कभी कभी आदमी सोचता कुछ और है, और हो कुछ और जाता है। हम निकलते हैं कहीं के लिए , और नियति हमें ले कहीं और जाती है। कुछ ऐसा ही हुआ आज हमारे साथ। जाना कहीं और था, लेकिन जाने कौन सी अद्रश्य शक्ति हमें खींच ले गई, इंडिया गेट की ओर ।
वहां जाकर पता चला की २६/११ के अवसर पर जन आन्दोलन की तैय्यारियाँ चल रही थी, आतंकवाद के ख़िलाफ़ ।
एक तरफ़ लगी थी ये पेंटिंग ---
अलग अलग हाथ , कई रंगों में , कई साइजों में , सभी एक ही संदेश देते हुए की--- हम साथ हैं।
एक दीप , सभी शहीदों के नाम के । देशवासियों को ललकारते हुए, की आगे आइये , आतंकवाद के ख़िलाफ़ इस जंग में अपना योगदान दीजिये।
एक दूसरे बोर्ड पर, अपना समर्थन देते हुए --हम भी पीछे नही रहे।
दूसरी तरफ़ ये पेंटिंग ,---- पंछियों की परवाज़ें,---- शान्ति का संदेश देती हुई।
लेकिन जिस पेंटिंग ने हमें अचम्भे में डाल दिया, उसे आप भी देखिये।
इस मॉडर्न आर्ट की पेंटिंग को देखकर हमें कुछ समझ नही आया। वहां खड़े सिक्योरिटी गार्ड से पूछा, तो उसने एक युवती को बुलाया। हमने उससे पूछा --इस पेंटिंग में क्या दर्शाया गया है ? हमारा सवाल सुनकर वो ऐसे कन्फ्यूज़ हुई जैसे हमने बड़ा मुश्किल सवाल पूछ लिया हो। उसने अपने साथी से परामर्श किया और आकर बताया की ये अभी अधूरी है।
वो तो ठीक है, पर इसमे आप दिखाना क्या चाहते हैं?
वो फ़िर अपने साथी के पास गई और आकर बोली --- जी ये जो लाल रंग है, ये खून- खराबा पर्दर्शित कर रहा है.
और ये जो मेडिटेशन की मुद्रा में आकृति दिख रही है, इसका क्या मतलब है?
जी ये तो वही बता सकती हैं, जिसने बनाई है।
इतने में आर्टिस्ट भी आ गई। उनसे भी वही सवाल किया हमने।
पता नही उन्हें हमारा सवाल समझ नही आया या एक दिन पहले बताना नही चाहती थी, सो कई सवाल मन में लिए ही हम वापस आ गए।
क्या खून खराबे से बचने के लिए मेडिटेशन करना चाहिए ?
क्या आतंकवाद का हल --- मेडिटेशन है ?
या ऐसे माहौल में शान्ति बनाये रखना ज़रूरी है? शायद !
लेकिन आतंकवाद को रोकने के लिए क्या करना चाहिए ?
क्या हमारी पुलिस पूरी तरह लैश है , --- आतंकवादियों से लड़ने के लिए ?
यही कुछ सवाल हैं, जो जहन में उठ रहे हैं।
आज २६/११ है । क्यों न आप भी आज इंडिया गेट जाएँ और एक दीप देश की सुरक्षा के लिए आप भी जलाएं।
और हाँ, इस पेंटिंग का राज़ भी बताएं, पता लगा कर , की ये क्या पर्दर्शित कर रही है ।
जय हिंद।
Wednesday, November 25, 2009
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... atyant prabhaavashaalee abhivyakti !!!!
ReplyDeleteहर पल बस यही ख्याल है...देश सुरक्षित रहे हमारा...
ReplyDeleteआभार इस पोस्ट का.
डा० साहब, शायद पेंटिंग के माध्यम से कलाकार यह कहना चाहता हो की खून खराबा होता रहे, दुश्मन खून की होली खेलते रहे और आप शांत ध्यानमग्न बैठे रहिये :)
ReplyDeleteलेकिन मेरा यह मानना है कि आज के इस युग में इससे कुछ भी हल नहीं निकलने वाला !
चूँकि आप दिल्ली में रहते है इसलिए आपसे निवेदन करूंगा कि शांतिप्रिय और अशंतिप्रिय होने का क्या फर्क और फायदा है एक दिन थोड़ा सा वक्त निकाल कालिंदी कुच्न्ज से सरिताविहार आते वक्त बीच में जो एक मुस्लिम वस्ति है और वहाँ पर सड़क पर जो ओवर ब्रिज बना है एक घंटा उसका मुयावना करना, आप पायेंगे कि उस ओवर ब्रिज से एक भी शख्स सड़क पार नहीं करता ! लेकिन बन्ने को वह ब्रिज करीब पांच साल पहले बन गया था, और आज जब भी कभी उस सड़क पर कोई दुर्घटना हो जाती है तो फिर देखिये सारी कारे और बसे तोड़ दी जाती है, आग लगा दी जाती है जबकि गलती सड़क पार करने वाले की है कि ओवर ब्रिज होते हुए भी बीच सड़क से पार कर रहा था ! फिर आप नोइडा मोड़ पर जाना पेट्रोल पम्प के पास खड़े होकर देखना किस तरह बहरे ट्राफिक में स्कूली बच्चे और माँए जान हथेली पर रखकर सड़क पार कर रही होती है, लेकिन आज तक एक ओवर ब्रिज नहीं बना ! जबकि वहाँ पर भी रोज दुर्घटनाए होती है मगर चिउनकी वे शान्ति प्रिय लोग है सोचते है कि किसी का नुकशान करके देश का ही नुकशान करने जैसी बात है ! इसलिए वे एक ओवर ब्रिज के लिए तरस रहे है !
यह है हमारा देश !
दराल सर,
ReplyDeleteहमारी सरकार आतंकवाद के मामले में पूरी दार्शनिक है...उसका सिद्धांत सीधा है अगर आपके सामने अचानक शेर आ जाता है तो आप क्या करेंगे...आपने क्या करना है...करना तो जो कुछ है वो बस शेर को ही है...आप तो बस ऊपर वाले के भरोसे बैठे रहिए...किस्मत अच्छी तो बच जाएंगे नहीं तो देश की आबादी घटाने में कुछ तो मदद करेंगे हीं...
जय हिंद...
बिल्कुल सही कहा आपने , हम जबतक एकजूट नहीं होंगे हमें इस भयानक चेहरे से छुटकारा नहीं मिलेगा ।
ReplyDeletebahut achchi lagi yeh post.......
ReplyDeleteshaheedon ko naman va shraddha suman....
शायद मौन रहकर, विजय की प्रतीक्षा में हैं..
ReplyDeleteखैर हम तो यही कहेंगे - क्षमादान अब त्यागो
सुलभ
डा. दराल जी ~ धन्यवाद्! घर बैठे ही फिर से इंडिया गेट के दर्शन कराने के लिए - जैसे शायद संजय ने द्वापर युग में लाचार धृतराष्ट्र को कराया था और कृष्ण के अमृत वचन और उनकी लीला का बखान किया था :)
ReplyDelete२६/११ को मैं संयोगवश मुंबई में ही था...और जैसा स्वभाविक है, हम सभी 'आम आदमी' कुछ हद तक पहले अपना ही सोचते हैं, उस दिन भी मैंने - लड़की और दामाद के साथ - टीवी पर मौत का 'लाइव' शो देखा, चैन की सांस भी ली और भगवान् को धन्यवाद भी दिया क्यूंकि मेरी छोटी लड़की, अपने माटुंगा स्तिथ कार्यालय से, CST से गोली बारी होने से पहले ही निकल आई थी...
हरी अनंत, हरी कथा अनंता...कह गए प्राचीन ज्ञानी लोग जो जीवन का सार खोजने के बाद सत्यम शिवम् सुंदरम कह गए... और शिव को अधिकतर लम्बी समाधि में आदतन जाते दिखाया जाता है - किन्तु समाधि भंग होने पर वो भस्मासुर राक्षश तो क्या काम देव को भी नहीं छोड़ते :)...
एक ही दृश्य देख कर हर व्यक्ति के मन में अलग-अलग विचारों का उठना संत तुलसीदास जी इन शब्दों में समझा गए, "जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत तिन देखी तैसी." इस कारण शायद कलाकार कुछ और ही कहे, जहां तक मेरा प्रश्न है मेरे मस्तिष्क रुपी कंप्यूटर में गीता के दो श्लोक आ रहे हैं: यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवती भारत ! अभ्युत्थानंधर्मस्य तदात्मानम सृजाम्यहम !!७!! परित्राणाय साधुनाम विनाशाय च दुस्कृताम ! धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे !!८!!
और क्यूंकि योगिराज कृष्ण, योगेश्वर विष्णु/ शिव के ('0'), आठवें ('१०८' में दर्शाए '८') अवतार माने जाते हैं, उपरोक्त श्लोक वर्तमान में सही उतरता लगता है...इस प्रकार साधना में लीन आकृति कृष्ण/ शिव किसी की भी समझी जा सकती है...
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ReplyDeleteगोदियाल साहब, आपने बिल्कुल सही फ़रमाया है।
ReplyDeleteओवरब्रिज की तरह जगह जगह सब्वेज भी बने हैं, लेकिन पब्लिक सब्वेज को छोड़कर , रेलिंग को तोड़कर, कूद, फांदकर सड़क पार करने में ज्यादा फक्र महसूस करती है।
दूसरी बात की पब्लिक भी ऐसी है की मौका देखती है की कब ज़रा सा अक्सिडेंट हो और हंगामा कर पैसे ऐंठ लें।
ये प्रोब्लम लक्ष्मी नगर पुश्ता रोड, डी डी यु रोड जैसी जगहों पर बहुत होती थी, लेकिन अब ये जगहें साफ़ हो गई हैं।
खुशदीप भाई, पेंटिंग के बारे में भी तो प्रकाश डालिए।
जे सी साहब, आपकी धार्मिक प्रवर्ती के हम कायल हैं, शुक्रिया। बचाने वाला तो वो ऊपर वाला ही होता है।
बहुत सामयिक और सटीक पोस्ट, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
हम लोग भी ऐसे हैं कि दिन खत्म तो चिंता खत्म
ReplyDeleteमार्डर्न चीज़ों को हम तो यूँ ही नहीं समझ पाते ये तो पेंटिंग है जिनका कई बार तो सिर पैर ही नहीं होता। आलेख बिलकुल सही समसामयिक है शुभकामनायें शहीदों को शत शत नमन जय हिब्द
ReplyDeleteजय हिंद...
ReplyDeleteमैं बस मौन रहन ही पसंद करूंगी
जय हिंद...मैं बस मौन रहन ही पसंद करूंगी
ReplyDeleteDaral ji,
ReplyDeletekulhadi pedon ko nahin kaat sakti gar kulhadi mein pada danda saath chhod de to.dande ko sochna hoga ki hum kis ko kat va rahe hain aur kiska saath de rahe hain.Dande ko jaagna hoga. post achhi lagi. Dil se badhai!!
डा. साहिब, धन्यवाद्! शायद निरंकारी सिख के सामान (?) मैंने भगवान को बचपन से निराकार माना...मुझे मंदिर जाना अच्छा नहीं लगता था - उसका मुख्य कारण था भीड़ :) बिरला मंदिर में मैं, कृष्ण जन्माष्टमी के दिन भीड़ के बीच - लगभग हवा में उड़ते जैसे - सीड़ियों पर चढ़ा, या चढ़ाया गया था...मेरे बाल-सुलभ मन ने, जब तक मेरे पैर फिर से धरती को छू न लिए, यह मान लिया था कि मैं मर चुका हूँ क्यूंकि अन्धकार था और मेरे पैर जमीन को नहीं छू रहे थे :)
ReplyDeleteइस घटना में छुपे रहस्य को मैंने बुद्धि के परिपक्व होने पर ही समझा जब मैंने 'ब्लैक होल' के बारे में पढ़ा कि कैसे एक 'भारी' तारा 'मर कर' शून्य में एक शक्तिशाली छिद्र सामान हो जाता है जिसमें तारे जाते तो दीखते हैं किन्तु उनका प्रकाश भी बाहर नहीं आता :)...
उस पर मेरे पिताजी माँ काली के भक्त बन गए थे शिमला में उनके तथाकथित साक्षात् दर्शन करने के बाद...और हमें भी दिल्ली में कॉन्वेंट ऑफ़ जीसस एंड मेरी स्कूल के निकट एक मंदिर में ले जाया करते थे, वहाँ मुझे पहले दिन से ही माँ का स्वरुप देख भय लग गया, और उस पर वहां के पुजारी की आंख लाल रहती थी, गांजे का सुट्टा लगाने के कारण :) क्यूंकि मंदिर के बाहर से जूते-चप्पल चोरी जाने का खतरा रहता था मैंने बचने के लिए वो जिम्मेवारी ले ली :)...
अभी भी मैं मंदिर गुरुद्वारा आदि तभी जाता हूँ जब कोई मुझे ले जाये, जिनकी उनमें आस्था हो...यही मेरी धार्मिक प्रवर्ती है :)
जे सी साहब, भीड़ भाड़ से तो मुझे भी डर लगता है। अगली पोस्ट इसी बात पर आ रही है।
ReplyDeleteक्या खून खराबे से बचने के लिए मेडिटेशन करना चाहिए ?
ReplyDeleteऐसा तो नहीं लगता की ये तस्वीर कुछ ऐसा दृष्टिपात कर रही हो .....!!
अद्भुत तस्वीर है ...काफी देर से देख रही हूँ ...बड़ी करके भी देख ली ...कोई श्मशानी सी जगह लगती है ...जहां कोई तांत्रिक विनाश की चाहत लिए सिद्धि प्राप्त करना चाहता है ....अब आसमान से खून टपकना तो यही दर्शाता है .....पर तस्वीर सोचने पर मजबूर करती है इसलिए चित्रकार प्रशंसा का हकदार है ......!!
हरकीरत जी, चित्रकार शायद शान्ति का संदेश देना चाहता था। जैसे की खून खराबे के माहौल में शान्ति बनाये रखें।
ReplyDeleteवैसे बात साफ़ करने के लिए अगले दिन वहां कोई नही था और चित्र भी गायब था।
शायद इस पेंटिंग में ये कटाक्ष या व्यंग्य हो कि ये सब खून खराबा देख कर हम अपनी आँखें मूँद कर ध्यानमग्न हो जाएँ और हमें कुछ होश ही ना रहे कि हमारे आस-पास क्या गलत हो रहा है...
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