पिछली पोस्ट में मैंने एक मूर्ती दिखाकर पूछा था की ये मूर्ती किसकी है और कहाँ पर है।
आधे घंटे में ही शरद कोकास जी का ज़वाब आ गया की इसमे समीर लाल जी का नाम है, यानी ये एक हिंट है और मूर्ती अपने देश में तो नही। साथ ही लिखा की चंद सिक्कों के लिए, इस तरह की पोस्चर बदलने वाली मूर्तियाँ यहाँ भी बहुत पायी जाती हैं। अनायास ही कितनी गहरी बात कह गए शरद जी।
ये सच है की हमारे देश में जाने कितनी ही मूर्तियाँ ऐसी हैं, जो न सिर्फ़ पोस्चर बल्कि रंग बदलने में भी माहिर हैं। अफ़सोस तो इस बात का है की हम ख़ुद ही ऐसी प्रतिमूर्तियों की पूजा करते हैं, उनकी जय जयकार करते हैं और उनके गले में फूल मालाएं पहनते हैं।
जाने कितने सिक्कों की भूख है, इन मूर्तियों को !
अरे अरे, हम तो खामख्वाह इमोशनल हुए जा रहे हैं। हमने तो कहा था की अब कुछ दिनों के लिए --नो सीरियस टॉक।
तो चलिए देखते हैं की श्री समीर लाल जी के कन्धों पर जो भार हमने डाल दिया था, उन्होंने कैसे संभाला।
जैसा की अपेक्षित था और हमें विश्वास भी था , समीर भाई तुरंत काम में जुट गए और एक घंटे के अन्दर पता लगा कर बता दिया की ---
ये कोई मूर्ती नही , बल्कि एक जीता जागता आदमी है। जिसका नाम है --Mes Aïeux rock
साथ ही उन्होंने पूरे लिंक भी दे दिए, जहाँ से पता चला।
और ये भी की, ये कनाडा के क्यूबेक शहर में हैं।
आज हमें समझ आया ---क्यों उड़नतश्तरी वाले समीर लाल जी को हिन्दी ब्लोगिंग का बेताज बादशाह माना जाता है।
समीर लाल जी एक बार दिल्ली आयें तो सही, हम उनको ताज भी पहना देंगे।
जी हाँ दोस्तों, ये कोई मूर्ती नही बल्कि क्यूबेक की गलियों में तमाशा दिखाते एक कलाकार का फोटो है।
विशेष बात ये है की इसके सारे कपड़े, जूते, हैट, दस्ताने, चश्मे, सभी गोल्डन रंग के हैं, यहाँ तक की चेहरा भी गोल्डन पुता हुआ है। इसलिए इसे गोल्डन मैन कहा गया।
पैरों के पास राखी है, दान पेटिका।
अब ज़रा सोचिये, यहाँ हिन्दी फ़िल्म पा में अमिताभ बच्चन ने जो बूढ़े बच्चे का रोल किया है, सुना है उसके मेक-उप को लगाने में तीन और उतारने में दो घंटे लगते हैं। तो इस बेचारे को कितनी मेहनत करनी पड़ती होगी।
अब ऐ बी को तो इसके करोड़ों रूपये मिले होंगे, लेकिन ५०-१०० डालर्स के लिए ये बेचारा ---
खैर, ये नज़ारा था बहुत मजेदार। एक या दो डालर डालते ही वो ऐसी एक्टिंग करता था की मज़ा आ जाता था।
दोस्त क्यूबेक शहर पहले एक फ्रेंच शहर था। १३ सितम्बर १७५९ को इसपर इंग्लिश कब्ज़ा हुआ। १४० साल पहले कनाडा आज़ाद हुआ। इसलिए यहाँ आज भी फ्रेंच और ब्रिटिश , दोनों कल्चर एक साथ दिखाई देते हैं।
ये शहर सेंट चार्ल्स और सेंट लौरेंस नाम की नदियों के संगम पर बसा है।
रोयल प्लेस के सौमंडे हाउस की दीवार पर बनी ये पेंटिग १७ ओक्टोबर १९९९ में बनाई गई थी। इससे बड़ी पेंटिंग मैंने आज तक नही देखी।
फ्रेच स्टाइल की एक गली का नज़ारा। पत्थर की दीवारें और पेवमेंट . जुलाई और अगस्त की गर्मियों में यहाँ सैनानियों का जमावड़ा लगा रहता है और तरह तरह के सर्कस, तमाशे और कलाकार अपनी कला का पर्दशन करते नज़र आते हैं।
यह शहर , टोरोंटो से करीब ८०० किलोमीटर की दूरी पर है और ईस्टर्न हाइवे से मोंट्रीयल होते हुए पहुँचा जा सकता है।
लेकिन सबसे माज़ेदार अनुभव रहा, क्यूबेक में बंगला देशी रेस्तरां में बैठकर गरमा गर्म रोटियां खाना, आलू मटर और पनीर के साथ।
सच कहा है की , आलू और अब हिन्दुस्तानी , संसार के हर कोने में मिल जाते हैं।
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very interesting post of u, there are variety in u r writing.....nice
ReplyDeletebahut achchi lagi yeh jaankari......
ReplyDeleteaadarniya sameerji..... ko naman.....
उस्ताद हैं समीर जी
ReplyDeleteहा! हा! हा! डा. दराल जी, यह सच है कि हर आदमी ही एक प्रकार से चलती फिरती 'बहुरूपिया कृष्ण' की मूर्ती ही है - पापी पेट के कारण मजबूर नहीं तो भगवान् :)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर पोस्ट बधाई
ReplyDeleteवाह वाह !
ReplyDeleteडॉ साहेब आनन्द आगया ........
बहुत ही खूबसूरत पोस्ट और रोचक भी.........
देर आयद!
ReplyDeleteदुरुस्त आयद!!
जानकारी भी उम्दा दी है आपने, बधाई स्वीकारें.
ReplyDeleteधन्यवाद डॉ. साहब और समीर भाई को भी बहुत बहुत बधाई । यह पोस्ट पढ़कर याद आया कि चेन्नई मे गोल्डन बीच पर एक व्यक्ति प्राचीन दक्षिण के राजाओं की वेष्भूषा मे इसी तरह बिना हिले डुले मूर्ति की तरह खडा रहता है । और एक व्यक्ति और है जो सिल्वर कलर पोतकर गान्धीजी बनकर ऐसे ही चौराहों पर खड़ा रहता है ..हमारे देश में भी ऐसे कलाकार हैं । हाँलाकि असली नेताओं के आगे कहाँ लगते है बेचारे .. ।
ReplyDeleteदराल सर,
ReplyDeleteऐसे ही कोई मान लिया था समीर जी को मैंने ब्लॉगिंग के अपने पहले दिन से ही गुरुदेव...वैसे उनके दिल्ली आने पर पगड़ी तो मैंने भी पहनानी है...अब डॉक्टर साहब ये मैं और आप टॉस कर लेते हैं... ताज के ऊपर पगड़ी...या पगड़ी के ऊपर ताज...
जय हिंद...
Dr. saab aisa ek photo maine bhi yahan ek aur moorti bane shaksh ka nikala hai jo kafi der tak moorti ki tarah shant khada rahta tha aur jab koi achanak uske paas se nikalta to jor se hello bol ke use dara deta.. bas uski body pe golden ke bajaye silver color tha.. aur mera ek Hyderabadi dost to uske hello ko sun ke 1 fit uchhal gaya tha.. wo seen kabhi nahin bhool sakta jindagi me...
ReplyDeleteaap chahen to wo tasveer bhi aapko send kar doonga
ise to dekh ke jinda aadmi hone ka doubt bhi hota hai lekin use dekh ke pahichaan karna aasan nahin.. :)
Jai Hind...
बहुत सुन्दर पोस्ट
ReplyDeleteडा. दराल जी ~ जैसा मैंने पहले भी कहा था, मुझे, और आपको भी अवश्य मालूम होगा कि मानव मस्तिष्क एक कंप्यूटर ही है, लोहे के कंप्यूटर की तुलना में हाड-मांस का बना....
ReplyDeleteमैं अपने पूर्वजों के मन को पढने का प्रयास कर रहा हूँ...और मैं यहाँ पर कुछ ही शब्दों में कहूँगा कि मैंने जाना कि उन्होंने हड्डी का सार लाल रंग को माना, और आम आदमी के लिए लाल रंग माँ काली ('कृष्ण' यानी काला) की जिव्हा का द्योतक दर्शाया...और इसी प्रकार, हरे रंग को मांस का सार, और कहना नहीं होगा 'हरि' विष्णु या 'हर' यानि शिव का ...पापी पेट को तो 'आधुनिक' डा. भी समझ सकते हैं सफ़ेद रंग क़ी किरणों के 'सार' वाले सूर्य के द्योतक सामान, (जिसके भीतर सब अन्य रंग भी छिपे हुए हैं, और अन्धकार को मिटाने वाला है), क्यूंकि सदियों से इसे 'solar plexus' कहते आये हैं...और मानव शरीर को उन्होंने सौर मंडल के सदस्यों के सार से मिला जुला कर बना एक मॉडल :)
वाकई समीर लाल जी का जवाब नहीं ...मैने 'ताऊ डॉट इन' में भी उनका कमाल देखा है..
ReplyDeleteऔर आपका भी डा० साहब
हमेशा की तरह ग्यानवर्धक जानकारी
धन्यवाद।
Ye badhiya post rahi. Hume bhi khojne me maja aaya. Naam khojna pada magar Quebec me dekha tha yah turant jaan gaye the. Baaki to sab aap logon ka hi sneh hai, jo naam de den. Delhi aane kaa to besabri se intezaar hai. :)
ReplyDeleteयात्रा करानें के लिये धन्यवाद।
ReplyDeleteडा साहब पहली फ़ुर्सत में आपसे मिलना है ..कहिए कब फ़्री हैं...अपने एलियन जी तो हैं ही बाद्शाह ..इसमें क्या शक है
ReplyDeleteस्वागत है समीर भाई। आपका इंतज़ार रहेगा।
ReplyDeleteखुशदीप भाई , ये होनर आपके लिए सुरक्षित रखा है।
दीपक, भेज दो। अच्छा लगेगा।
शरद जी, आभार .
अजय भाई, हम तो कबसे आखें बिछाए बैठे हैं।
ReplyDeleteहर हफ्ते आपका लेख पढ़ते हैं, लक्ष्मी नगर वाले गुप्ता जी के अखबार में।
हमारा पूरा अता पता आपको मिल जाएगा ---डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू डोट कविसंगम डोट कोम में ।
वैसे कभी भी जी टी बी हॉस्पिटल में पधारें या संपर्क करें।
कनाडा यात्रा के लिए धन्यवाद
ReplyDeleteवाकई समीर लाल जी का जवाब नहीं है . मै भी जबलपुर का वाशिंदा होने के नाते उनसे व्यक्तिगत रूप से मिल चुका हूँ .उनके बहुआयामी व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित हूँ .....
ReplyDeleteडा. साहब, बीच बीच में आप जो यात्रा करा देते हैं न.
ReplyDeleteसच कहें बहुत मजा आता है. जब चाहे आपसे मिल सकते हैं G.T.B. में. सिर्फ मरीज थोड़े न जाते हैं अस्पताल में.
वैसे क्या होगा जब डाक्टर(आप) और मरीज(हम) दो हास्यकवि मिलेंगे. हा हा हा...इंतिजार है...
- सुलभ
सुलभ, आप के सात रंगों के बारे मे जानकार अच्छा लगा.
ReplyDeleteहास्य मे दिलचस्पी है तो, एक काम की बात हमसे सीखने के लिए एक बार ज़रूर मिलें.
बहुत ही खूबसूरत और रोचक पोस्ट .......
ReplyDeletewaah sundar majaa aaya!!
ReplyDeleteसीरियस ब्लॉग्गिंग के बाद आपका ये ज़रा हट के वाला अंदाज़ भी पसंद आया...
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