दिल्ली से करीब पौने तीन सौ और देहरादून से २५ किलोमीटर की लगातार चढ़ाई के बाद आती है क्वीन ऑफ़ हिल्स ( पर्वतों की रानी ) मसूरी. यहाँ पहली बार १९८४ में आना हुआ था शादी के बाद जिसे पहला हनीमून भी कह सकते हैं . वैसे तो इन २८ वर्षों के बाद भी मसूरी वैसी की वैसी है लेकिन वातावरण में बहुत परिवर्तन आ गया है . जहाँ पहले गर्मियों में भी लोग रंग बिरंगे स्वेटर्स पहने नज़र आते थे, अब सभी कम से कम कपड़ों में दिखाई देते हैं . यह परिवर्तन बदलते वातावरण के साथ साथ बदलती जीवन शैली के कारण भी है.पहले हिल स्टेशन पर भी लोग बन ठन कर थ्री पीस सूट पहन कर घूमते थे. अब लड़कियां भी हाफ पेंट्स में नज़र आती हैं .
एक छोर पर पिक्चर पैलेस और दूसरे छोर पर लाइब्रेरी चौक के बीच करीब दो किलोमीटर लम्बी माल रोड यहाँ का मुख्य आकर्षण है . आधे से ज्यादा रास्ते पर बड़ी बड़ी दुकाने और शोरूम शाम के समय बिजली की रौशनी में मसूरी की खूबसूरती में चार चाँद लगाते हैं . सैलानियों से भरी माल रोड पर घूमकर ही आनंद आ जाता है . भारत में और किसी हिल स्टेशन पर ऐसा नज़ारा देखने को नहीं मिलेगा जब सुहानी धूप में चलते अचानक बादलों की सफ़ेद चादर आकर आपको लपेट लेती है और लगता है जैसे मौसम बहुत ख़राब हो गया है लेकिन फिर थोड़ी ही देर में सब बिल्कुल साफ . इसीलिए मसूरी को पर्वतों की रानी कहा जाता है .
पहली बार जब यहाँ आये तो एक होटल में १५ रूपये में कमरा मिला था . अब उसी होटल में वही कमरा २५०० में मिल रहा था . लेकिन अब हमारे पास थी स्टर्लिंग रिजोर्ट्स की बुकिंग जो लाइब्रेरी चौक से ढाई किलोमीटर की दूरी पर पाइन हिल पर बना है . पहली बार यहाँ १९९७ में आये थे . तब वहां तक जाने वाली पतली सी सड़क टूटी फूटी सी थी और घाटी की तरफ कोई रेलिंग न होने से ड्राईव करने में बड़ा डर लगा था . लेकिन अब सारी सड़क पक्की बनी है और पूरे रास्ते रेलिंग लगे होने से ड्राईव करना भी सुरक्षित हो गया है .
घर की शानदार बालकनी से घाटी और दूर देहरादून नज़र आता है . दायीं ओर के पहाड़ को देखकर बड़ा भ्रम हो रहा था की इस पर बनी यह जिग जैग सड़क कहाँ जाती है . कोई घर भी नहीं दिखा . या फिर ये पहाड़ी खेत हैं ? बहुत देर तक सोचने पर समझ आया की वास्तव में यहाँ कभी भूस्खलन हुआ था . अब पर्यावरण विभाग ने यहाँ फिर से पेड़ लगाकर इसे हरा भरा बनाने का प्रयास किया है . जिग जैग सड़क दरअसल एक पगडण्डी थी जिस के साथ पेड़ लगाये गए थे . यानि मसूरी का पर्यावरण विभाग तो अपने काम में मुस्तैद है . बस हम दिल्ली वाले ही बुद्धि का इस्तमाल नहीं करते और जहाँ अवसर मिला प्लास्टिक की थैलियाँ फैंक देते हैं .
पहली बार मसूरी आने वालों के लिए यहाँ के मुख्य आकर्षण हैं :
कैमल बैक रोड
इस दर्शक दीर्घा में बैठकर चाय की चुस्की लेते हुए पहाड़ों की चोटियों को निहारने हुए घंटों गुजर सकते हैं लेकिन फिर भी दिल नहीं भरेगा .
यहाँ पैदल चलना ही एक मेडिटेशन जैसा लगता है .
इस तस्वीर को ध्यान से देखिये , इस सड़क को कैमल बैक रोड क्यों कहते हैं , यह अपने आप समझ आ जायेगा .
* केम्पटी फाल -- शहर से १०-११ किलोमीटर दूर जहाँ तक गाड़ी से ही जाया जा सकता है . ऊँचाई से गिरता झरना खूबसूरत तो लगता है लेकिन यहाँ होने वाले ट्रैफिक जाम और झरने में नहाते मोटे पेट वाले लोगों को देखकर मूड रोमांटिक तो नहीं रह सकता .
* लाल टिब्बा --- यहाँ का सबसे ऊंचा पॉइंट जहाँ से चारों ओर का नज़ारा देखा जा सकता है यदि मौसम साफ हो तो जो कभी नहीं होता . यहाँ गाड़ी और पैदल दोनों तरह से जाया जा सकता है.
* धनोल्टी -- मसूरी से २८ किलोमीटर दूर एक सुनसान पिकनिक स्पॉट होता था लेकिन अब वहां ढेरों होटल बन गए हैं . यहाँ का मुख्य आकर्षण है सुरखंडा देवी का मंदिर जिसके लिए घने जंगल से एक किलोमीटर ट्रेक कर ही पहुंचा जा सकता है . हालाँकि यहाँ भी बहुत भीड़ होती है लेकिन वापसी पर फ्री के लंगर में हलवा पूरी खाकर बड़ा आनंद आएगा .
इन सब जगहों पर कई बार जा चुके हैं इसलिए इस बार जाने का मूड नहीं था . लेकिन हमें तो प्रकृति से प्यार है इसलिए ऐसी जगह जहाँ से प्रकृति के समीप महसूस किया जा सके , हम जाना नहीं छोड़ते .
कैमल बैक रोड
मसूरी के उत्तर की ओर ढाई किलोमीटर लम्बी यह समतल सड़क पहाड़ के साथ साथ चलती है और घाटी के मनोरम दृश्यों के दर्शन कराती है .
इस दर्शक दीर्घा में बैठकर चाय की चुस्की लेते हुए पहाड़ों की चोटियों को निहारने हुए घंटों गुजर सकते हैं लेकिन फिर भी दिल नहीं भरेगा .
यहाँ पैदल चलना ही एक मेडिटेशन जैसा लगता है .
इस तस्वीर को ध्यान से देखिये , इस सड़क को कैमल बैक रोड क्यों कहते हैं , यह अपने आप समझ आ जायेगा .
लेकिन यह जादू सिर्फ एक पॉइंट से ही नज़र आता है .
गनहिल : एक और पहाड़ की चोटी जहाँ से चारों ओर नज़र आता है . लेकिन यहाँ भी मौसम साफ होने पर ही जाने का फायदा है वर्ना बस पिकनिक बन कर रह जाता है . यहाँ जाने के लिए हम जैसे शौक़ीन तो पैदल मार्ग की खड़ी चढ़ाई कर लेते हैं लेकिन जिनके घुटने हल्के और जेब भारी होती है , वे यहाँ ट्रॉली द्वारा ही जाते हैं .
मसूरी से तीन किलोमीटर दूर है कंपनी गार्डन. हरा भरा यह बाग़ अब एक बढ़िया फैमिली पिनिक स्पॉट बन गया है .
बाग की शोभा बढ़ा रहा था यह फव्वारा .
यहाँ बना यह कृत्रिम झरना पर्यटकों को बहुत लुभा रहा था .
अंत में यह कृत्रिम झील बच्चों और बड़ों सभी के लिए सुन्दर आकर्षण थी जिसमे सभी तरह की रंग बिरंगी बोट्स में बोटिंग का आनंद लिया जा सकता है .
गनहिल : एक और पहाड़ की चोटी जहाँ से चारों ओर नज़र आता है . लेकिन यहाँ भी मौसम साफ होने पर ही जाने का फायदा है वर्ना बस पिकनिक बन कर रह जाता है . यहाँ जाने के लिए हम जैसे शौक़ीन तो पैदल मार्ग की खड़ी चढ़ाई कर लेते हैं लेकिन जिनके घुटने हल्के और जेब भारी होती है , वे यहाँ ट्रॉली द्वारा ही जाते हैं .
मसूरी से तीन किलोमीटर दूर है कंपनी गार्डन. हरा भरा यह बाग़ अब एक बढ़िया फैमिली पिनिक स्पॉट बन गया है .
बाग की शोभा बढ़ा रहा था यह फव्वारा .
यहाँ बना यह कृत्रिम झरना पर्यटकों को बहुत लुभा रहा था .
अंत में यह कृत्रिम झील बच्चों और बड़ों सभी के लिए सुन्दर आकर्षण थी जिसमे सभी तरह की रंग बिरंगी बोट्स में बोटिंग का आनंद लिया जा सकता है .
अब यहाँ एक फ़ूड कोर्ट भी खुल गया है जिसमे सेल्फ सर्विस के साथ अच्छा खाना उचित दाम पर मिल रहा था .
ये थी मसूरी की कुछ आम बातें . अगली और अंतिम किस्त में पढियेगा कुछ खास और दिलचस्प बातें जिनका हमें भी पहली बार अनुभव हुआ .
रानी का खिताब तो बना रहेगा, हम प्रजाजनों ने ही उसका मान नहीं रखा..
ReplyDeleteमसूरी-भ्रमण का आनंद आप ले पाए,भाग्यशाली हैं.प्रकृति के नजदीक जितना समय गुजर जाए,बहुमूल्य है.
ReplyDelete...पिछले हफ्ते एक मौका था मुझे भी मसूरी जाने का पर जा नहीं पाया.
...तीस साल की टीस कम से कम अब निकल तो गई !!
संतोष जी , कोशिश करते हैं अगले वर्ष एक ब्लॉगर मिलन मसूरी में ही किया जाये . :)
Deleteइसे कहते हैं जले पर नमक छिड़कना। हम यहाँ आतप में तप रहे हैं आप हमें ललचिया रहे हैं।:) सुंदर तश्वीरें तो हैं ही लेकिन का करें..! अभी जा सकते नहीं। (:
ReplyDelete..जानमारू पोस्ट।:)
पाण्डे जी , कहते हैं कांटे को कांटा ही निकालता है . इसलिए एक झलक यहाँ ( http://tdaral.blogspot.in/2012/06/blog-post_15.html)भी देखें , शायद दर्द कुछ कम हो जाये . :)
Deleteदेख लिया..दर्द बढ़ गया।:)
Deleteओह ! यानि नुस्खा नकली निकला ! :)
Deleteमसूरी की सैर दिल्ली में बैठे वैठे करनी है तो तस्वीरों से ही सुकून करना पड़ेगा. सुंदर तस्वीरें मसूरी की यादें ताज़ा कर गयी. मसूरी मैं भी इतनी बार गयी हूँ पर हर बार आनन्द आता है.
ReplyDeleteइसीलिये तो कहा गया है पर्वतों की रानी मसूरी.चलिए इसी बहाने ३० साल पुरानी यादे ताजा हो गई,तस्वीरे अच्छी लगी,,,,,,
ReplyDeleteRECENT POST ,,,,,पर याद छोड़ जायेगें,,,,,
सुंदर चित्रों ने पोस्ट को मनमोहक बना दिया है सर । देवेंद्र जी ने बिल्कुल ठीक कहा कि आप जले पे नमक छिडक के जानमारू पोस्ट लगा दिए हैं जी । "जिसे पहला हनीमून भी कह सकते हैं" ...ई पहला दूसरा तीसरा , सबके बारे में विस्तार पूर्वक प्रकाश डालें आचार्यवर । ओईसे अगिला भाग का इंतज़ार लगा गए । बहुत ही मनमोहक पोस्ट बन पडी है , इसे साझा कर रहा हूं
ReplyDeleteई पहला दूसरा तीसरा--- ई के वास्ते तो आत्म कथा ही लिखनी पड़ेगी भाई . :)
Deleteवैसे कल कहाँ थे -- मेरे गीत के विमोचन पर ? पुस्तक चाहिए तो हमारे पास है आपकी कॉपी .
JCJune 17, 2012 10:26 AM
ReplyDeleteयद्यपि अपने जीवन का एक बड़ा भाग दिल्ली में ही बीता है, अल्मोड़ा- नैनीताल/ जन्म-स्थान शिमला के पहाड़, पहाड़ी परिवार में पैदाइश के कारण देखे हैं - सर्पाकार सड़कें, चीड, बाँझ आदि के हरे भरे वृक्ष, झरने, ताल आदि के अतिरिक्त गर्मी के मौसम में शीतल पवन का आनंद का अनुभव किया... काम के चक्कर में भूटान और असम के पहाड़ों का भी
इस कारण पहाड़ की चर्चा हो तो भले ही स्वयं न जाएँ, मन में जा आनंद तो उठा ही सकते हैं!!! धन्यवाद!
सही कहा जे सी जी . हमें तो जब भी गर्मी सताती है -- गाँव में बब्बे पढ़ते थे -- शहर में पहाड़ों को याद करने लगते हैं .
DeleteJCJune 18, 2012 11:15 AM
Deleteपहली बार सन १९५१ में मेरे गुरु बड़े भाई के साथ नैनीताल पहुंचा था रास्ते भर प्लेन्स की गर्मी से और बस के पेट्रोल की बदबू सूंघ मतली को किसी प्रकार रोक... किन्तु जब बस ताल के किनारे, बस स्टैंड और पार्किंग एरिया में, तल्ली ताल में रुकी तो नीले आकाश और पानी, ताल के किनारे भिन्न भिन्न पहाड़ी पर उगे हरे वृक्ष, और ऐ सी की सी ठंडी हवा ने मन को बाग़ बाग़ कर दिया - उस आनंद को शब्दों में लिखना संभव नहीं है! उन तीन सप्ताह के अपने निवास के दौरान हम चीना पीक आदि विभिन्न चोटियों पर तो चढ़े ही, किन्तु हर दिन ताल में दो बार नाव भी चलाई, भले ही हाथ में छाले पड़ कर फूट भी गए!!! रोलर स्केटिंग भी एक दिन की, और एक दिन घुडसवारी भी!!!
उस के बाद भी बीच बीच में भी कुछेक बार जाना हुआ, किन्तु निरंतर बढ़ती भीड़ और 'भौतिक विकास' के कारण आनंद कम होता चला गया!!!
जी हाँ , अब गाड़ियों की वज़ह से ट्रैफिक जाम तक हो जाता है . लेकिन नैनीताल में मौसम तो अब भी सुहाना रहता है .
Deleteइस पोस्ट में भी बहुत मनमोहक चित्र हैं
ReplyDeleteआपकी पोस्ट देखने के बाद अनजानी कहाँ रही मसूरी............
ReplyDeleteपहाड़ वैसे ही हमें बड़ा फेसिनेट करते हैं.....फिर आपका अंदाज़े बयाँ........................
क्या बात..क्या बात...क्या बात....
:-)
सादर
अरे....
ReplyDeleteहमारा कमेन्ट....
शायद मसूरी चला गया ????
अनु जी , मसूरी के कुछ अनजाने पहलु जो हमें भी पहली बार अनुभव हुए --अगली पोस्ट में प्रस्तुत होंगे !
ReplyDeleteयादें ताज़ा कर दीं आपकी पोस्ट ने तो
ReplyDeleteडाक्टर साहब,
ReplyDeleteयह तो चिंता का कारण लगता है कि लोग पहले वहां की गर्मियों में पूरे कपड़े / स्वेटर वगैरह पहनते थे अब कम कपड़ों में काम चला रहे हैं , कहीं ऐसा तो नहीं कि मौसम का बदलाव ( दुनिया के लोग कोई भी कारण कहें ) कम कपड़ों की वज़ह से हो रहा हो :)
हमेशा की तरह खूबसूरत फोटोग्राफ्स ! बढ़िया पोस्ट ! दिल जलाऊ पोस्ट :)
अली सा , ग्लोबल वार्मिंग के कारणों में ऐ सी और गाड़ियों के एक्स्होस्ट के अलावा मनुष्यों की सांसों की गर्मी भी है . पहाड़ों पर सांसें और भी गर्म हो जाती हैं . :)
Deleteएक बारी हम भी गए थे जी रानी से मिलने, जद गाडी मसूरी पहुंची तो गाईड बोल्या - " मसूरी के मौसम और दिल्ली की लड़की का कोई भरोसा नहीं कब बरस जाए"…… मेरे से तो रहया नहीं गया, मन्ने कहया - सुसरे! हमने बेरा था, अड़े आके तूं नुए कहवेगा। देख हम दिल्ली ते लड़की और छतरी दोनो साथ लाए सां। :)
ReplyDeleteराम राम
:):)
Deleteबहुत खूब ...
ReplyDeleteहमें तो दिल्ली की गर्मी ही झेलनी है
चलिये आपकी पोस्ट के बहाने हम भी यहाँ बैठे-बैठे ही इंडिया के बेहतरीन पर्यटक स्थलों का लुफ़्त उठा लिया करते है। :)
ReplyDeletebeautiful to enjoy and nice post shown all in pictures .
ReplyDeleteमौसम तो तभी गरमाने लगा था जब हम बरसों पहले वहां गए थे जिस दिन लौट रहे थे बस पकड़ते हुए पसीना नहा गए थे मई का महीना था .पहाड़ से ठंडक गायब थी अब क्या हाल है पता नहीं हाँ दूर दर्शन टावर पर जाके देखा था सबसे ऊंचा स्थान वही है .वहां परिचय था सूचना प्रसारण मंत्रालय के मार्फ़त .
ReplyDeleteमुझे यह जगह बहुत पसनद है भाई जी ...
ReplyDeleteहम तो पहले से जले-भुने बैठे हैं इस गर्मी से। ऊपर से आप झरनों,नदियों,झीलों की ये तस्वीरें दिखाकर और मौज ले रहे हैं!
ReplyDeleteबहुत सुंदर पोस्ट .... मंसूरी गए तो अब ज़माना बीत गया ... अंतिम चित्र कुछ नयी जगह के लगे ..... बढ़िया पोस्ट
ReplyDeleteसंगीता जी , ये चित्र कंपनी गार्डन/ बाग़ के हैं जहाँ कई नई सुविधाएँ जुटाई गई हैं .
Deleteउमस भरी गर्मी के इस मौसम की तल्खी को रानी की तस्वीरों ने कम किया ...
ReplyDeleteसुन्दर तस्वीरें !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति..! सुप्रभात...!
ReplyDeleteआपका दिन मंगलमय हो....!
मेरी मसूरी यात्रा की यादें ताजा हो गयीं -बहुत खूबसूरत वर्णान और चित्र भी
ReplyDelete**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**
ReplyDelete~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~
*****************************************************************
बेहतरीन रचना
केरा तबहिं न चेतिआ, जब ढिंग लागी बेर
♥ आपके ब्लॉग़ की चर्चा ब्लॉग4वार्ता पर ! ♥
♥ संडे सन्नाट, खबरें झन्नाट♥
♥ शुभकामनाएं ♥
ब्लॉ.ललित शर्मा
**************************************************
~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~^~
**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**♥**
JCJune 18, 2012 11:13 AM
ReplyDeleteP.S. काम के सिलसिले में भी, पहले कम चौड़े, १०० किलोमीटर हाइवे (१००० से लगभग ४०००+ फूट) के सर्वे (उस के हर मोड़ और हर पुलिया / पुल का नीचे जा निरीक्षण) के दौरान जोंक के विभिन्न रूप, आकार और रंग (काले/ नारंगी, लाल), आदि भी देखने को मिले (और उनको छुडाने के लिए सिगरेट का उपयोग सीख)!... और एक पुल के नीचे तो एक लगभग बीस फुट के काले अजगर के भी दर्शन हुए! जब हम पुल के नीचे उतर ही रहे थे, वो भयभीत हो और हमको भयभीत कर, जान बचाने के लिए जितनी जोर से भाग सकता था पहाड़ी में नीचे की और भाग गया)! जिस कारण हम फिर अगले पुलों के नीचे उतरने से पहले पत्थर नीचे फेंकते थे!
जे सी जी , जोंक को छुड़ाने के लिए जलती तीली या नमक का इस्तेमाल भी किया जा सकता है . यह बात हमने ट्रेकिंग के दौरान सीखी थी . हालाँकि कभी ज़रुरत नहीं पड़ी .
DeleteJCJune 18, 2012 5:43 PM
Deleteबरसात के समय गीले जंगल में पगडण्डी से गुजरते समय एक अकेली जोंक नहीं दर्जनों पकड़ लेती थीं मोज़े के छेदों के बीच से!... तब अनुभवी लोकल खलासी आदि उन्हें एक सांस में ही फ़टाफ़ट पकड़ और निकाल दूर फेंक देते थे! वे हम पर हँसते थे जब हम बांयीं तरफ वाली को अंगूठे और ऊँगली के बीच आराम से पकड़ते थे तो वो मौक़ा मिलने पर बांये शरीर को छोड़ दांये अंगूठे अथवा ऊँगली को चिपक जातीं थीं - और यह सिलसिला, दांये-बांये, चल पड़ता था...:)
गेस्ट हाउस में एक मित्र के शरीर में खून पी फूले बैलून समान मोटी जोंक जब भार से नीचे गिर पड़ी तो क्या होता है देखने के लिए हमने उस पर नमक मंगा जैसे ही डाला, वो फूट पड़ी और सारा खून फर्श पर फ़ैल गया... कहते हैं कि किसी समय खराब खून आदि निकालने के लिए जोंक को प्राचीन चिकित्सकों द्वारा उपयोग में लाया जता था!
बहुत ही खुबसूरत जगह है .....
ReplyDeleteआप अपने ये आर्टिकल किसी पत्रिका में क्यों नहीं भेजते तस्वीरों के साथ .....???
जी भेज तो दें पर छापता कौन है !
Deleteआपको भी तो भेजी थी कुछ क्षणिकाएं पिछले वर्ष :)
हम १९९७ में गए थे मसूरी. वो भी फरवरी की ठण्ड में. अब इस मौसम में जरुर जन्नत जैसा अहसास रहा होगा.
ReplyDeleteशिखा जी , जिस समय हम वहां थे , ठीक उसी समय लेह और मनाली में बर्फ पड़ रही थी . और हम पंखा चलाकर कम चला रहे थे . मौसम अब बदल सा गया है . फिर भी सुहाना तो होता है .
Deleteआजकल मंसूरी ना सही, धनौल्टी का कुदरती रूप तो अभी तक बचा हुआ है ही अगर आप वहाँ गए होंगे तो जरुर देखा होगा,
ReplyDeleteधनोल्टी पहले बिल्कुल खाली होता था . अब वहां भी होटल्स बन गए हैं . लेकिन सुरखंडा देवी मंदिर जाने वाली गाड़ियों से ट्रैफिक जाम लगा रहता है .
Deleteआपने मसूरी के बारे में विस्तृत फोटो सहित बढ़िया जानकारी दी है ... पढ़कर मसूरी की यादें फिर से तरोताजा हो उठी हैं ... आभार
ReplyDeleteखूब घूम रहे है हम भी आपके साथ साथ ... जय हो सर जी !
ReplyDeleteइस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - बुंदेले हर बोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी ... ब्लॉग बुलेटिन
आपने तो मेरी यादें भी ताज़ा करा दीन ... ट्रोली के पास वाली जगह पे किसी होटल में रुके थे हम ...
ReplyDeleteअब तो बहुत बदला बदला लग रहा है ये शहर ... पर जगह के नाम वही हैं ... फोटो सभी कमाल के हैं हमेशा की तरह ...
साधु-संत लोग भाग के पहाड़ों पर ऐसे ही थोड़ी न जाते थे!
ReplyDeleteJCJune 19, 2012 6:57 PM
ReplyDeleteजिस गति से पृथ्वी पर जमी बर्फ पिघल रही है, और स्नोलाइन निरंतर ऊपर- ऊपर बढ़ती जा रही है, वैज्ञानिक भी चिंतित हैं कि सागर-जल का स्तर ऊपर बढेगा... और इस कारण सबसे पहले समुद्र के किनारे के क्षेत्र जल-मग्न हो सकते हैं... और यदि सही उपाय तुरंत न किये जाएँ पृथ्वी का एक बड़ा भाग कुछ वर्ष में डूब सकता है... उस स्थिति में शायदजो ऊंचे पहाड़ी स्थानों में रहते हैं वे ही डूबने से बच पाएं... (संभव है कि भूत में भी यह कारण रहा हो मानव जाति के आदि काल से पहाड़ी क्षेत्र में निवास पाए जाने का - विशेषकर जो लद्दाख आदि स्थानों पर आज भी पाए जाते हैं???!!!)...
डॉ साहब सारा मामला gut bacteria में एक ख़ास जीवाणु की तादाद के बे -तहाशा बढ़ जाने जुडा है . अच्छी प्रस्तुति .कृपया यहाँ भी पधारें -
ReplyDeleteबुधवार, 20 जून 2012
क्या गड़बड़ है साहब चीनी में
क्या गड़बड़ है साहब चीनी में
http://veerubhai1947.blogspot.in/
सुंदर चित्र और उनसे भी अच्छा वर्णन, मसूरी जाने की इच्छा हो रही है।
ReplyDeleteपुनश्च - यदि पीछे मुड के भारत देश और इस के पडौसी पहाड़ी क्षेत्रों के इतिहास में देखें, तो ऐसा लगता है कि किसी काल में हिमालय, रक्षा की दृष्टि से, एक दुर्ग/ किले, अथवा देश के सर पर एक सफ़ेद ताज समान देखा जाता रहा...
ReplyDeleteकिन्तु, वैसे तो व्यापार हेतु भारत से सिल्क रूट जैसे मार्गों से पैदल गए-आये व्यापारी आदि के माध्यम से भारत प्रसिद्द हुआ विभिन्न क्षेत्र में आदि काल से ऑल राउंड प्रगति के लिए... किन्तु तथाकथित वैदिक काल के दौरान उपलब्ध की गयी आध्यात्मिक और भौतिक प्रगति का आपस में ही क्षेत्रीय राजाओं आदि के बौद्धिक पतन, और इस कारण झगड़े बढ़ते जाने के कारण, शक्ति हीन होने से, कह सकते हैं कि हाल ही में इस के पश्चिमी क्षेत्र में स्थित खैबर पास के रूप में इस 'सोने की चिड़िया' को बुरी नज़र लग गयी...
और फिर छोटी-बड़ी विदेशी फौजें ही निरंतर यहाँ आ राज करने लगे... और जल-मार्ग से फिर अंग्रेजों का आगमन इस के इतिहास का एक टर्निंग पॉइंट सिद्ध हुवा... उन्होंने सुख-समृद्धि हेतु भौतिक विकास के साथ साथ इस गर्म देश में निज स्वार्थ में - अपने आवास को सुखद बनाने हेतु - जब स्बोलाइन लगभग १२,००० फुट थी, पांच-छः हजार फुट के लगभग जहां जहां संभव हुवा कई हिल-स्टेशन बनाए... और, (जैसे शेर शिकार को मार अपना पेट भर लेता है तो अनेक अन्य निम्न श्रेणी के मांस-भक्षी आ जाते हैं??) उनके जाने के पश्चात हमें भी भौतिक सुख का भागी होने का थोड़ा सौभाग्य प्राप्त हुवा है - कुछ को अधिक तो कुछेक को कम... और दूसरी ओर, किन्तु जो दीखता नहीं है, हमारे पूर्वजों द्वारा अर्जित आध्यत्मिक ज्ञान लगभग चौपट हो गया...:)
चलिए अंग्रेजों के जाने के बाद कुछ तो फायदा हमें भी हुआ . अब कोई नहीं कह सकता --- --- --- नोट अलाउड !
Deleteआध्यत्मिक ज्ञान के चौपट होने के लिए किसी और को क्यों दोष दें जब हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं .
आपकी ब्लॉग दस्तक हमेशा नवीनीकृत कर जाती है ऊर्जा को लेखन की .
ReplyDeleteमसूरी वाकयी में बहुत ही सुन्दर जगह है। आपने केम्पटी फाल में मोटे तोंदवाले लोगों को नहाने पर लिखा है, वाकयी में मुझे भी स्वीमिंग पूल या ऐसे सार्वजनिक स्थानों पर अपनी आंखे गन्दी करने में बहुत गुस्सा आता है।
ReplyDeleteअजित जी , क्या करें , सिक्स पैक वाले बस फिल्मों में ही नज़र आते हैं .
Delete