथे में इंदु तो दिखाते आते हैं किन्तु अधिकतर उस का अर्थ नहीं जानते...:(...
और इस तरह सम्पूर्ण हुआ----एक बचपन का बिता हुआ कल ! एक सुखद जवानी का पल !
ReplyDeleteसर, आप लिखते भी बहुत अच्छा हैं. ☺
ReplyDeleteयानि और भी कुछ गुण हैं हम में ! :)
Deleteसमझ सकती हूँ आपके मनोभावों को क्योंकि खुद उन अहसासों से गुजरी हूँ।
ReplyDeleteडॉक्टर साहब, बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति. मैं अपने पुराने शहर भोपाल में कुछ दिनों के ठहरी तो खुद को रोक नहीं पायी अपने पुराने घर के सामने से गुज़रने से. हालांकि वो किराए का घर था लेकिन इतनी भावनाएं जुड़ी थीं उसके साथ कि बेसाख्ता रो पड़ी. काश मैं भी आपकी तरह ही कोशिश कर पाती.
ReplyDeleteमृदुलिका
मृदुलिका जी , और भी कई अवसर आयेंगे बीते वक्त के साथ मिलने के लिए .
Deleteलेखन में इतनी सशक्तता की हर पल सजीव हो उठा ... उत्कृष्ट लेखन के लिए आभार
ReplyDeleteआपकी यादें पढ़ कर सरकारी कालोनियों में बिताए बचपन के दिन लौट आए। आपकी भावनाओं से अपने को जुड़ा हुआ पाया। क्यों बार-बार उड़ कर हम उस पुराने पेड़ पर लौटना चाहते हैं जहाँ कभी हमारा घोंसला था? एक बार, ऐसे ही एक पुराने पेड़ की और लौटा तो देखा सरकार अब उस कालोनी को गिरा कर समतल कर चुकी थी। दिमाग की हर नर्व कहती है क्या फर्क पड़ता है पर दिल कुछ और ही कहता है। डा॰ साहब, हम इस भावना को बायोलॉजिली कैसे समझें?
ReplyDeleteगुप्ता जी , समय के साथ सब कुछ धूमिल हो जाता है , यादें भी . लेकिन यदि गुजरे वक्त में झाँकने का अवसर मिले तो हाथ से नहीं जाने देना चाहिए .
Deleteअब सरकारी कॉलोनी में रहने वाले बच्चे भी सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ते
ReplyDeleteसामजिक सरोकार युक्त संस्मरण
JCJune 07, 2012 11:09 PM
ReplyDeleteजहां तक अपने को पता चला है, मस्तिष्क से ही सभी अंगों को (नर्वस सिस्टम के माध्यम से, जिस पर नियंत्रण शनि का होता है) निर्देश जाते हैं... और उनसे उत्तर भी प्राप्त होते हैं... जिसके आधार पर विभिन्न अंगों को, यदि आवश्यक हो तो, गलती सुधार हेतु, ह्रदय आदि मुख्य अंगों को, समय समय पर फिर दिशा निर्देश जाते हैं... और यदि कोई रुकावट न हो तो सुधार संभव रहता है...
प्राचीन हिन्दुओं के अनुसार मस्तिष्क, अर्थात सहस्रार चक्र पर पार्वती/ चन्द्रमा का नियंत्रण होता है, जबकि तीसरे नेत्र / मानस पटल पर पृथ्वी अर्थात शिव का, गले में शुक्र का, और सीट अर्थात मूलाधार पर मंगल ग्रह/ पार्वती पुत्र श्री गणेश का - जिसके पास आठों चक्रों में से शक्ति/ सूचना का सबसे बड़ा अंश भंडारित रहता है, किन्तु ताले में बंद जैसा जकड़ा हुवा, जिसे कुण्डलिनी जागरण द्वारा पाने से ही व्यक्ति विशेष की बुद्धिमता और क्षमता के अधिक होने का अनुभव हो पाता है - जैसा हनुमान/ गणेश, (मंगल के मोडल), में माना जाता है...
जीवन का चक्र इसी तरह निरंतर चलता रहता है. भावपूर्ण और सजीव प्रस्तुति.
ReplyDeleteडॉ साहब कुछ लोग अपने अतीत को पुराने वस्त्रों ,फटे हुए जूतों और भोगे निचोड़े शहर की तरह भूल जातें हैं .जिन्हें वो दिन याद रहतें हैं वह इंसान बने रहतें हैं .विनम्र और भरोसे मंद भी .
ReplyDeleteयुवावस्था मानो इस मिलन के बाद ही एक फुल सर्कल को प्राप्त हुई। यह पूरा प्रसंग इतना जीवन्त था कि मुझे अपने बिछड़े स्थानों का भी सहसा ध्यान हो आया।
ReplyDeleteजिस दिन यह पोस्ट आई थी,उसी दिन मैंने इस पर टिप्पणी की थी। आज कई दिनों बाद लौटा हूं,तो वह नदारद है।
ReplyDeleteराधारमण जी , मैं भी कल शाम को ही दिल्ली लौटा हूँ . इसलिए एक सप्ताह नेट से दूर रहा .
ReplyDeleteJCJune 13, 2012 8:46 AM
ReplyDeleteयोगी-सिद्ध आदि के अनुसार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का ज्ञान उसके प्रतिरूप, मानव शरीर में, केवल आठ चक्रों में उपलब्ध होता है, जो मूलाधार से सहस्रार अर्थात सीट से सर तक मेरुदंड अर्थात स्पाइनल कोलम में अवस्थित हैं, और नर्वस सिस्टम के माध्यम से नीचे अथवा ऊपर जाता रहता है... अर्थात उन आठ बिन्दुओं में बनता हुवा, जिसमें से काल-चक्र के आरम्भ में, सतयुग में, सारा मस्तिष्क में ही होता है... किन्तु, काल के साथ साथ मस्तिष्क में घटता जाता है और मूलाधार में बढ़ता जाता है (वैसे ही जैसे काल-चक्र के निर्माता महाकाल शिव के तथाकथित वाद्य-यंत्र डमरू के आकार में बने आवर ग्लास में आरम्भ में उपरी भाग रेत से पूरा भरा होता है, और एक घंटे में वो सारा खाली हो जाता था/ है - जब काल को मापने हेतु उसे तुरंत उलट यही प्रक्रिया दोहरानी पड़ती थी)...
इस का सत्यापन सा करते हुए कम से कम वर्तमान वैज्ञानिक, जीव शास्त्री, भी शरीर में 'बौडी क्लॉक' का होना, और मस्तिष्क को मानव द्वारा रचित आम डिजिटल की तुलना में एक मांस से बने सुपर ऐनालोजिकल कंप्यूटर समान पाते हैं!!!... किन्तु, दूसरी ओर, आज 'सबसे बुद्धिमान व्यक्ति' को भी मस्तिष्क में उपलब्ध अरबों सेल में से केवल नगण्य का ही उपयोग कर पाना संभव जान पाए हैं!!! जबकि प्राचीन सिद्धों ने इसे काल से सम्बंधित डिज़ाइन माना! जिसके अनुसार सतयुग के आरम्भ में १००% क्षमता और कलियुग के अंत में शून्य तक घट जाना माना गया है...
ReplyDeleteऔर वर्तमान को कलियुग माना जाता है जिसमें क्षमता आरम्भ में २५% और अंत में, अर्थात कलियुग की आयु ४,३२, ००० वर्ष पश्चात, ०%!!! जिस कारण यदि आज सभी क्षेत्र में अधिकतर बड़े नालायक से दिख रहे हैं, किन्तु बच्चे छोटी सी आयु में तुलनात्मक रूप से अधिक ज्ञानी, तो इसका अर्थ 'घोर कलियुग' का संभवतः होना कहा जा सकता है... जैसे संकेत समान दीये की बत्ती बुझाने से पहले तेज़ हो जाती है???
पुराने घर की ताज़ा यादें .... तीनों पोस्ट एक साथ ही पढ़ीं .... बहुत सुंदर संस्मरण .... घर भी आपको देख शायद भावुक हुआ होगा ....पर हम तो बस पत्थर को पत्थर ही समझते हैं उसके एहसास कैसे समझें ?
ReplyDeleteकमाल का लेख लिखा है आपने सर मुझे मेरा बचपन याद आ गया
ReplyDeleteहिन्दी दुनिया ब्लॉग (नया ब्लॉग)