२१ वीं सदी के पहले दशक के नौवें साल के ग्यारहवें महीने का आज २८ वां दिन है। नए मिलेनियम की इस अवधि में मैंने इतने मुकाम हासिल किये, की कभी कभी ख़ुद को ख़ुद से रश्क होने लगता है ।
लेकिन दो नाकामियां ऐसी रही की दस बार कोशिश करने पर भी कामयाबी हासिल नही हुई।
पहली : एक काम जो मैं इस दशक में नही कर पाया, वो है ---सर्दियों की नर्म धूप में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला क्रिकेट मैदान में आरामदायक कुर्सियों पर बैठकर अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैच देखना। इसकी एक वज़ह तो ये है की पोने दो करोड़ की आबादी वाले शहर में कोटला मैदान की कैपेसिटी मात्र ४०,००० है, वो भी अभी कुछ साल से। पहले तो ये सिर्फ़ २०-२५,००० ही होती थी। इसलिए टिकेट कभी मिल ही नही पायी।
दूसरी बात ये की टिकटों के रेट , हमारी जेब में पैसों के वेट से हमेशा ज्यादा ही रहे। जब हम ५० खर्च कर सकते थे, तो टिकेट १०० की होती थी। जब १०० के लायक हुए, तो टिकेट २०० की हो गई। अब तो ये १५००-२००० की हो गई है।
वैसे भी हम दिल्ली वालों को हर शो मुफ्त में मिले पास से ही देखने की आदत है।
लेकिन अब हमारा कोई चाचा, मामा या और रिश्तेदार न तो ऍम पी है, न ही ऍम अल ऐ । बी सी सी आई में भी कोई सम्बन्धी नही। पास मिले तो कैसे।
अब कई मिडियाकर्मी ब्लोगर मित्र बन गए हैं, तो हो सकता है अगले मैच के पास ---! कोई सुन रहा है ?
सो भाई , टी वी के सामने सन्डे के दिन कार्पेट पर गर्म रजाई में लेटकर ही मैच देखकर संतुष्टि कर लेते हैं।
वैसे क्रिकेट का शौक तो बचपन से ही रहा ---लेकिन खाली देखने का। खेलना तो कभी आया ही नही। कभी बैट पकड़ने का मौका मिला भी तो कभी बैट का बॉल से संपर्क ही नही हो पाया।
जिंदगी में एक बार तो छक्का मारने का बड़ा दिल करता है।
दूसरी नाकामी रही : प्रगति मैदान में हर साल लगने वाले अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेले में जाना।
इसकी एक वज़ह तो ये है की भई हमें भीड़ भाड़ से वैसे ही डर लगता है, जैसे लारा दत्ता को पानी से लगता था। अब लारा दत्ता का डर तो फ़िल्म ब्ल्यू की शूटिंग करके ख़त्म हो गया। लेकिन दिल्ली में बढती भीड़ से अपना डर तो बढ़ता ही जा रहा है।
ऊपर से मेले के टाइमिंग्स ऐसे की बिना छुट्टी किए आप जा ही नही सकते। हमने भी जब अपने बॉस से छुट्टी मांगी ---वैसे तो हम ख़ुद ही बॉस हैं, लेकिन कहते है न की हर शेर का सवा शेर भी होता है, तो भई , बॉस तो अपना भी है---हमने अति आवश्यक कार्य के लिए आकस्मिक अवकास की अर्जी दी तो बॉस ने पूछाकी ऐसा क्या ज़रूरी काम है। और जब हमने बताया की मेला देखने जाना है, तो वो ऐसे ठहाका लगाकर हँसे जैसे मैंने लाफ्टर चेलेंज का सबसे बढ़िया जोक सुना दिया हो।
खैर अनुमति नही मिली और हम उदास, मूंह लटकाए हुए, मन में ऐसा सूनापन लिए हुए घर लौटे, जैसा प्रगति मैदान का ये मेन गेट १४ नवम्बर से पहले दीखता था।
मेन गेट, प्रगति मैदान --- १४ नवम्बर से पहले ।
आते आते हमें करीब ३५-४० साल पुराना ये हरियाणवी गीत याद आ गया----जिसमे पत्नी अपने पति से मेले जाने की इज़ाज़त मांग रही है, और पति उसे मना कर रहा है।
पत्नी ---
पीया मैं जान्गी मेले में ,
पीया मैं जान्गी मेले में ,
मने करने सें चारों धाम,
बीत गी उमर तमाम,
ओ पीया, जाण दे-------।
पति ---
गोरी तू मत जा मेले में,
गोरी तू मत जा मेले में,
उड़े जां सें मूरख लोग,
फ़ैल ज्या रोग,
रै गोरी, रहान दे ----।
ये हरयाणवी गीत जो एक दयुएत के रूप में था, आकाशवाणी पर ग्रामीण भाइयों के लिए , कार्यक्रम में अक्सर सुनाया जाता था। मुझे याद है, ये प्रोग्राम ६-२० पर शाम को आता था और हर गुरुवार को फरमाइश पर गीत सुनाये जाते थे।
फर्क सिर्फ़ इतना था की यहाँ हम मेले जाने की जिद कर रहे थे और पत्नी मना कर रही थी।
लेकिन हम भी धुन के पक्के निकले। शायद किसी जन्म में महाराणा प्रताप के वंशज रहे होंगे।
और एक जुगाड़ निकाल ही लिया , मेले में घुसने का।
मेले का मेन गेट, अन्दर से।
इसका पूरा विवरण , अगली पोस्ट में ।
आज सबको ईद मुबारक।
Saturday, November 28, 2009
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पास का जुगाड़ तो हुआ ही समझिये... :) खुशदीप ने तो सुना ही होगा..हा हा!!
ReplyDeleteईद मुबारक इस बेहतरीन पोस्ट के साथ.
डाक्टर साब कालेज के जमाने मे तो हम पहले ही हिसाब लगा लिए करते कि कुण सै गेट पै म्हारे गांम के हवलदार या थाणेदार की ड्युटी लाग रही सै, नो टैंशन सारे जुगाड़ पक्के थे-इब की तो कोणी बता सकते।
ReplyDeleteहा-हा, आपने हलके फुल्के में ही बहुत सी गहरी बाते कह दी ! वैसे एक बात क्रिकेट प्रिमियों के दिल को दुखाने वाली यहाँ कहना चाहूंगा कि ये जो क्रिकेट की सस्थाए हमारे देश में है खासकर बी सी सी आई , इन पर लगाम लगाने की जरुरत है ! ये लोगो की भावनाओं से खिल्व्वाद करते हुए उन्हें बुरी तरह लूट रहे है ! इन्हें किसने कहा कि ये क्रिकेटरों को इतनी मोटी रकम अदा करे लोगो को लूटकर कि २४-२५ साल का बच्चा जिसे कल तक एक साइकिल नसीब नही होती थी, आज अरबो में खेल रहा है सिर्फ इसलिए कि लोग क्रिकेट पसंद करते है और इनसे मोटी रकम टिकट के रूप में ऐंठकर इन्हें तो अमीर बना दिया लेकिन देश के अन्य खेलो को निगल गए ये लोग और संस्थाए !
ReplyDeleteापने भी गज़ब कर दिया आज कल मेले मे? डाक्टर लोग तो सब को सलाह दे रहे हैं कि स्वाईन फ्लू के चलते किसी भीड भाड वाली जगह न जायें अब पता चला कि कोयं ताकि रश न हो और डाक्टरों को टिकेट मिल जायें वाह क्या स्कीम लगायी शुभकामनायें गीत भी अच्छा है
ReplyDeleteडा. साहब चौके छ्क्के तो आप अपने कलम/की बोर्ड से लगा ही रहे हैं
ReplyDeleteसुन्दर लेख , बढ़िया प्रस्तुति
दराल सर,
ReplyDeleteपता नहीं कानों को क्या हो गया है...आप जो कह रहे हैं ठीक से सुनाई नहीं दे रहा...
आप लारा दत्त को बुलाइए तो सही...आंख मूंद कर शार्क से भरे समन्दर में भी न गोता लगा दिया तो फिर
कहिएगा...
ताई को मेले जाने को ताऊ इसलिए मना कर रहा है क्योंकि उसने पहले ही वहां किसी आइटम के साथ टाइम
सैट किया हुआ है...( मैं तुझसे मिलने आई मंदिर जाने के बहाने)
जय हिंद....
चलिए एक इच्छा पूरी तो हुई .. रपट का इंतजार रहेगा .. मिडियाकर्मी ब्लोगर मित्रों में से कोई सुन रहा हो .. तो हो सकता है अगले मैच में दूसरी भी पूरी हो जाए .. मेरी शुभकामना साथ है !!
ReplyDeleteडा. दराल जी ~ हरयाणवी कविता इस फ्लू युग में सही उतरती है :)
ReplyDeleteक्रिकेट के मामले में मैं आपसे अधिक भाग्यवान समझ रहा हूँ खुद को, क्यूंकि मैंने दिल्ली को जब से होश आया देखा है, पिताजी के मेरे जन्मस्थान शिमले से स्थानान्तरण के कारण ...और वो भी संभव हुआ द्वितीय महायुद्ध के आरंभ हो जाने के कारण अंग्रेजी सरकार के निर्णय से तब तक 'ग्रीष्म कालीन राजधानी' को मुख्यतया सैलानियों के लिए रख अपने कार्यालयों की संख्या वहां कम करने से...
आज़ादी के तुरंत बाद भी कुछ वर्ष दिल्ली एक छोटा सा शहर था और जाड़ों की धूप का आनंद लेते फिरोजशाह कोटला के मैदान में हम बच्चों ने आरंभिक काल में मैच सीमा रेखा के विभिन्न कोनों से घूम-घूम के देखे...किन्तु कहावत है कि हर सुखद चीज़ का अंत शीघ्र हो जाता है, ऐसे ही आज मेट्रो में सफ़र करने वाले, जो आरंभ में स्वर्गिक आनंद उठा रहे लगते थे आज भीड़ के कारण पहले की भांति वैसा ही महसूस कर रहे जैसा वो डीटीसी/ 'ब्लू लाइन' की भीड़ भरी बस में किया करते हैं/ थे :) इसी मेट्रो के कारण हम प्रगति मैदान पहुँच तो गए थे किन्तु सर्पाकार लाइन में भीतर तो घुस गए किन्तु वो ही स्टाल देख पाए जहां भीड़ नहीं थी और एक असम की चाय का पाकेट और कश्मीर के शहद की एक बोतल ले कर आगये क्यूंकि किसी ने ईमेल से कहा कि सिनेमन के साथ शहद दवाई का काम करता है और बहुत बिमारियों में लाभदायक है :)
आपके मेले जाने की जुगत ने टीस उठा दी काश मै भी जुगत कर पाता तो मै भी मेले मे जा सकता.
ReplyDeleteचित्रों के साथ-साथ पोस्ट भी बढ़िया है!
ReplyDeleteसही कह रहें हैं आप अब महंगाई बहुत बढ़ गई है..... और कोई सोर्स -सिफारिश भी नहीं चलती.... बहुत अच्छी लगी आपकी यह पोस्ट..
ReplyDeleteसमीर जी, बात तो आप की सही है, लेकिन क्या करें , खुशदीप पकड़ में ही नही आ रहा है।
ReplyDeleteललित जी, आपकी बात पढ़कर मज़ा आ गया। दिल्ली वाले और हरियाणवी , जुगाड़ के सहारे ही जीते हैं।
गोदियाल जी, आप की बात सोलह आने सही है। जितना पैसा क्रिकेटर्स को मिलता है, उसका १० % भी बाकी गेम्स के खिलाड़ियों को नही मिलता। इसीलिए हम बाकी गेम्स में छोटे छोटे देशों से भी पीछे हैं।
निर्मला जी, इसी को तो जुगाड़ कहते हैं। हा हा हा !
ReplyDeleteखुशदीप भाई, मैं भी सोच रहा हूँ की तैरना सीख ही लिया जाए। अच्छा ये बताओ की ये हरियाणवी गीत सुना की नही। मुझे तो इसके दो अंतरे याद आ गए हैं।
अजय कुमार जी, अब तो कलम / की बोर्ड का ही सहारा है। शुक्रिया।
संगीता जी, आपकी शुभकामना और खुशदीप भाई जैसे मिडियाकर्मी दोस्तों के सहारे ही हम ये आस लगाये बैठे है।
ReplyDeleteवैसे शायद एक मैच श्रीलंका के साथ होने वाला है।
कोई सुन रहा है , भाई।
ई फोटुवा खींचने का शौक कभी जेल के रस्ता न दिखा दे. ताई जी, ठीके मना कर रही है.
ReplyDeleteइंतिजार है अगली पोस्ट का.
आज सबको ईद मुबारक।
जे सी साहब , आप तो सचमुच भाग्यशाली रहे , जो मैच भी देख लेते थे और अब मेला भी देख आए।
ReplyDeleteहम तो बचपन में सफदरजंग एयरपोर्ट के बाहर खड़े होकर ग्लाइदर्स को तार के सहारे हवा में उठता , और कोटला मैदान के बाहर गेट पर खड़े होकर खिलाड़ियों को बस में बैठते देखकर ही खुश हो जाते थे।
वर्मा जी, आप तो घर बैठे ही सैर कर लीजियेगा , कल हमारे साथ।
शाष्त्री जी और महफूज़ भाई, आभार। आज हम भी आपके साथ ईद की छुट्टी का लुत्फ़ उठा रहे हैं।
का सुलभ भइया, बहुत ही संभल के खींचते हैं ,भाई।
ReplyDeleteवैसे आज तक तो प्राइज़ ही मिला है।
डा. साहिब ~ कहते हैं कि शब्द झरने से निकलते जल सामान कभी-कभी निकलने लग पड़ते हैं! और मैंने देखा कि अभी मेरी टिप्पणी पढने रहती है तो मैं और भी लिख डालूँ :)
ReplyDeleteहम कॉलेज के विद्यार्थी और 'पक्के दोस्त' पचास के दशक में प्रगति मैदान के मेलों में टाइम पास के लिए लगभग हर शाम पहुँच जाते थे, सीपी के स्थान में, और आराम से हर स्टाल से पम्फलेट यानि कूड़ा बटोर लाते थे :) एक समय हमने होवर-क्राफ्ट भी देखा जो जमीन से ६ इंच उपर हवा के दबाव से चलता था - ज़मीन ही नहीं पानी की सतह के उपर भी चल सकता था...उन्ही दिनों एक साल मुझे इन्फ़्लुएन्ज़ा हो गया था (एशियन फ्लू) और हर साल हो जाता था, कई साल तक, जैसे अपना जन्मदिन की ख़ुशी व्यक्त कर रहा हो :)
और जहां तक क्रिकेट का प्रश्न है, भूल गया था कहना कि हमने पागलों कि तरह खेला यह खेल, बाद में अपने कार्यालय के लिए भी - अपने मोहल्ले में कुछ एक वर्ष तक तो मैच भी कराये थे...बाद में ही बोध हुआ कि यह खेल हमारी तारा मंडल (galaxy) का मॉडल है, जबकि आदमी
ब्रह्माण्ड का मॉडल है :)
पुनश्च - यह टिप्पणी जितनी देर में लिखी तो मुड़ कर देखा कि आपने पहली पढ़ ली है - इसलिए लिख ही ली है तो फिर प्रस्तुत कर रहा हूँ - क्षमा प्रार्थी हूँ...
जी, अच्छी यादें ताज़ा हो आई. बचपन मे हम भी ऐसा ही करते थे.
ReplyDeletevery interesting.......
ReplyDeleteDR SAAHAB CHAKKA TO AAPNE MAAR HI DIYA .... ITNI MAJEDAAR POST DAALI HAI .... MAZAA AA GAYA PADH LAR ... KAMAAL KI SHAILI HAI AAPKI ... AUR YE HARIYAANVI GEET BHI JORDAAR HAI ..... BAAKI AAP TO DILLI VAALE HAIN JUGAAD KAR HI LENGE .....
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत तरीके से याद किया है आपने इन बिम्बों को ।
ReplyDeleteअपने साथ भी हमेशा से यही दुविधा रही कि हमारा कोई चाचा, मामा या और रिश्तेदार न तो ऍम पी है, न ही ऍम अल ऐ । बी सी सी आई में भी कोई सम्बन्धी नही। पास मिले तो कैसे? :-(
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