प्रियजन से सदा के विछोह के दुःख के इस बेहद उदास समय को अकेले बिताना मानसिक रूप से बहुत घातक है , इस समय किये जाने वाले विभिन्न संस्कार उस दुःख से ध्यान भटकाने के लिए रहे होंगे ... लेकिन हर रिवाज़ की तरह इनमे भी विकृतियाँ शामिल होती गयी ... प्रत्येक व्यक्ति को अपनी व्यक्तिगत श्रद्धा के हिसाब से कार्य करना चाहिए न कि लोक दिखावे के लिए ...
डॉक्टर साहब, पापा के जाने के बाद मैं भी इन्हीं हालात से गुज़रा हूं...ऊपर वाले की आप और मुझ पर दया है कि हम आर्थिक रूप से सारे कर्मकांड करने में समर्थ हैं...लेकिन मैं पंडितों के निर्देश पर सभी रस्मों को पूरा करते हुए यही सोच रहा था कि गरीब बेचारे ये सब कैसे कर पाते होंगे...न करें तो समाज और लोकलाज का डर...सच अब मरना भी सस्ता नहीं रहा है...
jahan tak rone ya sok prakat karne ka sawal hai, wo apne andar ki baat hai, isko na to koi rok sakta hai, naa hi jabardasti karwaya ja sakta hai..........isliye kisi ke mrityu ki salo baad bhi log rote hain, to kabhi kuchh ghante bhi koi nahi rota.........:)
aur jahan tak uske baat ke reeti reewajo ka sawal..beshak panditayee ke karan, kuchh tough hain, lekin hame lagta hai, jo chal raha hai, wo sahi hai, waise bhi ye reeti riwaj ab dhire dhire bahut jayda liberal ho gaye hain....:)
मेरा मानना है की आज हम चाहे जो कहें...लेकिन जो रीती रिवाज़ बनाये गए है वे काफी हद तक सही है !आज हम व्यस्त है इसलिए ये बोझ लगते है....मृत्यु के बाद १२ दिन तक भोजन साथ करने से दुक्ख तो बंटता ही है !आजकल की दिनचर्या में हम इन रिवाजों से परेशान जरूर होते है,पर ये कतई गलत नही है..हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद गरुड़ पुराण का पाठ होता है ,उसमे कही गयी बातें लगभग सत्य है....बस ध्यान लगा कर समझने की बात है
रीति रिवाज ही सोच समझकर बनाए गए हैं ... मानने वाले चाहे गरीब हों या अमीर सब अपने अपने तरीकों से उनका पालन और निर्वाह करते हैं . धार्मिक रीति रिवाजों का अनुपालन करने से व्यक्ति को निसंदेह आत्मिक शांति प्राप्त होती है ...मैं रजनीश जी के विचारों से काफी हद तक सहमत हूँ ..... आभार
डाक्टर साहब, आपने स्वयं हीसभी प्रश्नों का सही जवाब भी दे दिया है.आपका कहना बिलकुल सही है की कर्मकांडियों ने अपने लाभ क़े लिए बहुत सी कु-रीतियों को समाज में ज़बरदस्ती चलवा रखा है इन्हें निश्चित तौर पर समाज में जागरूक लोगों को बंद करवा देना चाहिए.सिर्फ विशेष 7 आहुतियाँ मृत आत्मा की शान्ति हेतु ठीक हैं जो सभी आर्य समाजी पुरोहित तक नहीं करवाते.पौराणिकों की तो करवाने की कोई बात ही नहीं है. जहाँ तक रोने का प्रश्न है उससे उस आत्मा को पीड़ा ही होती है अतः वो तो नितांत व्यर्थ है तेरहवीं पर भोज कार्यक्रम का मृत आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं होता वो शायद कर्मकांडियों का आय का जरिया और समाज क़े लोगों क़े बीच चलन का माध्यम हो सकता है हाँ ये ज़रूर है की १३ वें दिन वो आत्मा किसी न किसी शरीर को प्राप्त कर लेती है,यदि उसे मोक्ष न मिला हो तो.बीच क़े १२ दिन तक आत्मा प्रतिदिन १-१ राशि भ्रमण करती है और उस जन्म क़े उसके कर्म-(सद्कर्म,दुष्कर्म और अकर्म)जो आत्मा क़े साथ गये कारण शरीर व सूक्ष्म शरीर क़े चित्त पर गुप्त रूप से अंकित रहती हैं,क़े आधार पर आगामी जन्म क़े लिए प्रारब्ध या भाग्य निर्धारित करती हैं.अब इन बातों का उस भोज से क्या ताल्लुक?अतः निश्चय ही बंद करना चाहिए.
यदि कोई भागवद गीता पढ़े, और उसमें लिखे उपदेश को माने भी, तो किसी की मृत्यु पर शोक करे ही नहीं, क्यूंकि जीवन का 'सत्य' यह बताया गया है कि जैसे मानव फटे-पुराने वस्त्र समय के साथ बदलता है वैसे ही काल-चक्र में उलझे शरीर के भीतर स्थित आत्मा भी पुराने शरीर बदलती रहती है (८४ लाख?),,,किन्तु जब तक हम यह न जान लें कि परमात्मा (योगेश्वर विष्णु, कृष्ण जिनके अवतार हैं) अपनी योग-निद्रा में, क्षीरसागर के मध्य शेष शैय्या पर लेटे, स्वप्न में क्या ढूंढ रहे हैं, हम सत्य को समझ पाने में शायद असमर्थ रहेंगे,,,यद्यपि आत्मा सब जानती है किन्तु उसके और शरीर के बीच तालमेल न होने के कारण मानव को 'अपस्मरा पुरुष' जाना गया यानि भुलक्कड़ जो एक दिन की बात भूल जाता है जबकि यहाँ कहानी अनंत भूतकाल की है...
डा साहिब, यहाँ में कहना चाहूँगा कि कैसे हम भूत में कहे शब्दों द्वारा भ्रमित हो जाते हैं, जैसे 'जोगी' शब्द से आम तौर पर वर्तमान में एक भौतिक संसार से विरक्त लगते (दाढ़ी-मूंछ, जटा-जूट बढे और जोगिया वस्त्र पहने, जो रूप कोई ठग भी धारण कर सकता है!), शायद हिमालय की गुफाओं आदि में 'सत्य' अथवा 'परम सत्य' की खोज में लगे व्यक्ति की तस्वीर उभरती है,,,जबकि 'जोग' का सीधा अर्थ 'जोड़ना' होता है जो, प्राचीन ज्ञानियों के अनुसार, ब्रह्माण्ड में व्याप्त विभिन्न अस्थाई भौतिक आकारों के (कुछ समय के लिए, ड्रामे में एक पात्र समान) अस्तित्व में आने को अनंत निराकार शक्ति और सीमित साकार भौतिक तत्वों के भिन्न-भिन्न मात्रा में मिलन द्वारा संभव होना माना गया - परमात्मा द्वारा, अपने ही किसी अज्ञात उद्देश्य पूर्ती के लिए,,,जिसे संभव समझा गया केवल मानव रूप के भीतर विद्यमान आत्मा के ही लिए ही जो, परमज्ञानी परमात्मा की तुलना में ज्ञान के विभिन्न स्तर पर होने के कारण, काल-चक्र के साथ उत्पत्ति कर परमात्मा के निकट पहुँच पायी हो - किसी भी उपलब्ध अनंत में से एक मार्ग से,,,
ये सच है कि रिती रिवाज उस समय के सामाजिक परिवेश के अनुसार बनाये गये थे लेकिन पोंगा पंडितों और स्वार्थी तत्वों ने इन्हें अपने स्वार्थ के हिसाब से बना लिया आज के समय मे इनमे कुछ तो बदलाव होना चाहिये। बात केवल आस्था की है। जिन्दा रहते तो हम माँ बाप को पूछते नही बाद मे पंडितों को खीर खिला कर अपने कर्त्व्य की इतिश्री कर लेते हैं। पंडितों की रोज़ी रोटी इन्हें और कम्पलिकेटेड बनाने पर ही चलती है। धन्यवाद अच्छा विषय है।
विषय चयन अच्छा है…………मै इन बातों मे विश्वास नही करती बस जो दिल से किया जाये और जिसे करने के लिये मन माने वो ही करना चाहिये ना कि रिवाज़ो के नाम पर ढोंग किया जाये और जो तर्कसंगत हो वो तो सही है ……………वैसे भी सबकी अपनी अपनी सोच होती है मगर मुझे कर्मकांड मे विश्वास नही है।
सही कहा डा० सहाब, यह सब बकवास और ढ़कोसलेबाजी पंडतों की की हुई है ! हिन्दू धर्म के अनुसार मृतक के दाह-संस्कार पर जो सही रिवाज भी थे , अपने फायदे के लिए इन पंडतों ने उन रीतियों की भी ऐसे-तैसी कर डाली ! जीते जी तो वृद्ध इंसान इनको फूटी आँख नहीं भाते और मरने के बाद यह सब दुनियादारी ! सुरेन्द्र मौदगिल जी की कविता की कुछ लाइने याद आ रही है; खुद को सबका बाप बताया.......अपना परचम आप उठाया, जीते जी तो बाथरूम में रखा बंद पिताजी को, अर्थी पर बाजा बजवाया...........।
कर्मकांड करने वाले पंडित भी इसी समाज के अंग हैं , और आपको क्या लगता है ये कर्मकांड क्या शाश्वत रूप से चले आ रहे हैं| मेरे ख़याल से हर वक़्त , परिस्थिति में इनमे बदलाव आता रहता है| अगर गरीब लोग इसका खर्चा नहीं उठा पाते होंगे, तो सहृदय पंडित ने जरूर कर्मकांड में इसका उपाय भी सोचा होगा, और उस वक़्त थोडा बदल के भी कर दिया होगा| हाँ , लेकिन जिस तरह से पंडितों और साहूकारों को हमारे साहित्य , सिनेमा ने चित्रित किया है, उससे उनके निर्मोही, दुष्ट , कुटिल , और पैसा खाऊ होने के प्रमाण ही मिलते हैं|
नाना ने आजीवन पंडिताई की है| उनके कोई सुपुत्र अब इस पेशे को नहीं अपनाना चाहते| नाना ने तीनों पुत्रों, दो पुत्रियों की देख-रेख, शिक्षा-दीक्षा, शादी-ब्याह तक इसी व्यवसाय से पूरी की| लेकिन कभी किसी गरीब की हाय लेते मैंने उन्हें नहीं देखा| हाँ, बड़े लोगों से , हम और आप जैसे जो ब्लॉग्गिंग में इस पर विचार करते हैं, उन्होंने खूब पैसे ऐंठे हैं| किसी से कह दिया की ५ किलो चावल , २ किलो घी, ५ किलो आटा .. ये सब लगेगा, किसी के घर पे कह दिया बस भोग लगा दो भगवान को, मन में श्रद्धा होनी चाहिए| कई ऐसे लोग आज भी हैं , जो अब भी घर पे एकादशी वगैरह के दिन खाना भेजते रहते हैं| जो लोग नहीं भेजते, उनके वृद्ध पिता या दादा जिद करके भिजवाते हैं| अन्धविश्वासी हैं शायद, पर उनका ये अन्धविश्वास मुझे अपने अंध-अविश्वास से कहीं ज्यादा पूज्य लगा| इंसान बुरा है तो मीनारों में भी बुरा रहेगा, अच्छा है तो सड़क पे गिर के भी सजदा करता है|
मन में विचार उठते हैं कि क्या 'डॉक्टर' मानव शरीर के बारे में 'सब कुछ' जानते हैं? यदि हाँ, तो कुछ बिमारियों में हाथ क्यूं ऊपर कर देते हैं,और अस्पताल क्यूँ भरे हैं? और हम जानते हैं कि उनमें से बहुत 'झोला छाप' ही होते हैं - किन्तु जीसस जैसे नहीं जो हाथ छू कर ही ठीक कर देते थे!,,, ऐसे ही 'पंडित', ख़ास तौर पर जो अन्त्येस्ठी क्रिया से जुड़े होते हैं, उनसे ही हम क्यूँ चाहते हैं कि वो आत्मा-परमात्मा, इस संसार और 'स्वर्ग', के बारे में सब कुछ जानें? यदि हम सोचते हैं कि हम ठगे जा रहे हैं तो क्यूँ न हम स्वयं सत्य की खोज करते हैं? (जैसे हमारे पूर्वजों ने प्रतीत होता है किया)...
बहस एक गलत दिशा में जाती प्रतीत होती है....रीती रिवाजों के नाम पर दुकानदारी करने वालो की बात नही है,बात हिन्दू धर्म में आस्था की है....जो बड़े बड़े दुष्ट थे उनको भी मुक्ति सम्पूर्ण किर्या कर्म से ही मिली..आज कामरेड हिन्दू धर्म को नही मानते पर उनके नाम देखिये ..और उनको भी अंत में जलाया ही जाता है क्यों?हमारे विचार चाहे कोई हो ..अंत में धर्म अनुसार तो करना ही पड़ेहमारी मौत के बाद ये सब ना किया जाएगा,यही सत्य है ...आज इसको ढकोसला मानने वाले कितने लोग है जो ये कहेंगे कि ये सब ना किया जाये...सत्य हमेशा सत्य ही रहेगा.....
आप सब ने खुल कर अपने विचार रखे । विचारों में काफी भिन्नता नज़र आ रही है । ज़ाहिर है , सबकी सोच अलग अलग होती है । लेकिन ऐसा लगता है , किसी ने सही कहा है --मानो तो मैं गंगा मां हूँ , न मानो तो बहता पानी । यदि आपको आस्था है तो पालन करिए । यदि आस्था नहीं है तो इनको निभाना बेमानी सा लगता है ।
बेशक रीति रिवाज़ें हमारे पूर्वजों ने सोच समझ कर ही बनाई थी । उसमे सभी तरह के पहलुओं का ध्यान रखा गया होगा । लेकिन वर्तमान परिवेश में उनका तर्कसंगत होना संदेहात्मक लगता है ।
नीरज बसलियाल की टिप्पणी में तो सब कुछ साफ हो गया ।
यहाँ काफी विचार मंथन हो चुका है ..कहने को कुछ भी नहीं बचा ...बस आस्था से किया गया काम ही मन को शांति दे सकता है ...बहुत से रीति रिवाज़ अच्छे के लिए बनाये गए होंगे लेकिन वक्त के साथ उनमें भी दिखावे की भावना आ गयी है ...श्रद्धा के सामने तर्क नहीं ठहरता और तर्क के सामने श्रद्धा ....
kal padhi thi aapki ye post lekin comment box nahi dikh raha tha. bahut acchha vishay uthaya hai aapne...sach me bahut se riti-rivaz dikhava maatr ho gaye hai...jinka badal dena hi anivaary hai.
दराल सर दो बाते तो तय हैं कि हमारे कर्मकांड के पीछ कि क्या धारणा थी वो ठीक से कोई नहीं जानता अब। हर अच्छे काम को धर्म से जोड़कर हमारे पूर्वजों ने कुछ अच्छा किया तो कुछ नुकसान भी। दूसरी बात ये कि कर्मकांडों की आड़ में गरीब का जीना मुश्किल और उसका मरना उसके परिवाल वालो के लिए भी। इंसान कुछ भी कर आज गरीब होना एक बड़ा अभिशाप है। जरुरी है कि अब चिंतन करने वाले लोगएकुट होकर अपने प्राचीन नियमों पर पड़ी धूल को हटाने का प्रयास करें ताकि बादल छंट सकें और सूर्य का प्रकाश हम तक पहुंच सके।
रोहित जी , मुझे तो लगता है कि हमारी रीति रिवाजों में संशोधन की ज़रुरत है । जैसे दाह संस्कार के लिए ४-५ क्विंटल लकड़ी जलाना । कब तक बचा पाएंगे अपने पर्यावरण को । वैकल्पिक साधनों की अत्यंत आवश्यकता है । वैसे भी जीते जी जो सेवा की जा सकती है , वह मरने के बाद कैसे संभव है ।
आपने कुछ प्रश्न उठाये हैं .....कुछ विकृतियों की ओर इशारा किया है जो नहीं होना चाहिए ..... * मृत्यु पर दहाड़े मार कर रोना । फिर थोड़ी देर बाद बैठकर गपियाना और ठहाके लगाना । असमय मौत हो तो ऐसा लाज़मी है ......पर जो अपनी उम्र भोग कर जा रहे हैं वहाँ ऐसा नहीं होना चाहिए .....
* बरसी से पहले न कोई जश्न , न पार्टी या शादी में जाना । और पार्टी शादी के लिए बरसी तीन महीने में ही कर ली जाती है .....लोगों को भोजन से मतलब है .....कोई तब ये नहीं कहता तीन महीने में बरसी कैसे हो सकती है ......
* तेरह दिन तक शोक मनाना । इसका शायद कोई कारन रहा हो .....जब बच्चा पैदा होता है तो स्त्री १३ दिन रज- सवाला रहती है ....शायद १३ दिन का कुछ खास महत्त्व हो .....
* जिसके घर में शादी हो , उसका मृत्यु पर न जाना --न तो दाह संस्कार पर , न शोक प्रकट करने और न ही क्रिया पर । ये विरोध के लायक है .....आपके घर शादी है इसलिए आप किसी का दुःख बांटने नहीं जायेगे .....गलत बात है .....
* बड़े बेटे के बाल कटवाना , उस पर तरह तरह की पाबंधियाँ लगाना ।
ये भी गलत है .....ऐसा नहीं होना चाहिए ....सिखों में तो नहीं काटे जाते ......
* रिश्तेदारों का राशन लेकर आना । ये परम्परा सिर्फ दुःख बँटाने के लिए शुरू हुई होगी .....समधी की तरफ से एक वक़्त का भोजन जिसे रिवाज़ में बदल दिया गया .....परिवार वाले इसे रोक सकते हैं .....
* पंडितों द्वारा बताई गई विभिन्न रस्मों को निभाना ।
हमारे यहाँ तो पंडित नहीं बुलाये जाते तो विस्तार से नहीं पता ....पर मृतक के नाम से बिस्तर , कपडे , कम्बल ,जूते हर चीज दान में दी जाती है .....चाहे मरने वाले को जीते जी बढिया कम्बल नसीब हुआ हो या न हुआ हो ....
इसके अलावा भी हिन्दुओं में और कई रिवाज़ बना रखे हैं .....१३ दिन नीचे चटाई पर बैठना ....भोजन में सिर्फ फलाहार लेना .....बेटे सिर्फ धोती गमछा pahan कर rahein .... मृतक की पत्नी का नीचे चटाई पर sona ....
यहाँ तो कुछ sikh pariwaron में dekha ab कई prthaon को toda गया है .....न manne yogy baton का विरोध तो होना चाहिए .....
डॉक्टर साहिब, ऐसा माना जाता है कि जो ब्रह्माण्ड में है वो ही पिंड में भी है,,,और मानव जीवन में हम देखते हैं कि अंतरिक्ष यान जब किसी गंतव्य की ओर छोड़ा जाता है तो उसे पृथ्वी से मोनिटर करते हैं,,, और समय-समय पर, सही रॉकेट आदि छोड़, सही दिशा की ओर ले जाने का प्रयास किया जाता है...इसी प्रकार, यदि हम यह मानें कि दिवंगत आत्मा को किसी अपेक्षित स्थान, उसके गंतव्य तक, पहुँचाना है, जैसे 'स्वर्ग', तो शायद इस कार्य में उसके निकट सम्बन्धी से कुछ कर्मकांड, मन्त्रादि, अपेक्षित माना गया हो... क्यूंकि मान्यता है कि शब्द ऊर्जा से ही साकार ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई , मंत्र आदि द्वारा मार्ग सही किये जाने का प्रावधान सही अथवा सहायक पाया गया हो... काल के प्रभाव से किन्तु 'सही' और 'गलत' क्या है इस का किसी को पता नहीं है और 'अनजाने के भय' से कोई बोलता नहीं है...
समय अनुसार बहुत सी रीतियों में परिवर्तन आते रहते हैं ... इन रीतियों में भी आयेगा ... हर किसी का अनुभव अलग होता है .. रीती को मानने का , निभाने का तर्क भी हर किसी का अपना ही होता है .... .
प्रथाएँ निश्चित रूप से बदलाव माँग रही है..यह सब प्रथाएँ उस समय बनी थी जब ज़्यादातर लोग कम पढ़े लिखे होते थे और आँख-मूंद कर विद्वानों पर भरोसा करते थे..विद्वान-पंडित उन्हे चाहे जिस दिशा में ले जाय उन्हे इस बात की परवाह नही होती थी...अधिकतर लोग अंधविश्वासी भी होते थे...अब लोग शिक्षित और जागरूक है इस युग में ऐसे आडंबरों से बचने की ज़रूरत है..जितना मन करे बस उतना ही माने..बाकी मानने की ज़रूरत नही..बदलाव ज़रूरी है..
हैरानी की बात यह है कि हममें से अधिकतर के भीतर,इन आडंबरों के प्रति विद्रोह का भाव तो है,मगर अपनी बारी आने पर हम स्वयं उन्हीं आडंबरों का पालन कर रहे होते हैं। मज़ेदार बात यह है कि व्यस्त ज़िंदगी और समयाभाव आदि की दुहाई देने वाले महानगरीय लोगों में भी यह प्रवृत्ति कमोबेश विद्यमान है।
आपने यह यक्ष प्रश्न क्यों छेड़ा है समझ सकता हूँ ..जब मेरे पिता जी का देहावसान हुआ था तभी से मैं भी इनसे जूझ रहा हूँ जवाब देना दुष्कर है ....फिर भी .... राम ने सीता का परित्याग क्यों किया ? ..कृष्ण को अर्जुन को क्या क्या और क्यों समझाना पड़ा .गीता ज्ञान .... कुछ परम्पराएँ हैं जिन्हें बिना ज्यादा सोच विचार के पालन कर लेने में ही भलाई है , हर देश काल की कुछ व्यवस्थायें/नीतियाँ होती आयी हैं - कहब लोकमत वेदमत नृपनय निगम निचोर ....कभी वशिष्ट ने भरत से दुःख के ऐसे क्षणों में ही कहा था .. मतलब लोक मान्यताएं/विचार ,वेदों में दी गयी व्यवस्थाएं ,राजा का आदेश सभी को देखते हुए मनुष्य को अपने निर्णयों को मूर्त करना चाहिए ... स्वर्गीय पिता जी के कर्मकांडों को इसी दृष्टि से लें ! कुछ लोकाचार आपको मानने होंगे ज्यादा तर्क इस समय ठीक नहीं है !
डा. साहिब, शायद इस से पता चलता है कि क्यूँ गीता में उपदेश दिया गया है कि व्यक्ति हर समय स्थितप्रज्ञ रहे, दुःख-सुख, गर्मी-सर्दी आदि द्वैत अनुभूतियों में एक सा व्यवहार करे ('माया' से पार पाने के लिए, कृष्णलीला का आनंद 'दृष्टा-भाव' से उठा पाने के लिए जैसे एक महंगे 'पी वी आर' सिनेमा हॉल में बैठ हम आम तौर पर कभी-कभी उठाते हैं, पोप कॉर्न खाते और कोक भी पीते!)
अरविन्द जी , रस्में तो हमने भी लोकाचार में सभी तरह से निभाईं हैं । हालाँकि रस्में विभिन्न देश , प्रान्त , धर्म , जाति और समुदायों में विभिन्न होती हैं । यहाँ तक कि गाँव और शहर में भी अलग होती हैं । लेकिन समय के साथ साथ बदलाव आना भी लाज़िमी है । समय के साथ बदलने में कोई बुराई नज़र नहीं आती । इसीलिए सोच विचार के लिए यह पोस्ट लिखी थी ।
दहाडें मार कर रोना। शायद रुदाली फिल्म देखी होगी आपने राजस्थान में तो किराये से रोने वाले बुलायंे जाते है। किसी पार्टी या शादी में जाये तो सामने वाला बुरा मानता है कि हमारे यहां तो शुभ कार्य हो रहा है और ये चले आये। डाक्टर साहब ऐसी ऐसी चीजें मागते है कि क्या कहे कहते है सोने की नाव चाहिये जिससे मृतात्मा वो नदी है न क्या नाम है उसका हां बैतरणी उसे पार करेगा। गाय दान में दो ताकि मृतात्मा उसकी पूंछ पकड कर नदी पार करले ।ध्यान रहे भैस पानी मे लोट जाती है और गाय पार कर लेती हैअब भैया या तो गाय लेलो या नाव लेलो । नहीं दौनों ही लेंगे।क्या करें देना पडता है
मेडिकल डॉक्टर, न्युक्लीअर मेडीसिन फिजिसियन--
ओ आर एस पर शोध में गोल्ड मैडल--
एपीडेमिक ड्रोप्सी पर डायग्नोस्टिक क्राइटेरिया --
सरकार से स्टेट अवार्ड प्राप्त--
दिल्ली आज तक पर --दिल्ली हंसोड़ दंगल चैम्पियन --
नव कवियों की कुश्ती में प्रथम पुरूस्कार ---
अब ब्लॉग के जरिये जन चेतना जाग्रत करने की चेष्टा --
अपना तो उसूल है, हंसते रहो, हंसाते रहो. ---
जो लोग हंसते हैं, वो अपना तनाव हटाते हैं. ---
जो लोग हंसाते हैं, वो दूसरों के तनाव भगाते हैं. ---
बस इसी चेष्टा में लीनं.
प्रियजन से सदा के विछोह के दुःख के इस बेहद उदास समय को अकेले बिताना मानसिक रूप से बहुत घातक है , इस समय किये जाने वाले विभिन्न संस्कार उस दुःख से ध्यान भटकाने के लिए रहे होंगे ...
ReplyDeleteलेकिन हर रिवाज़ की तरह इनमे भी विकृतियाँ शामिल होती गयी ...
प्रत्येक व्यक्ति को अपनी व्यक्तिगत श्रद्धा के हिसाब से कार्य करना चाहिए न कि लोक दिखावे के लिए ...
Jee
ReplyDeleteडॉक्टर साहब,
ReplyDeleteपापा के जाने के बाद मैं भी इन्हीं हालात से गुज़रा हूं...ऊपर वाले की आप और मुझ पर दया है कि हम आर्थिक रूप से सारे कर्मकांड करने में समर्थ हैं...लेकिन मैं पंडितों के निर्देश पर सभी रस्मों को पूरा करते हुए यही सोच रहा था कि गरीब बेचारे ये सब कैसे कर पाते होंगे...न करें तो समाज और लोकलाज का डर...सच अब मरना भी सस्ता नहीं रहा है...
जय हिंद...
jahan tak rone ya sok prakat karne ka sawal hai, wo apne andar ki baat hai, isko na to koi rok sakta hai, naa hi jabardasti karwaya ja sakta hai..........isliye kisi ke mrityu ki salo baad bhi log rote hain, to kabhi kuchh ghante bhi koi nahi rota.........:)
ReplyDeleteaur jahan tak uske baat ke reeti reewajo ka sawal..beshak panditayee ke karan, kuchh tough hain, lekin hame lagta hai, jo chal raha hai, wo sahi hai, waise bhi ye reeti riwaj ab dhire dhire bahut jayda liberal ho gaye hain....:)
मेरा मानना है की आज हम चाहे जो कहें...लेकिन जो रीती रिवाज़ बनाये गए है वे काफी हद तक सही है !आज हम व्यस्त है इसलिए ये बोझ लगते है....मृत्यु के बाद १२ दिन तक भोजन साथ करने से दुक्ख तो बंटता ही है !आजकल की दिनचर्या में हम इन रिवाजों से परेशान जरूर होते है,पर ये कतई गलत नही है..हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद गरुड़ पुराण का पाठ होता है ,उसमे कही गयी बातें लगभग सत्य है....बस ध्यान लगा कर समझने की बात है
ReplyDeleteरीति रिवाज ही सोच समझकर बनाए गए हैं ... मानने वाले चाहे गरीब हों या अमीर सब अपने अपने तरीकों से उनका पालन और निर्वाह करते हैं . धार्मिक रीति रिवाजों का अनुपालन करने से व्यक्ति को निसंदेह आत्मिक शांति प्राप्त होती है ...मैं रजनीश जी के विचारों से काफी हद तक सहमत हूँ ..... आभार
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ReplyDeleteडाक्टर साहब,
ReplyDeleteआपने स्वयं हीसभी प्रश्नों का सही जवाब भी दे दिया है.आपका कहना बिलकुल सही है की कर्मकांडियों ने अपने लाभ क़े लिए बहुत सी कु-रीतियों को समाज में ज़बरदस्ती चलवा रखा है इन्हें निश्चित तौर पर समाज में जागरूक लोगों को बंद करवा देना चाहिए.सिर्फ विशेष 7 आहुतियाँ मृत आत्मा की शान्ति हेतु ठीक हैं जो सभी आर्य समाजी पुरोहित तक नहीं करवाते.पौराणिकों की तो करवाने की कोई बात ही नहीं है.
जहाँ तक रोने का प्रश्न है उससे उस आत्मा को पीड़ा ही होती है अतः वो तो नितांत व्यर्थ है तेरहवीं पर भोज कार्यक्रम का मृत आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं होता वो शायद कर्मकांडियों का आय का जरिया और समाज क़े लोगों क़े बीच चलन का माध्यम हो सकता है हाँ ये ज़रूर है की १३ वें दिन वो आत्मा किसी न किसी शरीर को प्राप्त कर लेती है,यदि उसे मोक्ष न मिला हो तो.बीच क़े १२ दिन तक आत्मा प्रतिदिन १-१ राशि भ्रमण करती है और उस जन्म क़े उसके कर्म-(सद्कर्म,दुष्कर्म और अकर्म)जो आत्मा क़े साथ गये कारण शरीर व सूक्ष्म शरीर क़े चित्त पर गुप्त रूप से अंकित रहती हैं,क़े आधार पर आगामी जन्म क़े लिए प्रारब्ध या भाग्य निर्धारित करती हैं.अब इन बातों का उस भोज से क्या ताल्लुक?अतः निश्चय ही बंद करना चाहिए.
यदि कोई भागवद गीता पढ़े, और उसमें लिखे उपदेश को माने भी, तो किसी की मृत्यु पर शोक करे ही नहीं, क्यूंकि जीवन का 'सत्य' यह बताया गया है कि जैसे मानव फटे-पुराने वस्त्र समय के साथ बदलता है वैसे ही काल-चक्र में उलझे शरीर के भीतर स्थित आत्मा भी पुराने शरीर बदलती रहती है (८४ लाख?),,,किन्तु जब तक हम यह न जान लें कि परमात्मा (योगेश्वर विष्णु, कृष्ण जिनके अवतार हैं) अपनी योग-निद्रा में, क्षीरसागर के मध्य शेष शैय्या पर लेटे, स्वप्न में क्या ढूंढ रहे हैं, हम सत्य को समझ पाने में शायद असमर्थ रहेंगे,,,यद्यपि आत्मा सब जानती है किन्तु उसके और शरीर के बीच तालमेल न होने के कारण मानव को 'अपस्मरा पुरुष' जाना गया यानि भुलक्कड़ जो एक दिन की बात भूल जाता है जबकि यहाँ कहानी अनंत भूतकाल की है...
ReplyDeleteडा साहिब, यहाँ में कहना चाहूँगा कि कैसे हम भूत में कहे शब्दों द्वारा भ्रमित हो जाते हैं, जैसे 'जोगी' शब्द से आम तौर पर वर्तमान में एक भौतिक संसार से विरक्त लगते (दाढ़ी-मूंछ, जटा-जूट बढे और जोगिया वस्त्र पहने, जो रूप कोई ठग भी धारण कर सकता है!), शायद हिमालय की गुफाओं आदि में 'सत्य' अथवा 'परम सत्य' की खोज में लगे व्यक्ति की तस्वीर उभरती है,,,जबकि 'जोग' का सीधा अर्थ 'जोड़ना' होता है जो, प्राचीन ज्ञानियों के अनुसार, ब्रह्माण्ड में व्याप्त विभिन्न अस्थाई भौतिक आकारों के (कुछ समय के लिए, ड्रामे में एक पात्र समान) अस्तित्व में आने को अनंत निराकार शक्ति और सीमित साकार भौतिक तत्वों के भिन्न-भिन्न मात्रा में मिलन द्वारा संभव होना माना गया - परमात्मा द्वारा, अपने ही किसी अज्ञात उद्देश्य पूर्ती के लिए,,,जिसे संभव समझा गया केवल मानव रूप के भीतर विद्यमान आत्मा के ही लिए ही जो, परमज्ञानी परमात्मा की तुलना में ज्ञान के विभिन्न स्तर पर होने के कारण, काल-चक्र के साथ उत्पत्ति कर परमात्मा के निकट पहुँच पायी हो - किसी भी उपलब्ध अनंत में से एक मार्ग से,,,
ReplyDeleteये सच है कि रिती रिवाज उस समय के सामाजिक परिवेश के अनुसार बनाये गये थे लेकिन पोंगा पंडितों और स्वार्थी तत्वों ने इन्हें अपने स्वार्थ के हिसाब से बना लिया आज के समय मे इनमे कुछ तो बदलाव होना चाहिये। बात केवल आस्था की है। जिन्दा रहते तो हम माँ बाप को पूछते नही बाद मे पंडितों को खीर खिला कर अपने कर्त्व्य की इतिश्री कर लेते हैं। पंडितों की रोज़ी रोटी इन्हें और कम्पलिकेटेड बनाने पर ही चलती है। धन्यवाद अच्छा विषय है।
ReplyDeleteविषय चयन अच्छा है…………मै इन बातों मे विश्वास नही करती बस जो दिल से किया जाये और जिसे करने के लिये मन माने वो ही करना चाहिये ना कि रिवाज़ो के नाम पर ढोंग किया जाये और जो तर्कसंगत हो वो तो सही है ……………वैसे भी सबकी अपनी अपनी सोच होती है मगर मुझे कर्मकांड मे विश्वास नही है।
ReplyDeleteसही कहा डा० सहाब, यह सब बकवास और ढ़कोसलेबाजी पंडतों की की हुई है ! हिन्दू धर्म के अनुसार मृतक के दाह-संस्कार पर जो सही रिवाज भी थे , अपने फायदे के लिए इन पंडतों ने उन रीतियों की भी ऐसे-तैसी कर डाली ! जीते जी तो वृद्ध इंसान इनको फूटी आँख नहीं भाते और मरने के बाद यह सब दुनियादारी ! सुरेन्द्र मौदगिल जी की कविता की कुछ लाइने याद आ रही है;
ReplyDeleteखुद को सबका बाप बताया.......अपना परचम आप उठाया,
जीते जी तो बाथरूम में रखा बंद पिताजी को,
अर्थी पर बाजा बजवाया...........।
कर्मकांड करने वाले पंडित भी इसी समाज के अंग हैं , और आपको क्या लगता है ये कर्मकांड क्या शाश्वत रूप से चले आ रहे हैं| मेरे ख़याल से हर वक़्त , परिस्थिति में इनमे बदलाव आता रहता है| अगर गरीब लोग इसका खर्चा नहीं उठा पाते होंगे, तो सहृदय पंडित ने जरूर कर्मकांड में इसका उपाय भी सोचा होगा, और उस वक़्त थोडा बदल के भी कर दिया होगा| हाँ , लेकिन जिस तरह से पंडितों और साहूकारों को हमारे साहित्य , सिनेमा ने चित्रित किया है, उससे उनके निर्मोही, दुष्ट , कुटिल , और पैसा खाऊ होने के प्रमाण ही मिलते हैं|
ReplyDeleteनाना ने आजीवन पंडिताई की है| उनके कोई सुपुत्र अब इस पेशे को नहीं अपनाना चाहते| नाना ने तीनों पुत्रों, दो पुत्रियों की देख-रेख, शिक्षा-दीक्षा, शादी-ब्याह तक इसी व्यवसाय से पूरी की| लेकिन कभी किसी गरीब की हाय लेते मैंने उन्हें नहीं देखा| हाँ, बड़े लोगों से , हम और आप जैसे जो ब्लॉग्गिंग में इस पर विचार करते हैं, उन्होंने खूब पैसे ऐंठे हैं| किसी से कह दिया की ५ किलो चावल , २ किलो घी, ५ किलो आटा .. ये सब लगेगा, किसी के घर पे कह दिया बस भोग लगा दो भगवान को, मन में श्रद्धा होनी चाहिए| कई ऐसे लोग आज भी हैं , जो अब भी घर पे एकादशी वगैरह के दिन खाना भेजते रहते हैं| जो लोग नहीं भेजते, उनके वृद्ध पिता या दादा जिद करके भिजवाते हैं| अन्धविश्वासी हैं शायद, पर उनका ये अन्धविश्वास मुझे अपने अंध-अविश्वास से कहीं ज्यादा पूज्य लगा|
इंसान बुरा है तो मीनारों में भी बुरा रहेगा, अच्छा है तो सड़क पे गिर के भी सजदा करता है|
मन में विचार उठते हैं कि क्या 'डॉक्टर' मानव शरीर के बारे में 'सब कुछ' जानते हैं? यदि हाँ, तो कुछ बिमारियों में हाथ क्यूं ऊपर कर देते हैं,और अस्पताल क्यूँ भरे हैं? और हम जानते हैं कि उनमें से बहुत 'झोला छाप' ही होते हैं - किन्तु जीसस जैसे नहीं जो हाथ छू कर ही ठीक कर देते थे!,,, ऐसे ही 'पंडित', ख़ास तौर पर जो अन्त्येस्ठी क्रिया से जुड़े होते हैं, उनसे ही हम क्यूँ चाहते हैं कि वो आत्मा-परमात्मा, इस संसार और 'स्वर्ग', के बारे में सब कुछ जानें? यदि हम सोचते हैं कि हम ठगे जा रहे हैं तो क्यूँ न हम स्वयं सत्य की खोज करते हैं? (जैसे हमारे पूर्वजों ने प्रतीत होता है किया)...
ReplyDeleteबहस एक गलत दिशा में जाती प्रतीत होती है....रीती रिवाजों के नाम पर दुकानदारी करने वालो की बात नही है,बात हिन्दू धर्म में आस्था की है....जो बड़े बड़े दुष्ट थे उनको भी मुक्ति सम्पूर्ण किर्या कर्म से ही मिली..आज कामरेड हिन्दू धर्म को नही मानते पर उनके नाम देखिये ..और उनको भी अंत में जलाया ही जाता है क्यों?हमारे विचार चाहे कोई हो ..अंत में धर्म अनुसार तो करना ही पड़ेहमारी मौत के बाद ये सब ना किया जाएगा,यही सत्य है ...आज इसको ढकोसला मानने वाले कितने लोग है जो ये कहेंगे कि ये सब ना किया जाये...सत्य हमेशा सत्य ही रहेगा.....
ReplyDeleteआप सब ने खुल कर अपने विचार रखे । विचारों में काफी भिन्नता नज़र आ रही है । ज़ाहिर है , सबकी सोच अलग अलग होती है ।
ReplyDeleteलेकिन ऐसा लगता है , किसी ने सही कहा है --मानो तो मैं गंगा मां हूँ , न मानो तो बहता पानी ।
यदि आपको आस्था है तो पालन करिए । यदि आस्था नहीं है तो इनको निभाना बेमानी सा लगता है ।
बेशक रीति रिवाज़ें हमारे पूर्वजों ने सोच समझ कर ही बनाई थी । उसमे सभी तरह के पहलुओं का ध्यान रखा गया होगा । लेकिन वर्तमान परिवेश में उनका तर्कसंगत होना संदेहात्मक लगता है ।
नीरज बसलियाल की टिप्पणी में तो सब कुछ साफ हो गया ।
रिवाजों के नाम पर दुकानदारी करने वालो की बात नही है,बात हिन्दू धर्म में आस्था की है...
ReplyDeleteयहाँ काफी विचार मंथन हो चुका है ..कहने को कुछ भी नहीं बचा ...बस आस्था से किया गया काम ही मन को शांति दे सकता है ...बहुत से रीति रिवाज़ अच्छे के लिए बनाये गए होंगे लेकिन वक्त के साथ उनमें भी दिखावे की भावना आ गयी है ...श्रद्धा के सामने तर्क नहीं ठहरता और तर्क के सामने श्रद्धा ....
ReplyDeletekal padhi thi aapki ye post lekin comment box nahi dikh raha tha. bahut acchha vishay uthaya hai aapne...sach me bahut se riti-rivaz dikhava maatr ho gaye hai...jinka badal dena hi anivaary hai.
ReplyDeleteदराल सर
ReplyDeleteदो बाते तो तय हैं कि हमारे कर्मकांड के पीछ कि क्या धारणा थी वो ठीक से कोई नहीं जानता अब। हर अच्छे काम को धर्म से जोड़कर हमारे पूर्वजों ने कुछ अच्छा किया तो कुछ नुकसान भी।
दूसरी बात ये कि कर्मकांडों की आड़ में गरीब का जीना मुश्किल और उसका मरना उसके परिवाल वालो के लिए भी। इंसान कुछ भी कर आज गरीब होना एक बड़ा अभिशाप है।
जरुरी है कि अब चिंतन करने वाले लोगएकुट होकर अपने प्राचीन नियमों पर पड़ी धूल को हटाने का प्रयास करें ताकि बादल छंट सकें और सूर्य का प्रकाश हम तक पहुंच सके।
रोहित जी , मुझे तो लगता है कि हमारी रीति रिवाजों में संशोधन की ज़रुरत है ।
ReplyDeleteजैसे दाह संस्कार के लिए ४-५ क्विंटल लकड़ी जलाना । कब तक बचा पाएंगे अपने पर्यावरण को ।
वैकल्पिक साधनों की अत्यंत आवश्यकता है ।
वैसे भी जीते जी जो सेवा की जा सकती है , वह मरने के बाद कैसे संभव है ।
आदरणीय दराल जी ,
ReplyDeleteआपने कुछ प्रश्न उठाये हैं .....कुछ विकृतियों की ओर इशारा किया है जो नहीं होना चाहिए .....
* मृत्यु पर दहाड़े मार कर रोना । फिर थोड़ी देर बाद बैठकर गपियाना और ठहाके लगाना ।
असमय मौत हो तो ऐसा लाज़मी है ......पर जो अपनी उम्र भोग कर जा रहे हैं वहाँ ऐसा नहीं होना चाहिए .....
* बरसी से पहले न कोई जश्न , न पार्टी या शादी में जाना ।
और पार्टी शादी के लिए बरसी तीन महीने में ही कर ली जाती है .....लोगों को भोजन से मतलब है .....कोई तब ये नहीं कहता तीन महीने में बरसी कैसे हो सकती है ......
* तेरह दिन तक शोक मनाना ।
इसका शायद कोई कारन रहा हो .....जब बच्चा पैदा होता है तो स्त्री १३ दिन रज- सवाला रहती है ....शायद १३ दिन का कुछ खास महत्त्व हो .....
* जिसके घर में शादी हो , उसका मृत्यु पर न जाना --न तो दाह संस्कार पर , न शोक प्रकट करने और न ही क्रिया पर ।
ये विरोध के लायक है .....आपके घर शादी है इसलिए आप किसी का दुःख बांटने नहीं जायेगे .....गलत बात है .....
* बड़े बेटे के बाल कटवाना , उस पर तरह तरह की पाबंधियाँ लगाना ।
ये भी गलत है .....ऐसा नहीं होना चाहिए ....सिखों में तो नहीं काटे जाते ......
* रिश्तेदारों का राशन लेकर आना ।
ये परम्परा सिर्फ दुःख बँटाने के लिए शुरू हुई होगी .....समधी की तरफ से एक वक़्त का भोजन जिसे रिवाज़ में बदल दिया गया .....परिवार वाले इसे रोक सकते हैं .....
* पंडितों द्वारा बताई गई विभिन्न रस्मों को निभाना ।
हमारे यहाँ तो पंडित नहीं बुलाये जाते तो विस्तार से नहीं पता ....पर मृतक के नाम से बिस्तर , कपडे , कम्बल ,जूते हर चीज दान में दी जाती है .....चाहे मरने वाले को जीते जी बढिया कम्बल नसीब हुआ हो या न हुआ हो ....
इसके अलावा भी हिन्दुओं में और कई रिवाज़ बना रखे हैं .....१३ दिन नीचे चटाई पर बैठना ....भोजन में सिर्फ फलाहार लेना .....बेटे सिर्फ धोती गमछा pahan कर rahein .... मृतक की पत्नी का नीचे चटाई पर sona ....
यहाँ तो कुछ sikh pariwaron में dekha ab कई prthaon को toda गया है .....न manne yogy baton का विरोध तो होना चाहिए .....
डॉक्टर साहिब, ऐसा माना जाता है कि जो ब्रह्माण्ड में है वो ही पिंड में भी है,,,और मानव जीवन में हम देखते हैं कि अंतरिक्ष यान जब किसी गंतव्य की ओर छोड़ा जाता है तो उसे पृथ्वी से मोनिटर करते हैं,,, और समय-समय पर, सही रॉकेट आदि छोड़, सही दिशा की ओर ले जाने का प्रयास किया जाता है...इसी प्रकार, यदि हम यह मानें कि दिवंगत आत्मा को किसी अपेक्षित स्थान, उसके गंतव्य तक, पहुँचाना है, जैसे 'स्वर्ग', तो शायद इस कार्य में उसके निकट सम्बन्धी से कुछ कर्मकांड, मन्त्रादि, अपेक्षित माना गया हो... क्यूंकि मान्यता है कि शब्द ऊर्जा से ही साकार ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई , मंत्र आदि द्वारा मार्ग सही किये जाने का प्रावधान सही अथवा सहायक पाया गया हो... काल के प्रभाव से किन्तु 'सही' और 'गलत' क्या है इस का किसी को पता नहीं है और 'अनजाने के भय' से कोई बोलता नहीं है...
ReplyDeleteसमय अनुसार बहुत सी रीतियों में परिवर्तन आते रहते हैं ... इन रीतियों में भी आयेगा ... हर किसी का अनुभव अलग होता है .. रीती को मानने का , निभाने का तर्क भी हर किसी का अपना ही होता है .... .
ReplyDeleteयथा संभव निभाना चाहिए।
ReplyDeleteसही कहा हरकीरत जी । कई प्रथाओं को तोड़ने की ज़रुरत है ।
ReplyDeleteबस पहल करने की हिम्मत चाहिए ।
हम तो शुरुआत कर भी चुके हैं ।
प्रथाएँ निश्चित रूप से बदलाव माँग रही है..यह सब प्रथाएँ उस समय बनी थी जब ज़्यादातर लोग कम पढ़े लिखे होते थे और आँख-मूंद कर विद्वानों पर भरोसा करते थे..विद्वान-पंडित उन्हे चाहे जिस दिशा में ले जाय उन्हे इस बात की परवाह नही होती थी...अधिकतर लोग अंधविश्वासी भी होते थे...अब लोग शिक्षित और जागरूक है इस युग में ऐसे आडंबरों से बचने की ज़रूरत है..जितना मन करे बस उतना ही माने..बाकी मानने की ज़रूरत नही..बदलाव ज़रूरी है..
ReplyDeleteहैरानी की बात यह है कि हममें से अधिकतर के भीतर,इन आडंबरों के प्रति विद्रोह का भाव तो है,मगर अपनी बारी आने पर हम स्वयं उन्हीं आडंबरों का पालन कर रहे होते हैं। मज़ेदार बात यह है कि व्यस्त ज़िंदगी और समयाभाव आदि की दुहाई देने वाले महानगरीय लोगों में भी यह प्रवृत्ति कमोबेश विद्यमान है।
ReplyDeleteआपने यह यक्ष प्रश्न क्यों छेड़ा है समझ सकता हूँ ..जब मेरे पिता जी का देहावसान हुआ था तभी से मैं भी इनसे जूझ रहा हूँ
ReplyDeleteजवाब देना दुष्कर है ....फिर भी ....
राम ने सीता का परित्याग क्यों किया ?
..कृष्ण को अर्जुन को क्या क्या और क्यों समझाना पड़ा .गीता ज्ञान ....
कुछ परम्पराएँ हैं जिन्हें बिना ज्यादा सोच विचार के पालन कर लेने में ही भलाई है ,
हर देश काल की कुछ व्यवस्थायें/नीतियाँ होती आयी हैं -
कहब लोकमत वेदमत नृपनय निगम निचोर ....कभी वशिष्ट ने भरत से दुःख के ऐसे क्षणों में ही कहा था ..
मतलब लोक मान्यताएं/विचार ,वेदों में दी गयी व्यवस्थाएं ,राजा का आदेश सभी को देखते हुए मनुष्य को अपने निर्णयों को मूर्त करना चाहिए ...
स्वर्गीय पिता जी के कर्मकांडों को इसी दृष्टि से लें ! कुछ लोकाचार आपको मानने होंगे ज्यादा तर्क इस समय ठीक नहीं है !
डा. साहिब, शायद इस से पता चलता है कि क्यूँ गीता में उपदेश दिया गया है कि व्यक्ति हर समय स्थितप्रज्ञ रहे, दुःख-सुख, गर्मी-सर्दी आदि द्वैत अनुभूतियों में एक सा व्यवहार करे ('माया' से पार पाने के लिए, कृष्णलीला का आनंद 'दृष्टा-भाव' से उठा पाने के लिए जैसे एक महंगे 'पी वी आर' सिनेमा हॉल में बैठ हम आम तौर पर कभी-कभी उठाते हैं, पोप कॉर्न खाते और कोक भी पीते!)
ReplyDeleteअरविन्द जी , रस्में तो हमने भी लोकाचार में सभी तरह से निभाईं हैं ।
ReplyDeleteहालाँकि रस्में विभिन्न देश , प्रान्त , धर्म , जाति और समुदायों में विभिन्न होती हैं । यहाँ तक कि गाँव और शहर में भी अलग होती हैं ।
लेकिन समय के साथ साथ बदलाव आना भी लाज़िमी है ।
समय के साथ बदलने में कोई बुराई नज़र नहीं आती ।
इसीलिए सोच विचार के लिए यह पोस्ट लिखी थी ।
दहाडें मार कर रोना। शायद रुदाली फिल्म देखी होगी आपने राजस्थान में तो किराये से रोने वाले बुलायंे जाते है। किसी पार्टी या शादी में जाये तो सामने वाला बुरा मानता है कि हमारे यहां तो शुभ कार्य हो रहा है और ये चले आये। डाक्टर साहब ऐसी ऐसी चीजें मागते है कि क्या कहे कहते है सोने की नाव चाहिये जिससे मृतात्मा वो नदी है न क्या नाम है उसका हां बैतरणी उसे पार करेगा। गाय दान में दो ताकि मृतात्मा उसकी पूंछ पकड कर नदी पार करले ।ध्यान रहे भैस पानी मे लोट जाती है और गाय पार कर लेती हैअब भैया या तो गाय लेलो या नाव लेलो । नहीं दौनों ही लेंगे।क्या करें देना पडता है
ReplyDeleteDR saheb, hamari sikh kom may Guruo ne inni dakiyanusi parampara ka veerodh kiya hai.keval divaangath aatma ki shanti ke liye Akhandpath hota hai.
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